मेरी पसन्दः डॉ.भगवतशरण अग्रवाल के दस हाइकु / सुधा गुप्ता
डॉ.भगवतशरण अग्रवाल हिन्दी हाइकु कविता-संसार का एक बहु चर्चित, प्रशंसित एवं सुस्थापित नाम है। अपनी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं को बनाने तथा उनके त्वरित कार्यान्वयन के लिए भी डॉ.अग्रवाल सुख्यात हैं। उनके कवित्व की सुगन्धि अनेक रूपों में फैली है। यहाँ मैं उनके हाइकुकार रूप की संक्षिप्त चर्चा कर रही हूँ।
डॉ.अग्रवाल हाइकु के सैद्धान्तिक पक्ष के तात्त्विक मार्मिक विश्लेषण के अतिरिक्त हाइकु की रचना में सिद्धहस्त हैं।
हाइकु काव्य का गम्भीर अध्येता हो अथवा साधारण पाठक, सभी इस पर सहमत हैं कि हाइकु अपनी लघुकाया-मात्र सतरह वर्ण के छोटे से शरीर में कुछ ऐसा अवश्य लिए हैं जो बरबस मन को खींचता है-कुछ ऐसा संकेत जो पढ़ते ही मन को आह्लादित कर दे, उत्फुल्लता से भर दे - हाइकु की ऐसी वक्रता जो सहसा अर्थ को उद्घाटित कर पाठक-मन को चौंका कर रसप्लावित कर दे-पाठक का यह अनुभव कि बिना चेताए कोई लहर आकर उसे अपने साथ खींच कर, बहा कर ले गई है-यही है एक समर्थ-सफल हाइकु की पहचान, एक मात्र कसौटी! भारतीय काव्यशास्त्र में जिसे ‘ध्वनि-काव्य’ कहा गया है, ‘शब्द-शक्ति’ में जो ‘लक्षणा’ ‘व्यंजना’ की शक्ति है, ‘वाग्-वैदग्ध्य’ से जिस चमत्कार की सृष्टि होती है-हाइकु प्रथम बार पढ़ने में थोड़ा-सा अर्थ देकर, धीरे-धीरे खिलते फूल की भाँति भीतरी परत-दर-परत अर्थ खोलता चलता है-वही हाइकु उत्कृष्ट है।
डॉ.अग्रवाल के अब तक (यह आलेख लिखे जाने तक) पाँच हाइकु-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनका प्रथम हाइकु-संग्रह ‘शाश्वत क्षितिज’ हिन्दी हाइकु जगत का पहला संग्रह है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। अपनी पसन्द के कुछ हाइकु यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-
1- जोड़ता बच्चा / झड़े हुए पत्ते को / क्या कहूँ उसे?(शाश्वत क्षितिज, 13)
हाइकुकार आरम्भ करता है बच्चे से। बच्चा झरे हुए पत्ते को पुनः उसकी शाख से जोड़ना चाहता है और हाइकु की तीसरी पंक्ति समाप्त होती है-‘क्या कहूँ उसे’ से साधारण-सी बात, गहरे में छिपाए अर्थ का अनूठा आकर्षण लिए है- मनुष्य की मूढ़ता, अबोधता, अल्पज्ञता सभी कुछ है! बच्चे को क्या कहूँ? क्या हम सब इसी ‘असम्भव’ कोशिश में नहीं लगे हुए हैं? मानव मन में छिपा बैठा ‘बच्चा’ झड़े पत्ते को पुनः शाख से जोड़ना चाहता है। सुन्दर हाइकु है।
2- नदी हँसी थी / घरौंदे बनाने पै / मेरे-तुम्हारे (शाश्वतक्षितिज 182)
हाइकुकार शब्दों का ‘निपुण चयन कर्त्ता’ है। केवल ‘नदी हँसी थी’ कहकर एक हाइकु में इतना अर्थ भर दिया कि व्याख्या के लिए पूरा पृष्ठ भी कम रहेगा। मानव, जीवन भर यही तो करता है-बड़े मनोयोग से घरौंदा बनाता है और समय की नदी गुप-चुप हँसती रहती है ---- केवल कुछ क्षण का खेल और एक लहर आकर बहा ले जाती है। हँसी की व्यंजना-शक्ति अपूर्व है। नदी की हँसी घरौंदे की असारता,क्षणभंगुरता,व्यर्थश्रम की मूर्खता-सभी कुछ का पूरा अहसास करा देती है। मुझे अत्यंत प्रिय है।
3- फूल ने देखा / बड़ी हसरतों से / टूटते वक्त(टुकड़े-टुकड़े आकाश-123)
फूल का तोड़ा जाना सुनिश्चित है, ‘काल’ का माली आएगा और तोड़ कर ले जएगा किन्तु टूटते वक्त फूल ‘बड़ी हसरतों से’ देखता है-अधूरी इच्छाएँ, जीवन को मन भर जीने की ललक और टूट जाने की विवशता सभी कुछ हसरतों में समा गया है।
मानव जगत् और पशु-पक्षि-जगत् ही नहीं, बहुत नन्हे, नगण्य से जीव-जंगनू और मेंढक भी जिजीविषा के उद्दाम वेग में उल्लसित हो उठे हैं, इसका अनुभव बहुत कोमल भावनाओं वाला सहृदय कवि ही कर सकता है- 4- पावस-रात / पिकनित मनाते / नाचें जुगनू (शाश्वत क्षितिज- 189)
5- वर्षा के झोंके / बतियाते मेंढक / चाय-पकौड़ी (टु-टु-आ- 110)
मानव ने अपनी कल्पना से पत्थर में ईश्वर (देवता) को गढ़ा, फिर उसे सर्वशक्तिमान नियंता मान कर उसी से मनचाही वस्तु माँगने लगा-यह उसकी कैसी ‘बुद्धिमानी’ है?
6- पहले गढ़े / पत्थरों से देवता / उन्हीं से भीख? (अर्घ्य, 30)
हाइकुकार के प्रश्न का उत्तर देना सरल नहीं है। आज हमारे देश में चोरी-डकैती इस कदर बढ़ चुकी है कि हमारे देवालयों में ‘भगवान्’ तक सुरक्षित नहीं हैं --- मन्दिरों से दुर्लभ मूर्तियों की चोरी की घटनाओं से इस तरह आतंकित कर दिया है कि प्रायः प्रत्येक मन्दिर में ‘शयन आरती’ के पश्चात् मुख्य पट बन्द कर, ताले जड़ दिए जाते हैं। हाइकुकार का आहत मन पूछता है-
7- आरती कर / ताले में बन्द किया / सो गए हरि?(टु- टु- आ- 35)
‘सो गए हरि?’ की अबूझ व्यथा पृष्ठ-दर-पृष्ठ व्याख्या में भी नहीं समा पाएगी। एक सीधे-सादे भक्त का सरल सा सवाल है-‘सो गए हरि’? सुनो, ताले में बन्द होकर नींद आ जाती है न? समाज की विकृति जन्य मानसिकता से उत्पन्न विवशता को मनुष्य तो क्या, स्वयं भगवान् भी ढोने को मजबूर हैं------
सामाजिक विडम्बना ने ऐसी स्थिति ला दी है , जिससे कभी न कभी, किसी न किसी बिन्दु पर मानव को ‘दो-चार’ होना ही पड़ता है-
8- जलता नीड़ / हवा दे रहे पत्ते / उसी पेड़ के (अर्घ्य-24)
मानव -जीवन की भयंकर त्रसदी-आजीवन श्रम से जो नीड़ बनाया था, जल रहा है (परिवारों की टूटन, संघर्ष और बिखरना) चलो, यह तो नियति का खेल था, जिसे होना ही था _ किन्तु सबसे बड़ा कटु सत्य जो असह्य है, वह यह कि आग को और-और भड़काने के लिए उसी पेड़ के पत्ते हवा दे रहे हैं। सचमुच प्रतीक रूप में दूर तक अर्थ फेंकते इस हाइकु की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। आज बड़े से बड़े उद्योगपति (अरब पति) और सामान्य से सामान्य गृहस्थ का यही नज़ारा है। रात-दिन जागकर, श्रम करके जिन संतान रूपी पत्तों को हरियाली से भरा, वही ‘नीड़’ को जलाने हेतु तत्परतापूर्वक ‘हवा दे रहे’ हैं।
9- तूफानी रात / पेड़ों पे जमी बर्फ / पंछी बेचैन (अर्घ्य-9)
शीत की जिन जानलेवा भीषण ठण्ड भरी रातों में मानव समाज का एक वर्ग, सुविधाजनक घरों को बन्द कर, मोटे बिछौने-रजाई-कम्बलों में सो रहा होता है, ऐसे में पंछी जिनका एक मात्र सहारा खुले आकाश के नीचे पेड़ों की डालियों में कुछ तिनकों से बना घोंसला होता है, तूफानी रात ने उसे तहस-नहस कर दिया, पेड़ों पर बर्फ जम गई ऐसे में पंछी की बेबसी और छटपटाहट शोचनीय है। दूसरे अर्थ में ‘पंछी’ सर्वहारा वर्ग की ओर संकेत करता जो आज भी ‘बे घर’ होते हुए सड़क के किनारे, फुुटपाथ पर या डिवाइडर पर आँधी-पानी में रात बिताने को बाध्य है।
भारत ऋतुओं का देश है जिसमें ‘वसन्त’ का महत्त्व सर्वोपरि है। सभी जानते हैं कि ‘शिरीष’ का वसन्त विलम्ब से आता है। वसन्त की सुषमा से जब प्रकृति लक-दक हो उठती है, तब ‘शिरीष’ पत्ते गिरा कर खड़ा रहता है, कुछ सूखी फलियाँ (छिम्मियाँ) लटकी रहती हैं। मैंने उसी स्थिति पर ‘शिरीष’ पर तंज कसते हुए एक हाइकु लिखा था-
नंगे बदन / शिरीष का वसन्त / सूखी छिम्मियाँ (तरु देवता)
फिर मुझे पढ़ने को मिला डॉ.अग्रवाल का हाइकु-
10- फागुन भर / पैंजनी बजाती रही / शिरीष-फली (टुकड़े-टुकड़े आकाश-123)
वाह। क्या कल्पना है। कवि की सकारात्मक सोच एवं संवेदनशीलता देखते ही बनती है। जिसे मैंने ‘सूखी छिम्मियाँ’ कह कर नकार दिया, दुत्कार दिया वही सूखी छिम्मी भावुक कवि की ‘पैंजनी’ बन गई। मैंने स्वयं अपना तिरस्कार किया-तुम स्वयं को कवि मानती हो? व्यर्थ ---- बिल्कुल व्यर्थ ----- एक तो पत्रहीन शिरीष की खिल्ली उड़ाई ‘नंगे बदन’ कहकर दूसरे उसकी झुर्रियाँ और सिलवटों को ‘सूखी छिम्मी’ बना कर उपहास का पात्र बनाया ---- देखो ---- एक सच्चा भावुक संवेदनशील हृदय उन सूखी फलियों से पैंजनी बना कर वसन्तोत्सव मना रहा है ---- कवि-हाइकुकार डॉ.भगवत शरण अग्रवाल अपनी भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा से ऐसी सर्जना करते हैं जो नमन के योग्य हैं।