मूल्यपरक प्राथमिक शिक्षा / मनोहर चमोली 'मनु'

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दुनिया में कोई ऐसी किताब नहीं है, जिसे पढ़कर इंसान मानवता और नैतिकता अपनी आदत में शामिल कर ले। यदि ऐसा होता तो ऐसी किताब स्कूलों में लगा दी जाती और बच्चों को मूल्यपरक शिक्षा देने की कसरत चुटकियों में हल हो जाती।

माना जाता है कि दो से नौ वर्ष की आयु के बच्चे अनुकरण से भी बहुत कुछ सीखते हैं। लेकिन हम बड़े अधिकतर अनुकरण का अर्थ उन्हें सीख और सन्देश देने से लगाने लगते हैं। हम बड़ों का सारा ध्यान इन बच्चों को आदेश देने और बात-बेबात पर रोकने-टोकने पर ही लगा रहता है। परिणाम यह होता है कि बच्चे उसी काम को करते हैं जिस काम को करने के लिए उन्हें रोका जाता है। आखिर क्यों?

एक तो हमारे आदेशों में-निर्देशों में सिर्फ नसीहतें होती हैं। नकारात्मकता ज्यादा होती है। हमारा ध्यान संभावित खतरों पर अधिक होता है। वहीं बच्चे चुनौतियों को स्वीकार करने में आनंदित होते हैं। खुद करके सीखने में उन्हें ज्यादा आनंद आता है। लाख मना करने पर भी वे हमारे आदेशों-निर्देशों की अवहेलना करते हैं। यह हम सब जानते हैं। वह हर बार यही सोचते हैं कि आखिर क्यों न मैं इसे अपने अनुभव से खुद देख लूं कि मुझे टोका-रोका क्यों जा रहा है।

दूसरा हमारी हिदायतें बच्चों को खुद से अपनी समझ बढ़ाने का मौका नहीं देती। यह कागजी फूलों में खुशबू सूंघने जैसा है। तो भला बच्चे बनावटी दुनिया में कैसे रहना चाहेंगे। वे खुद देख कर, परख कर, छू कर, सूंघ कर और चख कर ही देखना चाहते हैं। चाहे वह उनके लिए घातक ही क्यों हों।

तीसरा जब बच्चे अनुकरण से सीखते हैं तो फिर उन्हें मूल्यपरक शिक्षा क्यों दी जानी चाहिए? जवाब है कि उन्हें अनुकरण में सब कुछ मिल रहा है, बस मूल्यपरक शिक्षा नहीं मिल रही है। कारण संभवतः ये मूल्य बच्चों को बड़ों के व्यवहार में नहीं मिल रहे हैं।

आपाधापी के इस युग में बुनियादी स्कूलों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। कारण साफ है। अधिकतर स्कूलों में एक-एक कालांश आदेश-निर्देश-संदेश और औपचारिक बनावटी सीखों से शुरू होता है। छुट्टी का घंटा बजने तक यह जारी रहता है।

आइए। कुछ गतिविधियां और प्रयोग करते हैं। इन के माध्यम से हमारे स्कूल रोजमर्रा के काम करते हुए अप्रत्यक्ष ढंग से बच्चों में मूल्यपरक शिक्षा के बीज बो सकते हैं। यह आलेख ऐसे स्कूलों के शिक्षकों से बातचीत करने के उपरांत तैयार किया है जो स्कूल में कुछ अभिनव प्रयोग करते रहते हैं। ऐसे अभिभावकों से बातचीत की गई जो अपने बच्चों में स्कूल को आदर्श मानते हैं। यही कारण है कि ऐसे बच्चों में अन्यों की अपेक्षा मानवीय मूल्य अधिक परिलक्षित होते हैं।

बुनियादी स्कूल के शिक्षकों को सबसे पहले आत्मसात् करना होगा कि बच्चे आईना हैं। आईना में हमें वही दिखता है, जो हम आईना के सामने खड़ा होकर करते हैं। हम कान छू रहे हैं तो आईना भी कान छूता दिखायी देता है। आज भी बच्चे शिक्षकों के आचरण को और उनके हर एक काम को बड़ी सूक्ष्मता से देखते हैं। यह कौन नहीं जानता?

प्राथमिक विद्यालय और मूल्य परक शिक्षा

  • समय के पाबंद विद्यालय के बच्चे स्वतः ही व्यवस्थित दिनचर्या जीने के आदी हो जाते हैं। इन बच्चों में सबसे अधिक प्रभाव अपने शिक्षकों का पड़ता है। बच्चे जानते हैं कि उनके शिक्षक स्कूल लगने की घंटी से पहले और उनसे पहले विद्यालय में हर दिन मौजूद मिलते हैं।
  • विद्यालय आते-जाते हुए बच्चे देखते हैं कि उनके शिक्षक आगंतुकों को और आपस में छोटे-बड़े का लिहाज करते हुए अभिवादन करते हैं। शिष्टाचार निभाते हैं। सम्मान करने का भाव बच्चे स्कूल में शिक्षकों से ही सीखते हैं।
  • विद्यालय में सहयोग की भावना और मेल-जोल भी बच्चे शिक्षकों से सीखते हैं। मध्यांतर में भोजन करते हुए शिक्षकों को बच्चे बड़ी सूक्ष्मता से देखते हैं। मिल-बांट कर खाने की आदत बच्चे स्कूल में सीखते हैं।
  • बच्चे जानते हैं कि उनके विद्यालय के शिक्षक उनके क्षेत्र में होने वाली शादियों और उत्सवों में जाते हैं। सामुदायिकता भी बच्चे आसानी से सीखते हैं।
  • स्कूल में आने वाले उच्चाधिकारियों के सम्मान में शिक्षकों का खड़ा होना बच्चों को प्रभावित करता है। बच्चे महसूस करते हैं कि जरूर ये आवाभागत और स्वागत करना जीवन का हिस्सा है। बड़ों के लिए स्थान से खड़ा होना, उन्हें जलपान के लिए पूछना आदि शिष्टाचार बच्चे सहर्ष आत्मसात् कर लेते हैं।
  • बच्चे जानते हैं कि उनके शिक्षक जनगणना,पशुगणना,चुनाव आदि में गांव-नगर में गहनता से घुलते-मिलते हैं। सरोकारों से जुड़ते हैं। ये सामाजिकता जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। बच्चे स्कूल में रहते यह सब अवलोकन करते रहते हैं।
  • बच्चों का आपस में छिटपुट मनमुटाव को बारिकी से निपटारा बच्चों को बेहद भाता है। परिणाम यह होता है कि ऐसे शिक्षक बच्चों में ज्यादा लोकप्रिय होते हैं, जो बच्चों के मसलों को ध्यान से सुनते हैं। उन्हें निपटाते हैं। यह भी देखा गया है कि बच्चे अपने विवादों में शिक्षकों के हस्तक्षेप और निपटारे से बेहद संतुष्ट होते हैं।
  • शिक्षकों के स्नेह,प्यार और दुलार के साथ-साथ छिटपुट फटकार को बच्चे बड़ी गंभीरता से लेते हैं। अपने सहपाठियों के साथ-साथ वे स्वतः अपना मूल्यांकन भी कर लेते हैं। वे जान लेते हैं कि आखिर शिक्षकों को क्या पसंद है और क्या नापंसद है। वे सतर्क हो जाते हैं और समझ लेते हैं कि क्या बुरा है और क्या अच्छा है।
  • बच्चे हर रोज शिक्षकों के पहनावे का भी गहनता से अवलोकन करते हैं। इतनी गहनता से कि उन्हें पता होता है कि उनके किस शिक्षक के पास कितने जोड़ी कपड़े हैं। वह यह भी जान लेते हैं कि आज जो शर्ट-पैंट या साड़ी शिक्षक-शिक्षिकाएं पहनकर आए हैं वह नई है। इस तरह बच्चे जीवन में गणवेश और सहन-सफाई का नजरियां स्वतः सीख लेते हैं। सिर से लेकर पैर तक अंगों के संचालन और शिक्षकों के स्वभाव-आदत की परख भी बच्चे आसानी से कर लेते हैं।
  • बच्चे अपने कामों में शामिल हो रहे शिक्षकों को अधिक पसंद करते हैं। ऐसे कई अवसर आते हैं जब बच्चे रोजमर्रा से अधिक खुश दिखाई देते हैं। राष्ट्रीय पर्वों में निकाली गई रैलियों,सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनके साथ कांधे से कांधा मिलाने वाले शिक्षकों के साथ वे बेहद आनंदित होते हैं।
  • विद्यालय प्रांगण में वे उन शिक्षकों के साथ घुलना-मिलना अधिक पसंद करते हैं, जो शिक्षक स्कूल की स्वच्छता, रख-रखाव पर उनके साथ शामिल होते हैं। वे उन शिक्षकों को अधिक पसंद करते हैं जो स्कूल में पेड़-पौधों की देखभाल करते हैं। उन्हें बचाये और बनाये रखने की चिंता करते हैं।
  • बच्चे बड़ी आसानी से शिक्षकों की कर्मठता का आकलन कर लेते हैं। बच्चे शिक्षकों की कमजोरियों की पहचान भी कर लेेते हैं। यही कारण है कि उन्हें वह शिक्षक-शिक्षिकाएं अधिक पसंद होती है जिनके कहने और करने में समानता होती है। बच्चे खुद के साथ शिक्षकों की सहभागिता चाहते हैं। वह घुलना-मिलना पसंद करते हैं। जो शिक्षक दूरी बनाये रखते हैं, बच्चे भी उन शिक्षकों से दूरी बनाये रखते हैं।
  • प्राथमिक विद्यालय बच्चों में मूल्य परक शिक्षा दिलाने का सबसे सशक्त स्थल होता है। यही वह उपयुक्त जगह है जहां विविधता से भरे बच्चे अपने-अपने मूल स्वभाव के साथ-साथ सहपाठियों से भी बहुत कुछ सीखते हैं। शिक्षक उनके लिए माता-पिता और घर के सदस्यों से वृहद व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति होता है। स्कूल में बच्चे स्वस्थ आदतों का निर्माण अपने अंदर कर पाते हैं। नये और बाह्य वातावरण के साथ अनुकूलन की क्षमता विकसित कर पाते हैं। जिज्ञासा जागृत करते हैं। सौन्दर्यबोध की भावना, भावनात्मक, संवेदनात्मक,सहभागिता, सामूहिकता की भावना का विकास स्कूल में ही होता है। यह सब शिक्षकों के सक्रिय होने पर ही संभव है।
  • प्राथमिक विद्यालय में ऐसे कई अवसर बच्चों को मिलते हैं, जिनसे बच्चे अन्वेषण करने, प्रयोग करने, प्रोत्साहित होने और चुनौती स्वीकार करने के लिए खुद को विकसित कर लेते हैं। यहां वह मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। शिक्षक उन्हें सुरक्षा और संरक्षण देने वाला संरक्षक दिखायी देता है। दूसरों को सुनना, अपनी बात साझा करना और सहपाठियों से सहानुभूति रखना बच्चे प्राथमिक कक्षाओं में ही महसूस करते हैं।
  • स्कूल में खेल में कई ऐसी गतिविधियां कराई जाती हैं जिनमें बच्चे भागना-दौड़ना और संतुलन बनाना सीखते है। चित्रकारी करना सीखते हैं। पढ़ना और लिखना सीखते हैं। अपनी सोच को विकसित करते हैं।
  • प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक स्कूल की घंटी बजने से लेकर और छुट्टी का घंटा बजने तलक मात्र किताबी पढ़ाई नहीं कराते। विभिन्न गतिविधियांे के माध्यम से और अपने व्यवहार से वे बच्चों में भय, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या पर नियंत्रण करना भी सीखाते हैं। खुशी, आनन्द, प्यार, सहानुभूति, जिज्ञासा, आत्मसम्मान, आत्मनियंत्रण का विकास का केन्द्र ही प्राथमिक विद्यालय है।
  • यह सब किताबी पाठ पढ़ाने से हासिल नहीं करवाया जा सकता है। बल्कि बच्चों को उन्मुक्त स्वतंत्र खेल खेलने देने के लिए स्थान देना जरूरी है। आत्मनियंत्रण के लिए शिक्षकों के निर्देशन में कुछ खेल खिलवाये जा सकते हैं। सृजनात्मक और रचनात्मकता के लिए मिट्टी के खिलौनों से लेकर क्राफ्ट और लेखन कार्य भी पढ़ाई का हिस्सा ही है।
  • संगीत सुनना,गीत गाना,नृत्य करना, अभिनय करना आदि भावनात्मक मूल्यों के लिए आवश्यक है। इन सब में शिक्षकों को स्वयं भागीदारी करनी होती है। तभी ये कारगर सिद्ध हो पाते हैं।

अंत में यह कहा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा मेें मूल्यपरक शिक्षा देने के लिए सैकड़ो गतिविधियां संभव हैं। लेकिन यह हर विद्यालय मंे कार्यरत शिक्षक के स्वभाव और उस विद्यालय में अध्ययनरत बच्चों के शैक्षिक, पारिवारिक, सामाजिक स्तर के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। इन्हें किसी खांचे-सांचे में बिठाना या ढालना ठीक भी नहीं और संभव भी नहीं है।

यदि विद्यालयी परिवार यह मन में बिठा ले कि विद्यालय आने वाले बच्चों को मात्र अक्षर ज्ञान नहीं कराना है बल्कि उसे एक सम्पूर्ण मनुष्य के भीतर आवश्यक मानवीय गुणों से परिपूर्ण समग्र व्यक्तित्व बनाने की दिशा में बढ़ाना है तो संभव है हर शिक्षक हर बच्चे के मानसिक-शारीरिक क्षमता अनुसार कार्ययोजना बनायेगा और उस पर एकाग्र होकर काम भी करेगा।