मेरी टीचर्स की स्मृतियां / बायस्कोप / सुशोभित

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मेरी टीचर्स की स्मृतियां
सुशोभित


ग्यारहवीं क्लास तक मैं इतना मासूम था कि यह देख नहीं पाता था कि हिंदी पढ़ाने वाली मैडम बहुत सुंदर हैं । मेरे सब सहपाठी हिंदी की टीचर को देखकर जाने क्यूँ आहें भरते। क्लास के दौरान टकटकी लगाए उन्हें देखते । वो उनकी इस उद्धत दृष्टि को अपनी देह पर अनुभव करतीं तो साड़ी की तहें

दुरुस्त करने लगतीं। बदन चुरातीं। किंतु यह सब तो मैं आज याद कर पा रहा हूं। उस समय ये तमाम दृश्य किसी बेआवाज़ फ़िल्म की तरह मेरे जेहन पर चस्पा हो गए थे । मैंने तो कभी मैडम को उस तरह नहीं देखा । आज उन्हें याद करता हूँ तो पाता हूँ वो सच में ही बहुत सुंदर थीं । किंतु यह आज है । तब तो मैं कच्चा घड़ा था। एक दिन क्लास ख़त्म हुई तो मैडम ने कहा, सब लड़के जा सकते हैं, सुशोभित तुम रुको। अश्रव्य मुस्कराहटें कांच के चिलके की तरह क्लास में गूंज गईं। सब लड़के, जो यकीनन मेरे जैसे अनाड़ी नहीं थे, एक एक कर बाहर निकल गए। मैडम ने कहा, पता है सुशोभित, तुम सबसे अलग हो। और तुम बहुत अच्छे स्टूडेंट हो । तुम्हारी कॉपी देखकर लगता नहीं कि इसी स्कूल के हो । यहाँ

तुम कैसे चले आए ! खैर, मुझसे किसी मदद की ज़रूरत हो तो संकोच ना करना, कह देना ।

मैं चुपचाप सुनता रहा। सराहनाएं आज भी मुझको असहज कर देती हैं, तब तो निरा किशोर ही था । जी मैडम कहकर चला आया। बाहर आया तो सीटियां बज गईं। ओये होये, अकेले अकेले ! बड़े छुपे रुस्तम निकले, हम तो तुमको बच्चा समझते थे। मुझे गुस्सा हो आया । छिः, तुम लोग कितने गंदे हो ! ठहाकों के बीच डूबती आवाज़ से कहा । किंतु मैडम से कभी कोई मदद नहीं मांगी।

ग्यारहवीं तक मासूम था तो कॉलेज आकर बहुत सयाना हो गया होऊं, ऐसा भी नहीं था। कॉलेज छात्र राजनीति के कारण बदनाम था । लड़कियां नहीं आती थीं। टीचर्स स्टाफ रूम में सहमी सी सिमटी रहतीं । एक दिन पोलिटिकल साइंस की क्लास चल रही थी। स्टूडेंट लीडरान आए और बोले- सर, थोड़ी पोलिटिकल साइंस हम लोग को भी करने दीजिए, चलो बच्चो क्लास ख़त्म हो गई है, घर जाओ । इलेक्शंस का टाइम है । सर मुस्कराए । किताब बंद की और चुपचाप बाहर जाकर खड़े हो गए । फेडरल स्ट्रक्चर का लेसन चल रहा था ।

वो स्टूडेंट लीडरान कितने नौजवान थे, एक मैं ही कितना नौसिखुआ था, जो इसके बावजूद इंग्लिश की मैडम को बुलाने स्टाफ रूम में चला जाता । वुडन फ्लोर पर मेरे जूते बज उठते । चाय पीतीं टीचर्स घूमकर देखतीं । मेरी नज़र । इंग्लिश की लेक्चरर से डिगती नहीं - मैडम, मेरी क्लास है !

पूरा स्टाफ रूम कनखियों से क्यूँ मुस्कराता, ये मैं आज सोचता हूँ, तब नहीं सोचता था। एक दिन एक टीचर ने कहा, जाओ जया, तुम्हारा स्टूडेंट तुम्हें याद कर रहा है। उन्होंने मुस्कराते हुए पर्स उठाया और मेरे साथ चल दीं। एक टीचर और एक स्टूडेंट की क्लास । थॉमस हार्डी का “फार फ्रॉम द मैडिंग क्राउड ।” पागल दुनिया से दूर। मैडम कहतीं, पता है सुशोभित, तुम सबसे कितने जुदा हो । हां, शायद ऐसा ही था ।

हमेशा मेरी टीचर्स ऐसे ही बोलतीं। मैं सबका चहेता रहा । मेरी तमाम टीचर्स ने मेरा नाम हमेशा एक अतिरिक्त कोमलता से ही पुकारा । एमए इंग्लिश की क्लास में, वॉट हैड हैप्पंड इन सेवेन्टीन नाइंटी ऐट, व्हिच चेंज्ड द कोर्स ऑफ लिट्रेचर पूछे जाने पर क्लास में बेनिशां चेहरों की पंक्ति खिंच जातीं । अपरा मैडम नाउम्मीदी से तमाम चेहरों का मुआयना करतीं । फिर मेरे चेहरे पर उनकी नज़र टिक जातीं, और आँखों में मुलायमियत चली आतीं । मुस्कराकर कहतीं- येस सुशोभित । मैं खड़ा होकर कहता- द क्राउन वॉज रीस्टोर्ड ऐज वर्ड्सवर्थ एंड । कॉलरिज पब्लिश्ड लिरिकल बैलेड्स एंड सेट द कोर्स ऑफ रोमैंटिक पोयट्री ऑन इट्स ग्लोरियस वे! और तब, अपरा मैम कहतीं - ओह सुशोभित !

मैं अपनी तमाम टीचर्स का ब्लू आईड बॉय था, ई ई कमिन्स के बफैलो बिल की तरह!

ग्यारहवीं में जो इतना निर्दोष था, कॉलेज में इतना निरंक, उसके अंदर फिर चौथी क्लास में वो डाह कैसे चला आया था ? यह भी एक रहस्य !

टीचर का नाम था मोहिनी । लेडीज़ साइकिल से आतीं । बहुत मीठे मन से गणित पढ़ातीं। मैं सम्मोहित हो जाता । एक दिन देखा कि एक बाग के बाहर मोहिनी मैडम की लेडीज साइकिल एक जेंट्स साइकिल के साथ खड़ी है । एक और बार, पिकनिक की ट्रिप पर मोहिनी मैडम ने एक गाने का मुखड़ा गाया तो वो जेंट्स साइकिल वाले सर ने गा दिया उसी गाने का अंतरा । मेरे मन में

बेचैनी| ये सर मोहिनी मैडम से क्यों मिलते हैं, उनके साथ क्यों गाना गाते हैं, काश मैं मोहिनी मैडम को अपने पास छुपा लेता, उन्हें किसी को नहीं सौंपता । उस बात को आज 28 साल हो गए, साइकिल की घंटी बजातीं मोहिनी मैडम जाने कहाँ चली गईं। मैं आज तक उनको याद करता हूँ ।

जो मन नौजवां होकर भी मासूम था, रह रहकर झेंप जाता, उसमें उस लड़कपन में वो चाह कैसे आई, वो डाह कहां से? ये मन के रहस्य इतने ही सरल होते तो बात क्या थी । ये मन बड़ा जटिल है । तब मैं सोचता हूँ, मुझसे छोटी ही नहीं, मेरी हमउम्र लड़कियां भी आज मुझको 'सर' बोलती हैं । कभी कभी तो मुझसे बड़ी स्त्रियां भी । ये उनकी भावना ही होगी, मैं मान लेता हूँ, विरोध नहीं करता ।

फिर सोचता हूँ, अभी तो मैं जया मैम के स्टाफ रूम में था, अभी अपरा मैडम ने नाम पुकारा था, अभी हिंदी की टीचर ने क्लास के बाद रुकने को कहा, अभी अभी मोहिनी मैडम ने ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखकर मेरी ओर देखा और मैं मुस्करा दिया था। मैं कब इतनी जल्दी बड़ा हो गया ! मैं कब स्वयं 'सर' कहलाने लगा! मैं, जिसने इतना समय लिया था बड़ा होने में !