मृत्यु से अभय / ओशो
साँचा:GKCatBodhkatha एक युवा सन्यासी था। उस पर एक राजकुमारी मोहित हो गई। राजा को पता चला तो उसने सन्यासी से राजकुमारी के साथ विवाह करने को कहा। सन्यासी बोला, "मैं तो हूं ही नहीं। विवाह कौन करेगा?"
संन्यासी की यह बात सुनकर राजा ने अपने को बड़ा अपमानित अनुभव किया। उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि उसे तलवार से मार डाला जाय।
संन्यासी उसके आदेश पर बोला "शरीर के साथ मेरा आरम्भ से ही कोई संबंध नहीं रहा। जो अलग ही हैं, आपकी तलवार उन्हें और क्या अलग करेगी? मैं तैयार हूं और आप जिसे मेरा सिर कहते हैं, उसे काटने के लिए उसी प्रकार आमंत्रित करता हूं, जैसे वसंत की यह वायु पेड़ों से उनके फूलों को गिरा रही है।"
वह मौसम सचमुच वसंत का था और पेड़ों से फूल गिर रहे थे। राजा ने उन फूलों को देखा, और देखा मौत के सामने उपस्थित जानते हुए भी उस संन्यासी की आनंदित आंखों को। उसने एक क्षण सोचा, "जो मृत्यु से भयभीत नहीं है और जो मृत्यु को भी जीवन की भांति स्वीकार करता है, उसे मारना व्यर्थ है। उसे तो मृत्यु भी नहीं मार सकती।"
राजा ने अपना आदेश तुरन्त वापस ले लिया।