मेंढक / ख़लील जिब्रान / सुकेश साहनी

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[अनुवाद: सुकेश साहनी]

गर्मी के दिन थे। एक मेंढ़क ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘जब हम रात में गाते हैं तो उस किनारे मकान में रहने वालों को जरूर तकलीफ होती होगी।’’

मेंढ़की ने कहा, ‘‘इससे क्या? वे लोग भी तो दिन में बातचीत करते हुए हमारी नींद खराब करते हैं।’’

मेंढक ने कहा, ‘‘हम यह मानें या न मानें पर सच यही है कि रात में हम कुछ ज्यादा ही मस्त होकर गाते हैं।’’

मेंढ़क की पत्नी बोली, ‘‘वे लोग भी दिन में कितनी ज़ोर–ज़ोर से गप्पें हाँकते हैं, चीखते–चिल्लाते हैं।’’

मेंढक ने कहा, ‘‘अपनी जात के उस मोटे मेंढक के बारे में तो सोचो जो टर्राते हुए अड़ोस–पड़ोस की नींद हराम किए रहता है।’’

मेंढकी बोली, ‘‘और ये राजनेता पुजारी और वैज्ञानिक! ये भी तो इस किनारे आकर अपनी चिल्ल–पों से जमीन आसमान एक किए रहते हैं।’’

मेंढक ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘हमें इन मनुष्यों से अधिक शिष्ट बनना चाहिए। क्यों न हम रात में चुप रहा करें, अपने गीत मन ही मन में गुनगुनाएँ। चाँद सितारे तो हमसे फरमाइश करते ही रहते हैं, कम से कम दो तीन रातें चुप रहकर देखते हैं।’’

मेंढकी ने कहा, ‘‘ठीक है, देखते हैं तुम्हारी उदारता से हमारे हाथ क्या आता है।’’

वे तीन रातों के लिए बिल्कुल चुप हो गए।

झील के किनारे रहने वाली बातूनी औरत तीसरे दिन नाश्ते के दौरान अपने पति से कटखने अंदाज़ में बोली, ‘‘तीन रातें बीत गईं, मुझे नींद नहीं आई। जब मेंढकों की आवाज़ मेरे कानों में आती रहती थी, मैं निश्चिन्त होकर सोती थी। कोई बात है…. ये मेंढ़क तीन दिनों से चुप क्यों हैं?…जरूर कुछ न कुछ हुआ है। अगर मैं सो नहीं पाई ,तो पागल हो जाऊँगी।’’

मेंढक ने जब यह सुना तो पत्नी को आँख मारते हुए बोला, ‘‘इन रातों के मौनव्रत ने हमें भी पागल–सा कर दिया है। है न?’’

मेंढक की पत्नी ने कहा, ‘‘ये रातों की चुप्पी तो जान ही ले लेगी। वैसे तो मुझे कोई कारण नहीं नजर आता कि हम उन लोगों के लिए चुप रहें जो अपने जीवन की रिक्तता को शोर से भरकर चैन से सोना चाहते हों।’’

और उस रात मेंढक–मेंढकी से चाँद-सितारों द्वारा की गई गीतों की फरमाइशें खाली नहीं गईं।

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