मृत्युदण्ड / शशि पाधा

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उस दिन तीन प्राणी दोपहरी का पूरा आनन्द ले रहे थे।

हरे-भरे पेड़ की हरी-भरी शाख पर एक नन्ही-सी चिड़िया झूल-झूलकर मीठे गीत गुनगुना रही थी। मस्ती में साथ में वह शाख भी झूम रही थी । दोनों का यह हर रोज़ का खेल था ।

हल्की सी सर्दी होने लगी तो धूप ने किरणों का गर्म-नर्म दुशाला दोनों को ओढ़ा दिया और खुद एक ऊँची शाख पर लेटकर सुस्ताने लगी । चिड़िया की आँख लगी देख शाख ने झूला देना रोक लिया । सोचा ,“ मैं भी थोड़ा सुस्ता लूँ, आज तो इतनी मीठी-मीठी धूप है।”

अचानक सड़क पर दो गाड़ियाँ आकर रुक गईं। कुछ लोग उतरे और आपस में बातचीत करने लगे। उनमें से एक व्यक्ति पेड़ की ओर हाथ से इशारा करके दूसरों को कुछ समझा रहा था। बाकी लोग सर हिला रहे थे। पेड़ सब देख रहा था, समझ रहा था । कुछ ऐसा ही दृश्य कुछ महीने पहले कुछ दूरी पर ही हुआ था और उस रात उस जगह से तीन पेड़ गायब हो गए थे । अब उस जगह पर कोई फैक्ट्री लग गई है ।

यह पेड़ खुद तो उस फैक्ट्री के काले दमघोटू धुएँ से परेशान है, उसे उसकी टहनियों में बने घोंसले में पलते चिड़िया के नन्हे बच्चों की भी चिंता लगी रहती है कि कहीं इस प्रदूषण से नन्हें बच्चों के फेफड़े न खराब हो जाएँ। इसलिए वह पेड़ अब तक सदा हरा -भरा रहने का भरसक प्रयत्न करता रहा है। धूप ने भी उसका पूरा साथ दिया था; लेकिन आज —-

यह सोच कर वह काँप गया । उसके कंपन से शाख, चिड़िया और धूप अपनी मीठी नींद से जाग गए ।

पेड़ ने बड़े गंभीर स्वर में चिड़िया और धूप से कहा, “आप अपने लिए कोई और बसेरा ढूँढ लो। कहीं दूर,बहुत दूर चले जाओ जहाँ यह स्वार्थी और निर्मम मानव जाति नहीं पहुँच सके। आज मुझे इस धरती को प्रदूषण से बचाने के दोष में मृत्यु दंड मिला है ।”

अचानक तेज धार का हथियार चल पड़ा।

थर-थर काँपती हुई हरी-भरी उस शाख को प्यार से निहारते हुए उसके मुँह से बस यही निकला,“मुझे क्षमा करना मेरी बच्ची। मैं तुझे बचा नहीं सका।”

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