मेरी आवाज ही पहचान है / जयप्रकाश चौकसे

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मेरी आवाज ही पहचान है
प्रकाशन तिथि : 06 फरवरी 2013

एक अरसे बाद सुभाष घई 'कांची' नामक फिल्म निर्देशित करने जा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अनेक युवा कलाकारों के स्क्रीन टेस्ट लिए और नायक कार्तिक तिवारी को चुना तथा नायिका के लिए बांग्ला सिनेमा की इंद्राणी चक्रवर्ती को चुनकर उसे नया नाम दिया 'मिस्ठी'। बंगाल में विशेष ढंग से जमाई दही को मिस्ठी कहते हैं और कोलकाता में ऐसी भी कुछ दुकानें हैं, जो अत्यंत महंगे दाम में मिस्ठी बेचती हैं। बहरहाल, सुभाष घई अपनी नायिकाओं के नाम 'एम' अक्षर से रखना पसंद करते हैं और 'एम' से शुरू नाम की अनेक नायिकाओं के साथ फिल्में बना चुके हैं। उनकी फिल्म 'हीरो' में मीनाक्षी शेषाद्रि थीं, 'राम लखन' में माधुरी दीक्षित, 'सौदागर' में मनीषा कोइराला और 'परदेस' में महिमा चौधरी। उनके मन में 'एम' अक्षर से शुरू होने वाले नाम की नायिकाओं के लिए एक रुझान है। एकता कपूर ने लंबे समय तक 'क' अक्षर से शुरू होने वाले नाम के सीरियल बनाए हैं। कई लोग अक्षरों को अपने लिए भाग्यशाली समझते हैं। राशि भविष्यफल अनेक लोग पढ़ते हैं और संसार के सारे लोगों के नाम के पहले अक्षर से भी कहीं-कहीं राशि तय होती है, जबकि जन्मकुंडली के द्वारा यह अक्षर तय किया जाता है। कई लोगों के जन्म-नाम और पुकारता नाम अलग-अलग होते हैं।

कुछ समुदायों में विवाह के पश्चात दुल्हन को ससुराल वाले नया नाम देते हैं और शेष जीवन वह उसी नाम से पुकारी जाती है। वे किसी भी नाम से पुकारी जाएं, उनके प्रति पुरुष दृष्टिकोण नहीं बदलता। सदियों से नहीं बदला है। इस तरह की कोई बात शेक्सपीयर के जमाने में भी रही होगी, तभी उन्होंने लिखा कि फूल को किसी भी नाम से पुकारो, उसकी खुशबू नहीं बदलती। गुलाब का फूल गुलाब ही होता है, चाहे आप उसे किसी भी नाम से पुकारें। इसी कारण शायद गुलजार ने लिखा कि 'मेरी आवाज ही पहचान है'। स्पष्ट है कि मनुष्य के काम से ही उसका सच्चा परिचय बनता है, परंतु नाम तो परिवार देता है और शादी के बाद बदलता भी है। पासपोर्ट और राशनकार्ड में भी नाम आवश्यक है। नाम के बिना रोजमर्रा का जीवन असंभव हो जाता।

नाम के अनुरूप आचरण एक असंभव कल्पना है। आचरण के निर्माण के पीछे अनेक प्रभाव होते हैं। नाम के अनुरूप आचरण करने का प्रयास प्रेरणात्मक हो सकता है। एक ही नाम के अनेक व्यक्ति होते हैं। यहां तक कि एक से चेहरे-मोहरे वाले भी अनेक लोग होते हैं और इसी तथ्य पर अनेक अफसाने रचे गए हैं। इस पर अनेक फिल्में भी बनी हैं। हर कलाकार जीवन में कम से कम एक फिल्म दोहरी भूमिकाओं वाली करना चाहता है। 'अंगूर' में संजीव कुमार, 'राम और श्याम' में दिलीप कुमार तथा 'आखरी रास्ता' में अमिताभ बच्चन ने कमाल की दोहरी भूमिकाएं निभाई थीं। अनीस बज्मी और डेविड धवन ने एक फिल्म बनाई थी, जिसमें सारे प्रमुख पात्र दोहरी भूमिकाओं में थे। सच तो यह है कि जीवन में भी अनेक व्यक्ति अपने लिए अनेक भूमिकाएं रचते हैं। शायद इसीलिए जीवन को रंगमंच भी कहा जाता है। इसी तरह रावण के दस सिर की कल्पना भी उसके दस विषयों में पारंगत होने के कारण है। जब हम सामाजिक जीवन में किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तब नहीं जानते कि उसके किस मुखौटे से मिल रहे हैं, उसकी किस भूमिका से अभिभूत हैं।

व्यावहारिकता का तकाजा है कि कोई भी व्यक्ति जस का तस उजागर ही नहीं हो पाता और जीवन में हमें उन लोगों से भी सद्व्यवहार करना चाहिए, जिन्हें हम पसंद नहीं करते। अगर जीवन को हर व्यक्ति अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर चलाए तो सारी व्यवस्था ही ठप्प हो जाएगी। सदाचार, सदाशयता, सद्व्यवहार सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। आजकल समाज और व्यवस्था में ही असहिष्णुता व्याप्त हो गई है और सारा ढांचा चरमरा गया है। मनुष्य की असहिष्णुता का यह हाल है कि प्रकृति भी बेेमौसम वर्षा कर रही है, ओले गिर रहे हैं।

मनुष्य अपनी ईजाद की गई छवियों से स्वयं भी भ्मित हो जाता है। जो छवि दूसरों के सामने प्रस्तुत होने के लिए गढ़ी थी, उसी छवि पर खुद यकीन करने के बाद त्रासदी शुरू होती है और असल व्यक्ति स्वयं से ओझल हो जाता है। इस दशा में नाम का क्या अर्थ रह जाता है? यह स्वयं से दूर चले जाने की प्रक्रिया वर्तमान जीवन की एक चुनौती है। अपनी निजता को अक्षुण्ण रखना आसान नहीं है। जीवन में एक अजनबीयत पैठती जा रही है। जिस कालखंड में चंद बटन दबाने से दुनियाभर की जानकारियां, सारे इतिहास और जुगराफिया हासिल हो सकते हैं, उसी कालखंड में स्वयं से फासले इतने बढ़ गए हैं कि कभी अपने नाम को पुकारे जाने पर पलटकर देखने का मन नहीं करता। दरअसल विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने सारे फासले मिटाने के जतन किए हैं और ऐसी सुविधाएं दी हैं कि मनुष्य के पास स्वयं को समझने के लिए यथेष्ठ समय हो, परंतु हम तो उसकी भूलभुलैया में ही गुम हो गए। कुछ ताकतें ऐसी हैं जो चाहती हैं कि सब उन्हीं की तरह सोचें। परंतु इस तरह की व्यवस्था या व्यवस्था के नाम पर रची अराजकता का चरम तो यह है कि मनुष्य को नाम से नहीं नंबर से बुलाया जाए, जैसे जेल में कैदियों के साथ होता है। आज हर क्षेत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन इसी उद्देश्य से किया जा रहा है कि विचार के रेजीमेंटेशन को स्वीकार करो। किसी फिल्म या किताब को रोकना, किसी कन्या को गाने नहीं देना और अन्य सारी पाबंदियां उसी वृहद षड्यंत्र का हिस्सा हैं। अजीब वहशीपन है कि अगर आप हमसे सहमत नहीं तो हमारे दुश्मन हैं। असहमतियों के बीच अपनी निजता की रक्षा करते हुए सौहाद्र्र से जीना ही जिंदगी है।