मूल्यबोधी बिंबों के सर्जक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
जो केवल शिल्प के आधार पर नवगीत को गीत से अलगाते हैं, वे गलती पर हैं। इसमें शिल्प से अधिक भाव का महत्त्व है। नवगीत और जीवन की गहन संवेदना एक दूसरे के पूरक हैं। इसमें यदि कहीं प्रिय के प्रति मुग्धता और मोहकता है तो दूसरी ओर निजी जीवन से लोकोन्मुखी जीवन की ओर तीव्र गति वाला मोड़ भी है। नवगीत के इसी रूप के आराधक रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के यहाँ निजी जीवन की यह मादकता भी है और लोक के प्रति झुकाव भी। इनका निजी जीवन किसी गीत की देह (शिल्प) में नवता और अर्थमयी लयता के साथ छंदोबद्ध है-
यूँ ही तुम लिपटी रहो
सुगंध की तरह।
हर साँस में घुलते रहें
ज्वालामुखी
मधु डाल-सी देह
प्राणों पर झुकी
नवनीत कंधों पर
नज़र हो जब टिकी,
बाहुपाश में बँध जाओ
छन्द की तरह।
साँस-साँस में लोक और निजी जीवन दोनों का समानुपाती प्रेम रचा और बसा है। इनके मन के द्वार बंद भले इनकी ओर होते हों पर खुलते लोक की ओर ही हैं। उसी की राह से आने वाले आलोक से अपने भीतर झाँकने की वृत्ति इन्हें ऐसा नवगीतकार बनाती है और इस तरह जो निजी प्रेम में भी युग सापेक्ष्य मूल्यों के प्रवेश का पक्षधर बन जाता है-
भोर की
भटकी किरन
आ गई
तुमको जगाने
द्वार खोलो,
मत रहो चुप
मुखारविन्द से
दो शब्द बोलो।
नवगीत विधा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ कर देखना और उन सरोकारों को लोक के दिल में समा पाना जितना सहज दिखता है, शैल्पिक संरचना के कारण उतना सहज होता नहीं। प्राय: रचनाकार नवीन बिंब-प्रतीक के सर्जन का कौतुक करते-करते गीत की हत्या कर बैठते हैं; लेकिन नवगीतकार काम्बोज ऐसे बिंबों को रचते समय सावधान रहते हैं, जिससे उन्हें कोई खरोंच तक नहीं आती। प्रमाणार्थ बहुत तीव्रता से रिसने वाली रेत से बनने वाले रिश्ते और मन के पाहुन का रूपक और दृश्य बिंब द्रष्टव्य है-
बिसरा दो
रिश्ते रेतीले
मन के पाहुन को
क्या बहकाना,
तुम गढ़ लो कोई
सभ्य बहाना
पल-दो पल
ऐसे भी जी लें।
इस तरह अर्थहीनता की ओर अग्रसर समाज का हाथ पकड़कर भी समझाते हैं-
अनीति-नीति का
मिट रहा अन्तर
पुष्प बनो या
हो जाओ पत्थर;
अर्थहीन सब
सागर-टीले।
ये ऐसा इसलिए भी करना जरूरी मानते हैं क्योंकि-
यदि मुकर गई
नयनों की भाषा
साथ क्या देगी
पंगु अभिलाषा।
संवेदना के रसायन में ही ऐसा बल है कि रचनाकार रूपी शिव को ' बूँद-बूँद पीड़ा-
को पी।' लेने का साहस देती है।
काम्बोज की गीत धारा आदरणीय माहेश्वर तिवारी की परंपरा से फूटती है। उनके लिए मैंने कभी लिखा था-, "इनके गीतों का आस्वादन बिना पद्मासन में बैठे और अर्थ ग्रहण का हठयोग किए उसकी सिद्धि तक पहुँचना है। इनके गीत छंद-सर्जकों की दिशा दृष्टि के लिए शुक्रतारे का काम करते हैं।" उसी शुक्रतारे की रोशनी में काम्बोज का सर्जन लोक भी आलोकित मिलता है।"
उन्हीं की तरह आधुनिकताबोध की नवताग्रही दृष्टि इनके पास भी मौजूद है; लेकिन उतनी ही जितनी कि आवश्यकता है। उत्तर आधुनिक होते जा रहे समाज में भीतर से अधिक बाहर पर बल दिया जा रहा है। दर्शन से अधिक प्रदर्शन में रुचि है। सर्जना के लिए बरबस बार तक ले जाने वाला यह उत्तर आधुनिक विमर्श इनके यहाँ भी नहीं पहुँचा है। इस तरह इनके गीत अपनी रसमयी सामवेदी परंपरा से रस ग्रहणकर नवता में जीते हैं। सच्चा प्रेम वही है, जिसमें मादकता और उन्मादकता के बजाय प्रेम की पावनता हो। यही मूल्य इनकी प्रेम चेतना में गहरे समाए हैं।
इसीलिए इनके गीतों में प्रयुक्त बिंब मूल्य बोधी बिंब हैं-
पर्वतों की
सहेजकर
लालसाएँ,
रात-दिन
चुपचाप
बहे नदी।
आँसुओं के
दीप रह-रह
काँपते
चाँदनी का
हाथ
गहे नदी।
किसी किनारे का लहर के साथ यही शाश्वत जुड़ाव उसके प्रेम का मेरुदंड है-
लहर को
छूकर किनारा
सोचता-
कि कुछ पल
पास में
रहे नदी।
भेड़ समझकर जनता को मूँड़नेवालों की चाल को भाँप और माप लेने वाली चेतना है। कथ्य से लेकर शिल्प तक यह चेतना मुट्ठी तानकर चुनौती देने वाली चेतना है। कवि हृदय के भीतर भरी दूध-सी धवल धूप की आँच में तपी किसानी चेतना उसे प्रकृति प्रेम के बहाने आँसुओं से सींचे खेत की मेंड़ तक खींच ले ही जाती है, जहाँ अँखुआती फसलों में बिखरी आनन्द राशि केवल उसे ही नहीं अपितु अग-जग को भी मोह लेती है-
आँसू की
धरती से निकलें
मुस्कानों की कोंपल,
अंगारों की
खिलें गोद में
संकल्पों के शतदल।
पलक-कोर पर
धूप-चाँदनी
नित सिंगार करे।
अपने पांवों के छालों से रह-रह कर उठती पीर सहलाती हर डगर और उसे सह रहे 'गलियारों की नम आँखें' मंज़िल को धुँधला कर देती हैं-
लंबी डगर
पाँव में छाले
गलियारों की आँखें नम
जाने कब
सूरज निकलेगा
कब बदलेगा, यह मौसम।
भौतिकता की बढ़ती प्यास की तृप्ति के लिए आगे बढ़ते पाँवों के सामने खड़े यक्ष प्रश्न जीवन के सम्मुख बड़ा संकट बनकर अड़े हुए हैं-
मायावी हैं
सभी सरोवर
कैसे अपनी
प्यास बुझाएँ
प्रश्न यक्ष ने
अनगिन पूछे
ढूँढ कहाँ से
उत्तर लाएँ
प्यास सभी के
हिस्से आई,
कुछ के ज़्यादा, कुछ के कम।
इस बदले समय में प्रेम भी अपनी स्निग्धता और तरलता खो चुका है। प्रेम के अभाव में रिश्ते नीरस हो रहे हैं। व्यक्ति अकेला पड़ रहा है। इससे संघर्ष और भी बड़ा हो गया है, जिसका एक ही समाधान दिखता है कि हम इस संघर्ष को हँसकर झेलें-
समय हुआ
दुष्यन्त हमारा
भूल गया सब
रिश्ते-नाते
विश्वासों पर
चोट पड़ी है
घाव भला
कब तक
सहलाते।
आओ इतना
हँसें दुःखों पर
घबरा जाए हर मातम।
अन्याय के अंधेरे का आकाश से भी अधिक आयतन वाला हो जाना गहरे संकट का द्योतक है। यह संकट सारी दुनिया पर है। इसीलिए गीतकार का मन दुनियादारी से विरक्त हो उठता है-
डूब गया
तम की बाहों में
व्याकुल अम्बर।
चलो चलें
प्रानों के पाहुन
अब अपने घर।
लौटते समय चंचल तटों की नवता का आकर्षण उसे बाँधता जरूर है पर वह अपने लक्ष्य से विरत नहीं होता-
छूकर तट
चंचल लट-सी
लहरें लौट गईं
जल में घुलकर
धुन वंशी की
हो गई नई। "
प्रेमसागर के तट पर खड़े होकर वह रिश्तों की पावन प्रतिमा के विसर्जन को गीली आंखों से देखता है-
रिश्तों की
पावन प्रतिमा को
आज सिराकर।
सिराए गए रिश्तों की पावनता से भरी करुण कथाएँ रह-रहकर उसका हाथ गह रही हैं-
डूबी हैं
गीली बालू में
करुण कथाएँ।
रिश्तों की पावनता को वह बचाए रखना चाहता है। इसमें वह जिस किसी का हाथ चाहता है, उसकी ऊष्मा को भी महसूसना भी चाहता है-
कहीं भूल से
पाँव न इन पर
हम रख जाएँ
हाथ गहो
तब चल पाएँगे
सूने तट पर।
नवगीत के साथ-साथ दोहे और ग़ज़ल ने भी बदले समय के तेवरों को अपनाते हुए हिन्दी को समृद्ध किया है। ये रह-रहकर लौ उगलती मशाल तो रहे पर बीच-बीच में बुझ भी जाते रहे। परंतु नवगीत की कभी आँच भले कम हुई हो, पर वह बुझा कभी नहीं। इसकी इसी ऊष्मामयी चेतना और शैल्पिक सौंदर्य ने इसे नई कविता के समक्ष टिकाए रखा है। इसकी यात्रा और खोज अभी भी जारी है। इस अर्थ में भी नवगीत अपनी संज्ञा को सार्थक कर रहा है। रामेश्वर काम्बोज नवगीत की इसी सारस्वत यात्रा के यशस्वी सारथी हैं।
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