मेरा भगवान / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
कहते हैं कि वह (ईश्वर) सब काम पलक मारते कर देता है और जिस बात को नहीं चाहता उसे कदापि नहीं होने देता। लेकिन दूसरों का काम सँभालने और भक्तों का हुक्म बजाने से पहले वह अपना काम तो सँभाले। तभी हम मानेंगे कि वह बड़ा शक्तिमान या सब कुछ कर सकनेवाला है─ सब कुछ करता है। एक दिन किसान के घी से भगवान के मंदिर में दीप मत जलाइए और भगवान से कह दीजिए कि आपकी सामर्थ्य की परीक्षा आज ही है। देखें, आपके घर में─ मंदिर में─ मस्जिद में─ अँधेरा ही रहता है या उजाला भी होता है। रात भर देखते रहिए। मंदिर का फाटक बंद करके छोटे से सूराख से रह-रहकर देखिए कि कब चिराग जलता है ! आप देखेंगे कि जलेगा ही नहीं, रात भर अँधेरा ही रहेगा!
इसी प्रकार एक दिन न घंटी बजे, न आरती हो और न भोग लगे ! किसान के गेहूँ,दूध और उसके पैसे से खरीदी घंटी, आचमनी आदि हटा लीजिए। फिर देखिए कि दिन-रात ठाकुरजी भूखे रहते और प्यासे मरते हैं या उन्हें भोजन उनकी लक्ष्मीजी पहुँचाती हैं, दिन-रात मंदिर सुनसान ही और मातमी शक्लसबनाए रह जाता है या कभी घंटी वगैरा भी बजती है! पता लगेगा कि सब मामला सूना ही रहा और ठाकुरजी या महादेव बाबा को 'सोलहोंदंडएकादशी' करनी पड़ी ! एक बूँद जल तक नदारद-आरती, चंदन, फूल आदि का तो कहना ही क्या! सभी गायब! वे बेचारे जाने किस बला में पड़ गए कि यह फाकामस्ती करनी पड़ी।
और ये मंदिर बनते भी हैं किसके पैसे और किसके परिश्रम से?जब मंदिर का कोना टूट जाए, तो ललकार दीजिए ठेठ भगवान को ही जरा खुद-ब-खुद मरम्मत तो करवा लें। नएमंदिर बनाने की तो बात ही दूर रही! वह कोना तब तक टूटा का टूटा ही रहेगा जब तक किसान का पैसा और मजदूर का हाथ उसमें न लगे! यदि कोई मंदिर भूकंप से या यों ही अकस्मात गिर गया हो और भगवान उसी के नीचे दब गए हों तो उनसे कह दीजिए कि बाहर निकल आएँ अगर शक्तिमान हैं! पता लगेगा कि जब तक गरीब लोग हाथ न लगाएँ, तब तक भगवान उसी के नीचे दबे कराहते रहेंगे। चाहे मरम्मत हो या नए-नएमंदिर बनें─ सभी केवल मेहनत करनेवालों के ही पैसे या परिश्रम से तैयार होते हैं।
आगे बढ़िए! गंगा को तीर्थ, मंदिर को मंदिर, जगन्नाथ धाम को धाम किसने बनाया है?किसके चरणों की धूल की यह महिमा है कि तीर्थों, मंदिरों और धामों का महत्त्व हो गया? किसने गोबर को गणेश और पत्थर को विष्णु या शिव बना डाला? क्या अमीरों और पूँजीपतियों ने? सत्ताधारियों ने? यदि नंगे पाँव और धूल लिपटे किसान-मजदूर गंगा में स्नान न करें, उन्हें गंगा माई न मानें, मंदिरों में न जाएँ, जगन्नाथ और रामेश्वर धाम न जाएँ तो क्या सिर्फ मालदारों के नहाने, दर्शन करने या तीर्थ-यात्रा से गंगा आदि तीर्थों, मंदिरों और धामों का महत्त्व रह सकता है?उनका काम चल सकता है?गरीबों ने यदि बहिष्कार कर दिया तो यह ध्रुव सत्य है कि राजों-महाराजों और सत्ताधारियों की लाख कोशिश करने पर भी गंगा और तलैया में कोईअंतर न रह जाएगा, मंदिर और दूसरे मकान में फर्क न होगा और धामों या तीर्थों की महत्ता खत्म हो जाएगी। उन लोगों के दान-पुण्य से ही मंदिरों और धामों का काम और खर्च भी नहीं चल सकता यदि गरीबों के पैसे-धेले न मिलें। जल्द ही दिवाला बोल जाएगा और पंडे-पुजारी मंदिरों,तीर्थों और धामों को छोड़कर भाग जाएँगे !
यह तो करोड़ों गरीबों के नंगे पाँवों में लगी धूल-चरण रज-की ही महिमा है, यह उसी का प्रताप है कि वह जब गंगा में पहुँचकर धुल जाती है तो वह गंगा माई कहाती है; जब मंदिरों में वही धूल पहुँच जाती है तो वहाँ भगवान का वास हो जाता है, पत्थर को भगवान व गोबर को गणेश कहने लगते हैं; जब वही धूल जगन्नाथ और रामेश्वर के मंदिरों में जा पहुँचती है तो उनकी सत्ता कायम रहती है और उनकी महिमा अपरंपार हो जाती है। गरीबों के तो जूते भी नहीं होते। इसीलिए तो उनके पाँवों की धूल ही वहाँ पहुँच कर सबों को महान बनाती है।
कहते हैं कि महादेव बाबा खुद तो दरिद्र और नंगे-धड़ंगे श्मशान में पड़े रहते हैं, मगर भक्तों को सब संपदाएँ देते हैं─ उन्हें बड़ा बनाते हैं! पता नहीं,बात क्या है?किसी ने आँखों से देखा नहीं। मगर ये किसान और कमानेवाले तो साफ ही ऐसे'महादेवबाबा'हैं कि स्वयं दिवालिए होते हुए भी,ईश्वर तक को ईश्वर बनाते और खिलाते-पिलाते हैं!
ईश्वर सबको खिलाता-पिलाता है,ऐसा माना जाता है─ सही। मगर किसने उसे हल चलाते,गेहूँ, बासमती उपजाते, गाय-भैंस पाल कर दूध-घी पैदा करते, हलुवा-मलाई बनाते तथा किसी को भी खिलाते देखा है? लेकिन किसान तो बराबर यही काम करता है। वह तो हमेशा ही दुनिया को खिलाता-पिलाता है!
इतना ही नहीं। कहते हैं कि ईश्वर तो केवल भक्तों को खिलाता और पापियों को भूखों मारता है। वह अपनों को ही खिलाता है। इसिलए वह एक प्रकार की तरफदारी करता है। मगर किसान की तो उल्टी बात है! वह तो जालिमों और सतानेवाले जमींदारों, साहूकारों और सत्ताधारियों को ही हलुवा-मलाई खिलाता है और खुद बाल-बच्चों के साथ या तो भूखा रहता है या आधा पेट सत्तू अथवा सूखी रोटी खा कर गुजर करता है!ऐसी दशा में असली भगवान तो यह किसान ही हैं!
दुनिया माने या न माने। मगर मेरा तो भगवान वही है और मैं उसका पुजारी हूँ। खेद है, मैं अपने भगवान को अभी तक हलुवा और मलाई का भोग न लगा सका, रेशम और मखमल न पहना सका, सुंदर सजे-सजाएमंदिर में पधरा न सका, मोटर पर चढ़ा न सका, सुंदर गाने-बजाने के द्वारा रिझा न सका और पालने पर झुला न सका। मगर उसी कोशिश में दिन-रात लगा हूँ─ इसी विश्वास और अटल धारणा के साथ कि एक-न-एन दिन यह करके ही दम लूँगा; सो भी जल्द!