मूर्ख दिवस पर कुछ प्रलाप / जयप्रकाश चौकसे

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मूर्ख दिवस पर कुछ प्रलाप
प्रकाशन तिथि :01 अप्रैल 2016


जाने कहां से, कैसे 1 अप्रैल को मूर्ख दिवस माना गया और इस दिन परिचित लोग एक-दूसरे को मासूम-सा धोखा देकर कहते हैं कि 'अप्रैल फूल बनाया।' सुबोध मुखर्जी तो 'अप्रैल फूल' नामक विश्वजीत, सायरा बानू अभिनीत फिल्म बना चुके हैं, जिसमें शंकर-जयकिशन का संगीत था। अब शायद यह रिवाज लोकप्रिय नहीं रहा। एक्सपायरी डेट केवल दवाओं की नहीं होती वरन समाज के तौर-तरीकों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। मूर्ख दिवस की लोकप्रियता घटने का कारण यह भी हो सकता है कि सत्ता पक्ष हमेशा अवाम को मूर्ख बनाता रहा है। अनेक लोगों को मूर्ख बनना बहुत पसंद भी है। निरंतर शोषित रहने के कारण शोषित होना भला लगने लगता है। अपने कष्ट से आनंदित होने वालों को अंग्रेजी भाषा में मेसोचिस्ट कहते हैं और कष्ट देकर उसका आनंद लेने वालों को सेडिस्ट कहते हैं। प्राय: स्त्री-पुरुष अंतरंगता को इन शब्दों द्वारा परिभाषित किया जाता है। अदूर की एक फिल्म के अंतिम दृश्य में तलवार गुलाम के हाथ में है परंतु वह अपने को कष्ट देने वाले सामंतवादी को मार नहीं पाता, क्योंकि सदियों की गुलामी ने उसके अवचेतन को जकड़ रखा है।

पांचवे दशक की अनेक फिल्मों में मीना कुमारी ने शोषित महिला की भूमिका की है, जिनके दु:खांत के कारण उन्हें ट्रेजेडी क्वीन उसी तरह कहा जाता था जैसे उन दिनों दु:खांत फिल्में करने के कारण दिलीप कुमार को ट्रेजेडी किंग कहते थे। दिलीप कुमार पर तो इन फिल्मों का इतना असर हुआ कि वे बीमार हो गए तथा लंदन जाकर उन्हें मनोचिकित्सक से इलाज करना पड़ा और उसी विशेषज्ञ की सलाह पर उन्होंने हास्य भूमिकाओं वाली 'आज़ाद,' 'कोहिनूर' व 'राम अौर श्याम' में अभिनय किया। इन फिल्मों में उनके विलक्षण अभिनय ने उस दौर के कथित तौर पर हास्य भूमिकाएं अभिनीत करने वाले कलाकारों को उनकी औकात दिखा दी। तंदूरी मुर्गा खाना सामान्य है परंतु दिलीप कुमार ने इस सामान्य-सी क्रिया को कुछ ऐसे मनोरंजक ढंग से अभिनीत किया कि इस तरह का व्यंजन खाते समय उनकी याद बरबस आ जाती है। दिलीप कुमार प्राय: अपनी शूटिंग पर देर से पहुंचते थे और कई दौरे वे रद्‌द भी कर देते थे और इसका कारण मात्र यह था कि उन्हें लगता था कि दृश्य के लिए उनकी तैयारी ठीक से नहीं हो पाई है। इसी कारण उन्होंने अपनी दशकों तक चलने वाली पार्टी में बमुश्किल 60 फिल्मों में अभिनय किया। उनका स्वभाव बहुत कुछ शेक्सपीयर के पात्र हेमलेट की तरह था परंतु उनकी मनपसंद किताब एमिली ब्रांटी की 'द वुदरिंग हाइट्स' थी, जिसका किरदार स्वयं उन्होंने 'दिल दिया, दर्द लिया' नामक फिल्म में किया। इंदौर के निकट मांडू में इसकी शूटिंग लंबे समय तक हुई और अपनी 'गंगा-जमना' के ट्रेन डकैती के दृश्य का एक भाग उन्होंने इंदौर-महू ट्रेन में शूट किया। एलोरा सिनेमा के सामने वाली गली में स्थित एक मोटर गैरेज के मालिक इलियास भाई उनके अंतरंग मित्र होते थे।

कहावत है कि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए ही मूर्ख बना सकते हैं परंतु राजनीति में कुछ लोग अनेक लोगों को लंबे समय तक मूर्ख बनाते हैं। यह काम बड़े योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। जनसभाओं में ताली बजाने के लिए अपने सवैतनिक लोगों को बिठाना भी इसका हिस्सा है। बाबाओं के चमत्कार भी प्रायोजित होते हैं और अनेक 'भक्त' माहवारी वेतन पर काम करते हैं। इन्हीं 'भक्तों' के सहारे भीड़ को प्रभावित किया जाता है। यह कितना त्रासद है कि हम उनके शतरंज के मोहरे मात्र हैं। यह संभव है कि बेजान मोहरे किसी दिन अपने को चलाने वाले हाथ को पकड़ लें या मन की चाल चल दें। ये उनके मन की बात असंभव नहीं है। कितने ही अय्यार मन की बात कहकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। अवाम अौर धरती में यह समानता है कि उनका कष्ट सहने का माद्‌दा विराट है। वे सुशुप्त ज्वालामुखी की तरह हैं। ज्वालामुखी संहार करते हैं परंतु उनका लावा सूखने के बाद बड़ा उर्वरक हो जाता है। सारे संहार की कोख में सृजन मौजूद होता है। अवाम प्राय: मूर्ख होने का अभिनय करता है, क्योंकि वह पैदाइशी तमाशबीन है और खुद को भी तमाशे के रूप में प्रस्तुत करता है। किसी अन्य संदर्भ में टीएस एलियट ने लिखा है, 'इट्स द फूल हू थिंक्स दैट, ही इ टर्निंग द व्हील ऑफ विच ही इज़ ए स्माल टूल।' इसका निकट समानार्थी अनुवाद होगा कि वह व्यक्ति मूर्ख है, जो समझता है कि वह उस चक्र को घुमा रहा है, जिसका वह स्वयं एक अदना पुर्जा है।