मेरी पसंद / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
डॉक्टर महेता सोमवार को मुझसे मिलने विक्टोरिया होटल पहुँचे। वहाँ उन्हें हमारा नया पता मिला, इससे वे नयी जगह आकर मिले। मेरी मूर्खता के कारण जहाज मे मुझे दाद हो गयी थी। जहाज में खारे पानी से नहाना होता था। उसमें साबुन घुलता था। लेकिन मैने तो साबुन का उपयोग करने में सभ्यता समझी। इससे शरीर साफ होने के बदले चीकट हो गया। उससे दाद हो गयी। डॉक्टर को दिखाया। उन्होने एसेटिक एसिड दी। इस दवाने मुझे रुलाया। डॉक्टर महेता ने हमारे कमरे वगैरा देखे और सिर हिलाया, 'यह जगह काम की नहीं। इस देश में आकर पढ़ने की अपेक्षा यहाँ के जीवन और रीतिृरिवाज का अनुभव प्राप्त करना ही अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसके लिए किसी परिवार में रहना जरुरी हैं। पर अभी तो मैने सोचा है कि तुम्हें कुछ तालीम मिल सके, इसके लिए मेरे मित्र के घर रहो। मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊँगा।'
मैने आभारपूर्वक उनका सुझाव मान लिया। मैं मित्र के घर पहुँचा। उनके स्वागत -सत्कार में कोई कमी नहीं थी। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा, अंग्रेजी रीति-रिवाज सिखाये , यह कह सकता हूँ कि अंग्रेजी में थोड़ी बातचीत करने की आदत उन्हीं ने डलवाई।
मेरे भोजन का प्रश्न बहुत विकट हो गया। बिना नमक और मसालोंवाली साग-सब्जी रुचती नहीं थी। घर की मालकिन मेरे लिए कुछ बनावे तो क्या बनाये ? सवेरे तो ओटमील (जई का आटा) की लपसी बनती। उससे पेट कुछ भर जाता। पर दोपहर और शाम को मैं हमेशा भूखा रहता। मित्र मुझे रोज माँस खाने के लिए समझाते। मैं प्रतिज्ञा की आड़ लेकर चुप हो जाता। उनकी दलीलों का जवाब देना मेरे बस का न था। दोपहर को सिर्फ रोटी , पत्तो-वाली एक भाजी और मुरब्बे पर गुजर करता था। यही खुराक शाम के लिए भी थी। मैं देखता था कि रोटी के तो दो-तीन टुकड़े लेने की रीत हैं। इससे अधिक माँगते शरम लगती थी। मुझे डटकर खाने की आदत थी। भूख तेज थी और खूब खुराक चाहती थी। दोपहर या शाम को दूध नहीं मिलता था। मेरी यह हालत देखकर एक दिन मित्र चिढ़ गये और बोले , 'अगर तुम मेरे सगे भाई होतो तो मैं तुम्हें निश्चय ही वापस भेज देता। यहाँ की हालत जाने बिना निरक्षर माता के सामने की गयी प्रतिज्ञा का मूल्य ही क्या ? वह तो प्रतिज्ञा ही नहीं कहीं जा सकती। मै तुमसे कहता हूँ कि कानून इसे प्रतिज्ञा नहीं मानेगा। ऐसी प्रतिज्ञा से चिपटे रहना तो निरा अंधविश्वास कहा जायेगा। और ऐसे अंधविश्वास में फंसे रहकर तुम इस देश से अपने देश कुछ भी न ले जा सकोगे। तुम तो कहते हो कि तुमने माँस खाया हैं। तुम्हें वह अच्छा भी लगा हैं। जहाँ खाने की जरुरत नहीं थी वहाँ खाया, और जहाँ खाने की खास जरुरत हैं वहाँ छोड़ा। यह कैसा आश्चर्य हैं।'
मैं टस से मस नहीं हुआ।
ऐसी बहस रोज हुआ करती। मेरे पास छत्तीस रोगों को मिटाने वाल एक नन्ना ही था। मित्र मुझे जितना समझाते मेरी ढृढ़ता उतनी ही बढ़ती जाती। मैं रोज भगवान से रक्षा की याचना करता और मुझे रक्षा मिलती। मै नहीं जानता था कि ईश्वर कौन हैं। पर रम्भा की दी हुई श्रद्धा अपना काम कर रही थी।
एक दिन मित्र मे मेरे सामने बेन्थम का ग्रंथ पढ़ना शुरु किया। उपयोगितावादवाला अध्याय पढ़ा। मैं घबराया। भाषा ऊँची थी। मैं मुश्किल से समझ पाता। उन्होंने उसका विवेचन किया। मैने उत्तर दिया , 'मैं आपसे माफी चाहता हूँ। मैं ऐसी सूक्षम बाते समझ नहीं पाता। मैं स्वीकार करता हूँ कि माँस खाना चाहिये , पर मैं अपनी प्रतिज्ञा का बन्धन तोड़ नहीं सकता। उसके लिए मैं कोई दलील नहीं दे सकता। मुझे विश्वास हैं कि दलील में मैं आपको कभी जीत नहीं सकता। पर मूर्ख समझकर अथवा हठी समझकर इस मामले मे मुझे छोड़ दीजिये। मैं आपके प्रेम को समझता हूँ। आपको मैं अपना परम हितैषी मानता हूँ। मैं यह भी देख रहा हूँ कि आपको दुःख होता हैं , इसी से आप इतना आग्रह करते हैं। पर मैं लाचार हूँ। मेरी प्रतिज्ञा नहीं टूट सकती।'
मित्र देखते रहे। उन्होने पुस्तक बन्द कर दी। 'बस, अब मैं बहस नहीं करुगा,' यह कहकर वे चुप हो गया। मैं खुश हुआ। इसके हाद उन्होंने बहस करना छोड़ दिया।
पर मेरे बारे मे उनकी चिन्ता दूर न हुई। वे बीडी पीते थे, शराब पीते थे। लेकिन मुझसे कभी नहीं कहा कि इनमें से एक का भी मैं सेवन करुँ। उलटे, वे मुझे मना ही करते रहे। उन्हे चिन्ता यह थी कि माँसाहार के अभाव में मैं कमजोर हो जाऊँगा। और इंग्लैंड में निश्तन्ततापूर्वक रह न सकूँगा।
इस तरह एक महीने तक मैने नौसिखुए के रुप में उम्मीदवारी की। मित्र का घर रिचमन्ड में था, इसलिए मैं हफ्ते में एक या दो बार ही लंदन जा पाता था। डॉक्टर मेहता और भाई दलपतराम शुक्ल ने सोचा कि अब मुझे किसी कुटुम्ब में रहना चाहिये। भाई शुक्ल ने केन्सिग्टन में एक एंग्लोइण्डिन का घर खोज निकाला। घर की मालकीन एक विधवा थी। उससे मैं माँस-त्याग की बात कही। बुढिया ने मेरी सार-संभाल की जिम्मेदारी ली। मैं वहाँ रहने लगा।
वहाँ भी मुझे रोज भूखा रहना पड़ता था। मैने घर से मिठाई वगैरा खाने की चीजे मंगाई थी, पर वे अभी आयी नही थी। सब कुछ फीका लगता था। बुढ़िया हमेशा पूछती, पर वह करे क्या ? तिस पर मैं अभी तक शरमाता था। बुढ़िया के दो लड़कियाँ थी। वे आग्रह करके थोड़ी अधिक रोटी देती। पर वह बेचारी क्या जाने कि उनकी समूची रोटी खाने पर ही मेरी पेट भर सकता था ?
लेकिन अब मैं होशियारी पकड़ने लगा था। अभी पढ़ाई शुरु नहीं हुई थी। मुश्किल से समाचार पत्र पढ़ने लगा था। यह भाई शुक्ल का प्रताप हैं। हिन्दुस्तान में मैंने समाचार पत्र कभी पढ़े नहीं थे। पर बराबर पढ़ते रहने के अभ्यास से उन्हें पढ़ते रहने का शौक पैदा कर सका था। 'डेली न्यूज़', 'डेली टेलीग्राफ' और 'पेलमेल गजेट' इन पत्रों को सरमय निगाह से देख जाता था। पर शुरु-शुरु मे तो इसमें मुश्किल से एक घंटा खर्च होता होगा।
मैने घुमना शुरु किया। मुझे निरामिष अर्थात अन्नाहार देने वाले भोजनगृह की खोज करनी थी। घर की मालकिन मे भी कहा था कि खास लंदन में ऐसे गृह मौजूद हैं। मैं रोज दस-बारह मील चलता था। किसी मामूली से भोजनगृह में जाकर पेटभर रोटी खा लेता था। पर उससे संतोष न होता था। इस तरह भटकता हुआ एक दिन मैं फैरिंग्डन स्ट्रीट पहुँचा और वहाँ 'वेजिटेरियन रेस्टराँ' (अन्नाहारी भोजनालय) का नाम पढा। मुझे वह आनन्द हुआ , जो बालको को मनचाही चीज मिलने से होती हैं। हर्ष-विभोर होकर अन्दर घुसने से पहले मैने दरवाजे के पास शीशेवाली खिड़की में बिक्री की पुस्तकें देखी। उनमे मुझे सॉल्ट की 'अन्नाहार की हिमायत' नामक पुस्तक दीखी। एक शिलिंग में मैने वह पुस्तक खरीद ली और फिर भोजन करने बैठा। विलायत में आने के बाद यहाँ पहली बार भरपेट भोजन मिला। ईश्वर नें मेरी भूख मिटायी।
सॉल्ट की पुस्तक पढ़ी। मुझ पर उसकी अच्छी छाप पड़ी। इस पुस्तक को पढ़ने के दिन से मैं स्वेच्छापूर्वक, अन्नाहार में विश्वास करने लगा। माता के निकट की गयी प्रतिज्ञा अब मुझे आनन्द देने लगी। और जिस तरह अब तक मैं यह मानता था कि सब माँसाहारी बने तो अच्छा हो , और पहले केवल सत्य की रक्षा के लिए और बाद में प्रतिज्ञा-पालन के लिए ही मैं माँस-त्याग करता था और भविष्य में किसी दिन स्वयं आजादी से , प्रकट रुप में, माँस खाकर दूसरों को खानेवालों के दल में सम्मिलित करने की अमंग रखता था, इसी तरह अब स्वयं अन्नाहारी रहकर दूसरों को वैसा बनाने का लोभ मुझ मे जागा।