मूल्य और मूल्यवान् / जयप्रकाश मानस
वह पुस्तक मेले में घूम रहा था। आँखें नीलकमल प्रकाशन के स्टाल पर रखे नए उपन्यास पर टिकी थीं। हाथ उसे उठाने को बढ़ा ही था कि क़ीमत देखकर ठिठक गया।
"पाँच सौ रुपये!" उसने मन ही मन गुनगुनाया, "इतने में तो घर का महीने भर का नमक-तेल आ जाएगा।"
पास ही खड़े एक युवक ने उसी किताब की दो प्रतियाँ काउंटर पर रखीं। उसकी निगाहें युवक के डिजाइनर कपड़ों और घड़ी पर ठहर गईं।
"सर, क्या आप भी साहित्य में रुचि रखते हैं?" युवक ने उसकी ओर देखकर पूछा।
"हाँ... पर..."
"यह लीजिए।"
युवक ने एक प्रति उसकी ओर बढ़ा दी, "मेरी तरफ़ से तोहफा।"
वह हक्का-बक्का रह गया। किताब के पन्ने पलटते हुए उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं।
"पर... आपने..."
"मैं इस प्रकाशन का मालिक हूँ," युवक मुस्कुराया, "और आज मैंने तय किया है-हर दसवीं प्रति मुफ्त दी जाएगी। उन्हें जिनकी आँखों में पढ़ने की भूख हो।"
वह किताब उसके हाथों में भारी हो रही थी। उस दिन वह समझ गया-किताबों का असली मोल उनकी क़ीमत में नहीं, उनमें छिपे सपनों में होता है।
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