मेमना / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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कोई आहत मेमना मिमिया रहा था।

वह फुलमां को बुरी तरह घसीट रहा था। वह बार-बार छूटकर बिजली की गति से पीछे की ओर दौड़ती, परंतु उतनी ही तेजी से बूढ़ा उसे दबोच लेता। अपने पंजों में जकड़कर वह फिर उसे घसीटने लगता, वह फिर प्रतिरोध करती। दोनों में काफी देर तक रस्साकशी चलती रही। वे बुरी तरह हांफ रहे थे, परंतु फिर भी लड़ने की मुद्रा बनाए हुए थे। वे घायल मुर्गे थे, शायद घायल पहलवान, जो एक-दूसरे के प्रहार की प्रतीक्षा कर रहे थे।

वे आकाश में लटके हुए थे। चाहते तो एक-दूसरे को धक्का देकर नीचे गिरा सकते थे। दोनों के मन में यह विचार आया भी, परंतु वे..... इस भयावह स्थिति के लिए तैयार नहीं थे। मृत्यु सामने दिखाई देती हो तो डर लगना स्वाभाविक है। परंतु कभी-कभी किसी दूसरे को मृत्यु के मुंह में धकेलते हुए भी एक भय, एक अनिष्ट हवा में तैयार धुंधला जाता है।

धौलाधार पर फिसल रही स्निग्ध चांदनी एकाएक मटियाने लगी। ‘हुआ’ ‘हुआ’ तथा सांप की फुंफकार की मिली-जुली ध्वनि पर्वत श्रृंखला से टकराने लगी। शायद किसी विषधर ने गीदड़ को लपेट लिया था।

फुलमा फुदक रही थी एक चिड़िया-सी, हंस-सी फड़फड़ा रही थी। वह एक चोटी पर जा खड़ी हुई। उसने एक बड़ा-सा पत्थर नीचे लुढ़का दिया। पत्थर के पहाड़ से फिसलने की गड़गड़ाहट सन्नाटे को चीर गई। वह अपनी विजय पर मुस्करा दी। बोली, ‘हूं! दब गए ना! बेवकूफ! तुम्हारी बिट्टीहूं तो क्या हुआ? बिट्टी को बिट्टी ही समझो न, मिट्टी नहीं। बड़े कुम्हार बने फिरते हैं, जैसा चाहेंगे वैसा रूप दे लेंगे। क्या बात है? लेकिन यह मिट्टी बेजान नहीं है, इसमें भी धड़कता दिल है तथा खून में कल्पना के बिंब हैं। यह कुम्हार के हाथों को भी जकड़ सकती है... तोड़-मरोड़ सकती है। कुम्हार? जो खुद मिट्टी है।

शायद यह कुम्हार का कसूर नहीं है। इसका सारा कारण बर्फ की परतों में दब जाना है। सब गड़बड़ ठंडी खोपड़ी की है। बर्फ में जमी हुई खोपड़ी, बर्फ का ही एक ठंडा टुकड़ा। निरा पत्थर.... स्पंदनहीन, संवेदनहीन। ‘हुआ-हुआ’ तथा फुंफकार की मिली-जुली ध्वनि शांत को चुकी थी। शायद गीदड़ ठंडा हो चुका था।

एक दिन वह बहुत-बहुत खुश थी। उसने अपना चोला डोरा उतार फेंका था। वह बार-बार मेमने को चूम रही थी, मेमना जो नग्न घूमता है। मेमना, जो कभी कपड़े नहीं पहनता.... मेमना जो देवताओं से मीठा मिमियाता है। यह भी क्या जिन्दगी हुई कि जब तक कपड़े फट न जाएं, तब तक उन्हें अपने ऊपर लटकाए रखो। हू-हू करते भेड़ बकरियों के पीछे चलते रहो। यों ही जिन्दगी काट दो... जैसे कोई चील का पेड़ हो.... अंतर केवल चलने का है। चील का पेड़ चल नहीं सकता और हम रुक नहीं सकते।

उसने चोला-डोरा उतार दिया था तथा चूड़ीदार पायजामा तथा कुर्ता पहन लिया था। ‘तुम तो परी लगती हो।’ वह धीमे स्वर में बोला था।

‘सच?’

‘हूं-हूं, सच।’

‘झूठा कहीं का! और वह लजाई-सी, सकुचाई-सी छुईमुई हो गई। उसके भीतर की नारी जाग उठी थी। आदि मानव तथा आदि नारी में परस्पर आकर्षण का स्फुरण हुआ था। आदम ने हौवा को पहचाना था।

छन्नू की आंखों में बिजली-सी कौंध गई थी, एक धार स्पष्ट उभर आई थी।इससे पहले भी वे मिले थे, परंतु परिचय धीरे-धीरे आत्मीयता में बदलता गया था। यह मिलना बहुत बार तो नहीं, परंतु वर्ष में एक बार अवश्य होता है। सर्दियां बीत जाने पर जब सब गद्दी अपनी भेड़-बकरियां लेकर पर्वतों पर चढ़ने लगते, अपने घर लौटने के लिए गुनगुनाते, तभी गुज्जर लोग अपनी भैंसों की डार को लेकर मैदानों को छोड़ पर्वतों पर आ पहुंचते। यह स्थल होता था, जहां फुलमा तथा छन्नू की भेंट हो जाती। बस, साल में एक दो बार। वर्ष भर विरह छाया रहता। एक को पर्वतों के नीचे उतरने की उत्सुकता रहती है तो दूसरे को पर्वतों पर चढ़ने की।

एक लम्बा अंतराल।

एक मधुर परंतु संक्षिप्त मिलन। प्रेमांकुर का पेड़ बन जाना।

वे न्युगल खड्ड के पास ठहरे हुए थे। हर वर्ष यहीं ठहरते थे। वह चोला-डोरा उतार आई थी। कुर्ते पायजामे में बहुत ही चुस्त लग रही थी। अच्छी लग रही थी, आकर्षक।

मां-बाप ने उसे घूरकर देखा। सांप की भांति फुंफकारते हुए भुटलो ने कहा, ‘यह क्या पहन आई?’

‘कपड़े! क्यों, कुछ और दिखाई देता है?

‘नहीं, यह हमारा पहरावा नहीं है।’ घासीराम बुदबुदाया।

‘पहरावा भी कहीं किसी की बपौती होता है?’

‘हां, होता है। जो तुम पहनकर आई हो, वह बन गुजरों का पहरावा है। हम लोग ऐसे कपड़े नहीं पहनते।’

‘तो मुझे भी बन गुजर ही समझ लो।’

‘बकवास बंद करो।’

‘क्यों? हम भी तो वन-वन, पर्वत-पर्वत खाक छानते फिरते हैं। उनमें और हममें कोई भी तो अंतर नहीं है।’

‘अंतर क्यों नहीं है! वे नी..... दूध बेचने वाले.... पानी तोलने वाले... और हम ऊन बेचने वाले। हैं तो दोनों व्यापारी। तुम्हारी बात में दम नहीं है।’ थोड़ा रुक कर वह फिर बोली, ‘वे तो दूध ही बेचते हैं और हम सारी उम्र भेड़ की ऊन उतारते रहते हैं तथा जब भी जी में आया, भेड़ की खाल उधेड़कर खलडू (थैला) बना लेते हैं तथा मांस खा जाते हैं। निर्मम.. निर्दयी कहीं के।’ फुलमा की आंखों में मां-बाप के प्रति अविश्वास एवं तिरस्कार की भावना झलक रही थी। मौन की एक दीवार खड़ी हो गई थी। सब अपने-अपने अंदर सिमट गए थे। एकदम शांत।

फुलमां का आकार बढ़ता जा रहा था।

घासीराम बौना हो गया था... वर्तमान की कटुता उसे कहीं पीछे भूतकाल में घसीटकर ले गई। लेकिन वहां भी आहत मेमने की मिमियाहट सुनाई देती थी। वह कानों पर हाथ रखकर आवाज को न सुनने का प्रयत्न करता, परंतु वह आहत स्वर उसकी अपनी रगों में खून के माध्यम से बोलने लगता। स्वर बराबर तीव्र होता जाता।

दरअसल सारी योजना की गड्डमड्ड हो गई थी। वह तो चाहता ही नहीं था, परंतु सुनकू भट्ट के बार-बार कहने पर उसने वह सब स्वीकार कर लिया था... पता नहीं कमजोरी के दिन क्षणों में! शायद उसका खून चल निकले... शायद परंपरा बनी रहे।

उसने बढ़िया-सा मेमना चुन लिया था, लेकिन फिर सुनकू ने कहा था, घासी मेमना तो दान कर दो और.... और

‘नहीं-नहीं मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। कभी नहीं....’ घासी का दयालु इंसान चौंक उठा था, चिल्ला उठा था।

लेकिन सुनकू कई दिन तक उसे उकसाता रहा, भड़काता रहा, उज्जवल भविष्य के सपने दिखाता रहा था। एक नन्हा-सा बच्चा होगा, मेमने जैसा, कोमल-सा, सुंदर-सा... जो जीवन का आधार बनेगा।

उसका विश्वास डगमगाने लगा था। अपने से बढ़कर संसार में कुछ नहीं लगा उसे। कुछ भी तो नहीं लग रहा था।

फिर एक दिन सुनकू ही अचानक दो नन्हीं-नन्हीं आंखों को घेर लाया था। घासी घटना की कल्पना से ही रिरिया उठा था। वह बराबर न न करता रहा। सुनकू के सब्र का बांध टूट रहा था। वह उन नन्हीं आंखों को ललचाकर नीचे न्युगल खड्ड में ले गया था, धारा के उस पार वृक्षों की आड़ में। मेमना भी वहीं बांध दिया गया।

धारा के इस पार वह घासी को मनाता रहा था... यह लाओ, वह लाओ... घबराओ नहीं, परंतु घासी राम का दिल बड़ी बेरहमी से धड़क रहा था... अनिष्ट की आशंका.... एक भय.... एक अपराध भावना।

पानी बरसने लगा था। सुनकू जल्दी काम करने के लिए उकसा रहा था.... अंधेरा पहले ही सघन होता जा रहा था। अंधकार ही अंधकार या चारों ओर।

घासी तैयार नहीं हो पा रहा था।

पानी की धारा तेज हो रही थी। तूफान... भयंकर तूफान छा गया था... इस जालिम को भी आज ही अपना रूप दिखाना था। सुनकू को उतावली लगी थी मेमना उसे मिल जाएगा। उधर घासीराम खुश था।.... धारा का बढ़ना तथा पानी का चढ़ना उसे राहत पहुंचा रहा था।

धारा के पार चार नन्हीं-नन्हीं आंखें चमक रही थीं। आतंकित आंखें। कहीं अचानक खो जाने का भय या कमरे में बंद हो जाने की अनुभूति। या जंगल में हिंसक जानवरों के बीच पड़ जाने की स्थिति। बहुत देर तक रोने की आवाज जैसा कुछ सुनाई देता रहा। फिर धीरे-धीरे आवाजें वर्षा की गड़गड़ाहट में विलीन हो गई। मेमने ने मिमियाना बंद कर दिया था। रात-भर बारिश होती रही, न्यूगल में पत्थर गड़गड़ाते रहे... लुढ़कते-फिसलते रहे। ‘अच्छा ही है, धारा तेज हो गई है और पार जाने के लिए तरंगड़ी भी नहीं है। नहीं तो सुनकू हो-हल्ला मचा देता...’ उसने सोचा था।

सुनकू उस पार पहुंचने के लिए तिलमिला रहा था। अंत में दोनों उस पार पहुंच गए थे। नन्हा तथा मेमना शांत थे.... शायद रात भर की बारिश तथा ठंड ने उन्हें थका दिया था।

सुनकू ने नन्हें को हिलाया तो उसकी चीख निकल गई। काला भयानक फणिधर फुंफकार रहा था। दोनों बेतहाशा भागे। सुनकू तो सांप की जकड़ में आते-आते बच गया था।

घासीराम कांप गया था। इतना बड़ा अपराध.... ऐसा भयानक अपशगुन! सोते जागते उसे दो नन्हीं आंखें दबोचे रहतीं। वह बदहवास-सा घूमता रहता और बुदबुदाता, अच्छा ही हुआ, बारिश होने लगी थी.... अच्छा ही हुआ लेकिन मैंने कुछ नहीं किया। उसकी इच्छा से ही सब कुछ हुआ...। जीवन तो बस एक कांच का गिलास है, जो कभी भी गिरकर टूट सकता है। मिट्टी का बर्तन बनाने वाला भी वह, तोड़ने वाला भी वह। फिर उसे लगता हैसे जीवन गद्दी के मेमने के समान है। क्या पता किस मोड़ पर वह उसे काटकर वह अपने देवताओं को खुश करने लगे।

दो नन्हीं-नन्हीं सुंदर आंखों की चमक असमय ही बंद हो गई थी... सुनकू ने ही उकसाया था.... लेकिन वह स्वयं भी तो डांवाडोल था। नहीं, सब दोष सुनकू का ही था। ऐसा सोचकर उसे थोड़ी राहत मिलती।

उसे हर बालक में वही दो आंखें दिखाई देतीं।

सर्दियों में जब भी वह अपनी भेड़-बकरियों को लेकर नीचे उतरता तथा न्युगल के पास से गुजरता तो उसकी आंखों में एक भय भर जाता।


शायद वह यहीं कहीं भटक रहा हो। आत्मा तो भटकती ही होगी। कभी उसकी इच्छा होती कि नन्हें की आत्मा उसे आकर दबोच ले, तो इस अशान्ति से मुक्ति मिले। वह खोया-खोया रहता।

फिर उनके जीवन में फुलमां का पर्दापण हुआ था। भुटलो तथा घासीराम बहुत खुश थे परंतु फुलमां अजीब-सी लड़की थी। उसकी आंखों में एक प्रश्नचिन्ह दिखाई देता था। शायद वे ही नन्हीं आंखें... शायद उसी ने जन्म लिया हो-वह सोचता।

अभी वह पांच साल की ही थी कि न्युगल के निकट पहुंच कर बोली, बापू, चलो नीचे चलें।


‘क्यों, घासीराम ने पूछा था।

‘मैं आपको एक वृक्ष तथा पत्थर दिखाऊँगी... वे दोनों बोलते हैं।’

‘हैं, क्या कहा, बोलते हैं?’ वह घबरा गया था।

फुलमां ठीक उसी स्थान पर पहुंच गई थी, जहां उन नन्हीं आंखों की चमक विषधर की कुंडली में विलीन हो गई थी। वो बेतहाशा भागने लगा था... पत्थरों पर पड़ता-गिरता, उलझता-कूदता दौड़ रहा था.... उसकी दौड़ अनंत थी...... उसका मार्ग अथाह था।

फुलमां ने पुकारा था, ‘बापू! रुक जाओ।’

लेकिन वह नहीं ठहरा था। वह भाग रहा था.... अपने आप से दूर। कहीं बहुत दूर निकल जाने के लिए।

वृक्ष बोल रहा था, ‘यही वह स्थल है।’

पत्थर चिल्ला रहा था, हां मैं वही हूं... जहां दो नहीं चार नन्हीं नन्हीं आंखें एकाएक बुझ गई थीं। सारे वातावरण में मेमने की मिमियाहट फैल गई। फुलमा तथा घासी राम न्युगल से बाहर आ गए थे.... वे भागते जा रहे थे.... फुलमां हैरान थी।

पृथ्वी डगमगा उठी। न्युगल के पत्थरों की गड़गड़ाहट दूर-दूर तक सुनाई दे रही थी।

हिल्लन लगता है।’ घासीराम बुदबुदाया।

‘कौन-सी नई बात है।’ भुटलो ने कहा।

‘भूकंप! आह! पृथ्वी का चलना कितना अच्छा लगता है! परमात्मा करे, सारी दुनिया डोल जाए। सब अस्त-व्यस्त हो जाए। सब कुछ बदल जाए। फुलमां सहज-स्वाभाविक स्वर में कह रही थी।

‘क्यों?’ घासीराम ने पूछा था।

‘ताकि सब कुछ बदल जाए। नए सिरे से निर्माण हो।’

‘तू भी तो मर जाएगी फिर।’

‘मरकर भी मैं फिर जी उठूंगी।’ वह अपनी कल्पना में खो गई थी।

‘अच्छा!’ घासीराम के मुंह से निकल गया था।

‘हां’ फुलमां प्रसन्न थी।


क्षण भर के मौन के बाद वह बोली थी, ‘मां, वह बहुत ही अच्छा है।’

‘कौन? समझाते हुए भी उसकी मां ने पूछ ही लिया।

‘वही छन्नू। इतना लंबा चौड़ा! तंबे और कुर्ते में कितना अच्छा लगता है।’

‘तू बेहया हो गई है।’

‘उसके पास बहुत भैंसें हैं।’ फिर बोली, ‘लेकिन मेमने नहीं।’

भुटलो फुंकाकर उठी - ‘मैं तुझे उसका नाम नहीं लेने दूंगी.... तूने समझा क्या है?’ कहकर भुटलो ने जोर से फुलमां का कुर्ता खींच लिया, जो चरर्र करके फट गया। फुलमां ने बाकी का कुर्ता स्वयं ही खींचकर फाड़ डाला। बोली, ‘बस, खुश हो न अब तो! लेकिन मैं चोला नहीं पहनूंगी... छन्नू मेरे लिए और कुर्ता लाएगा तो पहनूंगी।’

वह नंग-म-नंग घूमने लगी। चूड़ीदार पायजामे में और भी लंबी लगने लगी। घासीराम शर्म से पिघलता हुआ उठकर चला गया था। वह फुंफकारती रही थी।

समय से पहले ही वह पर्वतों पर चढ़ने लगे थे ताकि वह दूर निकल जाएं और फुलमा की छन्नू से भेंट न हो।

गीदड़ ‘हुआ’, ‘हुआ’ करने लगे थे।

घासीराम अचानक उठा और फुलमा को घसीटने लगा। वह दांत काटने लगी।

‘मैं नहीं जाऊँगी!’

‘तुम्हें जाना ही होगा!’

‘नहीं, मैं उससे मिले बिना नहीं जा सकती!

‘तुम उससे नहीं मिल सकती!’ फिर चालाकी से घासीराम ने कहा था, ‘क्या पता वह आए ही नहीं!’

‘आएगा क्यों नहीं! जरूर जाएगा।’

तभी भुटली एक नवजात मेमने को लेकर वहां पहुंची, जहां बाप बेटी मुर्गों की तरह लड़ रहे थे और एक ही बार में मेमने की गर्दन अलग कर दी।

मेमने का आर्तनाद अब भी घाटी में गूंज रहा था।