मेरा निष्कर्ष / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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खैर, लखनऊ जेल में निरंतर आठ-नौ महीने तक यह धामा-चौकड़ी, यह उच्छृंखलता और यह मनमानी घरजानी देख कर मैंने कुछ निष्कर्ष निकाला। वहाँ मैंने देखा कि शायद ही कोई जेल नियमों की अवहेलना न करता हो। चोरी से अखबार तो आते ही थे। सरकार जिन समाचार-पत्रों को भेजती थी उनके सिवाय दूसरे भी आते थे। आपस में चंदे कर के एक-एक अंक के चार-चार आने खर्चे जाते थे। यह भी देखा कि जेल अधिकारी जिसी पर रंज हुए उसी को हटा कर नैनी जेल भेज दिया। नैनी जेल तो उस समय जेलों का जेल माना जाता था। वहाँ लोगों को बड़े कष्ट दिए जाते थे। इसीलिए पीछे तो ऐसा देखा कि कितने ही लोग जेलवालों की चापलूसी में लगे रहते थे, ताकि नैनी जाना न पड़े। कोई किसी की सुनता तो था नहीं। चोरी से चिट्ठियाँ तो लिखी ही जाती थीं। इन सब बातों से शायद ही कोई बचा हो।

इससे मैं इस नतीजे पर जेल में ही पहुँचा कि राजनीति को नैतिक (Relegious and moral) रूप दे कर इतनी जल्दी जोगाँधी जी ने इसे सार्वजनिक बना दिया वह बड़ी गलती हुई। उन्हें अपना कदम पीछे ले जाना पड़ेगा। यदि इसे ठीक-ठीक ले चलना हैतो अब तक का बना-बनाया सारा महल गिरा देना होगा। सिर्फ नींव रखनी होगी। उसी पर धीरे-धीरे फिर से महल खड़ा करना होगा। नहीं तो यह आंदोलन कोरी राजनीति, दूषित राजनीति के सिवाय और कुछ रह नजाएगा। यदिगाँधी जीने शीघ्र पीछे कदम न उठाया तो उन्हें पछताना होगा। मैंने जो कुछ गुप्त समितियों के सख्त नियमों के बारे में सुना और रौलट रिपोर्ट में पढ़ा था उसी के आधार पर सोचता था किगाँधी जीको उसी सख्ती से काम लेना होगा। यदि मेंबरों के बनाने में वैसी कड़ाई न की गई तो बुरा होगा। मैंने साफ देखा कि हमारी राष्ट्रीयता केवल जुबान पर हीहै। हममें जाति-पाँति की बातें इतना ज्यादा घर कर गई दीखीं कि मुझे दर्द हुआ। ऐसी दशा में राजनीति को नैतिक बनाना तो सपने की चीज मालूम हुई। जब राजनीति ही अपना स्थान हमारे भीतर ठीक-ठीक न कर सकी , तो फिर उसे सुधारने का क्या अर्थ हो सकता था ?

मेरी धारणा तो थी कि ये सब त्रुटियाँ मालूम होते ही गाँधी जी उपाय करेंगे। हालाँकि पीछे के अनुभवों ने बताया कि मेरे ख्याल गलत थे।गाँधी जी ने सभी बातें जानीं और बखूबी जानीं।मगर क्या किया?अखबारों में लिखने और लेक्चर देने से सामूहिक आंदोलन में, जो जन-आंदोलनहै , नैतिक परिवर्तन हो नहीं सकता। वह तो कुछ चुने हुए लोगों में ही हो सकताहै। इसके लिए तो बेमुरव्वती से कसौटी तैयार कर के उसी पर परखना और तब कहीं सदस्य बनाना ठीक था। मगर तब तो यह जन-आंदोलन रही नहीं जाता।'हाँ' संभव था, धीरे-धीरे समय पा कर फिर जन-आंदोलन का रूप इसे मिल जाता। मगर कुछ साल तक तो यह बात होने की न थी।

गाँधी जी के लिए दूसरा रास्ता यही था कि राजनीति को नैतिकता या धर्म-नीति का जामा पहनाने का विचार ही वे छोड़ देते।मगर गण आंदोलन भी बनाए रखना और उसेधर्मनीति के मार्ग पर ले चलने की आशा भी करना, ये दोनों बातें , एक साथ चलने की नहीं। असंभव हैं। तो भीगाँधी जीने यही कियाहै। परिणामआँखों के सामनेहै। सत्य, अहिंसा और सदाचार के नाम पर कांग्रेस में केवल दंभ, प्रवंचना, हिंसा और असत्य का बाजार गर्म है। खूबी तो यह कि जो लोग स्पष्ट वक्ता हैं उनके लिए गाँधी जीके दल में स्थान नहीं और बगला भगत लोग सर्वेसर्वा बने बैठे हैं! धर्म के नाम पर ये चीजें होती ही थीं। मगर जबधर्म आ गया राजनीति में, तो यहाँ भी वही बाजार गर्महै।

इसे गाँधी जी जैसा अनुभवी एवं व्यवहारकुशल आदमी न जानता हो यह बात दिमाग में समाती ही नहीं। इसीलिए बहुतों के लिए यह एक भीषण पहेली हो रही है कि ऐसा क्यों होता हैं?गाँधी जी इसे क्यों चलने देते हैं? मेरे लिए भी बहुत दिनों तक यही पहेली थी। पर, अब तो मैं सही बातें समझ गया। सच्ची बात तो यह कि राजनीति और धर्म-नीति का विरोध पुराने लोग मानते आए हैं।याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति में इसीलिएधर्मविरोधिनी राजनीति का मौका आने पर उसे छोड़ देने को कहाहै , 'अर्थशास्त्रतुबलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थिति:'। दोनों का सामंजस्य करना ही भूलहै।