मृत्यु क्या है / अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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जब किसी की बीमारी बढ़ जाती है, और वह समझ लेता है कि अब बचने की आशा नहीं, तो सब ओर से हटकर उसका जी यह सोचने लगता है कि मृत्यु क्या है? मरने के पीछे क्या होगा? इसी देह तक क्या सब कुछ था, या आगे भी कुछ और है? एक दिन अचानक मेरे जी में भी ये बातें उठीं, और सबसे पहले मैं यह सोचने लगा कि मृत्यु क्या है, पर ज्यों यह बात जी में आयी, त्यों गीता के ये बचन याद आये-जैसे जीव के इस देह के लिए लड़कपन, जवानी और बुढ़ापा है, उसी तरह उसके लिए दूसरी देह को पाना (मरना) है, जो लोग धीरज वाले हैं, उनको इससे घबराहट नहीं होती-

यथा देही शरीरेऽस्मिन् , कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तर प्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति।

जैसे पुराने कपड़े को उतार कर मनुष्य दूसरे नये कपड़े को पहनता है उसी तरह से पुरानी देह छोड़कर जीव दूसरी नयी देह में चला जाता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि र्गृीति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संजाति नवानि देही।

गीता के इन वचनों के साथ भागवत की बात भी याद पड़ी, उसमें वासुदेव जी ने कंस को समझाते हुए कहा है कि, जब मनुष्य मर जाता है तो जीव अपनी करनी के मुताबिक बेबसों की तरह दूसरी देह को पाकर अपनी पुरानी देह को छोड़ देता है-

देहे पंचत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवश:।

देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यज्यते वपु : ।

जैसे 'तृण जलौका' चलने के समय जब एक पाँव रख लेता है, तब दूसरा पाँव उठाता है, उसी प्रकार करनी के अनुसार जीव की भी गति है।

ब्रजस्तिष्ठ न्यदैकेन यथैवैकेन गच्छति।

यथा तृण जलौकैवं देही कर्म गतिं गत : ।

इन कई एक पंक्तियों के पढ़ने से यह बात समझ में आ गयी होगी, कि मृत्यु क्या है? जैसा गीता और भागवत ने हमको बतलाया है, उससे पाया जाता है कि मृत्यु और कुछ नहीं एक प्रकार का परिवर्तन है।

डॉक्टर लूइस फ्रान्स के एक बहुत बड़े और प्रसिद्ध विद्वान हैं, उन्होंने फ्रान्सीसी भाषा में मृत्यु के बारे में एक पुस्तक लिखी है। उसका अनुवाद फ्रान्सीसी से अंगरेजी और अंगरेजी से उर्दू में हुआ है। उर्दू किताब का नाम अल्हयात बाद लममात है। उसके चौथे बाब में मौत के बारे में जो कुछ लिखा है, वह यह बात है मौत जिन्दगी की सबसे पिछली मंजिल नहीं है, बल्कि एक तबदीली है, हम मरते नहीं, बल्कि सूरत बदलते हैं। मौत के परदे गिरना किसी बुरी हालत में पहुँचना या सदमा उठाना नहीं है, बल्कि आदमी के भाग्य का जो तमाशागाह है, यह उसका एक बहुत बड़ा असर डालने वाला सीन है। साँस चलने की तकलीफ बरबाद हो जाने या मिट जाने की अवस्था नहीं है, बल्कि एक ऐसी दर्दनाक हालत है, जो कभी नहीं टलती, न नेचर के कानून में हर तब्दीली के साथ मौजूद रहती है। सब लोग मानते हैं कि कीड़े मकोड़ों के सर्द और हिलने डुलने वाले बदामा को अपना बाहिरी लिबास चाक करना पड़ता है, जिसमें कि वह सुन्दर रंगवाली चमकीली तितली की सूरत में दिखलाई पड़े। जब तुम तितली को उसी घर देखो, जब वह अपने थोड़े दिन ठहरनेवाले ढकने से बाहर निकलती है, तो तुमको उस कैद करनेवाली जंजीर के तोड़ने से काँपती और हाँफती हुई दिखलाई पड़ेगी। उसको आराम की जरूरत है, जिसमें वह अपनी ताकत को आकाश में उड़ने के लिए इकट्ठा करे क्योंकि नेचर ने उसको इस हवा में उड़ने के लिए ही बनाया है। यही हमारी मौत की तकलीफ का नमूना है। हमको इस तरह की हर एक तकलीफ को सह लेना जरूरी है, जिसमें हम इस मिट्टी के घरौंदे छोड़कर उन अनजान लोकों में सैर के लिए तैयार हों, जो इस तरह देह छोड़ने के बाद हमारे सामने आते हैं।

कबीर साहब एक दोहे में कहते हैं कि मरने से सारी दुनिया डरती है पर मेरे मन में आनन्द है, क्योंकि पूरा और सच्चा आनन्द मरने से ही मिलता है-

मरने ते सब जग डरे , मेरे मन आनन्द।

मरने ही ते पाइये , पूरन परमानन्द।

कबीर साहब के स्वर में स्वर मिलाकर एक फारसी का कवि कहता है दौड़ना, चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, और मरना यह दर्जे हैं, और इनके इतना ही हर ठहरने में आनन्द होता है। कवि का भाव यह है कि जब वह दौड़ता रहता है, और थक जाता है, तो चलने लगता है, क्यों? इसलिए कि दौड़ने से चलने में आनन्द है। जब किसी को चलने में थकान होती है, तब खड़ा हो जाता है, क्योंकि चलने से खड़े होने में कम मिहनत पड़ती है। इस लिए चलने से खड़े होने में आनन्द मिलता है। जब हम खड़े नहीं रह सकते, पैर दुखने लगते हैं, या जी नहीं चाहता कि खड़े रहें, तब हम बैठ जाते हैं, क्यों कि खड़े रहने से बैठने में आनन्द होता है। यही बात बैठे न रह सकने पर सोने में है। और जब हमने देख लिया कि दौड़ने से चलने में, चलने से खड़े होने में, खड़े रहने से बैठने में, और बैठने से सोने में आनन्द है, तो हमको यह मानना पड़ेगा, कि सोने से मरने में भी आनन्द है। क्योंकि जो बात अनुभव और युग से सिद्ध है, उसमें फिर कोई तर्क-वितर्क करने का स्थान नहीं रह जाता।

गीता और भागवत में जो कुछ मौत के विषय में लिखा है, उसमें यद्यपि खुली तौर पर यह नहीं कहा गया है, कि मौत भी आनन्द का साधन है। परन्तु यदि उन वचनों पर विचार किया जावेगा तो ज्ञात हो जावेगा कि कबीर साहब और फारसी के कवि ने जो कुछ कहा है, वह सर्वथा उसी की छाया है, क्योंकि जब हम पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनेंगे, या पुरानी न काम देने योग्य देह छोड़कर नयी और काम की देह पावेंगे, तो यह कभी सम्भव नहीं है, कि हमको आनन्द न होवे। डॉक्टर लूइस ने भी इस बात को पूरी तरह से मान लिया है। इसलिए मौत क्या ठहरी। एक ऐसी दशा जिसमें आनन्द का अनुभव होता है।

कुछ लोग ऐसे हैं, जो जीव नहीं मानते, उनका बिचार है कि जैसे पान, सोपारी, खैर और चूना जब एक परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो लाली अपने आप पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पाँच तत्तव जब परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो जीवन अपने आप बन जाता है। लाली पान सोपारी खैर, चूना से अलग कोई वस्तु नहीं है। वह एक छिपी दशा में पान, सोपारी, खैर, चूना में पहले ही से मौजूद रहती है, जब यह सब इकट्ठे होते हैं, तो वह उन्हीं में से प्रकट हो जाती है, कहीं अलग से नहीं आती, यही दशा पाँच तत्तव और जीव की भी है। जो लोग इस विचार के हैं, वे यह नहीं मानते कि जीव ज्यों एक देह को छोड़ता है, त्यों दूसरी देह में चला जाता है, वे कहते हैं कि जीव जब कोई अलग है ही नहीं, तो उसका आना जाना कैसा? जब तक देह में पाँच तत्तव इस ढंग से मिले रहते हैं, कि यह चल फिर सकती है, खा पी सकती है, सोच विचार सकती है, तभी तक जीवन है, अर्थात् जीवन एक ऐसी अवस्था है, जो पाँच तत्तवों के ठीक-ठीक मिले रहने से होती है, जब पाँच तत्तवों का यह ढंग बिगड़ जाता है, और वह घट बढ़ जाते हैं, उस घड़ी उसकी वह पहली अवस्था नहीं रह जाती, जिसको हम जीवन कहते हैं, और इसी को हम लोग अपनी बोलचाल में मृत्यु कहकर पुकारते हैं। अर्थात् मौत एक ऐसी अवस्था है, जो कि जीवन का उलटा है, और ऐसी दशा में किसी जीव को मानने की आवश्यकता नहीं रहती।

आप एक घड़ी को लीजिए और उसके कल पुर्जों को देखिए, जब तक कल पुरजे अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देते हैं, तब तक घड़ी चलती रहती है, उसकी सुइयाँ घूमती रहती हैं और घड़ी का सारा काम होता रहता है। पर जो इन कल पुरजों में कुछ भी अन्तर हुआ, और अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देने से वे चूके, तो समझिए घड़ी बिगड़ी और उसका सारा काम मिट्टी हुआ। इससे यह न समझना चाहिए कि कल पुरजों के सिवा उसमें कोई शक्ति ऐसी और थी जो घड़ी को चलाती थी, और उसका सारा काम पूरा करती थी, और उस शक्ति के निकल जाने से घड़ी बिगड़ी, और उसका कुल काम रुक गया। वरन् उसके कल पुरजों का अपनी जगह पर रहना और उनका ठीक-ठीक काम देना ही उसकी शक्ति थी, सिवा इस शक्ति के उसमें और कोई शक्ति नहीं थी। यही दशा जीवन की है, इस तरह के विचार के लोग यही बतलाते हैं, वे कहते हैं कि ठीक घड़ी के कल पुरजों की दशा इस देह के कल पुरजों की भी है, जब तक पाँच तत्तव ठीक-ठीक अपनी जगह पर काम देते हैं, तब तक ये भी ठीक-ठीक चलते हैं, देह भी अपना सब काम ठीक-ठीक करती है, जहाँ पाँच तत्तव का सामंजस्य बिगड़ा, वहाँ देह के कल पुरजे भी बिगड़े और देह भी अपने समस्त कामों से रहित हुई। पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि देह में जीव नाम की कोई दूसरी शक्ति मौजूद थी और वह निकलकर किसी दूसरी जगह चली गयी, और इसी से देह का सारा काम बन्द हो गया, और आदमी मर गया। कई एक दूसरे धर्म वालों का विचार भी मृत्यु के बारे में ठीक ऐसा ही, या इससे कुछ मिलता-जुलता हुआ है, इससे उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।

इस तरह के लोगों ने जैसा मृत्यु को बतलाया है, उससे भी मौत कोई डरावनी वस्तु नहीं ज्ञात होती। पाँच तत्तवों के किसी परिमित परिमाण से मिलने पर एक पुतला बना था, वह पुतला उन तत्तवों के उस अवस्था को छोड़ देने से बिगड़ गया, उसका सब सामान फिर अपने मुख्य रूप में हो गया, हवा हवा में, मिट्टी मिट्टी में, आकाश आकाश में, पानी पानी में, और तेज तेज में मिल गया। फिर अब और चाहिए क्या? बँद समुद्र बन गयी, तेज सूर्य हो गया, परमाणु पृथ्वी हुआ, अंश अखिल बना, इससे बढ़कर और कौन आनन्द की बात होगी?