मेंड़ की दूब / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
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गांव से मां की एक लंबी चिट्ठी आई है। बल्कि कहूं कि हर बार की तरह बुलावा आया है। लेकिन इस बार एक ख़ास तरह का। वह ख़ुद यहां आना चाहती है। इस नाते बुलाया है कि आ कर हमें ले चल।

चिट्ठी के मुताबिक, खेतों में तो आग लग ही गई है, लगान की किस्त न जमा करने से कुर्क अमीन गाय-गोरू भी खूंटे से खुलवा ले गया है। गांव, भाई-बिरादरी से लगभग ख़ाली हो चुका है। सिर्फ कुछ बुजुर्ग लोग और चंद बड़े घरानों के तथा बनिए और बकिया मजूर ही रह गए हैं। मजूरों में भी नौजवान लड़के बंबई-कलकत्ता भागने लगे हैं। क्यों कि मजूरी अब रोजाना से गिर कर आधी हो गई है, वो भी बड़ी मुश्किल से। ट्यूबवेलों से बिजली तो गायब ही थी, अब पंपिंग सेटों का डीजल भी लापता हो चुका है। हां, चोरी-छिपे और बड़ी सोर्स-सिफारिश से कहीं-कहीं ब्लैक में डीजल मिल रहा है, वो भी बड़े मुश्किलन। संझवाती जलाने के लिए मिट्टी का तेल भी ब्लैक में, वो भी बड़े जुगाड़ के बाद।

दुखरना खेत में पानी चलाने के लिए उधार रुपया खोजता रहा, उधार न मिलने पर अपनी औरत और पतोहू की नथिया, बेसर, झूलन, कड़ा-छड़ा, हुमेल और हंसुली आदि सारे जेवर सेठ के वहां गिरवी रख कर उस ने किसी तरह खेत सींचा। कुल-कुल करने के बाद भी खेत में जवानी नहीं लौटी। खेत के सारे धान सूख कर पुआल हो गए। दुखरना अब पगला कर मारा-मारा फिर रहा है।

....पुरोहित जी अपना पंचांग देख कर बता गए हैं, कि इस वर्ष खण्ड वृष्टि का ही योग प्रबल है। कहीं प्रलयंकारी बाढ़ आएगी तो कहीं भयंकर सूखा पड़ेगा। संसार में बड़ा पाप बढ़ गया है। इस पाप से उद्धार होने के लिए हवन-होम, जाप-तप आदि करना पड़ेगा। पुरोहित जी की ही राय से गांव में अनिश्चित अखंड हरिकीर्तन जारी है।

....गांव के छोटे लड़के रोज मेघ राजा को खुश करने के लिए घर-घर, दरवाजे- दरवाजे, घूम कर काच-कचौटी खेलते हैं। हर दरवाजे पर कीचड़ कर के उस में नंगी देह बच्चे दिन-दिन भर लोटते-पोटते रहते हैं....

....गांव की नई लड़कियां दिन में कजरी गाती हैं, बूढ़ी औरतें चारों पहर पानी बरसने के लिए तरह-तरह की मनौतियां मानती हैं। तो रात में जवान औरतें हल-जुआठा ले कर खेतों में नंगी हो कर हल चलाती हैं पर ये बेरहम देव इतना बेईमान ठहरा कि सारे बादरों को हजम कर जाता है। लाख मनौतियों और जुगाड़ों के बाद भी वर्षा की एक बूंद तक पृथ्वी को मयस्सर नहीं होती....

और अब तो बेटवा हालत यहां तक पहुंच गई है कि काहे न आकाश ही धरती पर गिरा दिया जाए, खेतों में हंसिया नहीं जाने की। घर की पूंजी भविष्य को सुधारने में पहले ही डूब चुकी है। कुल मिला कर गांव अब जीता-जागता नरक हो गया है। मैं क्या-क्या गिनाऊं। अब ख़ुद ही आ कर देख लेना।

इन नाते बेटा, चिट्ठी पाते ही तुरंत आ जाओ, हमहूं तैयार बैठी हैं।


सावन-भादों का महीना और आकाश को घेरे ढेर सारे बादल। काले, भूरे, उनीले और तहीले बादलों को देख कर बरसात की उम्मीद बंधती है। लेकिन बेरहम पछुआ हवा बादलों को बटोर अपने डैनों पर चढ़ा कर उड़ा ले जाती है और रह जाता है बादलों से वीरान आग उगलता आसमान....छिटपुट बादलों में कैद सूरज वैसे ही चमकने लगता है जैसे बैसाख और जेठ में दहकता था। धान, कोदो, सांवा, टागुन और मक्का की फसलें झुलस कर नेस्तनाबूद हो चुकी हैं। नदियां सिमट कर अपने दोनों कगारों के बीच दफन हैं। क्या ताल, क्या पोखर और क्या पोखरी....सब का पेट ख़ाली हो चुका है। सारे मेड़ और चकरोड....बैशाख-जेठ जैसे आग की तरह तपते हैं।

दुर्दिन को झेलना कितना कठिन होता है। सोचता हूं क्या यही वह गांव-जवार है, जहां नदियां-नाले मिल कर बरसात में सागर का रूप धर लेते हैं। बाढ़ में गांव के रास्तों की पहचान डूब जाती है। पड़ोसी गांव तक पहुंचना दूभर हो जाता है। आख़िरकार, हमारे बाप-दादों की यह कहावत, ‘टाटी ओट हजार कोस’ किस जालिम ने कैद कर ली है ? विश्वास नहीं पड़ता कि ये वही गांव, वही जवार है जो आज सांय-सांय कर रहे हैं। खेतों की धरती सूखा से दरक गई है।

आगे बढ़ता हूं और अविश्वास ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता। परधान काका को देखते ही मोहभंग हो जाता है। ये वही परधान काका हैं, जिन के यहां पिछले साल मैं शीशे के छोटे-छोटे बर्तनों में रखी चावल की कई किस्में देख कर चकित रह गया था, कि इस घामड़ इलाके में....और परधान काका दूध का गिलास हाथ में थमा कर बड़े उत्साह के साथ उन किस्मों के बारे में विस्तार से बताने लगते थे। आज वही परधान काका मुझे देख कर कुछ बोलने के बजाय गुमसुम-से खड़े हो कर मुझे सिर्फ देखते रह जाते हैं। बोलते कुछ नहीं। हैरानी होती है।

मैं परधान काका की सूखी आंखों का सामना नहीं कर पाता और झट मेड़ छोड़ कर आगे कच्ची सड़क पर बढ़ जाता हूं। सड़क के दोनों ओर सांय-सांय करते खेत और भी बोझिल कर देते हैं। याद आता है, कभी इन्हीं सड़कों पर कुवार-कातिक के महीनों में गुजरते वक्त मादक गंध के बयार में डूब-उतरा जाता था मैं, और सर्वेश्वर के एक गीत की वह कड़ी बरबस मन में गूंजने लगती थी, ‘दादुर, मोर, पपीहा बोले, बोले चूनर धानी रे/ खनखन-खनखन चुरिया बोले, रिमझिम-रिमझिम पानी रे....।’

उस अनबूझ गंध में कितनी ही बार आकंठ डूबने का अनुभव कर चुका हूं। इस धूल-भरी सड़क के दोनों ओर, दूर-दूर तक पुरवइया में लहराते धान के काले फूल की गंध में जितना खिंचाव था, उसे सहन करना भी उतना ही कठिन। रोम-रोम में बस जाने वाली वह सुगंध कभी पकड़ में नहीं आई। हिरन की कस्तूरी जैसी, कंटीली चंपा से मिलती-जुलती या इस से अलग, अनोखी सुगंध....।

और आज सड़क वही है, और राही भी वही, पर उस भीनी सुगंध का कहीं नामो-निशान न था। सड़क के दोनों ओर लगातार पड़ने वाली खत्तियों में पहले आदमी के डूबने भर का पानी भरा रहता था। इस बार कहीं-कहीं जरा-जरा पानी दिखाई पड़ा। कीचड़ में बच्चे छोटी मछलियां पकड़ रहे थे। कीचड़-भरी खत्तियों के बाद दूर-दूर तक खेतों में कूचियों जैसे धान के पौधे उगे हुए हैं। उठान एक फुट से अधिक नहीं। फुनगियां धूप से झुलसी हुई जैसे खेतों में आग लग गई हो।

आगे, दूसरी ओर से आते एक अपरिचित बुजुर्ग मिल गए। उन्हें जै राम जी कह कर बात शुरू की तो खेतों की तरफ देखते हुए वह छूटते ही बोले, ‘‘दोहाई राम जी कै झूठ नाहीं बोलब, बबुआ, हमार उमिर साठ-सत्तर बरिस कै हो गईल लेकिन अबले अइसन कब्बो नाहीं भईल रहल कि सावन-भादों के एह तरे दगा दे जायं बरसुआ नाखत बादर....’’ बोलते-बोलते उन का स्वर भर्रा गया।

बगल के खेत में केवल काका बेड़ी से पानी उलीच रहे थे। एक ओर वे, दूसरी ओर उन की घरवाली। कच्चा आठ बिगहा में जया और परी किस्म का धान उन्हों ने बड़ी जतन और उम्मीद से लगाया था। अधबीच जवानी मरते पौधों को बचाने की केवल काका जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे। उन के करीब जा कर उस खेत की दरार भरी धरती से अधिक गहरी झुर्रियां उस प्रौढ़ किसान के चेहरे पर मैं ने देखीं और कुछ क्षणों तक देखता ही रहा। सोच रहा था कि बात कहां से शुरू करूं कि केवल काका के कांपते होंठ इतना ही कह सके, ‘‘बचवा अब की सूखा....’’ आगे के शब्द गले के भीतर ही घोंट कर उस दुनिया-देखे किसान ने अपने सूखे खेत के फैलाव को अपनी आंखों में समेटते हुए जब मेरी ओर निगाह उठाई तो उस की पुतलियों पर कांपते-झिलमिलाते अनेक अर्थों को झेल पाना मेरे लिए कठिन हो गया। वह निगाह मन को भीतर तक बेधती चली गई....उन मटमैली पुतलियों में न जाने क्या था ?

‘‘बचवा अब की क सूखा....’’ आगे बहुत कुछ कोटरों में धंसी दो छोटी-छोटी आंखें कह रही थीं। केवल काका के प्रति सांत्वना के दो शब्द भी मैं नहीं कह पा रहा था....। उन के पास यही आठ बिगहा खेत हैं। बड़ी आशा ले कर घर की पूंजी उन्हों ने बीज, खाद, निराई में लगा दी कि अगहन उतरने पर जया, परी धान से उन का घर भर उठेगा। वह उम्मीद सूखा की चपेट में सूख गई। आगे रबी में क्या होगा, इस की आशा किस आधार पर केवल काका के बुझे हुए मन में हरियाली भर सकती थी ? बोझिल मन से सड़क की ओर चलने लगा कि तपते आकाश के सन्नाटे को धारदार तीखी आवाज से चीरता कोई पक्षी सर्राटे से गुजर गया। केवल काका सिर को झटका दे कर आकाश की ओर ताकते-ताकते सिहर उठे। अनबूझा-सा ठिठक कर मैं केवल काका की ओर देख रहा था। वे बोले, ‘कवि घाघ की कहावत है, बेटा ! डोक खोली जाय अकास, अब नाहीं बरखा की आस।’

मैं कुछ कहता कि काकी बोल पड़ीं, ‘‘बेटवा, ईनि ऐसै कहाऊत कहत रहि जईहें। बीसवारन से कहि रहल बाटीं कि ई खेती-बारी में जो अब आगि लागि गईल त कवनो दूसर धंधा देखा। नाहीं अबहिन एक जून खाए के जो मिल तो बा चार दिन बाद दूनो जूनी उपवास होखे लागी....’’ काकी का भाषण जारी रहा। अब यहां और रुकने की सामर्थ्य कम से कम मुझ में नहीं रह गई थी।

एक पढ़े-लिखे सज्जन मिले जो पड़ोसी गांव के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हैं। मिलते ही वे भी शुरू हो गए सूखा पर ही....मैं ने उन्हें छेड़ा कि, ‘पढ़े-लिखे आदमी हो कर आप भी कायरों और बुजदिलों जैसी बातें बक रहे हैं ?’ उन्हों ने मुझे घूर कर देखते हुए कहा, ‘नहीं भाई साहब, आप इस जवार के आदमी हैं, यहां के उतार-चढ़ाव से वाकिफ हैं, कम से कम आप को ऐसा नहीं कहना चाहिए।’ वह रुके और बोले, ‘हां, मैं तो भूल ही गया था कि आप को शहरी हवा लग गई है, आप कह सकते हैं।’ मुझ पर बोली कसने के बाद मास्टर साहब बताने लगे, ‘‘दरअसल, भाई साहब! सच तो यह है कि यहां के लोग बहुधा बाढ़ और छिटपुट सूखा से सदैव जूझते रहे हैं। दैवी आपदाओं से यहां के किसान परिचित हैं, उन्हें वे कितनी ही बार झेल चुके हैं। विपदा से जूझना और फिर उसे भूलना हम किसानों की आदत है। लेकिन इस साल तो जैसे सूखा ने, क्या छोटा काश्तकार और क्या बड़ा, सभी को बुरी तरह झकझोर दिया है।’’

अभी मास्टर साहब से विदा ले कर बागीचे की ओर बढ़ा ही था कि खाद्यान्न योजना के अंतर्गत हो रहे काम में हाजिर बाबू के पद पर कार्य पर रहे बैरागी परसाद मिल गए। बैरागी परसाद मेरे साथ प्राइमरी स्कूल में पढ़े हुए हैं। आगे इन की पढ़ाई न हो सकी। बैरागी परसाद उतावली के साथ मिलते हुए कहते हैं, ‘‘भइया ! इस समय घर जा रहा हूं, रात में घर आऊंगा, तब मजे से बात-चीत होगी।’’ मैं कहता हूं, ‘‘ठीक है, लेकिन आना जरूर....’’

सांझ अब अवसान पर है, गांव के सीवान पर एक छोटी पुलिया है। वहां शाम को प्रायः छोटे-बड़े सभी लोगों का उठना-बैठना होता है। सोचता हूं, सब से मुलाकात हो जाएगी और इसी गरज से पुलिया की ओर बढ़ लेता हूं....रेडियो से ‘ग्राम जगत’ कार्यक्रम का प्रसारण सुनाई देता है। पुलिया पर पहुंचता हूं। छोटे-बड़े सभी से औपचारिकता पूरी करने के बाद बैठता हूं।

‘अपनी मेहनत के बल बूते, धरती सरग बनावल जाई !’ विषय पर जुगानी भाई का रेडियो भाषण चलता ही रहता है, कि मार्कण्डेय जो संभवतः 10वीं या 11वीं कक्षा में पढ़ता है, रेडियो बंद कर देता है। और रेडियो बंद करते ही, मुझ से एक सवाल दाग बैठता है, ‘भइया ! क्या बात है कि ई रेडियो वाले जुगानी के रोज-रोज के इस रूखे भाषण में कभी भी सूखा नहीं होता। उलटे पंप सेटों, ट्रैक्टरों के लिए डीजल की वर्षा होती है। खेतों के लिए बिजली की अनवरत आपूर्ति रहती है और नहरों से पानी का समुंदर बहता है....’

‘दरअसल बात ये है, मार्कण्डेय, कि जुगानी ये सारा कुछ अपने मन से नहीं झींकते हैं, अरे भाई, उन को तो ऊपर से यानी सरकार से जैसा आदेश आता है, वैसा ही उगल देते हैं, वे सरकारी नौकर ठहरे, अब जो सरकार कहेगी, वही तो उन्हें करना है। और करें भी न तो क्या करें....’

अभी मैं जवाब दे ही रहा होता हूं कि मेरी बात को लगभग काटते हुए जतन काका, जो रेडियो पर जुगानी का रूखा भाषण रोज सुनते हैं, बोल पड़ते हैं, ‘नाहीं बेटा, तनी जुगानी और सरकार दूनों के लगे चिट्ठी लिख के हमरी ओर से पूछब कि अब कैसे कवन मेहनत करीं, जेसे कि ई धरती सरग बनि जात। वैसी, बेटा....रेडियो क कहना मानीं त रेडियो से त धरती कबकै सरग बनि भईलि बा। अब तूहीं बताव ले बीया खरीदलीं। जरत जेठ में लूह खात बज्जर जस धरती कै छाती चीरलीं। पानी नईखे बरसल। बोरिंग मालिक के पानी के दाम दे के बेहन डरलीं। 25 दिन तक बेहन रखवलीं। टेक्टर के भाड़ा दे के खेत तैयार करवलीं। रोपनी के पहिले खाद डरलीं। मजूरन के मजूरी दे के रोपनी करवलीं। फेर पानी नाई बरसले पर दू-दू बेर खेत सिंचवलीं। एतना मेहनत अउ पूंजी हम लगवलीं और कुलि खेत सूखि गईल। अब बताव हम का करीं ? माथा फोर लेईं ?’

अभी जतन काका चुप होते कि रामदीन भी अपनी भड़ास निकालने लगा, ‘‘कोआपरेटिव के अमीन और एकाउंटेंट, तहसीलदार के अमीन और चपरासी, ब्लाक के पंचायत सेवक, सब साले अपना-अपना बस्ता बांध कर गांव में आते हैं। बस्ता और बहीखाता खोल कर अपना-अपना बकाया मांगते हैं। सरकार साली तो ढिंढोरा पीट-पीट कर कहती है कि सारी लगानें माफ हो चुकी हैं और इधर ये कमीने कहते हैं कि अभी आदेश नहीं आया है और साले खूंटे से गोरू खोल ले जाते हैं, हरामी....माधर....!’’

अंधेरा काफी गहरा चला था, बल्कि अब रात हो गई थी, लोग उठ कर धीरे-धीरे घरों की ओर जाने लगे और पुलिया की मीटिंग लगभग डिसमिस हो गई।

मैं भी चला आया।

घर पर दस-बारह लोगों की तादाद देख कर मैं चौंक-सा गया। बाद में मां ने बताया कि हमारे साथ ये भी शहर चलना चाहते हैं। मैं ने माथा ठोंक लिया तो मां ने कहा, ‘काहें ऊंहों कौनो काम नाहीं मिल सकत....।’

‘तुम समझती क्यों नहीं ? अरे शहर कोई कोयले की खदान है या कि बनिए की दुकान कि जैसा चाहा वैसा काम तलाश कर पा लिया। अरे वहां कोई काम पा लेना यहां से भी ज्यादा मुश्किल है।’ मैं ने मां को लगभग डांटते हुए कहा। मां सिसकने लगी। मैं भी चुप हो गया।

खाना खा कर अभी चारपाई पर लेटा ही था कि बैरागी आ गया।

‘आओ भाई बैरागी।’ कहते ही वह आ कर चारपाई पर एक ओर बैठ गया। बोला, ‘मैं सोच रहा था, आप सो गए होंगे, लेकिन तब भी सोचा मिल लूं। सो गए हों, तो भी जगा कर। दरअसल दिन में काम से फुर्सत नहीं मिलती, सो चला ही आया।’

‘हां, भाई ! हाजिर बाबू हो....कमाई कर रहे हो।’ मैं ने व्यंग्य-भरे स्वर में कहा।

‘नहीं भइया ! आप हम को गलत न समझिए !’

‘अच्छा बच्चू, चोरी की चोरी, और सीनाजोरी भी ?’

‘सच भइया ! मैं तो सिर्फ चार-छः रुपए ही अपनी मजदूरी से अधिक कमा पाता हूं, सो भी चमचई कर के। घपला तो साले ऊपर वाले कर रहे हैं। अब देखो, एक आदमी पीछे जो अनाज सरकार की ओर से स्वीकृत है, लेकिन ये कमीने ठीकेदार औना पौना नकद दे कर सब को टाल देते हैं....लोग सब कुछ जानते हुए भी मजबूरन चुप रह जाते हैं। और ये ठीकेदार साले सारा अनाज हड़प जाते हैं।’

‘इस तरह एक तरफ तो ये ठेकेदार के पिल्ले सब घोटाला कर अनाज हड़पते हैं; दूसरी ओर माधरचोद बनिये यह अनाज ख़रीद कर अपना गोदाम भर रहे हैं, इन्हीं मजूरों-किसानों को लूटने के लिए।’

‘अच्छा तो अब भाषण भी ख़ूब देने लगे हो मिस्टर बैरागी परसाद ! क्या चुनाव लड़ने का इरादा है ?’

‘नहीं, भाई, अपनी इतनी औकात कहां ? वैसे एक बात पक्की जान लो, इस बार जो भी नेता साला आएगा, वो चाहे किसी भी पार्टी का हो....साला वापस तो नहीं ही जाने पाएगा....।’

‘ऐसा ! लेकिन क्यों ?’ मैं ने अनजान बनते हुए कहा।

‘ये भी कोई पूछने की बात है ? अरे अब अनाज तो रहा नहीं, उन्हीं कमीनों को भून कर खाएंगे हम लोग।’ वह मुझे पछाड़ते हुए बोला।

‘अच्छा छोड़ ये बकबक। तू अब कुछ ही दिनों में नेता जरूर बन जाएगा। बड़ा नहीं तो छुटभैया नेता तो जरूर ही बनेगा। लेकिन यह तो बता, तेरी खेती-बारी का क्या हाल-चाल है ? तुम ने कुछ बताया ही नहीं ?’

‘मेरी खेती-बारी सुनना चाहते हैं, क्या लोगों से सुनते-सुनते अभी पेट नहीं भरा....’ कहते-कहते बैरागी एकाएक गंभीर-सा हो गया। बोला, ‘अरे, कुल जर जमा पांच ही बिगहा तो खेत है, जिस में से 4 बिगहे में धान बैठाए था। एक बिगहे में गोरुओं के लिए चरी बोई और बाजरा छिड़क दिया था। धान फूटने के पहले ही सूखने लगे तो काट कर गोरुओं को खिला दिया। चरी की बढ़ोत्तरी नहीं हुई और सूखा के कारण जहर पड़ने के डर से पशुओं को खिला नहीं सकता था....सो वो भी बेकार ही गया।’ और बैरागी जम्हाई लेने लगा।

‘तो कुछ भी नहीं हुआ ? बाजरा की भी पैदावार कुछ नहीं हुई ?’ मैं ने सहानुभूति जताते हुए पूछा।

‘कहां की बात करते हो भाई, लंदन से उतर कर तो नहीं आए ?’

बैरागी ने फिर कहा, ‘बाजरा थोड़े पानी में हो जरूर जाता है। कहावत है....बज्जर परे तो भी बजरा होय। लेकिन, भाई, अब की तो जरूर बज्जर से भी ज्यादा कुछ पड़ गया है, बाजरा भी सूखने लगा।’

‘ठीक कहत हौ बैरागी ! ई सूखा नहीं खेतिहरन पर बज्जर गिरल है, बज्जर। ई विपत्ति पंच कैसे झेली....हे राम !’ कुछ-कुछ रुआंसी और आतंकित-सी मां ने कहा।

‘सब झेल लेंगे....’ बैरागी मां को सांत्वना-सी देते हुए बोल पड़ा, ‘हम तो मेड़ की दूब हैं, काकी ! कितनी बार सूख कर फिर हरे हो गए। सूखना और फिर हरा होना, यही तो जिंदगानी है। और यह बज्जर सूखा सदा थोड़े ही रहेगा।’

बैरागी के चेहरे से उदासी एकाएक गायब हो गई थी और उस उदासी की जगह एक आशा ने ले ली थी, जिस से उस के पीले पड़ गए चेहरे पर एकाएक लालिमा दौड़ने-सी लगी थी। और मैं ने देखा, मां की आंखों में आए आंसू जाने कहां उन तहीले-उनीले बादलों की तरह गायब हो गए थे।

मेरी आंखों में, कभी मां का स्थिर चेहरा तो कभी बैरागी का तेज चेहरा और कभी सूखे खेतों की परछाईं तो कभी खेतों में बेड़ी से पानी उलीचते हुए केवल काका की मटमैली पुतलियां और उन के द्वारा धान के पौधों को बचाने की जी-तोड़ कोशिशों की परछाइयां....आड़े-तिरछे नाच-नाच के झांक रही थीं। बैरागी का यह कहना कि ‘हम तो मेड़ की दूब हैं काकी ! कितनी बार सूख कर फिर हरे हो गए। सूखना और फिर हरा होना, यही तो जिंदगानी है।’ रह-रह कर टीसता है ! नींद नहीं आती। जबरिया सोने की कोशिश करता हूं। सो नहीं पाता।

भिनसहरा हो गया है। मां जाग गई हैं। शहर चलने की तैयारी में जुटी हुई हैं। मैं भी उठ बैठता हूं। चुपचाप बैठते भी नहीं बनता। उठ कर लुंगी लपेटता हूं। कुछ सोचते-सोचते पुलिया की ओर बढ़ लेता हूं। गांव की औरतें खुसुर-फुसुर बतियाती हुई सीवान की ओर से लौट कर वापस आ रही हैं। पुलिया पर कोई नहीं है। दरअसल मैं गलत समय पर आ गया हूं। इस समय मरद लोग इधर नहीं आते।

फिर भी मैं पुलिया पर बैठ लेता हूं।

सोचता हूं कि अगर मैं भी शहर न जाऊं तो कैसा रहे ?