मूल्यों से समझौता करता महत्त्वाकांक्षी मीडिया / सपना मांगलिक
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता "कलम या तलवार" हमें लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया की ताकत का परिचय मिलता है। मगर क्या आज भी हमारे देश के पत्रकारों की कलम उतनी ही आग उगलती है जो आजादी से पूर्व और उसके बाद भी काफी समय तक उगलती थी? नहीं आज इस तलवार की धार फीकी पद चुकी है कलम अब अंगार नहीं स्वार्थ की स्याही से भरे लेख लिखती है। वर्तमान में किसी भी पत्रिका और समाचार पत्र को आप उठाकर देखें उसमे सिर्फ अश्लीलता, अपराध, धोखाधड़ी और विज्ञापन के अलावा कुछ नजर नहीं आएगा। आप कोई भी प्रतिष्ठित अखबार या पत्रिका उठाएं और उसमे विज्ञापन और ख़बरों का अनुपात तोलें, नतीजा आपको खुद पता चल जाएगा। आज हमारे देश में 400 से अधिक न्यूज चैनल और 80,000 के करीब अख़बार पंजीकृत हैं। मगर, अधिकतर न्यूज चैनलों में जो कुछ दिखाया जाता है उसका न्यूज से कोई लेना-देना नहीं होता।
राखी सावंत की फूहड़ अदायें और बातें, नाग-नागिन का नाच, भूत-प्रेत और भविष्यवाणी क्या यह सब न्यूज हैं? छोटी से छोटी घटना को सनसनीखेज बनाकर दिखाना, महंगे महंगे रत्न जो कि भाग्य बदल सकते हैं खुले तौर पर जनता को लूटते हैं, जिसमे सहयोग हमारा मीडिया ही करता है कल तक गली-गली घूम-घूम कर बेतुकी खबर इकठ्ठा करने वाले नौसिखिये अब बड़े बड़े चेनलों के मालिक बन बैठे हैं और हर चेनल या अखबार अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी न किसी राजनैतिक संस्था से जुडा हुआ है और उसका बचाव करता नजर आता है। मीडिया पर अपने दायित्व की अनदेखी कर रहा है, अक्सर अस्पष्ट सूचनाओ के आधार पर मीडिया किसी को भी दोषी मानकर उसके विरुद्ध निंदा अभियान छेड़ देता है और बाद में यदि अपने को ग़लत पाता है तो छोटा-सा माफीनामा छाप देता है। मीडिया की स्वतंत्रता की आड़ में आतंकियो का महिमामंडन करना ग़लत है लेकिन यह गलती बार-बार लगातार मीडिया द्वारा दोहराई जा रही है। इस तरह वर्तमान मीडिया की स्वार्थ और गंदगी की राजनीती को बढ़ावा देने में बहुत बड़ा हाथ है।
आजकल प्रेस क्लबों में खुले तौर पर लेन-देन होता है। कुकुरमुत्तों की भाँती अखबार और पत्रिकाएँ निकलती हैं और विज्ञापन दाताओं को आकर्षित करने के लिए सम्पादक और प्रकाशक मिल कर अपने अखबार की फर्जी प्रसार संख्या बतलाते हैं। चुनाव के दौरान एक पक्षीय खबरों का प्रकाशन किया जाता है। आये दिन रिश्वत और जालसाजी के स्टिंग ऑपरेशन किये जाते हैं। और इन्हें करने वाले पत्रकार उन्हीं धोखेबाजों से मोटी रकम लेकर उन्हें रुकवा भी देते है जिससे वर्तमान में मीडिया की विश्वनीयता में गिरावट आई है। जिन निर्मल बाबाओं का कच्चा चिटठा खोलते हैं, दोपहर के वक्त महिला दर्शकों को भ्रमित करने के लिए मोटी रकम लेकर उन्ही बाबाओ का प्रोग्राम दिखाते हैं।
आजादी के समय हमारे देश में महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रताप नारायण मिश्र, मदन मोहन मालवीय, प्रेमचंद जैसे बड़े-बड़े सम्पादक थे जिनकी पत्र पत्रिकाएँ हमेशा सच उगलती थी और दुनिया का बड़े से बड़ा घोटाले बाज या माफिया इतनी हैसियत नहीं रखता था कि उन्हें या उनकी कलम को खरीद सके, लेकिन आज ऐसा कोई नहीं दीखता या खरा-खरा कहें तो आजकल लोग बिकने के लिए ही पत्रकारिता के पेशे को चुन रहे हैं क्योंकि आत्मा बेचकर शरीर की तृप्ति ही उनका प्रमुख उद्देश्य है। उस ज़माने में अख़बार एडिटर के कब्जे में हुआ करता था, लेकिन आज विज्ञापन या सर्कुलेशन मेनेजर के कब्जे में है। इसलिए जो खबरें प्रकाशित हो रही है या दिखाई जा रही है वह विज्ञापन या प्रबंधन के सोच के हिसाब से होती है। पाठकों का हित कहीं पीछे चला गया है। न्यूज की सार्थकता कम हो गई है, और मसाला बढ़ गया है। न्यूज अगर मनोरंजक है तो प्रकाशित हो जाती है, जबकि सूचना प्रधान खबरों का प्रकाशन कम हो गया है। घटना की सही जानकारी देने के बजाय घंटों तक घुमा फिराकर एक चीज दिखा मीडिया पहले उसे सनसनीखेज बनाता है और अंत में सही और वास्तविक तथ्यों को छिपा दिया जाता है, इससे मीडिया को तो हर ब्रेक के लिए करोड़ों के विज्ञापन मिल जाते हैं और बेचारी जनता का समय न केवल खराब होता है अपितु उसकी हालत खोदा पहाड़ और निकली चुहिया जैसी हो जाती है।
मीडिया की इमेज दिन पर दिन गिरती जा रही है जो कि चिंता का विषय है और यह मीडिया को ही तय करना होगा कि उसकी लोकतंत्र में भूमिका क्या हो और प्राथमिकता क्या हो? नहीं तो मीडिया पर नियंत्रण के समर्थन में जो मुहिम चलाई जा रही है, उस खतरनाक संकेत को भांप लेना चाहिए.सेक्स, फैशन, क्राइम, क्रिकेट आदि पर आधारित ख़बरें पाठकों को या दर्शकों को परोसकर कोई भी मीडिया ज़्यादा दिन नहीं कायम नहीं रह सकता। मीडिया पर लोकतंत्र की पहरेदारी का जिम्मा है, जिससे वह इस गंभीर दायित्व से मुहं नहीं मोड़ सकता। अत: मीडिया को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना बहुत ज़रूरी हैं। जैसे कि - मीडिया को खुद जज बनने की प्रवृत्ति से बचना होगा, क्योंकि लोकतंत्र में न्याय के लिए न्यायपालिका का प्रावधान है न कि खबरपालिका का। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी विकास और सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृतकरने में मीडिया को आगे आना होगा।दलित, महिला एवं ग्रामीण विकास से मुंह फेरने की प्रवुत्ति से मीडिया को बचने की आवश्यकता हैराष्ट्र की एकता व अखंडता तथा मानवाधिकार के मुद्दों को स्थान देना होगा। भारतीय जीवन मूल्य व लोक संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने की भूमिका का भी मीडिया को निर्वहन करना होगा। पर्यावरणीय चेतना जागृत करने और बहुसंख्यक समाज के सरोकारों को तवज्जो देना होगा मीडिया को। समाज के यथार्थ को यथावत प्रस्तुत करना, जो कि मीडिया का मूल धर्म है।विकास के मुद्दों को उभारना और सकारात्मक ख़बरें छापना।आम आदमी की आवाज बनना और सबसे बड़ी भूमिका यह निभानी होगी जिससे भारत का लोकतंत्र मजबूत हो, सबको भागीदारी मिले और मीडिया के धर्म पर कभी सवाल न उठे। परन्तु वर्तमान भारत में मीडिया इसके विपरीत भूमिका में आ चुका है।
मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, जो बिक सकेगा, वही खबर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ खबरें भी इतनी सड़ी हुई है कि उसका वास्तविक खरीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं कि जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित बिकाऊ खबरों को खरीदने (देखने, सुनने, पढ़ने) के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा है। खबरों के उत्पादकों के पास इस बात का भी तर्क है कि यदि उनकी बिकाऊखबरों में दम नहीं होता, तो चैनलों की टी. आर. पी. एवं अखबारों का रीडरशिप कैसे बढ़ता? चटपटी मसालेदार खबरें बनाने के लिए झूठे अफेयर के किस्से गढ़े जाते है। मानवीयता और निजता के परिधान को तार-तार किया जाता है। कभी कुमार विश्वास कभी दिगंबर सिंह कभी शशि थरूर या तिवारी जी की रासलीला सनसनी खेज तरीके से प्रस्तुत की जाती है। आरुशी मर्डर केस में रोज उस मृत नाबालिंग की इज्जत को थ्री डाईमेन्शल तरीके से इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि मृत नाबालिंग की रूह भी जहाँ कहीं भी हो काँप जाए, धर्मवीर भारती, रधुवीर सहाय, एस. पी. सिंह, उदयन शर्मा सरीखे पत्रकारों की पीढ़ी ने अपने खून पसीने से मीडिया को एक आधार दिया था, जो भारतीय पत्रकारिता के स्तंभ बने और अपने तेवर से जाने जाते हैं। जो आज भी पत्रकारिता के छात्रों के लिए आर्दश हैं। मगर वर्तमान पत्रकारिता की वजह से इन दिग्गजों के अथक परिश्रम, साहस और सच्ची छवि निरंतर धूमिल हो रही है। वर्तमान में हमारे देश को लोकहित में काम करने वाली सरोकारी मीडिया की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा है क्योंकि आज विपरीत शक्तियां ज़्यादा काम कर रही हैं।
पत्रकारिता के क्षेत्र में ग्लेमर के आ जाने से ज्ञान और समझ का विस्तृत अनुभव रखने वालों की तुलना में अधकचरा ज्ञान रखने वाले लोग ज़्यादा जुड़े हैं। पत्रकारों को समझना चाहिए कि केवल आक्रामकता या साहस ही इस क्षेत्र में पर्याप्त नहीं है, ज्ञानसंपन्नता भी ज़रूरी है। पत्रकारिता ज्ञान का, जानकारी का, समझ का, और सूझबूझ का धंधा है, यह एक तपस्या है और इस तपस्या को करने के लिए इन चार गुणों का होना बेहद ज़रूरी है, इन में से एक के भी बिना यह पेशा मदारियों का तमाशा बन सकता है। जल्दी से जल्दी और ज़्यादा से ज़्यादा खबर देने की चाहत ने मीडिया की विषलेषणात्मक शक्ति को समाप्त-सा कर दिया है। जो चीज जब जहाँ और जिस रूप में दिखाई दे रही है उसको उसी रूप में तुरन्त पेश कर देने से आज टीवी चेनल्स बेताब नजर आते हैं, वे उन तथ्यों की तरफ गौर नहीं कर रहे कि दिखाई देने वाले तथ्य के पीछे सच्चाई क्या है?
ज़रूरत है कि खबरों का विषलेषण हो, उसकी सत्यता की जांच हो और फिर खबर आम-जन के सामने एक रिपोर्ट की तरह पेश आए, एक फैसले की तरह नहीं, पत्रकारिता के ऐसे विशेष पाठ्यक्रमों की रचना हो जो नई पीढ़ी के पत्रकारों के अंदर पत्रकारिता व लेखन की ओर सार्थक दृष्टि पैदा कर सके, उसके अंदर छिपे समाज सेवा के भाव को जगाया जा सके, पत्रकारिता के मूल्यों-आदर्शों के प्रति उसकी निष्ठा में वृद्धि कर सके, देश-समाज व राष्ट्रीयता के मूल्यों के प्रति उसके अंदर संवेदनशीलता को बढा सके तथा उन्हें मानवीय सरोकारों के प्रति और ज़्यादा सजग व सतर्क रख सके. सत्य, शांति व अहिंसा के मूल्य नई पीढ़ी की प्राथमिकता में ऊपर आयें तथा वह मानवतापूर्ण देशभक्ति के संस्कार से ओत-प्रोत हो। साथ ही पत्रकारिता व लेखन की दुनिया में मूल्यों-आदर्शों व सरोकारों की भूमिका पर बहस को भी नई ऊर्जा प्रदान की जा सके.