मेरी प्रेरणा थे चन्द्रकांत त्रिवेदी घनश्याम / हरिनारायण सिंह 'हरि'
मेरे साहित्यिक व्यक्तित्व को निर्मित करने में घनश्याम जी की महती भूमिका रही है। हालांकि स्वर्गीय चन्द्रकांत त्रिवेदी 'घनश्याम' मुझसे कई वर्ष छोटे थे। उनके बड़े भाई राजाराम तिवारी (उच्च विद्यालय, मोहीउद्दीन में संस्कृत के शिक्षक) मेरे वर्ग सहपाठी रहे हैं। घनश्याम मुझे अग्रज मानते भी थे। , किंतु साहित्य-लेखन में मैं जब-जब शिथिल पड़ता, वे मेरे पीछे पड़ जाते, 'आपमें प्रतिभा है, क्षमता है, आप नहीं लिखकर साहित्य और स्वयं का अहित कर रहे हैं।' उनके ये वाक्य मेरे लिए संजीवनी जैसे काम करते और मैं पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ साहित्य-सृजन में लग जाता।
मैं चौथी कक्षा से कविताएँ लिखता आ रहा हूँ। उन दिनों मेरे गुरु हुआ करते थे सदानंद राय जी। मेरे वर्ग शिक्षक। वे हिन्दी और संस्कृत पढ़ाया करते थे। वे कविताई भी करते थे और फ़िल्मी तर्जों पर भक्तिपरक गाने भी बनाया करते थे। मैं उनकी छाया में तुकबंदियाँ किया करता। गाने बनाया करता। वे उनको संशोधित कर दिया करते। तब मैं 'कविजी' के नाम से अपने साथियों के बीच जाना जाता था। जब मैं सातवीं में था तो घनश्याम तीसरी या चौथी कक्षा में आ गये थे और चोरी-छिपे वे भी तुकबंदी करने लगे थे। किंतु संकोचवश अपनी रचनाएँ किसी को दिखा नहीं पाते। एक दिन झिझकते हुए उन्होंने अपनी कविता मुझे दिखायी और तब से मैं उनके अग्रज से अधिक उनका मित्र हो गया। धीरे-धीरे हरि और घनश्याम की जोड़ी शंकर-जयकिशन की जोड़ी की तरह अटूट व छोटे दायरे में ही सही कुछ-कुछ मशहूर भी हो गयी-जौनापुर से पटना कि तत्कालीन साहित्य-मित्रमंडली तक।
मोहीउद्दीन नगर हाइ स्कूल से 1974 में मैट्रिक की परीक्षा पास कर मैं बीएस कालेज, दानापुर में इंटर की पढ़ाई करने आ। यहाँ मुझे वैसा साहित्यिक माहौल नहीं मिल पा रहा था। मेरी लेखनी की गति मंद पड़ चुकी थी। तभी घनश्याम घर से किसी कारणवश भागकर पटना आ गये और एक साहित्यकार के यहाँ नौकरी कर ली। पैसे के लिए नहीं साहित्यिक संसर्ग के लोभ से। पटना के वह साहित्यकार आज भी अपनी जीवंत लेखनी से साहित्य की विभिन्न विधाओं के भंडार को भर रहे हैं। वह हैं-डा सतीशराज पुष्करणा। बाद में चलकर सतीशराज पुष्करणा के नेतृत्व में लघुकथा आंदोलन चलाया गया और घनश्याम के साथ-साथ मैं भी उस आंदोलन का एक सिपाही बना। घनश्याम जी की पहचान एक सशक्त और समर्थ लघुकथाकार के रूप में की गयी। और तब घनश्याम ने मुझे कुरेदना प्रारंभ किया। नहीं लिखने का उलाहना देने लगे। उनके उन उलाहनाओं ने मुझमें ऊर्जा भरी। मैं फिर से लिखने लग गया। जहाँ तक मुझे याद है, घनश्याम की पहल पर डा स्वर्णकिरण द्वारा संपादित व सोहसराय (नालंदा, बिहार) से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका 'नालंदा दर्पण' में मेरी एक छोटी-सी कविता 'वर्षा' छपी थी। यह मेरी किसी पत्रिका में प्रकाशित पहली कविता थी।
घनश्याम की प्रेरणा का मुझपर ऐसा असर पड़ा कि इंटर पास करते-करते मैंने महाभारत के अभिमन्यु प्रसंग पर 'चक्रव्यूह' लघु प्रबंधकाव्य रच डाला। घनश्याम अगर मेरे पीछे-पीछे नहीं होते, तो कदाचित 16 लघुकथाकारों की 5-5 लघुकथाओं को सम्मिलित कर मेरे और उनके संपादन में लघुकथा संकलन 'रक्तबीज' प्रकाशित नहीं हो पाता। इस पुस्तक का आवरण ख्यात कथाकार / लघुकथाकार और भाषाशास्त्री युगल ने तैयार किया था। भूमिका में डा स्वर्णकिरण ने इस संकलन को पठनीय व संग्राह्य बताते हुए इसे एक उपलब्धि नहीं, बल्कि एक चुनौती के रूप में स्वीकारने पर बल दिया था।
इसके मायने नहीं कि घनश्याम सिर्फ़ लघुकथा के होकर रह गये थे। उन्होंने कम ही संख्या में सही, कविताओं का भी सर्जन किया था। उनमें कथ्य की कसावट और संवेदना कि इतनी तरलता है कि छंद-मुक्त रहने के बावजूद उनकी कई कविताएँ जुबान पर चढ़ गयी थीं। हाजीपुर के आरएन कालेज से राजनीति विज्ञान में स्नातक (प्रतिष्ठा) की पढ़ाई पूरी कर तबतक मैं बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में एमए की पढ़ाई करने आ गया था। पढ़ाई की व्यस्तता के कारण पुनः मेरा लेखन सुस्त हो चला था। तभी घनश्याम मेरे निवास-स्थल पीजी हाॅस्टल-4 के कमरा संख्या-11 में एक दिन आ धमके। देश-प्रदेश के प्रतिष्ठित व नवोदित कवियों की कुछ कविताओं के साथ कि इसका संपादन-प्रकाशन करना है। आप बतौर इसके संपादक होंगे। उनका आग्रह इतना अपनापन लिये हुए था कि मैं उनके आग्रह को नहीं टाल सका। फलस्वरूप उनके और मेरे संयुक्त संपादन में 1981 में 'यथार्थ के धरातल पर' कविता संकलन का प्रकाशन मेरे और मेरे मित्रो द्वारा स्थापित, जिसके बाद में चलकर घनश्याम ही सर्वेसर्वा हो गये थे, ज्ञानदा पुस्तकालय, जौनापुर, मोहीउद्दीन नगर, समस्तीपुर से हो सका। पुस्तक में प्रकाशित अपने अभिमत में ख्यात नवगीतकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने
यह लिखकर कि "चन्द्रकांत त्रिवेदी 'घनश्याम' और हरिनारायण सिंह 'हरि' के संपादन में प्रकाशित कविता एकत्री 'यथार्थ के धरातल पर' अपने उपयुक्त नाम का स्वयंसिद्ध प्रमाण है।" हमलोगों को प्रोत्साहित किया था। साहित्य-जगत में इस पुस्तक की अच्छी नोटिश ली गयी। पत्र-पत्रिकाओं और आकाशवाणी से इसकी समीक्षाएँ प्रकाशित-प्रसारित हुईं। वि• सा• विद्यालंकार के संपादन में दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली समीक्षा कि पत्रिका 'प्रकर' ने महेशचन्द्र पुरोहित ने लिखा है कि "छायावादी उड़ानों और रहस्यवादी परिधानों को त्यागकर समकालीन कविता यथार्थ के चित्रण के जिस राजपथ पर चल पड़ी है, उसी में मील का पत्थर समीक्ष्य संकलन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि संपादक द्वय ने स्थापित, संघर्षरत और नवोदित कवियों को 'यथार्थ के धरातल पर' एक ही मंच पर जिस कुशलता से दिया है, उसके लिए दोनों ही बधाई के पात्र हैं।"
रेबाड़ी (हरियाणा) से प्रकाशित होनेवाली त्रैमासिकी 'आगमन' (संपादक-तरुण जैन) ने लिखा कि संकलन को एक संग्रहणीय प्रयास कहा जा सकता है। घनश्याम व हरि का संपादन उल्लेखनीय है। प्रसिद्ध समीक्षक रेवती रमण ने अपनी समीक्षा में इसके महत्त्व की ऐतिहासिकता को स्वीकारते हुए लिखा है कि रामेश्वर शुक्ल अंचल से लेकर घनश्याम तक की कविताओं का सम्मिलन-उत्सव बड़ा आकर्षक है। इसका महत्त्व इसलिए भी बढ़ गया लगता है कि ऐसी घटना यथार्थ के धरातल पर ही घटी है। हाँ, मैं ठीक ही कह रहा हूँ, क्योंकि ऐसी स्थिति में जबकि 'लोक गया परलोक, देश में केवल तंत्र बचा है' यह मध्यवर्गीय हिन्दुस्तानी के घटनाहीन जीवन की एक अविस्मरणीय घटना है।
पटना से प्रकाशित होनेवाले समाचारपत्र के साहित्यिक पृष्ठ पर अपनी समीक्षा में अवधेश प्रीत ने सम्पादक द्वय को काफी नसीहतें दी हैं। बावजूद इसके एक साहसी प्रयास मानते हुए लिखा कि एक नामालूम जगह से दो नामालूम रचनाकारों की कोशिश से एक बेहद छोटी-सी कविता-पुस्तक मेरे सामने है-'यथार्थ के धरातल पर'। संपादन की तमाम बारीकियों से परे इस काव्य संग्रह का महत्त्व यह है कि गत पीढ़ी से लेकर आगत पीढ़ी तक के लगभग 40 कवियों को अपने छोटे से कलेवर में समेटने के बावजूद सम्पादक द्वय को सात सवारों में शामिल होने का कोई मुगालता नहीं है। " लब्बो-लुआब यह कि 'यथार्थ के धरातल पर' की जमकर चर्चा हुई, तत्कालीन साहित्यकर्मियों के बीच।
'यथार्थ के धरातल पर' के सम्पादन-प्रकाशन के क्रम में कई साहित्यिक विभूतियों के दर्शन हुए। फिर से मेरा साहित्य सर्जक जाग उठा और इसका बहुत सारा श्रेय घनश्याम को जाता है। 'रक्तबीज' नाम से हम दोनों ने एक लघुकथा संकलन का भी संपादन किया। साहित्य परिषद्, मोहीउद्दीन नगर (समस्तीपुर) की पत्रिका 'संवेदन' , जिसके वे सहायक संपादक हुआ करते थे, उसके दोनों लघुकथा विशेषांक-चैत्र-आषाढ़ 1993 व हेमंत 1996-97 के रचना-संचयन में उनका अपूर्व योगदान रहा। उन्होंने साहित्य में देश-स्तर पर अपनी पहचान बनायी थी।
घनश्याम के सम्बंध में एक रोचक संस्मरण सुनाये बिना मन नहीं मान रहा। उनके पिता पंडित मधुसूदन त्रिवेदी शास्त्री बड़े ही सरल व्यक्तित्व के थे। मध्यविद्यालय के शिक्षक थे। अब रिटायर हो चुके थे। ज्ञानी पंडित थे। पढ़ाकू टाइप के थे। बहुत सारी संस्कृत और हिन्दी की पुस्तकें उनके पास थीं। पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं का भंडार था उनके पास। मैंने बहुत सारी पुस्तकें व पत्रिकाएँ उनके निजी पुस्तकालय से लेकर पढ़ीं। पर, थे बड़े सरल। वे घनश्याम के साहित्य-लेखन से चिंतित रहते थे। वे चाहते थे कि घनश्याम जीविका के लिए कुछ करें। किन्तु, घनश्याम थे कि साहित्य से वे अलग हो ही नहीं सकते थे। मैंने पहले ही लिखा है कि घनश्याम ही मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते रहते थे, किन्तु उनको यह भ्रम हो गया था कि मैं ही साहित्य-लेखन या साहित्यिक समारोहों में चलने के लिए घनश्याम को प्रेरित करता हूँ। उस समय हम दोनों (घनश्याम और मैं) पटना के साहित्यिक आयोजनों, खासकर लघुकथा सम्मेलनों में आवश्यक रूप से जाया करता था। घनश्याम इसकी जानकारी मधुसूदन जी को नहीं देते थे, किन्तु वे उनके हाव-भाव या व्यवहार से अनुमान लगा लेते कि वे किसी साहित्यिक आयोजन में जायेंगे। पंडित जी मुझे तो कुछ कह नहीं पाते थे, किन्तु किसी-किसी को कहते कि सुनिये घनश्याम जी बिछौना-उछौना ढोकर ले जाएंगे और उसपर सोयेंगे हरिजी। बात छनकर मेरे पास तक आती और मैं मन ही मन कहता, अजीब विडंबना है कि साहित्य-लेखन और साहित्यिक आयोजनों में चलने के लिए घनश्याम मुझको उकसाते रहते हैं और उनके पिता समझते हैं मैं उनके बेटे को बिगाड़ रहा हूँ। लेकिन वे मुझे मानते भी बहुत थे और कभी-कभी रात में जब वे भंग की तरंग में रहते, तो उनसे ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी बातें होतीं। साहित्य के बारे में भी बातें होतीं। मैंने घनश्याम जी के पिता जी से भी बहुत सारी बातें सीखीं।