मेघना गुलज़ार की फिल्म 'राज़ी' से जुड़े मुद्‌दे / जयप्रकाश चौकसे

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मेघना गुलज़ार की फिल्म 'राज़ी' से जुड़े मुद्‌दे
प्रकाशन तिथि : 07 मई 2018


राखी और गुलज़ार की सुपुत्री मेघना गुलजार की नई फिल्म 'राज़ी' सुर्खियों में है। उनकी पहले बनाई फिल्में उबाऊ और असफल रही थीं। संभव है कि इस बार उन्हें सफलता मिल जाए। 'राज़ी' की कथा दिलचस्प है कि एक भारतीय कन्या का विवाह एक पाकिस्तानी से हो जाता है। इस प्रायोजित विवाह का एजेंडा यह था कि वह ससुराल (पाकिस्तान) में रहते हुए मायके (भारत) के लिए जासूसी करे। बिमल राय की सर्वकालिक महान फिल्म 'बंदिनी' में शैलेन्द्र का गीत था, 'अबके बरस भेज भइया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाए रे, बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई, बाबुल में थी तेरे नाज़ों की पाली, फिर क्यों हुई मैं पराई, बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती, न कोई नैहर से आय रे, अंबुआ तले फिर से झूले पड़ेंगे, रिमझिम पड़ेगी फुहारे लौटेंगी फिर तेरे आंगन में बाबुल सावन की ठंडी बहारें, छलके नयन मोरा, कसके रे जियरा बचपन की जब याद आय रे।'

फिल्म अभी तक देखी नहीं है परंतु अगर फिल्म में नायिका के मन में यह द्वंद्व उत्पन्न हो कि विवाह के बाद उसे पति के घर की रक्षा करनी है या अपने देश के लिए जासूसी करनी है तो यह महान फिल्म सिद्ध हो सकती है। याद आती है राजकुमार संतोषी की फिल्म 'यामिनी' जिसमें घर की बहू अपने देवर और उसके साथियों द्वारा घर की युवा नौकरानी से दुष्कर्म करते देख लेती है अौर अपने मानवीय आदर्श से बंधी बहू मामले को अदालत तक ले जाकर अपराधियों को दंडित कराती है। इस फिल्म को देखकर सिनेमाघर के बाहर कुछ दर्शकों का वार्तालाप सुना, जिसका सार था कि वह बहू किस काम की जो अपने देवर व साथियों की रक्षा नहीं करके उन्हें दंडित कराती है। संभवत: इसी तरह की विचार प्रक्रिया के कारण फिल्म बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफलता अर्जित नहीं कर सकी,जिस पर उसका अधिकार था। यह समाज हमेशा पुरुष शासित ही रहेगा और खोखली परम्परा के नाम पर अन्याय करता रहेगा। दिन-प्रतिदिन, पहर दर पहर दुष्कर्म हो रहे हैं। इस मानसिकता की जड़ें बहुत गहरे तक पैठी हुई हैं। फिल्म के प्रदर्शन होने तक केवल अनुमान लगाए जा सकते है। इरविंग वैलेस के 'सेवन मिनट्स' नामक उपन्यास में एक कमसिन पर मुकदमा चल रहा है कि एक 'अश्लील किताब' के प्रभाव में उससे अपराध हुआ है। अदालत के जज की शीघ्र ही सबसे बड़ी अदालत में नियुक्ति होने वाली है परंतु वह व्यक्तिगत पद लाभ को ठुकराकर कमसिन के पक्ष में गवाही देता है। हमारी अदालतें तो किसी राजनीतिक निर्णय के कारण कुरुक्षेत्र बनी हुई हैं।

फिल्मकार नायिका को जासूसी के काम में ही लगाए रखेगा, क्योंकि मौजूदा माहौल यही है। मेघना की मां राखी अत्यंत साहसी एवम सुलझी हुई महिला हैं। बहरहाल, दशकों से गुलज़ार 'ज़र्रा-ज़र्री' नामक पटकथा सीने से लगाए बैठे हैं। उन्हें कोई पूंजी निवेशक नहीं मिला। यह एक विलक्षण प्रेमकथा है। देश के विभाजन के बाद ज़र्रा एक देश में है और ज़र्री पड़ोसी मुल्क में है। बड़ी जद्‌दोजहद के बाद क्लाइमैक्स में सरहद के एक पार ज़र्रा बैठा है और दूसरी ओर ज़र्री। उनका विवाह सरहद पर तैनात दोनों पक्षों की सेनाएं कराती हैं परंतु रस्मों के बाद वे अपने-अपने देश लौट जाते हैं गोयाकि सुहागरात से वंचित हैं।

यह तो स्पष्ट नहीं है कि ये पात्र किस मज़हब के हैं। अगर वे इस्लाम के मानने वाले हैं तो सुहागरात न हो पाने के कारण विवाह जायज नहीं रह जाता। दशकों पूर्व संभवत 1976 में केरल के निर्माता मोहम्मद भाई ने 'लुबना' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें यह मुद्‌दा था कि विवाह कब पूरा माना जाता है। दरअसल, वह फिल्म विवाह से अधिक तलाक पर आधारित थी। एक पति तैश में आकर तलाक दे देता है परंतु अपनी गलती का एहसास होने के बाद वह उससे पुन: निकाह कर लेता है परंतु इसके लिए जरूरी है कि उसकी पत्नी किसी और से निकाह करके तलाकशुदा होने पर ही अपने से पति से दोबारा निकाह कर सकती है। एक आदमी को पैसे देकर सौदा किया जाता है कि वह दूसरे दिन तलाक दे देगा। सुहागरात को किराये का पति अपनी 'पत्नी' को हाथ भी नहीं लगाता।

पत्नी कहती है निकाह अधूरा माना जाएगा। किरायेवाला निष्ठावान है और कहता है कि इस बंद कमरे में क्या हुआ या क्या नहीं हुआ यह कोई नहीं जान पाएगा। पत्नी कहती है कि ऊपर वाला तो सब जगह मौजूद रहता है। फिल्म 'लुबना' कई सवाल अनुत्तरित छोड़ देती है। आखिर लुबना क्या चाहती है? क्या वह रिवाज के नाम पर अपनी डिज़ायर प्रकट कर रही है या वह रिवाज के प्रति बंधी हुई है? किराये पर लिया पति तलाक देने से इनकार करते हुए ली गई रकम लौटा सकता है। डिज़ायर और डिनायल के चक्र में आरजुएं जागती हैं और पिसती भी हैं। इस अजब-गजब खेल पर कोई जजमेंटल नहीं हो सकता।