मृत्यु का प्रथम परिचय / सुरेश कुमार मिश्रा
बच्चे जब खेल में डूबे रहते हैं तब किसी की नहीं सुनते। न उन्हें भूख की चिंता होती है न घर की याद। सिर पर एक ही धुन सवार रहती है...खेलना...खेलना और खेलना। शायद इसी को बचपन कहते हैं। मेरे घर के पास भी कुछ बच्चे ऐसे ही खेलते रहते हैं। एक दिन की बात है। हरदिन की तरह बच्चे खेल रहे थे। खेलते-खेलते अचानक बच्चों को क्या हुआ पता नहीं। किसी बच्चे ने आवाज़ दी। उसकी आवाज़ सुन सभी उसकी ओर दौड़े। उत्सुकतावश मैं भी पहुँचा। लेकिन मेरा पहुँचना उनके लिए मायने नहीं रखता था। मेरा होना भी न होने के बराबर था। वहाँ एक चिड़िया ज़मीन पर पड़ी छटपटा रही थी। चिलमिलाती धूप में उसका इस तरह से छटपटाना बच्चों से देखा नहीं गया। कोई बच्चा कहता-वह उड़ने की कोशिश कर रही है, चलो उसे हाथों में लेकर उड़ाते हैं। कोई कहता नहीं वह भूख-प्यास से तड़प रही है और कोई कहता उसे छांव में ले जाना चाहिए। जितने मुँह थे उतनी बातें थीं। एक बात जो मुझे सबसे अच्छी लगी, वह थी बच्चों का चिड़िया के प्रति चिंता। इसी चिंता ने उन्हें दया, प्रेम, सहानुभूति का ऐसा पाठ पढ़ाया जिसे पुस्तकें और पाठशाला पढ़ाने में कभी-कभी असमर्थ से लगते हैं।
गेहुँए रंग वाली नन्हीं-सी चिड़िया न जाने कैसे ज़मीन पर गिर पड़ी थी। कमजोरी के कारण गिरी थी या फिर किसी हवा के झोंके ने उसे धड़ाम से पटक दिया था, कहना मुश्किल था। बच्चे तुरंत अपने-अपने तरीके से चिड़िया कि देखभाल करने लगे। किसी ने अपनी दस्ती निकाली तो किसी ने अपने नन्हें हाथों से उसे उठाया। किसी ने उसे बड़ी ही सावधानी के साथ दस्ती में रखा तो किसी ने उसे पेड़ की छाया में ले गया। तुरंत उसके लिए खाने के लिए चावल के दाने और पानी की व्यवस्था कि गयी। वे खिलाने-पिलाने की लाख कोशिश करते लेकिन चिड़िया थी कि खाने-पीने का नाम नहीं ले रही थी। शरीर में किसी प्रकार की हरकत नहीं थी। वह कब की दुनिया छोड़ चुकी थी। भला बच्चों का भोलापन इस कटु सत्य को स्वीकारेगा? कभी नहीं। मैंने उन्हें समझाया कि चिड़िया मर चुकी है। लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी।
इस छोटी-सी अवधि में उन्होंने चिड़िया का नामकरण भी कर दिया था–सोनी! सभी सोनी-सोनी कहकर चिल्लाने लगे। लेकिन सोनी थी कि टस से मस न होती थी। आखिरकार उन्होंने मान लिया कि सोनी मर चुकी है। मृत्यु के इस प्रथम परिचय से बच्चे बड़े दुखी थे। भारी मन से उन्होंने एक छोटा-सा गड्ढा खोदा। उसी में रोते-रोते सोनी को अलविदा कहा। उस दिन बच्चों ने कुछ नहीं खाया। उनके मन में रह-रहकर सोनी की याद आती थी। कभी-कभी लगता है बच्चों में जितनी करुणा, दया, प्रेम, सहानुभूति व ममता होती है उसका एक प्रतिशत भी हम में आ जाए तो इस दुनिया से सभी बुराई मिट सकती है।
सोनी को जहाँ गाड़ा गया था वहीं एक नन्हा-सा पौधा उग आया। दो पत्तियों वाला। बच्चों की ख़ुशी का ठिकाना न था। सभी उस पौधे को निहारते थे। देखभाल करते थे। उसके लिए काँटों का बाड़ा बनाया गया। हर दिन पानी डाला जाता था। आज वह पेड़ बड़ा हो चुका है। अब उस पर अनगिनत सोनी आकर बैठती हैं और हर सोनी मानो एक ही बात कहती हों–मानवता कभी नहीं मरती। केवल अपना रूप बदलती है।