मेरा भारत महान / अनीता कपूर
मुंबई की एक गगनचुंबी इमारत की दसवी मंज़िल की, अपनी बालकनी में, सीमा बहुत देर से खड़ी-खड़ी नीचे छोटे-छोटे मशरूम जैसे दिखने वाले मकानों को देख रही है। सोच रही है कि, जब पिछली बार लंदन से वो यहां आई थी, तो यह सारी ज़मीन खाली थी, और यहाँ मज़दूरों के काली त्रिपाल से ढके झोंपड़े हुआ करते थे....दिन ढलने पर हर झोंपड़े के बाहर ईंटों से बने चूल्हे से धुआँ उठता रहता, और औरते खाना पकाते-पकाते आसपास दौड़ते अपने बच्चों पर भी निगाह रखती दिखाई देती थी। सीमा जितने दिन भी मुंबई रही....उसकी जैसे दिनचर्या में ही शामिल हो गया था....सुबह मजदूरों को सामने वाली इमारत में काम पर जाते देखना, शाम को आ कर दारू पीना और चारपाई पर पड़े-पड़े बीबियों को गाली देना और खाना खा कर सो जाना....जैसे दिन-प्रति-दिन बनती इमारत की ऊंचाई उनके बेघर होने के एहसास को और भी बौना करती....तथा उनकी मजबूरी, गालियों के रास्ते बाहर निकल राहत की सांस लेती। रोज़ देखते सुनते, सीमा कुछेक को तो नाम से भी पहचानने लगी थी। आज फिर 5 वर्षों बाद सीमा फिर उसकी बालकनी में खड़ी है....पर नीचे काले झोपड़ों की जगह सफेद और भूरे मशरूम जैसे मकानों ने ले ली है। सीमा सोचती रही कि कहाँ गए होंगे वो सारे मजदूर? शाम को नीचे मार्किट में सीमा को रज्जो कोने वाली दुकान से सब्जी-भाजी खरीदती नज़र आई, सीमा ने उसे पहली ही नज़र में पहचान लिया था।
उसने पुकारा, "रज्जो, बाकी सब लोग कहाँ चले गए?',
घूम कर रज्जो ने सीमा की तरफ देखा....कुछ देर लगी मगर पहचान कर कहने लगी, "अरे मैडम जी, क्या बताएं, हम मज़दूरा की तो यही ज़िंदगानी है, यहाँ काम पूरा हुआ, आप जैसे लोगन को मकान बना-बना कर दिया....और फिर खुद बेघर हो कर चल दिये, किसी और का घर बसाने।"
आवाज़ का दर्द, सीमा के दिल को छू, उसके विचारों में घुस कर सवाल बन गया, "कब बदलेंगे इनके भी दिन और "हमारा भारत महान", वाला नारा पोस्टरों से निकल, इन मजदूरों के दिल और आवाज़ को सहलाता हुआ, इनके भी ईंट-गारे के मकानों में आराम से सोएगा?