मेरा घर कहाँ है? / प्रेम गुप्ता 'मानी'

Gadya Kosh से
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"बाबूजी नहीं रहे..." , पिघले हुए शीशे की तरह यह वाक्य मेरे कानों में गिरा। मैं लड़खड़ाकर वहाँ रखी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई। लगा, जैसे मेरे पैरों में जान ही नहीं। यद्यपि इसका अंदेशा मुझे कई महीने पहले से था; पर इतनी जल्दी यह घड़ी आ जाएगी, सोचा नहीं था। अभी पंद्रह दिन पहले ही तो विकास ने फोन पर कहा था, "दीदी...तुम बिलकुल परेशान नहीं होना, बाबूजी अब पहले से ठीक हैं। उन्होंने खाना-पीना भी शुरू कर दिया है। सुबह उठकर चार कदम चलते भी हैं, पर।"

बात करते-करते विकास हल्का—सा अटका था तो मैं शंका से भर उठी थी, "पर क्या विकास...? तुम कहीं मुझसे कुछ छिपा तो नहीं रहे हो?"

"अरे नहीं दीदी," विकास हड़बड़ा गया था, "तुमसे कुछ क्यों छिपाऊँगा? बयासी की उम्र में सब एकदम ठीक तो नहीं हो सकता न? जितना बताना था, सब बता तो दिया। अब छोटी-छोटी बात के लिए तुम कानपुर से दिल्ली कितनी बार आओगी? फिर जीजू को भी तो दिक्कत होती है न...इसी से।"

खैर! बाबूजी थोड़ा ठीक हैं, सुनकर थोड़ी तसल्ली हुई मुझे, "अच्छा, माँ से बात कराओ... ।"

मेरे कहते ही मोबाइल बंद हो गया। दो-तीन बार मिलाया; पर जब उठा नहीं तो लगा, विकास शायद बाबूजी में व्यस्त हो गया होगा। माँ तो वैसे भी फोन पर ज़्यादा बात नहीं कर पाती थी। बाद में जब भी मैं फोन करती, विकास का वही जवाब, लेकिन आज...यह अचानक...?

"अरे भाई, आज कुछ नाश्ता-वास्ता मिलेगा या नहीं...? साढ़े सात बज रहे।" गुसलखाने से बाहर आते राहुल ने कहा, तो मेरे मुँह से बमुश्किल निकला...बाबूजी... ।

"हाँ, समझ गया...तो क्या...? बयासी साल काफी होते हैं जीने के लिए... । इतना बीमार थे, जाना तो था ही उन्हें...अब इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है? अब इसी तरह रोनी सूरत लिये बैठी रहोगी या फिर कुछ खाने को भी दोगी...? अब बीमार बुढ़ऊ चल बसे, तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं भी अन्न-जल त्याग कर जान दे दूँ।"

राहुल की आवाज़ की तल्खी और बोलने के तरीके ने मुझे भीतर तक तोड़कर रख दिया। वैसे तो वह अक्सर मेरे माँ-बाप के बारे में अंट-शंट कहते रहते थे; पर इस तरह किसी की मौत पर...?

कुछ तीखा कहने से तो मैंने अपने-आप को रोक लिया था; पर आँखों की कोटरों में भरा पानी बाँध तोड़कर बह निकला। पता नहीं क्या सोचकर राहुल कुछ और कहे बिना रसोई में चले गए, शायद चाय बनाने के लिए... । मेरे दिल की धड़कन वैसे भी बाबूजी की इस अचानक ख़बर से बहुत तेज़ थी, तिस पर राहुल की संवेदनहीनता।

मेरे पैरों से जैसे किसी ने पूरी ताकत खींच ली हो; पर दिल्ली तो जाना ही था। अभी दो महीने पहले ही गई थी दिल्ली...बाबूजी की ख़राब तबीयत का सुनकर। उन्हें रोग भी तो दस तरह के थे...हाई ब्लडप्रेशर...शुगर...किडनी। जवानी में अपनी सेहत और रोबदाब के लिए जाने वाले बाबूजी इस उम्र तक आते-आते क्या से क्या हो गए थे।

हम दोनों भाई-बहन को बाबूजी जान से ज्यादा प्यार करते थे, पर माँ...वे तो हमेशा उनकी पैर की जूती बनी रही। अपने दोस्तों से वे अक्सर कहा भी करते थे, "औरत को हमेशा पैर के नीचे दबा कर रखना चाहिए। ज़रा-सी ढील दी कि वह सिर पर चढ़कर नाचने लगती है।"

छोटा होने के कारण विकास को कभी कोई फ़र्क नहीं पड़ा पर समझदार होने पर माँ के दर्द को महसूस कर मैं भीतर तक भीगती रहती थी पर कुछ कर नहीं पाती थी। बाबूजी का भरपूर प्यार-दुलार पाकर भी उनके रोबदार कड़क आवाज़ के आगे कभी कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं पड़ी।

पर इधर साल भर से बाबूजी एकदम बदल-से गए थे। लगता ही नहीं था कि ये वही बाबूजी थे जो छोटी-छोटी बातों के लिए माँ को दोष देते, उनकी एक ग़लती पर उन्हें इस तरह दुत्कारते कि लगता जैसे वह उनकी पत्नी नहीं, कोई पालतू पशु हो; जिन्हें मालिक के आगे हर वक़्त दुम हिलाना होता है।

इतना सब होने के बाद भी बाबूजी खाने की थाली हमेशा माँ के हाथों से ही लेते थे। थाली भी कैसी... एकदम साफ़-सुथरी, करीने से सजी... दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दही, चटनी, सलाद और साथ में मूँग का पापड़ भी। इनमें से कोई भी चीज़ छूट जाती, तो थाली उड़ती हुई सीधे कमरे से बाहर जाती। कमरे के सारे परदे ख़राब हो जाते, जिसे उसी वक़्त फ़र्श की सफाई के बाद माँ को ही धोना पड़ता।

निःशब्द रोती माँ साफ़-सफाई के बाद बाबूजी के मान-मनौव्वल में इस तरह जुट जाती, जैसे नौकरी से निकले जाने के भय से कोई कर्मचारी अपने बॉस से चिरौरी कर रहा हो। काफी देर गुस्सा रहने के बाद माँ के साथ-साथ हम दोनों को परेशान देख बाबूजी आखिर में मान ही जाते और तब पूरी-कचौड़ी व मसालेवाली सब्जी की सुगंध से घर महक उठता...पर इधर...?

बुढ़ापा और तन की अशक्तता इंसान को किस कदर बदल देता है, बाबूजी को देखकर मैं अक्सर सोचती थी। विकास और मेरी शादी के बाद बाबूजी जैसे कई बोझ से मुक्त हो गए थे। नौकरी से रिटायरमेंट के साथ ही वे जैसे अपने रोबदाब से भी रिटायर हो गए थे। अब माँ भी पहले जैसी नहीं रह गई थी। बाबूजी के सामने थोड़ा खुलकर बोलने तो लगी थी; पर बावजूद इसके उन्होंने अपने हर दर्द को चुप्पी का बाना पहनाए रखा था। शादी के बाद मैं तो कानपुर आ गई थी; पर विकास और उसकी बहू के साथ भी उन्होंने अपने दर्द को कभी नहीं बाँटा।

"लो, चाय पी लो..."-राहुल ने चाय का कप मेरे सामने मेज पर रख दिया; पर मैंने उस ओर देखा भी नहीं। रोते हुए आँखें धुँधलाने-सी लगी थी। दिमाग़ ने जैसे काम करना बंद कर दिया था। पिछली बार का देखा बाबूजी का चेहरा बार-बार आँखों के आगे आ रहा था और उससे ज़्यादा माँ...कैसी होगी माँ...? वह तो एकदम खाली हो गई होगी। यद्यपि भीतर से तो वह पहले भी खाली ही थी, पर अब तन से...?

इस उम्र में भी अपने अशक्त तन से बाबूजी के आगे हर वक़्त व्यस्त रह कर डोलती तो रहती थी। दिन कब चहलकदमी करता आगे निकलकर अँधेरे से घिर गया, शायद वह कभी जान ही नहीं पाती थी पर अब बाबूजी के जाने के बाद माँ के भीतर के खालीपन ने उसे किस कदर घेर लिया होगा, यह सोचकर मेरी रुलाई छूट रही थी।

मेरी आँखें एक ऐसा पहाड़ी झरना बन गई थीं, जिसमें मैं अकेली ही भीग रही थी। राहुल के दुबारा चाय पीने को कहने की बात से वह झरना थोड़ा हल्का हुआ, तो भीगती आवाज़ में मैं इतना ही बोल पाई, "मुझे अभी जाना है।"

"अरे अभी कैसे जाओगी...? मेरे ऑफिस का टाइम हो रहा है...अभी कामवाली भी तो नहीं आई। फिर अभी दो महीना पहले ही तो वहाँ रह कर आई हो। दुबारा इतनी जल्दी जाने की ज़रूरत ही क्या है?"

"दुबारा से क्या मतलब है तुम्हारा? मुझे कुछ नहीं सुनना, बस बाबूजी का चेहरा आखिरी बार देखना चाहती हूँ। तुम कुछ दिन खाना बाहर ही खा लेना।" वेग से बरसती आँखों को पोंछती हुई मैं अन्दर कमरे में आ गई।

सूटकेस में अपने कपड़े रखने से पहले मैंने मुंबई विक्की को फोन किया, तो मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोल पड़ा, "मम्मीsss...मामा का फोन आ गया था कि नाना नहीं रहे।"

"तुम भी दिल्ली पहुँच रहे हो न?"

"नहीं मम्मी...कल ऑफिस में मेरी ज़रूरी मीटिंग है। अभी नई नौकरी है, छुट्टी नहीं मिलेगी।"

"तुम बॉस को फ़ोन करके बता दो न।" मेरी आवाज़ के गीलेपन को विक्की ने महसूस कर लिया था शायद, इसलिए मुझे मनाते हुए बोला, "मम्मीsss...दुखी मत हो। मैंने ख़बर मिलते ही फोन किया था, लेकिन उन्होंने कहा कि या तो कल की मीटिंग ज्वाइन कर लो या फिर परमानेंटली छुट्टी ले लो। मम्मी, तुम समझने की कोशिश करो...यहाँ नाना-नानी या दादा-दादी की कोई अहमियत नहीं है।"

"तो ठीक है...अपने बॉस से पूछ लेना कि जब मम्मी मर जाएगी, तब तो छुट्टी दे देंगे न।" विक्की कुछ कहता, उससे पहले ही मैंने फोन काट दिया।

विक्की नहीं आ रहा था। नई नौकरी थी...उसकी तो मजबूरी थी...लेकिन राहुल...? वह भी जाने को तैयार नहीं। मुझे फिर समझाने आए था, "तुम भी जाकर क्या करोगी? अभी तो बाबूजी से मिलकर आई हो, फिर वहाँ तो विकास ही सब करेगा न...वो तो है ही वहाँ। तुम्हें तो वहाँ कोई काम नहीं।"

राहुल की बात सुनकर मैं तिलमिला गई थी, "तुम्हारे माँ-बाप जब बीमार पड़े थे, तो तुम तो अपने दो-दो भाइयों के रहते भी महीने भर उनके पास रहे थे। मैंने भी उनकी सेवा में कोई कसर नहीं रखी थी और तुम हो कि। अपने बाबूजी के लिए मुझे तुम्हारी इजाज़त की कोई ज़रूरत नहीं है। मैंने ड्राइवर को फोन कर दिया है। वहाँ पहुँचकर वापस भेज दूँगी। आज तुम ओला से चले जाना।"

"मैं क्यों ओला से जाऊँ...?" अप्रत्याशित रूप से राहुल चीख पड़े, "तुम्हें जाना हो, तो तुम जाओ ओला से...मैं अपनी गाड़ी नहीं दूँगा, समझी।"

सहसा मैं अचकचा गई। राहुल हमेशा मेरा-तेरा करते रहते हैं, लेकिन मैं उनकी आदत समझकर हमेशा नज़रअन्दाज़ करती रही, पर इस दुःख के समय...?

रोते-रोते मेरी आँखों में भी जैसे एक अजीब—सा दर्द उभर आया था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। पिछली बार वहाँ से आते समय बाबूजी से लिपटकर जब मैं रोई थी, तो बाबूजी भी बुरी तरह रो पड़े थे, "बेटा...इस बार जा रही हो, तो समझ लेना मुझे आखिरी बार देख रही हो। डॉक्टर ने तो पहले ही जवाब दे दिया था, ये तो तुम्हारी माँ के पुण्य-प्रताप से ज़िंदा हूँ बस्स।"

आगे वह बोल नहीं पाए थे। माँ ही तड़पकर बोली थी, "बिटिया...भगवान से मनाओ कि इनसे पहले मैं चली जाऊँ।"

"तुम भी क्यों जाओ माँ...भगवान से मनाऊँगी कि अभी बरसों तुम दोनों का ही साया बना रहे।"

वापस आकर मैं खुद कितनी बार रोई थी, याद भी नहीं। बाबूजी का हाल जानने के लिए जब भी फोन करती, विकास ही से बात होती। माँ वैसे भी ज्यादा बात नहीं कर पाती हैं, तिस पर बीमार बाबूजी की सेवा-टहल व उम्र ने उन्हें जितना नहीं थकाया था, उतना बीमारी ने तोड़ दिया था...और अब...?

सूटकेस ठीक कर मैंने ओला बुक कर दिया। राहुल अपने ऑफिस के लिए तैयार होने लगे। उन्होंने मेरी ओर एक बार मुड़कर भी नहीं देखा। अचानक ही मेरे मुँह से निकला, "भाड़ में जाओ... । मैं अपनी माँ की तरह नहीं, जो तुम्हारे पैरों की जूती बनी रहूँ।" राहुल ने शायद सुना नहीं, वरना तूफ़ान ही आ जाता। ओला के आते ही बिना कहे-सुने मैं घर से निकल आई।

ओला का ड्राइवर भी बहुत अच्छा था। मेरे बार-बार कहने के बावजूद...भैया ज़रा तेज़ चलाओ... वह सँभलकर चलाता रहा, "मैम, जहाँ सेफ होगा, वहाँ तेज़ ज़रूर कर दूँगा। आप आराम से बैठिए... बिलकुल परेशान न होइए!"

परेशान न होकर आराम से बैठने की बात सुनकर मेरी आँखें फिर ढुलक गई। रियर-व्यू मिरर में शायद उसने मेरा चेहरा पढ़ लिया था, उसने गाड़ी थोड़ी तेज़ कर दी।

सारे रास्ते रह-रहकर मेरी आँखें भीगती रही। उन्हें जितनी बार रुमाल से सुखाने की कोशिश की, वे फिर गीली हो जातीं। पहले मैं जब भी कहीं गाड़ी से जाती थी, रास्तों को निहारती जाती थी। कहाँ कैसे पेड़ हैं, जाम में कितनी गाड़ियाँ फँसी हैं, कौन, कैसे चल रहा, दुनिया में कैसे रंग-बिरंगे लोग है, वगैरह-वगैरह...पर आज...? इस वक़्त रास्ते मुझे सांत्वना दे रहे थे...घबराओ मत, जल्दी पहुँच जाओगी। बाबूजी का चेहरा देख लेना आकर। पर इसके साथ ही ढेरों ख्याल...कैसे लग रहे होंगे बाबूजी? सफ़ेद चादर में लिपटे हुए... रक्तविहीन सफ़ेद चेहरा...कंकाल-सा शरीर और उस शरीर से लिपटकर जार-जार रोटी माँ...विकास का मुरझाया चेहरा और उसके बच्चों की दुविधाग्रस्त-सहमी आँखें। बाबूजी लेबर ऑफिसर थे, रिटायरमेंट के बाद भी जाने कितनों का मिलना-जुलना था। आज की ख़बर सुनकर सब आकर वहीं बैठे होंगे। हर किसी को बस बेसब्री से मेरा इंतज़ार होगा। न चाहते हुए भी मेरा अचेतन मन तरह-तरह की बातों में उलझा हुआ बुरी तरह सक्रिय था और यही सक्रियता मुझे बेतरह बेचैन किए हुए थी।

बेचैनी से भरी मैं अपने में इतना खोई हुई थी कि गाड़ी कब दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर गई, मैं जान ही न पाई। तन्द्रा तो तब टूटी जब ड्राइवर की आवाज़ कानों में पड़ी, "मैम, जो रूट मैप दिखा रहा, उसी से चलूँ या आप किसी और रास्ते से चलेंगी?" मैं उसके इस तरह अचानक पूछने से हड़बड़ा गई। पल भर के लिए लगा जैसे मैं रास्ता ही भूल गई हूँ, पर दूसरे ही पल जैसे होश आ गया। ड्राइवर को निर्देश देकर बीच-बीच में रास्ता भी बताती चली। मैं बस जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहती थी, पर मुझसे भी पहले मेरा मन बार-बार घर की ओर भाग रहा था। सहसा गाड़ी जिस झटके से घर के सामने रुकी, उससे ज्यादा झटका मेरी सोच को लगा। उस झटके से मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही खिसक गई। घर के बाहर पसरे सन्नाटे ने जैसे मेरे सोचने-समझने की शक्ति ही ख़त्म कर दी। मैं गाड़ी से उतरना ही भूल गई तो ड्राइवर ने मुझे टोका, "मैम, राइड एंड हो गई... ।"

उसने मेरे बिना कुछ कहे ही मेरा सामान गेट के बाहर रखकर अपने आप ही कॉलबेल दबा दी। मेरी उस समय की मानसिक स्थिति का अंदाज़ा शायद उसे हो गया था या शायद नहीं भी...मैं ठीक से समझ नहीं पाई।

विकास ने जैसे ही गेट खोला, मैं अपने सामान की परवाह किए बगैर अन्दर की ओर दौड़ पड़ी। पर यह क्या...? अन्दर भी एक अजीब तरह का सन्नाटा पसरा था। अन्दर न बाबूजी थे, न उनके संगी-साथी। मुझे पहुँचने में पाँच घंटे क्या लग गए, सब कुछ ख़त्म कर दिया गया।

मैं चीखना चाहती थी, पर चीख नहीं पाई। सामने एक झक्क सफ़ेद साड़ी में लिपटी अपना मुरझाया चेहरा लेकर माँ बैठी थी। उन्हें देखते ही मेरे सब्र का बाँध टूट गया, "यह क्या माँ...किसी ने मेरा इंतज़ार भी नहीं किया। मैं बाबूजी को आखिरी बार देख भी नहीं पाई... ।"

माँ भरभरा कर रो पड़ी। उनके मुँह से जैसे अटक-अटककर आवाज़ निकल रही थी, "बिटिया, मेरा लाला चला गया, अब मैं कैसे जिऊँगी।"

माँ बाबूजी को प्यार और सम्मान से लाला कहा करती थीं। मैं खुद रो रही थी पर माँ को समझा रही थी, "माँ...दुखी न हो। बीमारी ने बाबूजी को कितना तोड़ दिया था, कितना कष्ट सह रहे थे...उस कष्ट से बाबूजी मुक्त तो हो गए।"

"अरे...खुद मुक्त हो गए, तो इस दुःख-कष्ट से मुझे भी मुक्त कर जाते।"

माँ का बिलखना बदस्तूर जारी था। दुःख से मेरा कलेजा भी फट रहा था पर उससे ज्यादा भीतर गुस्से का विस्फोट हुआ। पास आकर खड़े विकास पर मैं फट ही पड़ी, "तुमसे इतना भी नहीं हुआ कि मेरा इंतज़ार कर लो।"

आगे बोला भी नहीं गया। मैं फिर रो पड़ी, तो कुछ झिझकते हुए विकास मेरे पास बैठ गया, "मैं क्या करता दीदी...बाबूजी को दस बीमारी थी। शरीर फूलने लगा था, भीतर पानी भर गया था। ज्यादा देर रोकना ठीक नहीं था। सब पीछे पड़ गए थे कि क्रिया-कर्म जल्दी करो। तुम्हें बार-बार फोन कर रहा था; पर तुम सुन कहाँ रही थी। बस कहे जा रही थी मेरे पहुँचने तक रुक जाओ... ।"

उसकी बात सुनकर मैं चुप हो गई थी। कुछ देर चुपचाप बैठकर विकास भी उठकर चला गया। मैं व माँ बाबूजी को याद करके बार-बार रोए जा रहे थे। विकास की पत्नी नेहा पूड़ी-सब्जी ले आई, "दीदी...कुछ खा लो। सुबह से कुछ खाया नहीं होगा न...और माँ को भी खिला दो।"

कुछ कहने के लिए मैंने नेहा की ओर देखा, तो चिहुँक पड़ी। माँ के हाथों की सोने की चूड़ियाँ नेहा की कलाइयों की शोभा बढ़ा रही थी। नेहा ने मेरा चौंकना ताड़ लिया था, खिसियानी-सी बोली, "दीदी...वो कल रात को माँ बाबूजी के साथ अस्पताल में अकेली थीं न...तो वहाँ कोई ख़तरा न हो, इस डर से मैंने चूड़ियाँ ले ली थी। कुछ दिन में माँ जैसे ही सँभल जाएँगी, मैं वापस कर दूँगी।"

मेरे कुछ कहने से पहले ही नेहा तेज़ी से अपने कमरे में चली गई। उसके जाते ही फिर एक अजीब से सन्नाटे ने हम माँ-बेटी को घेर लिया। माँ बाबूजी को याद करके बिलख रही थीं और मैं...? मैं तो माँ के भविष्य को सोचकर हलकान हो रही थी। एक इंसान के जाते ही सब कुछ किस तरह बदल जाता है।

बाबूजी द्वारा सम्मान न पाने के बावजूद, माँ किस तरह सजी-धजी रहती थी। माँ बहुत गोरी थी और बहुत खूबसूरत भी। अपने काले-लम्बे बालों का बड़ा—सा जूड़ा बनाकर माँ जब सामने खड़ी होती थी, तो कभी-कभी मैं ही खीझ उठती थी, "अपनी बेटी बनाकर पैदा तो कर दिया, पर अपनी खूबसूरती देना क्यों भूल गई?"

माँ हँसकर रह जाती। वह कैसे कहती कि तुम दोनों अपने बाप पर गए हो...साधारण नैन-नक्श वाले। बाबूजी कभी माँ पर ध्यान नहीं देते थे; पर दूसरों का ध्यान उनके ऊपर खूब जाता था। जब पाउडर लगे हलके लम्बोतरे चेहरे पर अठन्नी बराबर लाल बिंदी और माँग में ढेर-सा लाल सिन्दूर भरकर वे सबके सामने आती थीं, तो न जाने कितनी औरतें जल-भुन जाती थी...और बाबूजी के संगी साथी...? बाबूजी ने कभी उनके सामने माँ को आने ही नहीं दिया, पर इस समय।

मेरा दिल चाक-चाक हो गया। बेतरतीबी से फैले माँ के खिचड़ी बाल...सूनी माँग और माथा...पैरों से बिछुए और पायल गायब होने से अजीब तरह का सूनापन और सबसे ज़्यादा बाबूजी को ढूँढती-सी वे माँ की आँखें।

मैंने माँ को खाना खिलाने की बहुत कोशिश की; पर वे मुँह में एक निवाला तक लेने को तैयार नहीं थी। उनकी बस एक ही रट, "तुम्हारे बाबूजी बिना खाए चले गए, उनके खाए बिना कभी कुछ खाया है मैंने? अब कैसे खाऊँ...?"

माँ का करुण विलाप मेरा सीना छलनी किए दे रहा था। समझ नहीं पा रही थी कि माँ को कैसे सँभालूँ। वैसे भी बाबूजी की बीमारी के समय से वे काफी कमज़ोर हो गई थीं। बाबूजी की चिंता में जैसे वे खुद को भूल गई थी। न समय से नहाना-धोना...न खाने की सुध। इस बुढ़ापे में भी बाल काले किए रहने वाली माँ को अपने खिचड़ी बालों की भी कोई चिंता नहीं रहती थी। दिल्ली जाने पर मैं ही ज़िद करके उनके बाल कलर कर देती थी। इसी लिए फोन पर विकास और नेहा चाहे जो कहते, पर मुझे विश्वास नहीं होता था।

नेहा जब खाना रखकर कमरे में चली गई, तो मुझे बुरा तो बहुत लगा; पर मैं चुप ही रही। कुछ कह-सुनकर थोड़े दिनों में मैं तो अपने घर चली जाऊँगी; लेकिन तब माँ का क्या होगा? वह तो इन दोनों के हवाले ही रहेंगी।

इधर माँ जार-जार रोए जा रही थी और मैं सोच की गहरी खाई में धँसती जा रही थी। माँ कम बीमार नहीं हैं। उन्हें भी दिल का दौरा पड़ चुका है...ऑर्थराइटिस के कारण पैर में अलग तकलीफ़। किसी तरह लँगड़ा-लँगड़ाकर बाबूजी के लिए दौड़ती रहती थीं। मेरे मना करने पर भी नहीं मानती थी, "बिटिया, तुम्हारे बाबूजी की सेवा कोई और नहीं कर पाएगा...उन्हें सिर्फ मैं ही समझती हूँ। देखा नहीं, वे सिर्फ मेरे हाथ का खाना ही खाते हैं।" मुझे समझाते हुए माँ का चेहरा एक अलग तरह के दर्प से चमक उठता। मैं खीझ उठती, ये माँ भी कितनी अजीब हैं। बाबूजी उन्हें ठीक से पूछते नहीं, फिर भी उनके लिए जान दिए रहती हैं। एक दिन मेरी यह खीझ उनके सामने निकल आई थी, तो उनके चेहरे पर वही गर्व भरी मुस्कान खिल उठी थी, "अरे बिटिया, तुम बाबूजी के गुस्से की बात कर रही हो। यह तो उनका स्वभाव है, वरना वे मुझे बहुत चाहते हैं। उन्होंने मुझे दो बच्चे दिए, इत्ता बड़ा घर दिया। यह सिंगार-पटार उन्हीं के दम पर तो है।"

उस समय मैं चाहकर भी माँ की बात का विरोध नहीं कर पाई थी। बाबूजी के प्रति यह उनका अगाध प्रेम था, जो उन्हें अपने ईश्वर से भी बड़ा मानता था। इस लिए आज भी वह अपने ईश्वर को भोग लगाए बिना कैसे खाती?

सुबह से माँ ने मुँह में अन्न का एक दाना नहीं डाला था, तिस पर एक दिन पहले से बाबूजी के लिए निर्जल व्रत कर रही थी। ऐसे में तो वह मर ही जाएँगी। मेरा मन एकदम से काँप उठा। जब लाख समझाने पर भी वह खाने को तैयार नहीं हुईम तो मैंने कसम देकर किसी तरह उन्हें संतरे का जूस पिला दिया।

बाबूजी की याद में दिन कब बीत गया, पता ही नहीं चला। आकाश से उतरकर शाम भी कब धरती पर झुक आई, उसका भी होश नहीं रहा। नेहा ने जब घर की बत्तियाँ जलाई, तब एक अजीब तरह के अहसास ने घेर लिया। रोशनी के पीछे भी कितना गहरा अँधेरा होता है, यह हम कभी समझ नहीं पाते...!

बत्तियाँ जलाकर नेहा वापस अपने कमरे में चली गई। विकास तो दोपहर से ही बाहर नहीं निकला था। उनके दोनों बच्चे भी घर के माहौल में इतना सहम गए थे कि नेहा ने उन्हें मेरे आने से पहले ही उनकी मौसी के यहाँ भेज दिया था। घर एकदम खाली-खाली—सा सन्नाटे की गिरफ़्त में था।

मैं और माँ एक साथ तो थे; पर कहीं कोई आवाज़ नहीं। माँ को 'लाली-लाली' कहकर पुकारने वाला जो नहीं था। माँ को किसी तरह दवा देकर मैंने सुला तो दिया था पर बीच-बीच में वे किसी बच्चे की तरह सुबक पड़ती। उनकी उस एक रट ने मेरी आँखों में झपकी की तरह आती नींद को भी जाने किस कोने में दुबका दिया था, "तुम्हारे बाबूजी को खाना देना है, वे मेरे हाथ के सिवा किसी से नहीं लेंगे।"

रात कब बीती, पता ही नहीं चला। बैठे-बैठे ही शायद झपकी में मैंने रात काट दी थी। माँ अब भी नीम बेहोशी में थीं। मैंने उन्हें जगाना ठीक नहीं समझा। सामने दीवार पर टँगी घड़ी नौ पर चहलकदमी कर रही थी। हड़बड़ाकर मैं उठी और कमरे से लगे बाथरूम में घुस गई। थोड़ी देर बाद फ्रेश होकर बाहर आई, तो जैसे मेरी साँसे अटक गईं...बाबूजी का कमरा एकदम सूना था।

वहाँ बाबूजी का सामान वैसे ही था जैसा बाबूजी छोड़ गए थे और फिर लौटने पर मौत ने उस कमरे में उनका प्रवेश वर्जित कर दिया था। पल भर मैं खड़ी बाबूजी का पलंग, उस पर रखा मसनद देखती रही, फिर बाहर लॉन में आ गई। बाबूजी जब ठीक थे, तो अक्सर लॉन में रखी कुर्सी पर आकर बैठ जाया करते थे। उन्हें वहाँ देखकर पड़ोस के कुछ उनके हमउम्र लोग वहीं आ जाया करते और फिर गपशप का जो दौर चलता, रुकने का नाम ही नहीं लेता। बाबूजी घर के भीतर जितने कड़क थे, बाहर उससे भी ज़्यादा मीठे थे। बाबूजी के उस टाइमपास से माँ भी कुछ देर राहत की साँस ले लिया करती थी।

पर अब...? लॉन में दो चार कुर्सियाँ थीं, पर सब खाली। लॉन की बाउंड्री के पास लगे छोटे से पेड़ के नीचे बाबूजी का अस्थि-कलश रखा था। विकास शायद कैलाश और नितिन के साथ जाकर उनकी अस्थियाँ चुन लाया था और अब वे घर के एक कोने में इस तरह रखी थीं, जैसे किसी ने उसे घर से निष्कासित कर दिया हो।

अस्थि-कलश देखते ही मेरी रुलाई फिर फूट पड़ी। थोड़ी देर नि: शब्द रो लेने के बाद मन थोड़ा हल्का हुआ, तो मैं वहाँ से उठकर अन्दर माँ के पास चली गई। नेहा और विकास माँ के पास ही थे और साथ में पड़ोस की राधा चाची भी। चाची बड़ी आत्मीयता से नेहा से पूछ रही थी, "दीदी के मायके से कोई नहीं आया...?"

नेहा कुछ कहती, उससे पहले ही मैं बोल पड़ी, "चाची, माँ के मायके में अब है ही कौन...? मामा-मौसी रहे नहीं और उनके बच्चे सब दूर-दूर हैं। कोई मुंबई, कोई बैंगलोर...वैसे भी इस महँगाई में कौन किसी को पूछता है...?"

मैं कुछ और कहती कि नेहा ने बात लपक ली, "मेरे मायके से सब लोग आए थे चाची...अब शान्तिपाठ में आएँगे सब।"

राधा चाची ने एक गहरा नि: श्वास भरा, "अरे कोई बात नहीं...दीदी के लिए हम लोग हैं न।"

नेहा राधा चाची द्वारा लाया गया नाश्ता-चाय ले आई पर माँ ने उस ओर देखा भी नहीं। सबके बहुत कहने पर चाय का घूँट तो भर लिया; पर नाश्ता यह कहकर खिसका दिया, "बाद में खा लूँगी।"

माँ एकदम निढाल थीं, फिर भी राधा चाची के जाने के बाद मैं उन्हें लेकर बाहर बरामदे में आ गई। घर की साफ़-सफाई के लिए सुमन आ गई थी, साथ में उसका आदमी भी। सबसे पहले बाबूजी के कमरे की सफाई होने लगी। उनका सारा सामान लॉन में रखा जाने लगा। अचानक मैं अपने को आहत महसूस करने लगी। न जाने क्यों मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। यूँ लगा जैसे बाबूजी के जाते ही उनकी याद के साथ उनकी हर पहचान को मिटाने की कोशिश की जा रही। बाबूजी का पलंग...उस पर बिछा डनलप का गद्दा...हर दिन बदला जाने वाले उनकी पसंद की खूबसूरत चादरें...और उस पर तकिये की जगह उनका इस्तेमाल किया जाने वाला डनलप का ही मसनद। बाबूजी हमेशा बाईं करवट सोते थे...एक पैर को दूसरे पर चढ़ाकर। उनके गुदगुदे से मसनद पर हमेशा झक्क सफ़ेद बड़ा—सा तौलिया रहता था। पलंग से सटकर रखी उनकी छोटी—सी मेज...सामने रैक पर उनकी लेबर-लॉ की ढेर सारी किताबें और किनारे ही खड़ी एक अलमारी, जिसमें उनके कपड़े होते। बाबूजी के पलंग के पायताने ही माँ का एक छोटी-सा पलंग।

पल भर तो मैं सन्नाटे की गिरफ़्त में रही, फिर जैसे अन्दर का ज्वालामुखी फट पड़ा, "पागल हो गए हो क्या विकास...? बाबूजी का सारा सामान बाहर क्यों निकाल रहे? एक बार माँ से तो पूछ लेते...और फिर मैं भी तो हूँ यहाँ...वो मेरे भी बाबूजी थे...तुम।"

जोर से रुलाई छूटने के कारण आगे मुझसे बोला नहीं गया। मेरी आवाज़ गुस्से में बहुत तेज़ हो गई थी। माँ खाली आँखों से सब देखती अब भी शांत बैठी थी। मुझे अफ़सोस हुआ, बेकार ये सब की ओर उनका भी ध्यान जाएगा। कितनी मुश्किल से तो शांत हुई थीं, अब फिर बिलख पड़ेंगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ...माँ उसी तरह बैठी रही...निर्जीव-सी... ।

माँ का ख्याल आते ही मैं विकास से उलझना छोड़कर मैं वापस माँ के पास आकर चुपचाप बैठ गई। पीछे से नेहा चाय और एक प्लेट में बिस्किट लिये हुए आ गई, "दीदी...गुस्सा मत हो। लो चाय पी लो और माँ को किसी तरह थोड़ा बिस्किट ही खिला दो। वह कमरा इसलिए खाली किया गया है; क्योंकि वहीं शान्तिपाठ भी होगा न। फिर बाबूजी का कुछ सामान दान में भी दिया जाएगा। अब सब कुछ विकास को ही तो करना है।" आगे कुछ और कहे बिना नेहा वापस चली गई, तो मैंने माँ की ओर देखा, पर वहाँ पहले जैसी ही ख़ामोशी थी। मुझे हल्की चिड़चिड़ाहट-सी हुई... । माँ किस परम्परावादी समाज की हैं, जहाँ मर्द ही सर्वोच्च सत्ता है। पहले पति के सामने गूँगी थी और अब बेटे के सामने सब हथियार डाल दिए... । आगे उनका क्या होगा, उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं...उफ़!

उठने की कोशिश में अचानक लड़खड़ाकर माँ कुर्सी पर 'धम्म' से बैठ गई तो जैसे मैं तन्द्रा से जागी। मुझे आश्चर्य हुआ। कल तक बाबूजी के लिए मुस्तैदी से दौड़ती माँ आज उनके जाते ही कैसी अशक्त हो गईं। उन्हें सहारा देकर मैं बाथरूम तक ले गई। थोड़ी देर बाद लड़खड़ाती-सँभलती—सी वे निकली, तो मैंने लपककर उन्हें थाम लिया। उनकी हालत देखकर मेरे आँसू फिर छलकने को हुए, पर किसी तरह खुद पर काबू पाकर मैंने फुसलाकर उन्हें नाश्ता करा दिया। पता नहीं क्यों माँ इतनी देर से एकदम शांत थी। मुझे लगा शायद इतना बड़ा तूफ़ान गुजरने के बाद माँ के अन्दर तक खामोशी और शान्ति ने डेरा जमा लिया था।

पर नहीं...यह मेरा भ्रम था। काफी देर चुप रहने के बाद माँ धीरे से बोली, "बिटिया...तुम परेशान न हो...जो हो रहा है, होने दो। अब यह घर विकास ही तो देखेगा, मुझे तो कुछ आता नहीं। टोका-टाकी करके बेवजह कलह करने से क्या फ़ायदा...? चुप रहोगी, तो भाई-भाभी से व्यवहार बना रहेगा, अब बाबूजी तो रहे नहीं।"

माँ फिर नि: शब्द रोने लगी, तो मैं भी खुद को सँभाल नहीं पाई, "तुम परेशान न हो, अब कुछ नहीं कहूँगी। सही कह रही हो, मैं तो पंद्रह दिन में चली जाऊँगी, तुमको तो इन्हीं लोग के साथ रहना है।"

माँ की बात मानकर मैं खामोश हो गई थी। मेरी नज़रों के सामने बहुत कुछ बदल रहा था...मैं खुद भी जैसे बहुत बदल गई थी। बाबूजी के रहते जिस अधिकार-भावना से पूरे घर में डोलती थी, वह भावना किसी अँधेरे कोने में दुबक गई थी...और यह अँधेरा तब और भी घना हो गया, जब पता लगा कि बाबूजी का कोई भी अकाउंट माँ के साथ नहीं था...सबमें जॉइंट होल्डर विकास ही था। माँ पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए घर की नेमप्लेट का एक कोना ही उनके हिस्से आया था...जहाँ शायद उनको भी भ्रमित करने के लिए बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-'लाली निकुंज'।

विकास ने बड़ी कुशलता से सब कुछ निपटा दिया था। शान्तिपाठ...दान-दक्षिणा...भोज...सब कुछ। अशक्त माँ के पास करने के लिए कुछ नहीं था। वह वैसे ही कुछ कर ही कहाँ पाती? बाबूजी की सेवा-टहल करने के अलावा उन्होंने किया ही क्या था...?

हर रोज बदलते उस घर में गूँगी माँ के साथ जैसे मैं भी गूँगी हो गई थी। उस समय भी कुछ नहीं बोली जब दान के नाम पर बाबूजी का पलंग, उनका गद्दा, मसनद, चादर ही नहीं; बल्कि उनकी बहुत ही प्रिय लॉ की सारी किताबें भी किसी को दे दी गईं। माँ की चारपाई तिमंजिले में बने छोटे से कमरे में पहुँचा दी गई, साथ में बाबूजी की अलमारी और मेज भी। उस कमरे का सारा कबाड़ निकालकर साफ़-सफाई पहले ही करा दी गई थी...कमरे से ही सटा एक बाथरूम वहाँ छत पर भी था।

ऊपर उस कमरे की व्यवस्था पूरी तरह चाक-चौबंद कर दी गई थी...और यह क्यों और किसके लिए हो रहा था, इसकी भनक तक नहीं लगने दी गई मुझे। पिताजी का कमरा एक शानदार ड्राइंग रूम का रूप ले चुका था और माँ का कमरा...वो तो नेहा ने हथिया लिया था। वैसे भी उस कमरे में माँ की कौन-सी संपत्ति रखी थी। बाबूजी के समय वह उनकी शरणस्थली ही था। जब बाबूजी अपनी किताबों या संगी-साथियों की दुनिया में गुम होते, माँ अपनी उस छोटी-सी दुनिया में आकर बैठ लेती। कभी रामचरित मानस बाँचती, तो कभी बेहद थकी होने पर वहीं झपकी भी ले लेती।

ऊपर की मंजिल पर भी दो कमरे थे। एक विकास के दोनों बच्चों का...और दूसरा भी विकास और नेहा के लिए... ।

मेरे लौटने में बस चार-पाँच दिन ही बचे थे, जब माँ को तिमंजिले के कमरे में शिफ्ट किया जाने लगा। मैं एकदम तड़प उठी। माँ मुझे मना कर रही थी, पर उनको अनसुना करके मैं चीख पड़ी, "माँ को घर का कबाड़ समझ रखा है क्या कि सबकी नज़रों से छिपाकर कहीं किसी कोने में फेंक दो। मैं यह नहीं होने दूँगी।"

"शांत रहो दीदी...समझने की कोशिश करो।" विकास ने मुझे शांत करने के लिए मेरा हाथ थामा, तो बिफरकर मैंने उसे झटक दिया, "समझने की कोशिश तुम लोग करो विकास। माँ को अगर नीचे से हटाना ही था, तो ऊपर वाला कमरा भी तो दे सकते थे। तुम दोनों ने इतना भी नहीं सोचा कि पिचहत्तर की उम्र में तिमंजिले पर माँ को कितनी दिक्कतें होंगी...कितनी अकेली पड़ जाएँगी वो...? एकदम अकेले रहते हुए अगर वे मर भी जाएँगी, तो तुम लोग को पता भी नहीं चलेगा। विकास...बाबूजी के जाते ही तुम इतने स्वार्थी और क्रूर हो जाओगे, यह मैंने कभी सोचा भी नहीं था। अगर जानती तो।"

"तो...? तो क्या दीदी...? माँ को अपने घर ले जाती? नहीं न? जीजू माँ को एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं करते, यह तुम भी अच्छी तरह जानती हो और मैं भी।"

न जाने क्यों मेरे चीखने-चिल्लाने के बावजूद विकास एकदम शांत था, "अरे, मैं माँ का दुश्मन नहीं हूँ। कुछ सोच समझकर ही उन्हें ऊपर शिफ्ट कर रहा हूँ। नीचे मेहमानों का आना जाना, बच्चों की धमाचौकड़ी। माँ की तबीयत ठीक नहीं रहती। ये सब शोर-शराबे से उन्हें परेशानी ही होगी। ऊपर तिमंजिले में शांति से वह अपना पूजा-पाठ भी कर सकेंगी और आराम भी।"

पता नहीं क्यों विकास की बात का मैं कोई उत्तर नहीं दे पाई। अचानक माँ से ज्यादा मैं खुद को बेसहारा महसूस करने लगी थी। मेरी आँखें सूखने का नाम ही नहीं ले रही थी। लग रहा था जैसे नियति ने मेरे माँ-बाप दोनों ही छीन लिये मुझसे। बाबूजी तो जाने कहाँ चले ही गए... अब माँ भी जैसे तैयार बैठी हैं उनके पीछे जाने को...और मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही। न बाबूजी को रोक पाई और न माँ को रोक पाऊँगी।

भीतर कहीं कुछ बड़ी तेज़ी से चटक रहा था। दूर चुपचाप बैठी माँ के अन्दर भी कहीं कुछ ख़ामोशी से टूट ही रहा होगा। काफी देर खुद को सँभाले रहने के बाद मैं बस इतना ही बोल पाई, "मेरे जाने के बाद माँ का ख्याल तो रखोगे न...?"

"अरे दीदी, कैसी बात करती हैं...?" इस बार नेहा बोल उठी, "ये विकास की भी तो माँ हैं न और कोई बिना वजह अपनी ही माँ को दुःख क्यों देगा?"

नेहा के कहने के बावजूद भी पता नहीं क्यों मैं आश्वस्त नहीं हो पा रही थी। विकास ने शायद मेरी दुविधा भाँप ली थी। पास आकर बोला, "माँ के लिए तुम परेशान न हो। उनके लिए मैं एक नौकरानी का इंतज़ाम कर रहा हूँ, जो चौबीसों घंटे सिर्फ उनके ही साथ रहेगी...उनकी देखभाल करेगी। बाबूजी की पेंशन तो अब माँ को मिलेगी न...तो उनका एक अकाउंट भी अपने साथ खुलवा दूँगा। बाबूजी के बाकी अकाउंट बंद करके उन पैसों की एक एफडी निकलवा दूँगा...माँ के साथ। अब तो खुश हो न...? फिर हम लोग हैं ही...बाकी तुम तो आती-जाती रहोगी ही।"

विकास ने इतना सब कहा, तो मेरी आँखें फिर छलक पड़ी। जॉइंट होकर भी माँ के लिए क्या फर्क पड़ना था, कौन-सा वह बैंक का कुछ काम खुद से कर सकती थीं। माँ न तो ज़्यादा बोलती थी, न फोन कर पाती थीं। पर बाबूजी... कुछ दिन बीतते-बीतते उनका फोन आ जाता, "कब आओगी बेटा...? कानपुर से दिल्ली इतनी दूर भी नहीं कि अपने बाबूजी से मिलने न आ पाओ बेटी... ।"

मैंने ड्राइंगरूम में बदल चुके बाबूजी के कमरे की ओर देखा तो लगा, बाबूजी फिर बुला रहे हैं...अब कब आओगी बेटी... ? मैं बिलखने लगी, तो माँ भी फफक पड़ी।

मेरे वापस जाने का दिन भी बस आ ही गया था। इस बीच पूरी ख़ामोशी के साथ सब कुछ बदल गया था। माँ के साथ मैं भी तिमंजिले वाले कमरे में शिफ्ट हो गई थी। विकास ने मेरी मौजूदगी में ही माँ की नौकरानी तय कर दी थी, जो मेरे जाने के बाद से वहाँ आने वाली थी। बस एक दिन और बचा था और मैं सारा वक़्त माँ के साथ बिताना चाहती थी।

माँ को उनके लिए कई सारी बातें समझाने-सहेजने के बाद मैं लेटी हुई नि: शब्द रो रही थी कि तभी लगा, माँ हलके से फुसफुसाई हों, "बिटिया, सब कुछ तो इन लोगों ने ले लिया है...पर मेरा घर कहाँ है...?"

चौंककर मैंने खिड़की के पास बैठी माँ की ओर देखा, पर माँ तो पूरी ख़ामोशी से आकाश की ओर देखती हुई उसके सूनेपन से एकाकार हो रही थीं।