मूर्ख बहू / गिजुभाई बधेका / काशीनाथ त्रिवेदी

Gadya Kosh से
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एक था बनिया। एक बार वह व्यापार के लिएपरदेस जाने लगा। जाते-जाते अपनी बहु को बुलाकर उसने कहा, "मैं परदेस जा रहा हूं। तुम अच्छी तरह रहना। बच्चों को भी संभालना। और, मेरी मां को भी अपने बच्चों की तरह ही सम्भाल करना। याद रखना, मां से कोई काम मत करवाना।"

बहू ने कहा, "अच्छी बात है। जैसा आप कह रहे हैं, मैं वैसा ही करुंगी। आप निश्चिंत होकर जाइए।"

बहू ने बात ध्यान में रखी। बनिया तो चला गया। बहू ने दूसरे ही दिन मांजी से कह दिया, "मांजह! आपके बेटे मुझसे कह गए है कि मां को अपने बच्चों की तरह संभालना, और उनको कोई काम मत करने देना। अब आप घर का कोई काम मत कीजिए। आप तो इन बच्चों के साथ खेलिए, खाइए और मौज करिये।"

मांजी गहरे सोच में पड़ गईं, फिर बोलीं, "बहू, ठीक है। अब मैं ऐसा ही करुंगी।"

कुछ दिनों के बाद बहू ने अपनी बेटी के कान छिदवाये। उस समय बहू

को अपने पति की यह बात याद आई कि मां को बच्चों की तरह ही संभालना। इसलिए बहू ने मांजी के कान छिदवाने की बात सोची। उसने मांजी से कहा, "मांजी, चलिए, आपके कान छिदवाने हैं।"

सुनकर मांजी घबरा उठीं। उन्होंने बहू से कहा, "बहू, मुझे अपने कान नहीं छिदवाने हैं। क्या अब अपने इस बुढ़ापे में मैं कान छिदवाऊं?"

बहू बोली, "नहीं, मांजी। यह तो नहीं होगा। कान तो छिदवाने ही होंगे। आपके बेटे मुझसे कह गए हैं कि मैं आपको अपने बच्चों को तरह ही रखूं। मेरे लिए तो दोनों आंखें बराबर हैं। जेसी यह लड़की है वैसी ही आप भी हैं।"


मांजी मन-ही-मन समझ गईं और सुनार के पास बैठकर उन्होंने अपने कान छिदवा लिए। सुनार ने कान छेदे और कान में धागा भी डाला। बहू जिस तरह रोज़-रोज़ लड़की के कान में तेल लगाती थी, उसी तरह मांजी के कान में भी लगाती रही।

कुछ दिन बीते। जब कान ठीक हो गए, तो बहू ने अपनी बेटी के कान में पहनाने के लिए बाली बनवाई। दूसरी बाली मांजी के लिए भी बनवाई। फिर मांजी के पास जाकर बहू ने कहा, "मांजी! आइए, आपको यह बाली पहना दूं।"

मांजी ने कहा, "बहू, मुझको बाली क्यों पहनाती हो? मेरे जैसी बुढ़िया के लिए बाली की क्या जरुरत है? बाली तुम अपनी बेटी को पहनाओं। मुझको नहीं पहननी है।" लेकिन बहू नहीं मानी। जबरदस्ती करके मांजी को बाली पहना दी।

बाद में मांजी बाली पहनकर बच्चों के साथ घूमती, फिरती और खेलती रहीं। होते-होते आखा तीज आ गई। अच्छा दिन देखकर बहू ने अपने बेटे के सिर पर चोटी रखवाई। बहू को तुरन्त मांजी की याद आ गई। मांजी बच्चों के साथ खेल रही थीं। उन्हें वहां से बुलवा लिया और कहा, "मां

जी, आइए। नाई के सामने बैठिए। अपने लड़के की तरह मुझे आपके सिर पर भी चोटी रखवानी है। जब गोविन्द के चोटी रखवाई है, तो आपके क्यों न रखवाऊं? उठिए, जल्दी कीजिए। बाद में गोविन्द को और आपको लपसी खिलानी है।"

मांजी ने बहू को बहुत समझाया, पर बहू टस-से-मस न हुईं आखिर मांजी नाई के सामने बैठीं और उन्होंने अपने सिर पर चोटी रखवाई। बहू ने गोविन्द के और मांजी के सिर पर स्वस्तिक बनाया, दोनों को दूध और शकर से नहलाया और फिर दोनों को लपसी खिलाई।

बाद में बहू रोज मांजी की चोटी में तेल डालती, चोटी गूंथते और सिर पर ओढ़नी डालकर मांजी को बच्चों के साथ खेलने के लिए भेजती। जब खाने का समय होता, तो बहू आवाज़ देकर बुलाती:

कान में बाली, सिर पर चोटी, छोटो में मोटी!

आओ, खाना खाने आ जाओ।

यह सिलसिला रोज़-रोज चलता रहा। होते-होते एक दिन मांजी का बेटा परदेस से वापस आया। घर में आने के बाद बेटे ने बहू से पूछा, "मां कहां हैं? मुझको मां के पैर छूने हैं।"


बहू बोली, "’मांजी तो गली में खेलने गई हैं। अभी आ जायेगी।"

बेटे पूछा, "क्या कहती हो! मां गली में खेलने गई हैं? गली में तो बच्चे खेलते हैं। क्या बूढ़ी मां कहीं खेलने जाती हैं!"

बहू ने कहा, "मैं तो मां को खेलने भेजती हूं। आपने कहा नहीं था कि मां को बच्चों की तरह रखना। मैंने तो लड़की की तरह ही मां के भी कान बिंधवाएं हैं और कानों में बालियां पहनाई हैं। जब लड़के की चोटी रखवाई, तो मैंने मां की भी चोटी रखवा ली थी। जब मैं सबो खेलने भेजती हूं, तो मां को क्यों न भेजू? मुझको सबके साथ एक-सा व्यवहार करना चाहिए


पति समझ गया कि उसकी मूर्ख स्त्री की अकल का दिवाला निकल गया है। बाद में पति के कहने पर बहू ने मां को पुकारा:

कान में बाली, सिर पर चोटी, छोटों में मोटी!

आओ, खाना खाने आ जाओ!

मांजी गली में से खेलती-खेलती आई और अपने बेटे को देखकर उनकी आंखों में आंसू छलछला आए। मां की हालत देखकर बेटा भी दुखी हो उठा। बहू की मूर्खता के लिए बेटे ने मां से माफी मांगी और बहू को बड़ी उल्टी-सीधी सुनाई।