मेरी आत्मकथा / भूमिका / चार्ली चैप्लिन / सूरज प्रकाश

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वेस्ट मिंस्टर ब्रिज के खुलने से पहले केनिंगटन रोड सिर्फ अश्व मार्ग हुआ करता था। 1750 के बाद, पुल से शुरू करते हुए एक नयी सड़क बनायी गयी थी जिससे ब्राइटन तक का सीधा रास्ता खुल गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि केनिंगटन रोड पर, जहां मैंने अपने बचपन का अधिकांश वक्त गुज़ारा है, कुछ बहुत ही शानदार घर देखे जा सकते थे। ये घर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने थे। इनके सामने की तरफ लोहे की ग्रिल वाली बाल्कनी होती थी। हो सकता है कि उन घरों में रहने वालों ने कभी अपनी कोच में बैठ कर ब्राइटन जाते हुए जॉर्ज IV को देखा होगा।

उन्नीसवीं शताब्दी के आते-आते इनमें से ज्यादातर घर किराये के कमरे देने वाले घरों में और अपार्टमेंटों में बदल चुके थे। अलबत्ता, कुछ घर ऐसे भी बचे रहे जिन पर वक्त की मार नहीं पड़ी और उनमें डॉक्टर, वकील, सफल व्यापारी और नाटकों वग़ैरह में काम करने वाले कलाकार रहते आये। रविवार के दिन, सुबह के वक्त केनिंगटन रोड के दोनों तरफ के किसी न किसी घर के बाहर आप कसी हुई घोड़ी और गाड़ी देख सकते थे जो वहां रहने वाले नाटक कलाकार को नौरवुड या मेरटन जैसी दसियों मील दूर की जगह पर ले जाने के लिए तैयार खड़ी हो। वापसी में ये केनिंगटन रोड पर अलग-अलग तरह के शराब घरों व्हाइट हाउस, द' हार्न्स, और द' टैन्कार्ड पर रुकते हुए आते थे।

मैं बारह बरस का लड़का, अक्सर टैन्कार्ड के बाहर खड़ा बेहतरीन पोशाकें पहने इन रंगीले चमकीले महानुभावों को उतरते और भीतर लाउंज बार में जाते देखा करता था। वहां नाटकों के कलाकार आपस में मिलते-जुलते थे। रविवार के दिनों का उनका यही शगल हुआ करता था। दोपहर के भोजन के लिए घर जाने से पहले वे अपना एक आखिरी पैग यहां लिया करते थे। वे कितने भव्य लगते थे। चारखाने के सूट पहने और भूरे फेल्ट हैट डाटे, अपनी हीरे की अंगूठियों और टाइपिनों के लशकारे मारते। रविवार को दोपहर दो बजे पब बंद हो जाता था और वहां मौजूद सब लोग बाहर झुंड बना कर खड़े हो जाते और एक-दूसरे को विदा देने से पहले मन बहलाव में वक्त ज़ाया करते। मैं उन सबको हसरत भरी निगाहों से देखा करता और खुश होता क्योंकि उनमें से कुछेक बेवकूफी भरी अकड़ के साथ डींगें हांकते।

जब उनमें से आखिरी आदमी भी जा चुका होता तो ऐसा लगता मानो सूर्य बादलों के पीछे छिप गया हो। और तब मैं ढहते पुराने घरों की अपनी कतार की तरफ चल पड़ता। मेरा घर केनिंगटन रोड के पीछे की तरफ था। ये तीन नम्बर पाउनाल टेरेस था जिसकी तीसरी मंज़िल पर एक छोटी-सी दुछत्ती पर हम रहा करते थे। तीसरी मंज़िल तक आने वाली सीढ़ियां खस्ता हाल में थीं। घर का माहौल दमघोंटू था और वहां की हवा में बास मारते पानी और पुराने कपड़ों की बू रची-बसी रहती।

जिस रविवार की मैं बात कर रहा हूं, उस दिन मां खिड़की पर बैठी एकटक बाहर देख रही थी। वह मेरी तरफ मुड़ी और कमज़ोरी से मुस्कुरायी। कमरे की हवा दमघोंटू थी और कमरा बारह वर्ग फुट से थोड़ा-सा ही बड़ा रहा होगा। ये और भी छोटा लगता था और उसकी ढलुआं छत काफी नीची प्रतीत होती थी। दीवार के साथ सटा कर रखी गयी मेज़ पर जूठी प्लेटों और चाय के प्यालों का अम्बार लगा हुआ था। निचली दीवार से सटा एक लोहे का पलंग था जिस पर मां ने सफेद रंग पोता हुआ था। पलंग और खिड़की के बीच की जगह पर एक छोटी सी आग झंझरी थी। पलंग के एक सिरे पर एक पुरानी-सी आराम कुर्सी थी जिसे खोल देने पर चारपाई का काम लिया जा सकता था। इस पर मेरा भाई सिडनी सोता था लेकिन फिलहाल वह समुद्र पर गया हुआ था।

इस रविवार को कमरा कुछ ज्यादा ही दमघोंटू लग रहा था क्योंकि किसी कारण से मां ने इसे साफ-सूफ करने में लापरवाही बरती थी। आम तौर पर वह कमरा साफ रखती थी। इसका कारण यह था कि वह खुद भी समझदार, हमेशा खुश रहने वाली और युवा महिला थी। वह अभी सैंतीस की भी नहीं हुई थी। वह इस वाहियात दुछत्ती को भी चमका कर सुविधापूर्ण बना सकती थी। खासकर सर्दियों की सुबह के वक्त जब वह मुझे मेरा नाश्ता बिस्तर में ही दे देती और जब मैं सो कर उठता तो वह छोटा-सा कमरा सफाई से दमक रहा होता। थोड़ी-सी आग जल रही होती और खूंटी पर गरमा-गरम केतली रखी होती और जंगले के पास हैड्डर या ब्लो्टर मछली गरम हो रही होती और वह मेरे लिए टोस्ट बना रही होती। मां की उल्लसित कर देने वाली मौज़ूदगी, कमरे का सुखद माहौल, चीनी मिट्टी की केतली में डाले जाते उबलते पानी की छल-छल करती आवाज़, और मैं ऐसे वक्त अपना साप्ताहिक कॉमिक पढ़ रहा होता। शांत रविवार की सुबह के ये दुर्लभ आनन्ददायक पल होते।

लेकिन इस रविवार के दिन वह निर्विकार भाव से बैठी खिड़की से बाहर एकटक देखे जा रही थी। पिछले तीन दिन से वह खिड़की पर ही बैठी हुई थी। आश्चर्यजनक ढंग से चुप और अपने आप में खोयी हुई। मैं जानता था कि वह परेशान है। सिडनी समुद्र पर गया हुआ था और पिछले दो महीनों से उसकी कोई खबर नहीं आयी थी। मां जिस किराये की सिलाई मशीन पर काम करके किसी तरह घर की गाड़ी खींच रही थी, किस्तों की अदायगी समय पर न किये जाने के कारण ले जायी जा चुकी थी (ये कोई नयी बात नहीं थी) और मैं डांस के पाठ पढ़ा कर पांच शिंलिंग हफ्ते का जो योगदान दिया करता था, वह भी अचानक खत्म हो गये थे।

मुझे संकट के बारे में शायद ही पता रहा हो क्योंकि हम तो लगातार ही ऐसे संकटों से जूझते आये थे और लड़का होने के कारण मैं इस तरह की अपनी परेशानियों को शानदार भुलक्कड़पने के साथ दर किनार कर दिया करता था। हमेशा की तरह मैं स्कूल से दौड़ता हुआ घर आता और मां के छोटे-मोटे काम कर देता। बू मारता पानी गिराता और ताज़े पानी के डोल भर लाता। तब मैं भाग कर मैक्कार्थी परिवार के घर चला जाता और वहां शाम तक खेलता रहता। मुझे इस दम घोंटती दुछत्ती से निकलने का कोई न कोई बहाना चाहिये होता।

मैक्कार्थी परिवार मां का बहुत पुराना परिचित परिवार था। मां उन्हें नाटकों के दिनों से जानती थी। वे केनिंगटन रोड के बेहतर समझे जाने वाले इलाके में आरामदायक घर में रहते थे। उनकी माली हैसियत भी हमारी तुलना में बेहतर थी। मैक्कार्थी परिवार का एक ही लड़का था - वैली। मैं उसके साथ शाम का धुंधलका होने तक खेलता रहता और अमूमन यह होता कि मुझे शाम की चाय के लिए रोक लिया जाता। मैंने इस तरह कई बार देर तक वहां मंडराते हुए रात के खाने का भी जुगाड़ किया होगा। अक्सर मिसेज मैक्कार्थी मां के बारे में पूछती रहती और कहती कि कई दिन से वह नज़र क्यों नहीं आयी है। मैं कोई भी बहाना मार देता क्योंकि जब से मां दुर्दिन झेल रही थी, वह शायद ही अपनी नाटक मंडली के परिचितों से मिलने-जुलने जाती हो।

हां, ऐसे भी दिन होते जब मैं घर पर ही रहता और मां मेरे लिए चाय बनाती, सूअर की चर्बी में मेरे लिए ब्रेड तल देती। मुझे ये ब्रेड बहुत अच्छी लगती। फिर वह मुझे एक घंटे तक कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाती। वह बहुत ही बेहतरीन पाठ करती थी। और तब मैं मां के इस संग-साथ के सुख के रहस्य का परिचय पाता और तब मुझे पता चलता कि मैं मैक्कार्थी परिवार के साथ जितना सुख पाता, उससे ज्यादा मैंने मां के साथ रह कर पा लिया है।

सैर से आ कर मैं जैसे ही कमरे में घुसा, वह मुड़ी और उलाहने भरी निगाह से मेरी तरफ देखने लगी। उसे इस हालत में देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। वह बहुत कमज़ोर तथा मरियल-सी हो गयी थी तथा उसकी आंखों में गहरी पीड़ा नज़र आ रही थी। मैं अकथनीय दुख से भर उठा। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि घर पर रह कर उसके आसपास ही बना रहूं या फिर इस सब से दूर चला जाऊं। उसने मेरी तरफ तरस खाती निगाह से देखा,"तुम लपक कर मैक्कार्थी परिवार के यहां चले क्यों नहीं जाते," उसने कहा था।

मेरे आंसू गिरने को थे,"क्योंकि मैं तुम्हारे पास ही रहना चाहता हूं। वह मुड़ी और सूनी-सूनी आंखों से खिड़की के बाहर देखने लगी,"तुम भाग कर मैक्कार्थी के यहां ही जाओ और रात का खाना भी वहीं खाना। आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।

मैंने उसकी आवाज में तड़प महसूस की। मैंने इस तरफ से अपने दिमाग के दरवाजे बंद कर दिये,"अगर तुम यही चाहती हो तो मैं चला जाता हूं।

वह कमजोरी से मुस्कुरायी और मेरा सिर सहलाया,"हां..हां तुम दौड़ जाओ।" हालांकि मैं उसके आगे गिड़गिड़ाता रहा कि वह मुझे घर पर ही अपने पास रहने दे लेकिन वह मेरे जाने पर ही अड़ी रही। इस तरह से मैं अपराध बोध की भावना लिये चला गया। वह उसी मनहूस दुछत्ती की खिड़की पर बैठी रही। उसे इस बात का ज़रा सा भी गुमान नहीं था कि आने वाले दिनों में दुर्भाग्य की कौन-सी पोटली उसके लिए खुलने वाली है।