मेरी पत्नी भली तो हैं, लेकिन... / गोपालप्रसाद व्यास
किसी और की बात मैं नहीं जानता, लेकिन मैं तो सचमुच अपनी पत्नी का अत्यंत कृतज्ञ हूँ। यों जन्म मुझे अपनी मां से मिला है, पालन-पोषण और संस्कार भी शायद उन्हीं से प्राप्त हुए होंगे, पर इस बात को आज सबके सामने स्वीकार करने में मुझे ज़रा भी हिचक नहीं है कि जहां तक मेरे आदमी बनने का प्रश्न है, वह मुझे मेरी 'बहुमाता' ने ही बनाया है। मैं उन्हीं का (बनाया) आदमी हूँ।
वे न होतीं तो मैं आज कहीं का न होता? आज उन्हीं की कृपा से मैं एक लंबे-चौड़े ससुराली कुटुंब का जीजा और उनके मुहल्लेभर को साला बनाने योग्य हूँ। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि अगर मेरे पूज्य पिताजी ने मेरी शादी न करने का फैसला, बिना मुझसे पूछे ही कर लिया होता तो कवि, लेखक और पत्रकार बनना तो दूर, मैं स्वयं अपने बच्चों का पिता बनने से भी रह जाता। यह सब कुछ उन्हीं का प्रसाद है कि समाज में आज मेरे लिए भी पैर टिकाने को जगह है, सोसायटी में कभी-कभी मुझे भी सभ्य समझ लिया जाता है और सबसे बड़ी बात यह है कि दिल्ली में रहने को एक टीन भी किसी कदर किराये पर मिली हुई है।
क्या बात कहूँ मैं उनकी? भगवान हजारी उम्र करे उनकी। वे सचमुच इतनी भली हैं कि जबसे हुजू़र ने हमारे घर को रौनक-अफरोज़ फरमाया है, हमें तो सिर्फ आराम करने के सिवा कोई काम ही नहीं रह गया। झाड़ा-बुहारा घर, धुले-धुलाए कपड़े, पका-पकाया खाना, बिछी-बिछाई खाट और बिना मांगे पानी-जब आदमी को अनायास ही मिलने लगे तो उसे महाकवि घाघ के शब्दों में "उहां छांड़ि इंहिवै बैकुंठा” नज़र आने लगता है। हमारी क्लीन-शेव सूरत, सजी-संवरी देह और सलीके के कपड़ों को देखकर मित्र लोग हैरान होते हैं कि इस 'बछिया के ताऊ' में इतनी अक्ल कहां से आगई? मगर उन्हें यह नहीं मालूम कि यह तो किसी और का ही वरद-हस्त है, जिसने हमारे ऊपर गिरने वाले अभावों के गिरि गोवर्धन को अधर ही में थाम रखा है।
उनके श्री चरणों का सुस्पर्श पाकर, सच कहूँ इस घर की दुनिया ही बदल गई है। घर के बर्तन, कपड़े, फर्नीचर, चित्र, किताबें-यह समझिए कि घूरे-से लगने वाले इस घर का सारे-का-सारा वातावरण ऐसा दमक उठा है, मानो चंडीगढ़ का रॉक गार्डन हो। अब हमें न तो रूमाल की ख़ातिर सारी अलमारी उलट देनी पड़ती है और न कविता के कागजों की तलाश में ताक से लेकर कूड़े के कनस्तर तक की दौड़ लगानी पड़ती है। हर एक चीज कायदे से, अपने समय पर, इस सफाई और सुंदरता के साथ स्वयं होती चलती है कि हम तो अपनी 'होम-गवर्नमेंट' की इस शासन-कुशलता पर दंग रह जाते हैं। शादी के पहले जब हम इन्हें पसंद करने गए थे (हालांकि वह हमारी हद दर्जे़ की बेवकूफी थी) तब सपने में भी यह ख़याल नहीं आया था कि इसी सीधी-सादी, दुबली-छरहरी, गऊ-सी लड़की में इतनी 'एडमिनिस्ट्रेटिव' पॉवर और ये-ये गुल भरे होंगे।
परंतु आप जानते हैं कि आदमी अपनी प्रकृति से बैल और कलाकार नाम का प्राणी वास्तव में बिल्कुल बछड़े के समान होता है। दुर्भाग्य से वह कहीं हिन्दी का कवि भी हो तो बस, खै़र नहीं। समझो कि करेला और नीम चढ़ा। इस बिना सींग के पशु को,यह समझिए बंधन ज़रा भी नहीं सुहाते। उसे घेर-घेर कर खूँटे की ओर लाइए, वह उछल-उछल कर उससे वैसे ही दूर भागता है जैसे महावीर विक्रम बजरंगी का नाम सुनते ही भूत भाग उठते हैं। यही हाल कुछ मेरा भी समझ लीजिए। वह घेर-घेर कर लाती हैं और मैं बिदक-बिदक कर भाग खड़ा होता हूँ।
उन्होंने मेरे आठ पहर चौंसठ घड़ी का एक निश्चित 'टाइम-टेबल' बना छोड़ा है कि 6 बजे उठो। और यह भी कोई बात है कि रोज़ नहाओ, इस वक्त अख़बार पढ़ो और इस वक्त चाय पियो! खाना ठीक साढ़े नौ बजे, फिर 15 मिनट का रेस्ट और फिर सीधे चलो अपने काम पर! और देखो, दफ्तर से ठीक साढ़े पांच बजे न लौटे तो खै़र नहीं। भूख हो या न हो, आते ही नाश्ता, फिर गप-शप, रेडियो और ब्यालू! ख़बरदार जो रात को नौ बजे के बाद घर से बाहर पैर भी रखा तो! नींद न आए, घड़ी पर 90 डिग्री का एंगिल बनते ही आंखें बंद कर लेनी पड़ती हैं।
आप ही बताइए कि विषुवत् रेखा की पूंछ से बंधे इस गर्म देश में क्या कहीं रात को जल्दी सोया जा सकता है? या सुबह तड़के भीनी-भीनी ठंडी बयार बह रही हो तो कहीं उठने को दिल करता है? अपनी बात तो मैं कहूँ कि सुबह-सवेरे जब मैं तीन-तीन तकियों को जांघ, बगल और सिर को नीचे दबाए सोता हुआ जागता या जागता हुआ सोता रहता हूँ, तब मेरे पास और की तो चले क्या, स्वयं नेहरूजी भी आएं और खुद अपने हाथों से मुझे उत्तर प्रदेश का गवर्नर बनने का निमंत्रण भेंट करने लगें तो यक़ीन मानिए, उस समय खटिया छोड़ने पर मैं किसी भी तरह राजी नहीं हो सकता। उस वक्त या तो मैं जवाब देना ही पंसद नहीं करूँगा, अगर लाचारी से कुछ कहना ही पड़ा तो बिना आंखें खोले यही कहूँगा-जाइए-जाइए महाशय, आधी उम्र जेल में गुज़ारने वाले तुम इस शैया-सुख को क्या पहचानो? अरे जो सुख 'राज में न पाट में, सो सुख आवे खाट में।' लेकिन आप जानते हैं कि नेहरूजी को नाराज़ करना आजकल आसान है, पर अपनी लड़की के भावी लड़के की होने वाली नानी को नाराज़ करना हंसी-खेल नहीं, क्योंकि एक तो नेहरूजी आसानी से रूठने वाले नहीं और रूठे भी तो अधिक-से-अधिक एक अंतर्राष्ट्रीय (इंटरनेशनल) स्पीच दे देंगे। मगर यह जो हमारी दिन में निन्यानबे बार नैहर की तुरुप चलाने वाली नवेली है, यदि कहीं सबेरे-सबेरे रूठ गई, तो समझ लीजिए दिनभर की खै़र नहीं!
भगवान झूठ न बुलवाए, पहले हम बहुत सच्चे और नेक आदमी थे। लेकिन अब उनकी रोज़-रोज़ की सख्ती और समय की पाबंदी ने नाहक हमें गुनाह करना और झूठ बोलना सिखा दिया है। आप ही कहिए कि दफ्तर से रोज़-रोज़ कहीं सीधे घर आया जा सकता है? कभी नहीं। कभी रास्ते में ये मिल जाते हैं, कभी वे। क्लब, गोष्ठी,समाज और रेस्तरां की तो बात छोडिए, कभी-कभी तो सीधे घर जाने की बजाय कबड्डी या गिल्ली-डंडा खेलने को ही मन करता है। लेकिन एक हमारी ये हैं कि हमें महीने में दो-चार दिन भी ऐसी छूट देने को तैयार नहीं। परिणामस्वरूप हमें आखिर अपने सदा-सहायक झूठ का ही सहारा लेना पड़ता है। कभी कहते हैं कि दफ्तर में काम अधिक था,कभी कहते हैं कि रास्ते में साइकिल पंचार होगई और कभी कहना पड़ता है कि हे जग्गो की जीजी, आज तो बस तुम्हारे पुण्य प्रताप से ज़िंदा बचा हूँ, वरना वह 'एक्सीडेंट' होता कि इस वक्त तो हमारे कारनामे धर्मराज की अदालत में खुल रहे होते। ऐसी बात नहीं कि स्वयं उनमें इन बातों को सोचने-समझने की अक्ल न हो। घर-बाहर, पास-पड़ोस का जो उनको मिलता है,उनकी सूक्ष्म बुद्धि की तारीफ़ करता नहीं अघाता। हमें भी उनके पीठ-पीछे यह मान लेने में कोई एतराज़ नहीं कि जहां तक तुलना का प्रश्न है, यह जो बुद्धि नाम की वस्तु है, दरअसल, उनके हिस्से में ईश्वर के पक्षपात से, हमसे अधिक ही आई है। लेकिन, इनका मतलब यह तो नहीं कि हम निरे बुद्धू हैं। पर क्या कहें- 'वे' मुंह से तो कभी इस मनहूस शब्द का प्रयोग नहीं करतीं-लेकिन अपने आचरण और इशारों से मुझे इस बात का आभास कराती ही रहती हैं कि इससे कुछ अधिक या पृथक भी नहीं हूँ। आप ही सोचिए, मैं पढ़ा-लिखा, अच्छा-खासा, लंबा,तंदुरुस्त आदमी कहीं बेवकूफ हो सकता हूँ? लेकिन उनसे कोई इस बात को कहके तो देखे, 'वे' मुझे अक्लमंद मानने को कतई तैयार नहीं। उनका पक्का विचार है कि मैं सचमुच ऐसा भोंदू हूँ कि कुंजडिनें मुझे आसानी से ठग सकती हैं। दर्जी मेरा कपड़ा मजे़ में खा सकता है, हर दुकानदार मुझे आराम से लूट सकता है। सफर में मेरी जेब काटी जा सकती है और जाने मेरा क्या-क्या नहीं हो सकता! उनके विचार से घर से बाहर, अकेले में कहीं भी निरापद नहीं हूँ। न जाने कब मुझे और कुछ नहीं तो किसी की नज़र ही लग जाए? न जाने कब मुझे, कहीं कोई बहका ही ले? पता नहीं कब मुझे बुखार ही आ जाए, तो? और जी, आजकल किसी का ठिकाना है-कोई कहीं मुझ पर जादू-टोना कर बैठे तो 'वे' बस बैठी रह जाएंगी कि नहीं? इसलिए वह सदा छाया की तरह मेरे साथ लगी रहती हैं। मैं गृहस्थी की गाड़ी का ड्राइवर भले होऊँ, मगर यह गाड़ी बिना उनकी 'व्हि्सिल' हरगिज़ नहीं रेंग सकती। खुद मैं अपने-आपको कोई कम होशियार और किसी से कम फितना नहीं समझता, लेकिन-'वे' मुझे सिर्फ भोला और भुलक्कड़ ही कहकर कृतार्थ करती हैं। कभी-कभी तो मैं उनसे मज़ाक में कह भी देता हूँ-सुनो, तुम तो नाहक ही मुझसे शादी करके पछताईं। इस पर जब 'वे' आंखें तरेरने लगती हैं तो उनसे पूछता हूँ-अच्छा बताओ, मुझमें और तुम्हारे बड़े लड़के में, तुम्हारी समझ में क्या मौलिक अंतर है? लेकिन मुश्किल यह है कि इन बुद्धिमानी के प्रश्नों से मेरी अक्लमंदी उनकी निगाह में कभी भी सही नहीं उतरती।
कभी-कभी जब सिरफिरे अख़बारों में नारियों की आज़ादी के समर्थन का आंदोलन देखता हूँ तो मुझे बड़ा क्षोभ होता है। इन अक्ल के मारे संपादकों, पत्रकारों और लेखकों तथा बयानबाज नेताजी से कोई पूछे कि आज परतंत्र नारी है या नर? कौन कहता है कि आज नारी गुलाम है? गुलाम तो बेचारा आदमी है। दूर क्यों जाते हो, खुद मुझे ही देख लो न? मुझ जैसी सुशिक्षित, समझदार, भले घर की, सबका मान-सम्मान करने वाली सदगृहस्थ पत्नी हर एक को मुश्किल से ही नसीब होगी। लेकिन मैं ही जानता हूँ कि अपने घर में, अपनी सहेलियों और मायके वालों का सत्कार करने में 'वे' कितनी स्वतंत्र है और अपने ही घर में अपने मित्रों और उनके अनचाहे रिश्तेदारों की आवभगत करने में मैं कितना परतंत्र हूँ।
कहने का मतलब यह है कि 'वे' लाखों से भली हैं, नेक हैं, खुशदिल हैं और उदार प्रकृति की भी हैं, लेकिन तभी तक जब तक कि मैं उनकी समझ के दायरे के अंदर बिना कान-पूंछ हिलाए चलता रहता हूँ। अगर कहीं उनकी खींची हुई लक्ष्मण-रेखा (नहीं-नहीं, पत्नी-रेखा) का अतिक्रमण करके अपने पत्नीव्रत धर्म से मैं ज़रा भी डिगने लगता हूँ तो समझ लीजिए मेरी पुश्तैनी रियासत पर सरदार पटेल की नज़र पड़ी! अब पड़ी!
मैं शौक से बाजार जाऊँ, ठाठ से सिनेमा देखूँ, मजे़ से सैर करता रहूँ, लेकिन मेरा पथ तभी तक सुरक्षित समझिए कि जब तक या तो 'वे' साथ हों या उनकी आज्ञा की लालटेन मेरी राह के अंधकार को दूर कर रही हो, क्योंकि बिना आज्ञा के बाजार जाना-आवारागर्दी, सिनेमा देखना-पाप और सैर करना-महान मूर्खता है। इन अपराधों का दंड भी कोई साधारण नहीं मिलता। आंसुओं के महासागर में डुबकियां लगाने से लेकर तनहाई तक की सज़ा उनके 'पीनल-कोड'में दर्ज़ है। इतना ही नहीं, जुर्म संगीन होने पर कभी-कभी तो तनहाई के साथ-साथ राशन-पानी भी बंद कर दिया जाता है। अभी-अभी एक और एटम बम उनके हाथ लग गया है। अब तो बाजार-सिनेमा की तरफ रुख करते ही हमारी पाकेट मार ली जाती है और वह शरणार्थी बनाकर छोड़ा जाता है कि हमारी जेब में बस भाड़े तक को पैसे नहीं होते। उनकी भलाइयों और उनके साथ लगे हुए इस 'लेकिन' के किस्से कहां तक बयान करूँ! हाल यह है कि घर में भोजन अच्छे-से-अच्छा बनता है, मगर वह होता है सब कुछ उनकी रुचि का। कपड़े मुझे अच्छे-से-अच्छे पहनने को मिलते हैं, लेकिन मेरी पंसद के बारे में मुझसे कभी एक शब्द भी नहीं पूछा जाता।
मेरे घर में बढ़िया-से -बढ़िया क्रॉकरी है, एक-से-एक आला चित्र हैं, भगवान की कृपा से सब कुछ है, लेकिन कसम ले लीजिए कि रेडियो से लेकर आलू छीलने की मशीन तक में मेरी सलाह और समझदारी का रत्तीभर भी साझा नहीं।
सही बात तो यह है कि कभी विवाह के समय जब हम दोनों ने सप्तपदी के फेरे लगाए थे, उनमें मैं भले ही थोड़ी देर को आगे रहा होऊँ, आज तो 'वे' मुझे आगे निकलने ही नहीं देतीं। अब तो खरीदे हुए घोड़े की तरह बिना कान-पूंछ हिलाए मुझे उनके इशारों पर ही चलना है। राजी से चलूं या नाराज़ी से, चलना मुझे उनके इशारों पर ही है-क्योंकि लगाम मेरी उनके ही हाथ में है।