मृत्युबोध / सुकेश साहनी

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तेज बुखार के कारण बेहोशी की-सी हालत में बूढ़ी सुमित्रा को लगा जैसे कमरे की एक-एक आवाज को सिर्फ़ अपने कान से नहीं पूरी देह से सुन रही हैं-

"बड़े भइया की अकल पर तो पत्थर पड़ गए हैं!" छुटकेे की चिड़चिड़ाती आवाज, "आखिर इतनी जल्दी हमें तार देने की क्या ज़रूरत थी? फिर हमने यहाँ आकर भी क्या कर लिया!"

"माल रोड वाली सड़क का वर्क आर्डर मुझे ही करना था। अब वह काम शर्मा साले ने घसीट लिया होगा। बैठे-बिठाए लाखों का नुकसान हो गया!" मंझले का स्वर।

"मैं तो इनसे पहले ही कह रही थी-दूसरा टेेलीग्राम आ जाने दो, इस उम्र में प्राण इतनी आसानी से थोड़े ही निकलते हैं। पर अपने आगे ये किसी की सुनते थोड़े ही हैं। अब चार दिन से यहाँ बैठकर मक्खियाँ मार रहे हैं।" मंझली बहू की तुनकती आवाज।

"तुम लोग तो चार दिन में ही परेशान हो गए और हमें देखो। जिनके साथ ये रोज का रोना लगा हुआ है..." बड़ी बहू का परेशान स्वर।

उन्हें लगा जैसे किसी ने उन्हें गहरे पानी में डुबो दिया है। डुबकी के कारण कमरे की आवाजें भी बहुत दूर से आती मालूम दे रही हैं। जीवन के विभिन्न अच्छे-बुरे पल उनकी आँखों के सामने से गुजरने लगते हैं-कुछ बिजली की-सी तेेजी से फड़फड़ाते हुए कुछ सिनेस्लाइड की तरह रुक-रुक कर... बचपन के दिन, अपनी शादी, बच्चों का जन्म, उनकी पढ़ाई, शादियाँ, बँटवारा, पति की मृत्यु, अकेेेलापन और अब । क्या बुढ़ापे में बीमारी का एक ही मतलब होता है? अब जरा-सा बुखार होता है तो ये लोग चौकन्ने हो जाते हैं। तेेज बुखार में सोचतेेे हुए उनकी साँस उखड़ जाती है और उनके मुँह सेे चीखती साँस की आवाजें निकलने लगती हैं...

बूढ़ी सुमित्रा का मन वापस कमरे में लौट आता है। कमरे में हड़कम्प मचा हुआ है-

"गईं! ...गईं!" एक स्वर।

"डॉक्टर को बुलाइए... जल्दी!"

"अब डाक्टर क्या करेगा आकर! बड़े भइया को खबर करो..." छुटके का झुंझलाहट भरा स्वर।

' अरे पहले जमीन पर तो लिटाओ! " मंझली बहू का उत्तेजित स्वर।

"अरी, पूजा वाले आले से गंगा जल तो लाना।" बड़ी बहू का आदेश।

अपनी सोच पर काबू पाते ही उनकी साँस सामान्य हो जाती है और वे धीरे-धीरे आँखें खोल देेती हैं। उन्हें आँखें खोेलते देख कमरे में सन्नाटा छा जाता है। उसकी नजर अपने चारों ओर मूर्तिवत खड़ी बहुओं पर फिसलने लगती है। जिन बच्चों को जन्म दिया, पाला पोसा ...उनके मन की बात समझने में उन्हें तनिक भी देर नहीं लगती है। उनकी तबीयत के एकाएक फिर सुधर जाने की वजह से बेटों की घोर निराशा और बहुओं की खीझ उनसे और अधिक नहीं देखी जाती और वे फिर आँखें बन्द कर लेती हैं। दोनों आँखों की कोरों से आँसू ढुलक कर झुर्रियों की गलियों में बहने लगते हैं।

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