मेक इन इंडिया बनाम मेक इन चाइना / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :24 अक्तूबर 2015
शांताराम ने ख्वाजा अहमद अब्बास को स्टूडियो आमंत्रित किया कि फिल्म निर्माण प्रक्रिया के व्यावहारिक अध्ययन से उनकी फिल्म समीक्षा को धार मिलेगी। इस घटना के पांच वर्ष बाद व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करके अब्बास साहब ने 'डॉ. कोटनीस की अमरकथा' नामक सत्य घटना पर आधािरत पटकथा लिखी, जिस पर शांताराम ने 1946 में फिल्म बनाई। इस फिल्म के क्लाइमैक्स ने फिल्म विधा को नई ग्रामर और भाषा दी। ज्ञातव्य है कि जापान के युद्ध में आहत लोगों के इलाज के लिए भारत से डॉक्टरों का दल भेजा, जिनके मुखिया डॉ. कोटनीस चीन में ही बस गए और उनकी मृत्यु के बाद डॉ. कोटनीस की चीनी विधवा भारत आती है। इस दृश्य में विधवा स्टेशन पर उतरती है और डॉ. कोटनीस की 'ऑफ स्क्रीन' आवाज गूंजती है, 'स्टेशन से तांगा लेना...अब तांगा उस स्कूल के सामने से गुजर रहा है, जहां मैंने प्रारंभिक शिक्षा पाई, अब तुम तांगे वाले को बांए मुड़ने को कहना और गली के आखिरी मकान के बाहर मेरी मां अारती की थाली लिए तुम्हारे स्वागत के लिए खड़ी मिलेगी।' यह अपनी तरह का अभिनव सिनेमाई प्रयोग था।
इसके दशकों बाद असफल फिल्मों में महारत हासिल करने वाले निखिल अाडवाणी ने 'चांदनी चौक से चाइना' नामक अत्यंत फूहड़ एवं असफल फिल्म बनाई। सच तो यह है कि इस फिल्म का नाम 'मालेगांव से मुंबई' या 'झुमरीतलैया से झाबुआ' भी हो सकता है। हमारे देश में चीनी खाना अत्यंत लोकप्रिय है और कमाल की बात यह है कि भारत के चीनी व्यंजनों का स्वाद चीन में बेचे जाने वाले भोजन से अलग है। हमारे देश की यह मौलिकता है। अन्य देशों के खाने में हम भारतीय तड़का लगाकर उसे मौलिक बना देते हैं। हमारे देश के कुछ शहरों में 'चाइना टॉवर' हैं और इसी नाम से शक्ति सामंत ने पांचवें दशक में फिल्म बनाई थी। आज भारतीय बाजार चीनी सामान से लदे-फदे हैं। यहां तक कि दिवाली पर फोड़े जाने वाले पटाखे भी चीन से आते है। चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी पर विशाल बांध रिकॉर्ड समय में बनाकर उस नदी का अधिकांश पानी अपने देश का कर लिया है। भारत अपने ही पानी से वंचित है। हिमालय में हजारों किलोमीटर की सड़कें बना ली हैं और प्रकृति से इस छेड़छाड़ की कीमत भारत को चुकानी पड़ सकती है। सदियों से हमारी स्कूलों की पढ़ाई में हिमालय को भारत का रक्षक बताया है परंतु आज उसी हिमालय की बर्फ को पिघलाकर चीन आधे भारत को जल समाधि दे सकता है। दूर तक मार करने वाली मिसाइलें सभी देशों के पास है। बकौल निदा फाज़ली 'माचिस है पहरेदार तमाम बारूदखानों की।' 'आउटलुक' साप्ताहिक पत्रिका ने 26 अक्टूबर के अंक में कुछ इस आशय की रपट मीतू जैन ने लिखी है कि सरदार पटेल की मोदीजी द्वारा स्वीकृत मूर्ति 182 मीटर की बनेगी, जो विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति होगी और इसकी स्थापना के लिए चुने क्षेत्र में बसे लोगों को वहां से खदेड़ दिया गया है तथा खामियाजे की राशि भी किसी को नहीं दी गई। अनेक लोग अपने पुश्तैनी रिहाइश से बेदखल कर दिए हैं और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गए हैं। रपट में यह भी लिखा है कि विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति चीन के 51 हजार वर्ग मीटर में बने कारखाने में बनाई जा रही है। चीन के कारखाने ने यह स्वीकार किया है कि मूर्ति वहीं बना रहा है, जबकि अधिकृत ठेकेदार का दावा है कि मूर्ति अपनी स्थापना के स्थान पर ही बनाई जाएगी। चीन में बनाई जा रही है या भारत में ही बनाई जा रही है, इस विवाद पर ठेकेदार कंपनी का दावा है कि कोई अधिकृत बयान नहीं दिया जाएगा। दूसरी तरफ चीन का कारखाना यह बताने से इनकार कर रहा है कि मूर्ति भारत कैसे भेजी जाएगी।
ज्ञातव्य है कि मूर्ति की स्थापना के लिए चुना गया स्थान सरदार डैम से अधिक दूरी पर नहीं है। फिल्म 'बाहुबली' के एक दृश्य में विशाल मूर्ति गिरने लगती है, तो नायक अपने साथियों सहित उसे संभाल लेता है परंतु जिंदगी 'बाहुबली' नहीं है, अगर इस तरह का हादसा घटित होता है, तो सरदार डैम को नुकसान पहुंच सकता है। ज्ञातव्य है कि मोदी ने प्रधानमंत्री होते ही यह फैसला लिया कि सरदार बांध की ऊंचाई 50 फीट बढ़ाई जाएगी, जबकि दुनियाभर के देशों ने यह तथ्य स्वीकार कर लिया है कि ऊंचे बांध पर्यावरण के लिए घातक है।
इसी महत्वपूर्ण रपट में यह भी लिखा है कि सरदार पटेल की मूर्ति के लिए किसानों से अपील की गई थी कि वह अपना न काम आने वाला स्क्रैप भेजें और अपेक्षा का मात्र एक तिहाई हिस्सा ही अनेक गांवों के किसानों ने भेजा परंतु वह लोहा इस स्तर का नहीं है कि उसका इस्तेमाल मूर्ति के लिए किया जाए। लोकप्रिय परंतु अव्यावहारिक घोषणाओं की सुर्खियों से देश नहीं बनता। सरदार पटेल की महानता से कोई भी भारतीय इनकार नहीं करता परंतु इस तरह की मूर्ति, जिसके चीन में बनने का संशय प्रकट किया जा रहा है, यकीनन सरदार पटेल पसंद नहीं करते। लोकप्रियता के भ्रामक कीमिये का अध्ययन जरूरी है।