मेढक / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
गर्मी के दिनों में एक मेढ़क ने अपनी साथिन से कहा, "मुझे लगता है… किनारे वाले उस मकान के लोग हमारे रात्रि-गान से परेशान रहते हैं।"
उत्तर में साथिन ने कहा, "वे भी तो दिनभर बातें करते रहकर हमारी शान्ति भंग करते हैं।"
मेढक ने कहा, "मत भूलो कि रात में हम जरूरत से ज्यादा ही टर्राते हैं।"
"यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वे भी दिनभर कुछ ज्यादा ही चटर-पटर और धूम-धड़ाका करते हैं।" साथिन ने उत्तर दिया।
"वो मोटा मेढक, जो दुनियाभर को भारी-भरकम टर्राहट से हिलाकर रख देता है, उसके बारे में क्या कहना है?" मेढक ने पूछा।
"राजनेताओं, पुजारियों और वैज्ञानिकों द्वारा इस किनारे पर आकर यहाँ की आबोहवा को शोर-शराबे से भर देने के बारे में जो तुम्हारा कहना है, वही उसके बारे में मेरा कहना है।" साथिन ने जवाब दिया।
"ठीक है; लेकिन हमें मनुष्यों से बेहतर बनना चाहिए। हमें चाहिए कि हम रात में चुप रहें और टर्राहट को अपने सीनों में दबाए रखें। भले ही चन्द्रमा हमें उकसाए या तारे हमसे गाने की गुजारिश करें। हमें कम-से-कम एक या दो या तीन रातों तक तो शान्ति बनाए ही रखनी चाहिए।" मेढक ने कहा।
इस पर साथिन बोली, "मैं सहमत हूँ। देखते हैं कि तुम्हारा विशाल हृदय क्या करिश्मा करता है?"
उस रात सारे मेढक शान्त रहे। आगामी रात भी वे शान्त रहे। तीसरी रात भी वे नहीं टर्राए।
और फिर, गजब की बात हुई। झील के किनारे वाले मकान में रहने वाली बातूनी औरत जब तीसरी सुबह नाश्ते के लिए नीचे आई, तो चीखते स्वर में अपने पति से बोली, "तीन रातों से सो नहीं पाई हूँ। मेढकों की टर्र-टर्र के बीच गजब की नींद आती थी। लेकिन कुछ-न-कुछ हुआ जरूर है। तीन रातों से वे जरा भी नहीं टर्राए। नींद न आने से मैं तो पगला ही गई हूँ।"
मेढक ने यह सुना। वह साथिन की ओर घूमा और आँखें मिचमिचाते हुए बोला, "और हम चुप रहकर पगला गए हैं। है न?"
"हाँ," साथिन ने कहा, "रात की खामोशी हम सब पर भारी थी। और मैं समझती हूँ कि उन लोगों के लिए, जिन्होंने शोर को ही अपने खालीपन को भरने का साधन बना लिया है, हमें अपना गाना त्यागने की जरूरत नहीं है।"
और उस रात न तो उनका सुर सुनने की चन्द्रमा की प्रार्थना बेकार गई और न ताल सुनने की सितारों की।