मृगचर्म / रामगोपाल भावुक
विपिन के पिता रामनाथ वर्मा ऑफिस से लौटते समय एक कलेन्डर लेकर आये। विपिन ने चित्र देखने की उत्सुकता में वह उनके हाथ से ले लिया। उसे खोला। देखा-चित्र में व्याघ्र-चर्म पर शंकर जी समाधिस्थ बैठे हैं। उसे याद हो आई बचपनकी जब पिताजी के दैनिक पूजा-पाठ में उपयोग आने वाले व्याघ्र-चर्म बिछाकर वह भी उनकी तरह उस पर पालथी मारकर पूजा करने बैठ गया था।
यह देखकर रामनाथ ने पत्नी विजया से खिलखिलाकर हंसते हुए कहा था-'देखा! हमारा लाङला कैसी समाधी लगाए बैठा है।'
उसे किसीकी नजर न लग जाये इसलिये वह तीन बार थू-थू करके थूकते हुए बोली-'यह व्याघ्र-चर्म पर बैठकर ऐसी साधना करेगा कि भगवान को देह धरकर दर्शन देने आना ही पङेगा।'
उस दिन मॉं की बात सुनकर विपिन ने मन ही मन तय कर लिया था कि उसे व्याघ्र-चर्म मिला कि उसी समय से वह साधना में लग जायेगा।
समय के प्रवाह में बात आई-गई हो गई। घर गृहस्थी के कार्य में विपिन वर्मा सब कुछ सपने की तरह भूल गया। परिस्थितियों ने ऐसे कगार पर लाकर खङा कर दिया, जब सिर छिपाने के लिये कोई छप्पर ही नहीं मिल पा रहा था। ऐसी परिस्थिति में गाँव की सबसे प्राचीन इमारत में जाकर उसने डेरा डाला। पत्नी और बच्चों के साथ छोटे से कमरे में गुजारा शुरू कर दिया। गाँव में उस इमारत के बारे में तरह-तरह की अफवाह फैली हुई थी। लोगों का कहना था कि वह इमारत भूतखाना है। कुछ लोग यहाँ राजा-महाराजाओं की सवारी आने की बात कहते थे। इस सबके बाबजूद उसने हिम्मत नहीं हारी। दुर्भाग्य यह रहा कि इस इमारत में सैकङों छिपकलियाँ अपना डेरा जमाए हुए थीं। उनके बीच बच्चों का रखना बहुत खल रहा था। पत्नी कामना के मस्तिष्क में पंचमहल क्षेत्र की यह कहावत घर कर गईं थी कि साँप का काटा तो बच सकता है लेकिन छिपकली का काटा बच ही नहीं सकता। छिपकलियों के ढेर के ढेर जब सामने आते तो वे इस कहावत को रटी-रटाई कविता की तरह दोहराने लगती। विपिन को लगता-इस समस्या का कोई हल ढूँढ़ना ही पङेगा। उपाय खोजा जाने लगा। एक ही उपाय सूझा कि-इस इमारत को खाली कर दिया जाए! पर गाँव में कोई अन्य जगह न होने से यह संभव नहीं था। दूसरा उपाय इन छिपकलियाँ का ही अंत कर दिया जाए।
डाकू बनने से पहले जैसी मानसिक स्थितियों से गुजरना पङता है वैसी ही स्थितियों से विपिन भी गुजरा। जो रोल लाइन खींचने के काम में आती थी, वही रोल छिपकलियों को मारने में काम आने लगी।
जब भी छिपकलियाँ दिखती पत्नी चेहरे पर सोच की लकीरें लिये उसे बुला लेती। वह उस समय खूंख्वार डाकू की तरह उनको मौत के घाट उतार देता। कुछ ही दिनों में वे छिपकलियाँ उसे पहचानने लगी थीं। वे उसे देखते ही इधर-उधर भागना प्रारंभ कर देतीं। धीरे-धीरे उनमें दहशत फैल गयी और उन्होंने कमरे के अन्दर आना बंद कर दिया।
ग्रीष्म अवकाश समाप्त हो रहे थे। विपिन का स्थांनातरण भवभूति नगर में हो गया। उन्हीं दिनों बहन रात सोते से उठी। उसका पैर साँप पर पड़ गया। उसे उसने डँस लिया, उसे बचाया नहीं जा सका। इस घटना ने वन्य प्राणियों के बारे में उसे तरह-तरह से सोचने के लिये विवश कर दिया और सोच-विचार के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा यह प्राणी तब तक आक्रमण नहीं करते, जब तक उन्हें सताया न जाये।
बात उन दिनों की है, जब विपिन की बिटिया सुनन्दा कक्षा आठ की छात्रा थी। पत्नी कामना तीजा का व्रत करती थी। दिन निकल गया, रात्रि जागरण के लिये वह मंदिर जाने के लिये पूजा की थाली सजाने लगी। सुनन्दा बिटिया से बोली-'तुलसी पत्र तोड़ ला।'
सुनन्दा छत पर रखे गमले में से तुलसी पत्र तोडने चली गई। वह ऊपर से लौटी तो बुरी तरह घबराई हुई थी। उसे छिपकली ने काट लिया था। कामना को वह कहावत याद हो आयी कि साँप का काटा तो बच सकता है लेकिन छिपकली का काटा नहीं बच सकता। ... प्रश्न उठा, बच्ची को कैसे बचाया जाये। विपिन ने हाथ को कसकर बाँध दिया। काटे गये स्थान पर ब्लेड से चीरा लगाकर, मसक-मसक कर उसमें से खून निकाल दिया। कुएँ में डाली जाने वाली लाल दवा उसमें लगा दी। नगर के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. माथुर को बुलाया गया। उन्होंने कहा-'छिपकली के काटने से जहर का असर नहीं होता। उसकी तो चमङी में जहर होता है। वह यदि उबल कर पीने में आ जाये तो मरीज को बचाया नहीं जा सकता।'
कुछ ही देर में बिटिया पूर्ण स्वस्थ हो गयी। अब विपिन को मारी गई छिपकलियाँ याद आने लगीं। कामना भी शायद यही सोच रही थी, बोली-'कहीं कोई छिपकली बदला लेने तो नहीं चली आयी।'
विपिन ने ठहाका मारकर हँसते हुए कहा-'हाँ! पच्चीस किलोमीटर पैदल चलकर हमें तलाशते हुए यहाँ आ गई होंगी।'
उसकी भद्दी हँसी को देखकर कामना सहम गई। सकुचाते हुए बोली-'यह बात नहीं है।'
विपिन ने झट से पूछा-'फिर कैसे यह सब सोचती हो?'
कामना ने बड़े आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया-'क्या पता, पुनर्जन्म लेकर बदला लेने चली आयी हों।'
विपिन ने झट से उत्तर दिया-'मुझे ऐसी गपोड़ संखी बातें पसंद नहीं हैं।'
कामना उसकी बात सुनकर चुप रह गई थी। ... किन्तु विपिन को वे मारी गई छिपकलियाँ याद आने लगीं। उसका मन पश्चाताप की आग में धू-धू करके जलने लगा। क्यों उन निरीह प्राणियों की हत्या की गई जो हमारे पर्यावरण को सुरक्षित करने में लगे है। हम हैं कि बिना सोचे समझे थोड़े से लोभ मेें उनकी हत्या कर देते हैं। वन्य प्राणी भी तभी आक्रमण करता है जब उस पर हमला किया जाय। बहन को साँप ने तब ही काटा, जब उसका पैर उस पर पड़ गया था। क्या कहें? अब तो किसी प्राणी को कोई सताता है तो वह उससे लड़ने को खङा हो जाता है?
एक दिन की बात है-विद्यालय से लौटते हुए, विपिन वर्मा अपने मित्र संजय शर्मा के यहाँ मिलने चला गया। उसे देखकर वे खुश होते हुए बोले-'मैं आपको ही याद कर रहा था।'
विपिन वर्मा ने अपनी उत्सुकता उँड़ेलते हुए प्रश्न किया-'कहिये, ऐसी क्या बात है।'
वे बोले-'मुझे एक महात्माजी एक चीज दे गये हैं। उसे दिखाना चाहता था।'
विपिन ने सोचा-निश्चय ही कोई अनोखी चीज होगी। अपनी उत्सुकता व्यक्त करते हुए कहा-'फिर दिखाइये ऐसी क्या चीज है?'
यह सुनकर वे अन्दर कमरे में चले गये। विपिन उनके आने की राह देखने लगा। वह सोच रहा था, महात्मा जी इन्हें ऐसा क्या दे गये हैं?
संजय शर्मा व्याघ्र-चर्म लिये हुए लौटे। वे आनंदित होते हुये उसे उलट पलट कर दिखाते हुए बोले-'इस पर की जाने वाली साधना शीघ्र फलदाई होती है।'
विपिन शर्मा को लग रहा था-किसी शिकारी ने व्याघ्र का शिकार किया होगा। उसने इस चर्म से पुण्य कमाने के लोभ में इसे साधू महाराज को दान दे दिया होगा। महात्मा जी संजय शर्मा पर दयालु हो गये तो उन्होंने इन्हें दे दिया।
विपिन ने एक खूंख्खार डाकू की तरह, पर्यावरण के आंगन में आत्म-समर्पण करते हुए यह निर्णय सुनाया-'किसी व्याघ्र-चर्म या मृगचर्म पर बैठ कर ही साधना फलीभूत होती है तो मुझे ऐसी साधना नहीं करनी।'
यह सुनकर संजय शर्मा झुंझलाहट के साथ व्यंग्य में बोला-'आप जो शू पहने हैं वे शायद कपङे के हैं।'
विपिन ने दूरदर्शन पर विज्ञापन देखकर हाल ही चमङे के 1999 रूपये में नये शू पहने थे। वह समझ गया-मैंने साधना के लिए तो चर्म के इस आसन का बहिष्कार कर दिया। ... किन्तु इसके अतिरिक्त चर्म से निर्मित प्रत्येक वस्तु का इस्तेमाल कर रहा हूँ!
संजय समझ गया-विपिन के पास मेरी इस बात की कोई काट नहीं है। प्रश्न सुनकर विपिन उलझ गया कि इस स्थिति में वह क्या करे? तत्क्षण निर्णय लेना था। उसने छूट रहे आत्मविश्वास को समेटा और निर्णय सुनाया-'आज से मैं इन जूतों का परित्याग करता हँू।' यह कहकर उसने वे जूते उतारे और जाकर कचरे के ढेर में ढाल दिये।
संजय शर्मा उसके इस निर्णय से हक्का-वक्का-सा रह गया।