मेरी बहन है वो / गुरदीप सिंह सोहल
(मधुमती के मई 1992 के राजस्थान युवा रचनाकार विशेषांक में प्रकाशित)
हम दो थे।
मैं प्रवीण और वह तारा।
अभी तक हम लोग इतने ज्यादा घनिष्ठ नहीं हुए थे कि एक-दूसरे के घरों तक यात्रा कर घुस-पैठ कर बाकी के सदस्यों की जानकारी रख पाते। सुबह स्टेशन पर आते तो दूर से ही केवल हैलो-हैलो हो जाया करती और शाम को लौटते वक्त भी यही क्रम चलता रहता। फिलहाल हमारी मित्रता केवल कम्पार्टमेण्ट तक ही सीमित थी। धीरे-धीरे हम लोगों ने आपस में एक-दूसरे के घर तक सेंध मार कर घन्ष्ठिता बढ़ाने का साहसिक कदम उठाया था। अपने-अपने डिपार्टमेण्ट का परिचय देकर पूछताछ की थी और अब तीसरा मेण्ट बाकी था। किसी को भी हमारे किसी के अपार्टमेण्ट की जानकारी नहीं थी, लोकेशन का पता नहीं था और न ही आज तक कोई शुभ अवसर ही हाथ लगा था। केवल कम्पार्टमेण्ट में ही साथ-साथ उठते-बैठते थे। दैनिक सफर का डेढ़ घण्टा बिताने के मकसद से कभी ताश खेलते, कभी चुम्बक वाली शंतरज की बिसात बिछाते, यात्रियों को आकर्षित करते उनके साथ खेलते। कभी सांप सीढ़ी और कभी-कभी साथी यात्रियों से मित्रता कर लिया करते या फिर पूरे सफर में गाड़ी के सारे-के-सारे कम्पार्टमेण्ट गिनते रहते, उनके नम्बर याद करते। हर स्टेशन पर पानी पीने के बहाने, उतरते, एक डिब्बे से उतरकर दूसरे में सवार हो जाते। तरह-तरह की रंग बिरंगी महिलायें देखते और अपना-अपना ईजाद किया हुआ कोड वर्ड लागू कर देते ताकि कभी संकट आ जाये तो किसी को मालूम भी न पड़े और अगर (बाई चांस) अचानक पता लग भी जाये तो तुरन्त टाल-मटोल की जा सके। रोजाना हम एक तयशुदा ठिकाने पर ही मिलते थे, तदुपरान्त समय पास करने का प्लान बनाते, बाजार में घूमने जाते, समय पर स्टेशन आते, गाड़ी में सवार होते, घर पंहुचते, दूसरे दिन फिर मिल जाते। समय निकालने की चिन्ता का हमने पक्का जुगाड़ बिठा दिया था।
कार्यालय से पांच बजे छूटते ही शहर की भीड़-भड़क्केदार सड़कों पर, यातायात में फंसे, चींटी की चाल से खिसकते, तंग गलियों में स्त्रियों से टकरा जाने की ताक में अनमने-से व्यर्थ ही घूमते रहते, आवारागर्दी करते हुए सन्तोष हमें मिला। अपने सामूहिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उसने कहा कि दोनों रेलवे स्टेशन जाकर, गाड़ी में बैठने योग्य स्थान की तलाश कर, उसकी प्रतीक्षा करें। हम दोनों के कुछ भी बोलने से पहले ही वह अचानक बोला-
“हमारे कार्यालय में आजकल एक अजीब ही तरह की महाभारत चल रही है।”
“इस कलयुग में काहे की महाभारत भैया ? अगर वही युग दुबारा आ जाये तो क्या कहने। हमारे जैसा सच्चा आदमी किसी के द्वारा मुफत में सताया नहीं जाता। अगर सताया भी जाता तो तुरन्त शापित हो जाता। हम सबमें भी किसी को भी श्राप देने की ताकत होती।” तारा ने उसके वाक्य के साथ अपना भी एक और वाक्य भी जोड़ दिया था।
“तारा भैया ! उस समय तो केवल एक ही महाभारत हुई थी लेकिन इस समय में हर वक्त, हर जगह, हर घर में, हर दफतर में महाभारत हो रही है। हर आदमी दुर्याेधन बना हुआ है। हर जगह कौरव भी है और पाण्डव भी।” वह कुछ ज्यादा ही दुखी इन्सान था। बात-बात में वह रामायण और महाभारत की मिसाल दिया करता था। लेकिन रामायण और महाभारत काल में भी जुल्म का बोल-बाला था और फिर इस युग में होना कोई विशेष बात नहीं है।
“तुम्हारे दफतर में आजकल कैसी महाभारत खेली जा रही है भैया। हमें भी बताओ तो जरा-सी।” तारा ने उत्सुकता से जानना चाहा था।
“देखो यार। ये जो सरकारी कर्मचारी हैं न सब-के-सब पाण्डव हैं और गैर सरकारी कौरव हैं जैसे कि ठेकेदार और दूसरे सप्लायर्स। इन सरकारी पाण्डवों ने धर्मराज युधिष्ठर की तरह, द्रोपदी रूपी जमीर को दांव पर लगा दिया है। ये बाहर के लोग दुर्योधन की सेना की तरह पूरे दफतरों में छा गये हैं, सरे-आम पाण्डवों को जुआ खेलने के लिये आमन्त्रित और मजबूर कर रहें हैं ताकि उनके हारने की दशा में उनकी द्रौपदी का चीर हरण किया जा सके और उन्हें दफतरों से बाहर, वनवास या जेल भेजकर सजा दिलवाई जा सके। अधिकारी या तो धृतराष्ट्र की तरह लालच में अन्धे हो चुके हैं या फिर भीष्म पितामह की तरह ताकतवर होते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं, सिर झुकाकर बैठे हुए द्रौपदी का चीर हरण होते हुए कायरों की तरह, दर्शकों की तरह तमाशा देख रहें है। वे कुछ भी कर सकते हुए, कुछ भी नहीं कर पा रहें है।” संतोष बात-बात पर स्पष्टीकरण की तरह मुद्दा समझा रहा था।
“और-तो-और इस महाभारत के महा-कलयुग में द्रौपदी खुद ही दांव पर लगने के लिये तैयार बैठी है, वह बेसब्री से इंतजार कर रही है कि कोई हमारे जैसा बेईमान बन्दा आये और उसे दांव पर लगाकर युद्व को आमन्त्रण दे। बस दांव पर लगाने वालों की कमी है। दांव पर लगती है द्रौपदी बस लगाने वाला चाहिए।” वह तारा की दलील थी।
“बिल्कुल सही फरमाया आपने। आज का समय ही ऐसा है भैया जिसने भी द्रौपदी को दांव पर लगाया वहीं समझदार और जिसने नहीं लगाया वो महा-पागल। ये तो समय का तकाजा है कि जैसे ही द्रौपदी मिले उसे दांव पर लगा दो बस। जब गंगा बह रही हो तो हाथ धो ही लेने चाहिए बल्कि जहां तक संभव हो सके तो स्नान ही कर लेना चाहिए। गरीबी का पाप धो लेना चाहिए। रिश्वत का पुण्य कमाना चाहिए।”
“जब तक स्नान नहीं किया जायेगा तो गंगा मैली नहीं होगी, रिश्वत नहीं लेंगे तो पाप नहीं बढ़ेगा, द्रौपदी अगर दांव पर नहीं लगेगी तो महाभारत कैसे होगा ? अगर महाभारत नहीं होगा तो पाप कैसे बढ़ेगा। पाप नहीं बढ़ेगा तो कृष्णजी कैसे जन्म लेंगे और अगर कृष्णजी अवतार नहीं लेंगे तो कंस कैसे मारा जायेगा, युग कैसे बदलेगा ? युग नहीं बदलेगा तो”’। संतोष की बात बीच में ही काट दी गई थी युग को बीच में लाकर।
“चलो छोड़ो यार इन सब बातों को। महाभारत और द्रौपदी की बात तो दफतर तक ही सीमित रहने दो। उसे वंही पर छोड़ आया करो। दफतर में तो सारा दिन इस तरह की लेने-देने की बातों से तो पागल हो ही जाते हैं अब फिर क्यों इस फालतू की बात करके मूड खराब करते हो। इससे कुछ हासिल तो होने को नहीं है फिर क्यों न कोई और बात करें दूसरे काम को। खाने-पीने की। समय काटने की।” मैंने उससे उस बात को वहीं पर छोड़ देने का अनुरोध किया था।
“अभी स्टेशन जाकर क्या करेंगे यार ? गाड़ी के प्रस्थान में अभी पूरा एक घण्टा बाकी है। अभी वहां जाकर क्या मक्खियों की जान लेने का क्या इरादा है ?”तारा ने प्रश्न किया।
“ तो क्या हुआ। बाद में स्थान भी तो नहीं मिलता। बेकार में गाड़ी में एक से दूसरे डिब्बों में धक्कमपेल में यात्रा करनी पड़ती है। लम्बे सफर के यात्रियों से बेमतलब उलझना पड़ जाता है। कई लोग कण्डकटरों से हमारी गैर कानूनी यात्रा की शिकायतें करते फिरते हैं। हमें बेमतलब कण्डकटरों से माथा मारना पड़ता है क्योंकि तुम्हें तो पता ही है कि हम रिजर्व कोच में यात्रा नहीं कर सकते। ये तो इन कण्डकटरों की मेहरबानी समझो, उनकी इन्सानियत या फिर हम सब दैनिक यात्रियों की एकता। वरना कण्डकटर कभी किसी एकाध को दिवाल हुआ है कभी। इसी समस्या से बचने के लिये ही तो कह रहा हूं कि भैया अभी से ही जाकर सीट की तलाश कर लो अन्यथा बगुला भगत की तरह एक ही टांग पर खड़े रहकर सफर करना पड़ेगा घण्टे भर का।” संतोष का उत्तर था।
“स्थान न मिले यही तो मैं चाहता हूं।” मैने कहा था।
“अजीब आदमी है यार तू भी। यात्री घण्टों पहले स्थान रोकने की कोशिश करते हैं, रिजर्वेशन करवाते हैं, कुलियों को मेहनताना देकर सीट का प्रबन्ध करवाते हैं और एक तू कहता है कि हमें सीट न मिले।” संतोष खीझ गया था।
“देखो दोस्तो और मेरे सह-दैनिक यात्रियों। मेरी बात पर गुस्सा मत करो। बर्फ जैसे ठण्डे दिमाग का जरा-सा-प्रयोग करो और सोचकर देखो और गौर फरमाओ। स्थान न मिल पाने से हमें एक बड़ा फायदा हो सकता है। थ्री टायर में हम तीनों, जहां कंही भी हमारा मन करेगा, किसी भी लेडिज केबिन में जाकर खड़े हो रहेंगे। बैठने का स्थान होगा तो अच्छा नहीं तो किसी भी महिला को ढंग से सम्बोधित कर थोड़ा सरकने को कहकर साथ बैठ सकेंगे। उसके बदन की गर्मी महसूस कर सकेंगे। बाद में आपसी बातचीत करते हुए थोड़ा-थोड़ा सरका-सरकाकर मैं, तू और वह भी तीनों एक साथ बैठ सकेंगे। वैसे भी कई महिलायें नरम दिल होती है। हमें अपने पास में खड़ा देखकर कोई-न-कोई तो बैठ जाने को अवश्य ही कहेगी। धन्यावाद देते हुए बाद में हम अपना मतलब हल कर लेंगे।” मेरा तर्क उन्हें वास्तव में वजनदार लगा था।
“क्या बात है भाईसाहब ? इस कलयुग में इतने पवित्र और उच्च विचार !
तुमने तो हमारा तीसरा नेत्र ही खोलकर रख दिया। जाने वो तो कब से बन्द पड़ा था। वास्तव में तुम तो बहुत ही अजीब आदमी हो और तुम्हारी दलील भी एक कुन्टल से कम नहीं।” मेरी बात सुनकर वे दोनों हंसते हुए बाले थे -
“हमने तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि तू भी कभी इस प्रकार की फायदेमन्द, तीसरा नेत्र खोलने की बात भी कर सकता है जिस पर हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा। जिसे हमने तो क्या कभी किसी आम आदमी ने भी सोचा नहीं होगा। परन्तु सभी करते है जिसकी हमें भी हमेशा तलाश रहती है और अवसर मिलते ही कोई भी व्यक्ति बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूकता।” तारा बोला।
“वैसे भी अभी से स्टेशन पर रखा ही क्या है ? वास्तविक रौनक तो गाड़ी के प्रस्थान के समय ही होती है। उतनी देर तक हम बाजार की रौनक, शहर की खूबसूरती, साइकिलों और मोटरसाइकिलों, स्कूटरों और दूसरे दुपहिया वाहनों पर सवार हुई बालिकाओं तथा तरूणियों की जवानी के दर्शन कर आंखों को बलवर्धक औषधि का सेवन करना चाहिए। उनके यौवन की प्रशंसा में चार चांद लगाने के कमेण्ट्स करने चाहिए ताकि हमें बार-बार खुदा के हसीन करिश्मों पर अचम्भित होने का मौका मिले।” संतोष की राय थी।
“चलो फिर चलते हैं। बाजार की तरफ मुंह करते है। कुछ-न-कुछ तो ग्रहण किया ही जाये एक घण्टे के समय में।” हम तीनों ही एक साथ बोले और समय की भी यही मांग थी, उसे पूरा करना हमारी मजबूरी, क्या करते फिर भला ?
हम तीन थे। तीन तिलंगे।
पहला मैं प्रवीण, दूसरा तारा और तीसरा संतोष जो हमें बाद में मिला और बात-बात में रामायण या महाभारत काल को याद करना और उसकी दलील देना जिसकी आदत थी।
“शहर की गलियों में घूमते-घूमते जून की गर्मी सताने लगी है। धूप अभी भी चिलचिला रही है। पसीने से परेशानी बढ़ रही है। तौबा कितनी गर्मी है। अब और चल पाना मुश्किल हो रहा है। क्यों न हम सब वसन्त मैंगो बार चलें। पंखे तथा कुलर की ठण्डी हवा में बैंठेंगे। गद्देदार सोफे में फुदकते रहेंगे। घण्टे भर तक तैयार पूरे माल का मुआयना करेंगे,, रेट पूछेंगे, बर्फ का पानी पीकर आइसक्रीम खायेंगे। मैंगो शेक पीना चाहेंगे। आइसक्रीम खाकर, मैंगो शेक पीकर शरीर को ताजगी, गर्मी से छुटकारा, दिमाग को ठण्डक मिलेगी। सामने कोल्ड ड्रिंक पीती हुई किसी भी रूपसी को देखकर आंखों को टॉनिक, दिल को सुकून मिलेगा। दीवारों पर लगे हुए हुए दर्पण में से उसकी जवानी के बार-बार दर्शन करने से हम भी धन्य हो जायेंगे और मन को तसल्ली मिलेगी कि हम भी अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके हैं, बचपन को पीछे छोड़ चुके हैं। बीत गये दिन बचपन के, दाढ़ी-मूंछो के दिन आ चुके हैं। हम पर भी जालिम जवानी का भूत सवार हो चुका है। हम भी बागो में, होटलों में, पार्टियों में, ट्रैफिक जाम करके भीड़ में या माता-पिता के सामने प्यार भरा गाना गाने के काबिल हो चुके हैं और अब तो हम भी किसी कन्या को कह सकते हैं कि ‘हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना। यहां तक कि किसी कन्या के ठाकुर बाप से उसका हाथ भी मांग सकते है। आलतू-फालतू में आधा घण्टा बार में बैठकर बाकी बचा समय अफरा-तफरी में व्यतीत करेंगे।” गर्मी को देखते हुए तथा समय गुजारने की गरज से संतोष का सुझाव था।
“समय काटने के लिए कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा। व्ही विल हैव टू डू समथिंग टू किल द टाइम। इधर-उधर मुंह मारने की बजाय बसन्त मैंगो बार चल कर बैठना ही ठीक रहेगा। पहले अपनी-अपनी जेबों की तलाशी ले लो और वहां बैठने का प्रबन्ध करो। पैसे देखो, गिनो, खर्चे का हिसाब लगाओ और कूच करो मंहगाई के दुश्मन से लड़ने के लिये।” तीनों एक राय होकर बार बार में जा बैठे। तारा की दृष्टि दरवाजे की तरफ थी। हम दोनों उसके सामने वाली मेजों पर थे। उसका ध्यान बार में आने-जाने वालों पर, काउण्टर पर बैठे हुए ग्राहकों से पैसे ले रहे मालिक पर, सर्विस कर रहे वेटरों पर, बार में बैठे हुए ग्राहकों पर, सामने तैयार हो रहे पकवानों आदि पर थी। वह चारों तरफ का जायजा लेने में व्यस्त था। व्यस्त तो हम भी थे। लेकिन वह कुछ ज्यादा ही दिखावा कर रहा था। वेटर तीन गिलास ठण्डे पानी के जग के साथ लेकर आ रहा था कि अचानक तारा बोल पड़ा -
“हाय रे मार डाला जालिम की खूबसूरत जवानी ने। क्या चीज है यार। आग है आग। क्या सुन्दरता दी है खुदा ने इसे। खुदा का शुक्रिया अदा करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं है जिसने इसे बनाया। ऐसी अगर मेरे पास होती तो दुनिया ही जलकर राख हो जाती लोगों की।” इससे पहले कि हम कुछ देख, कुछ समझ पाते दुबारा उसके मुंह से निकला, उसकी सुन्दरता ने उस पर शायद कोई मन्त्र मार दिया था।
“मुझे मिलने दो। फिर देखना दोस्तो। सम्बन्धियों ! लोगों का दिल मैं किस-किस प्रकार से दुखा-दुखा कर जलाया करूंगा। मगर हाय री किस्मत। इतनी जल्दी से मिलती ही कहां है, मिलने का अभी कोई योग ही नहीं बनता। दूर-दूर तक आसार ही नजर नहीं आते। जिस दिन भी मिल गई, मैं सिखा दूंगा कि दिल कैसे जलाया जाता है। दिल का जलाना क्या होता है। मुझे तो उस आदमी की तकदीर पर जलन हो रही है जिसको इस सुन्दरी का अंग-संग, हाथ-साथ, वास और सहवास मिला, इसका पत्नीत्व मिला, इसकी सोहबत मिली, ऐसा जीवन-साथी मिला। जिसके बच्चों की यह मां बनेगी। और जिसकी महबूबा।” उसकी नजर मारूति से उतरकर बार में प्रविष्ट होती हुई किसी नव-विवाहिता की विस्फोटक अदाओं और आग लगाने वाली गतिविधियों पर थी।
“छोड़ यार तारा इस बात को यंही पर।” संतोष बोला।
“क्यों भई संतोष। आखिर क्या कमी है इस दुल्हन में ?”
“तुझे तो बिल्कुल भी परख नहीं है, बिल्कुल भी तरीका नहीं है सुन्दरता आंकने का। इसमें है ही क्या जो तू इसके पीछे पागल हुआ जा रहा है। तेरे दिल में जिसने आग लगा कर रख दी है। इसका मतलब है तझे तो पता ही नहीं है कि जालिम सुन्दरता क्या चीज होती है ? कैसे परखी जाती है ? हमसे पूछ कि इसका अनुमान कैसे लगाया जाता है ? थोबड़ा तो देख जरा इसका। जरा भी काम का नही, बिल्कुल ही सड़ी हुई रोटी जैसा। रोटी जब ज्यादा जल जाये तो किसी के भी काम की नहीं रहती न। जैसे कि तेरी इस सुन्दरी का थोबड़ा भी है। फंुसियों से किस प्रकार से भरा पड़ा है ? उस पर मास्क की तरह मेकअप कर रखा है जो बिल्कुल भी नहीं जंचता। कितना अटपटा-सा लगता है। बिल्कुल ही बनावटी और दिखावटी-सा लगता है। बेकार। साथ ही लगता यह भी है कि खून साफ नहीं है इसका। वरना नैन-नक्श तो वाकई जोरदार है। खून साफ हो तो बाहर से ही चेहरे का पता चल जाता है। चेहरा ही हमारे शरीर का लुकिंग ग्लास है। इससे हमारे शरीर की किसी भी बीमारी का पता लगाया जा सकता है। खिलखिलाता चेहरा, सेहती स्मार्ट चेहरा, सैक्सी और मुरझाया हुआ चेहरा रोगी की पहचान है। खून साफ करने के लिये इसे साफी पीनी चाहिए। खून की कमी सी लगती है इसकी सेहत को देखकर। दो-चार बोतल ले लेना चाहिए। कुछ लोग गाड़ियों की शोभा बढ़ाते हैं ओर कइयों की गाड़ियां। जैसे कि यह नव-विवाहिजा। अच्छे वस्त्र, मंहगे आभूषण तथा विदेशी गाड़ियों से सौन्दर्य नहीं खरीदा जा सकता। केवल पैसे के बल पर समाज में मान-प्रतिष्ठा बनाई जा सकती है। सुन्दरता की पूर्ति तो केवल वो ऊपर वाला ही कर सकता है फुर्सत के क्षणों में। पूरी दुनिया ही उसका परिवार है। उसके द्वारा प्रदान की गई सुन्दरता संसार के किसी भी कोने में हो सकती है। किसी में भी। अमीर में भी, गरीब में भी। हिन्दू में भी, मुसलमान में भी, सिख में भी और ईसाई में भी। जिसे अक्सर कहा जाता है कि इस सुन्दरी को तो नीली छतरी वाले ने फुर्सत में तराशा है। वैसी सुन्दरता और दौलत का साथ बहुत कम जगह पर मिलता है। जहां सुन्दरता होती है वहां दौलत नहीं, जहां दौलत होती है वहां सुन्दरता नहीं ठीक वैसे ही जैसे कि तुम्हारी इस दुल्हन की सामान्य सुन्दरता और इसकी विशाल दौलत और कभी-कभी तो यहां तक भी कहा जाता है कि भगवान किसी गरीब को सुन्दर बेटी न दे। बेटी दे तो उसे दौलत भी दे देवे ताकि उसे विवश होकर किसी धनवान बूढ़े के साथ बंधना न पड़े और जल्दी विधवा का रूप धारण भी न करना पड़े। अमीर तो इसके बल पर किसी की भी खरीद कर सकते हैं। लेकिन गरीब केवल भगवान और अपनी किस्मत को ही कोसता रहता है।” संतोष इस छोटी सी बात का लम्बा-चौड़ा विषय बनाकर बैठ गया था।
“बड़े घरानों की यही तो सबसे बड़ी समस्या है। सर्वप्रथम धन कमाने की समस्या, फिर उसे छिपा-छिपाकर रखने की समस्या। कमाकर छिपाये हुए धन को खाने की चिन्ता में दिन-रात अमीरों का खून जलता रहता होगा। इसलिये अमीर लोग अक्सर बीमार और कमजोर होते हैं, ढंग से खाना भी नहीं खा सकते। खा भी लें तो हजम नहीं कर सकते। केवल मूग की दाल पर जिन्दा रहते है। खून की हमेशा ही समस्या रहती है। परिणामस्वरूप तरह-तरह की बीमारियां उन्हें उम्र भर घेरे रहती हैं। कोई दिल की बीमारी से मर जाता है तो किसी को सरकार मरने पर मजबूर कर देती है टैक्स पर टैक्स लगाकर। इन्कम टैक्स, सैल्स टैक्स, वैल्थ टैक्स, गिफट टैक्स, रोड़ टैक्स, आदि-आदि। टैक्स के नीचे बेचारा इस कदर दब जाता है कि फिर कभी उठ ही नहीं पाता। दिमागी तौर पर स्वतन्त्र नहीं हो सकता। टैक्स देता है तो पास में कुछ नहीं बचता, नहीं देता है तो चोर कहलवाता है। टैक्स देते-देते जीता है और टैक्स देते-देते मरता है। लेकिन टैक्स कभी भी नहीं मरता इन्सान को मारकर भी नहीं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। एक बार जब चोर कहलवाया गया तो क्या छोटा, क्या बड़ा। चोर तो चोर है। छोटे-बड़े से कुछ नहीं होता। एक बार चोर बनने के बाद कोई भी दुकानदार ईमानदार नहीं कहलवा सकता चाहे वह कितना भी बड़ा साधु क्यों न हो जाये। एक बार माथे पर चोर शब्द लिखा गया तो जिंदगी भर नहीं मिट सकता।
“और-तो-और इस कार वाले दूल्हे की शक्ल तो देखो जरा गौर से। कैसी बदसूरत है, छिः घिनौनी। वैसी ही जैसी कि हमारी हिन्दी फिल्मों में अकसर दस्यु लोग धनवान, बदसूरत और अत्याचारी दूल्हे को शादी की घोड़ी पर ही मारकर बेचारी दुल्हन को उठाकर ले जाते है। वह सुहागरात से पहले ही गोली का शिकार हो जाता है। सब पैसे की माया है। गोरी दुल्हन काला दूल्हा घोड़ी सजे कैसे। बिका हुआ दूल्हा है खरीदी गई दुल्हन है। इनके मां-बाप व्यापारी है। आज तो मेरी भी दस्यु बनने की इच्छा हो रही है।”
“छोड़ो यार। हमारा मकसद इतनी गहरी रिसर्च की बातें करने का जरा भी नहीं है। फालतू की बातें करके क्यों अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हो। हमारा रोज का यह एक घण्टा कीमती होता है ये तुम दोनों तो अच्छी तरह से जानते हो फिर भी फालतू बातें करते हो। हम यहां पर फालतू की बातें करके अपना बहुमूल्य समय खराब करने नहीं आये हैं और फिर यह समय तो हमारा सामूहिक मकसद प्रकट करता है। हमारा मकसद केवल गोरियों की सुन्दरता का रसपान करना है न कि उस रसपान को फालतू की बातों में बेस्वाद करना, बेमतलब की टिप्पणियां करना। बेमतलब की टिप्पणियों के लिये हमारे पास ढ़ेरों विषय है और दिनभर का समय। जब जी में आये तभी करो लेकिन कृपा करके यह समय हमेशा एक ही विषय को समर्पित कर डालो ताकि (चांस मिस) अवसर गंवाने का पछतावा न रहे। सामने लगी हुई घड़ी देखो क्या समय दे रही है और समझने की कोशिश करो कि छह बजाती हुई सुईयां क्या समझाने की कोशिश कर रही है। ये कह रही है कि मित्रों तुम लोग अब जाओ, कल फिर आ जाना। यहां तो पल-पल सुन्दरियों का मेला लगा ही रहता है। कभी भी आकर देख लेना। बारह महीने यहां पर गोरियों का जमघट-सा लगा ही रहता है। गर्मियों में आइसक्रीम, ठण्डा, मैंगो शेक और सर्दियों में गर्मागर्म गाजर का हलवा, जलेबियां, कॉफी आदि कुछ-न-कुछ मिलता ही रहता है। जाओ, अब तुम्हे गाड़ी पुकार रही है। तुम्हें घर तक पंहुचाने के लिए बेताब है, तुम्हारे इंतजार में खड़ी है। गाड़ी में सफर करने वाले आकर्षक चेहरे तुम्हें चुम्बक की तरह खींच रहे है और बुला-बुलाकर कह रहे हैं कि आओ दुर्याेधन रूपी खलनायकों हमारा जबरदस्ती दीदार करो, चीर हरण करने की योजना पर अमल करो, जाल बिछाने की कोशिश कम करो क्योंकि हम तो बिना जाल बिछाये ही फंसने को तैयार हैं और अब हमारे जाने का समय हो चुका है। मेरी मानो और तुरन्त स्टेशन की और कूच कर जाओ, गाड़ी छूट जाने का आदेश है।” मेरी निगाह बराबर घड़ी की सुइयों पर थी। समय का सही ध्यान रखते हुए मैने ही कहा था। सुन्दरियों के जमघट निखरने के चक्कर में गाड़ी के प्रस्थान का समय हो रहा था लेकिन हममें से कोई भी जल्दी सरकने को तैयार नहीं था।
आपसी वार्तालाप में मगन हम तीनों स्टेशन जा रहे थे। मेरे कंधे पर रखे हुए संतोष के हाथ का दबाव अचानक बढ़ा। जब तक मैं कुछ पूछ पाता, समझ पाता वह बोला अपनी नौकरी की नीरसता को समझते हुए -
“कहां बेकार में नौकरी में फंस गये यारों?"
“दूसरे लोग तो पागल हैं जैसे यूं ही इसके पीछे दौड़ते-भागते रहते हैं रात-दिन। और एक तू है जिसे नौकरी से बिल्कुल भी मोहब्बत नहीं। तेरा जी भर गया क्या ? कमाल है भाई।” शायद संतोष की बात तारा समझ नहीं पाया था।
“नौकरी अच्छी तो लगती है लेकिन उससे ज्यादा नहीं। वो सामने वाला काम नौकरी से कहीं ज्यादा अच्छा है। काश ! हम भी वही सब कुछ करते। हमारी भी छोटी-सी खोखे जैसी दुकान होती। हम भी मनियारी वाले की तरह अदने से, छोटे-से दुकानदार होते। दुकान में दुनिया भर की, हर देश की, हर प्रान्त की और भी पारम्परिक रंग-बिरंगी चूड़ियां होती। हम भी संतूर साबुन वाले विज्ञापन वाली उन चूड़ियों वाली की तरह किसी सुन्दरी, किसी षोडशी को पूरे पांच सौ रूपये की रंग बिरंगी चूड़ियां पहनाने की जिद करते। हमारे हाथ में भी किसी खूबसूरत कन्या की कमसिन गोरी कलाई होती। पहले हम उसकी सुन्दरता का दीदार करते फिर प्यार से चूड़िया पहनाते और तुम अब कल्पना करो कि तंग चूड़ियां पहनाने के बहाने किसी का हाथ घण्टों थामे रखते, कच्ची चूड़ियां पहनाने और तोड़ने या नये नये आकर्षक डिजाइन दिखने के बहाने देर तक आंखों में आंखें डालकर निहारा करते, जानबूझ कर हाथों में हाथ रखकर सहलाते रहने के क्रम में सोचो कितना मजा लेते या हम दर्जी ही होते, विशेषकर स्त्रियों के परिधानों के विशेषज्ञ। हमें सबका नाप-तौल पता होता। बाजार से सस्ती दरों पर सुन्दर-सुन्दर परिधान सी कर देने के बहाने महिलाओं को अक्सर लुभाते। दुकान में भीड़ जुटाते, लड़कियों को अनावश्यक बिठाकर रखते, नाप लेने में देरी के साथ-साथ टाल मटोल करते रहते। हमारा फीता कभी उनके सुडौल वक्ष पर, कभी कटि प्रदेश पर होता। कमर नापने के बहाने से हर उम्र की स्त्री का आलिंगन किया करते या फिर लिपस्टिक, बिंदिया, मेकअप का सामान, ब्रा और पैण्टी, रोल्ड गोल्ड के आभूषण, पांजेब, घुंघरू आदि, परिवार नियोजन के साधनों का व्यापार करते यानि कि ऐसा हर कोई भी काम करते जिसे हमारा काम, काम न होकर एक पवित्र धाम बनकर रह जाये जिसके दर्शन के लिए लड़कियां और महिलायें दर्शनार्थियों की तरह आती-जाती रहें, पूजा-अर्चना करती रहें। चौबीसों घंटे हमारा धाम सार्वजनिक स्थान बन जाये जिस पर कभी भी नीरसता न रह सके लेकिन हमारी कल्पनायें, हमारे सपने साकार होने से पहले ही ठीक उसी प्रकार बिखर जाते जिस प्रकार कि त्वचा से सही उम्र का पता न लगने के कारण षोडशी को मां पुकारे जाने पर उस चूड़ियों वाली बुढ़िया की”। ठण्डी आह भरकर बोला था संतोष जिस पर पता नहीं किस सुन्दरी का जादू था।
“अगर हम नौकरी नहीं कर रहे होते तो शायद तू ये सब नहीं सोच पाता। नौकरी भी नहीं कर रहे होते या हम अप-डाउन नहीं कर रहे होते तो तू किसी भी हालत में इतनी दूर तक नहीं पहुंच पाता। लगता है कल्पनाओं में रहते-रहते, कल्पनायें करते-करते तू भी पागल हो जायेगा। विवाह क्यों नहीं करवा लेता फटाफट। सपने भी साकार कर ले।” मेरा सुझाव था।
“भैया विवाह करवाना अलग बात है और कल्पना करना, उसमें खो जाना दूसरी बात। और फिर तू ही बता दे कि मैं किस-किस लड़की को अपने सपनों की रानी बनाऊं, किस-किस से विवाह करवाऊं। यहां पर मिलेगी वो जिसे हम नहीं चाहते और कभी नहीं मिलेगी वो जिसे हम चाहते है। मन की हर मुराद दुनिया में किसी की भी पूरी नहीं होती और हर आदमी मेरी तरह की कल्पनाओं के संसार में ही डूबा रहता है। कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता। समय ही बुद्वि को पलटकर रख देता है जिससे सब मुरादें पूरी होती हुई नजर आती है। घर की दाल भी मुर्गी हो जाती है। विवाह एक ऐसी मुराद है जो पूरी हो जाये तो ठीक वरना बाद में ही मुराद, नामुराद हो जाती है। अब इस युग में तो हर किसी से विवाह नहीं करवा सकते। हम केवल सोच ही सकते है। हम भी अगर किसी रियासत के राजा होते तो शायद ऐसा हो सकता। समझ में नहीं आता कि हम विवाह किससे करवायें। उससे जिसे सामने वाले दुकानदार द्वारा रंग-बिरंगी चूड़ियां पहनाई जा रही थीं, उससे जिसके सुडौल वक्ष और कमर पर फीता रख के थोड़ी देर पहले जिसका नाप लिया जा रहा था, उससे जो थोड़ी देर पहले मारूति कार में आई थी, उससे जो बार में बैठी हुई लापरवाही से जुल्फों को झटकती हुई लिम्का पी रही थी, उससे जिसके साथ वाली सीट पर हम सिनेमा में बैठे थे, उससे जो गोल-गप्पे स्वाद ले-लेकर खा रही थी, उससे जो हमसे सम्पर्क बनाने के चक्कर में है, उससे जिसकी तस्वीरें हर स्टूडियों की शोभा बढ़ाती हैं या उससे जिसे हम रोज-रोज गाड़ी में आते-जाते तलाशा करते है, निहारते है, आवाज देते हैं या उससे जिसके मिलने की हमने अभी तक कल्पना ही नहीं की है या उससे जिससे हमने मुलाकात ही नहीं की या उससे जिसे हमने आज तक नहीं देखा फिर भी जिसके मिलने की उम्मीद करते रहते हैं, फिर जो हमारी धर्मपत्नी बनने वाली होगी, या जिससे हमारी कुण्डली मिलेगी विवाह का योग बनेगा। कुछ भी नहीं कह सकता।” एक-दूसरे की सांसरिक और अति संवेदनशील दार्शनिकों की-सी बातों से हम काफी (सीरियस) गम्भीर हो चुके थे, हमारा पूरा विषय ही खिचड़ी हो चुका था, दाल-चावल बिल्कुल ही मिल गये थे।
“इसका मतलब है तू तो वास्तव में पागल ही है जो इस तरह से दीवानों की तरह सोचता है। बात करके फिर छोड़ देना अलग बात है और हमेशा ही उसी के बारे में सोचना और सोचते ही रहना अलग बात। उन सबमें से तुझे कोई भी नहीं मिलने वाली और न ही मिलेगी। ज्यादा मत सोचा कर और उम्मीद भी मत रख लेना वरना तू सचमुच में पागल हो जायेगा, पागलखाने भेजने लायक हो जायेगा।” अबकी बार में बोला था। हम तीनों में से हर आदमी एकाध बार बोल ही पड़ता था।
“मेरी कौन-सी जान ही निकली जा रही है उसके पागलपन के पीछे। न मिले तो न सही देखने और सोचने में तो कोई भी बुराई नहीं है। सोचकर देखना, देखकर खुश होना, खुश होकर प्रशंसा करना और खुदा की प्रशंसा करके कई दिन तक अक्स इन आंखो में रखना, नई या अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर देखकर, पहले वाली को भुला देना ही हमारा काम है। पागल होकर उसके पीछे मरना नहीं। जब वो हमें घास नहीं डालती तो हम भी क्यों मुंह मारें बिना घास के। घास के लिये भूख दिखायें। बिना मतलब हम भी मुंह मारकर पंगा क्यों मोल लेवें भला। हम मरने से तो रहे उसके पीछे। हम इधर खुश वो उधर खुश रहे।” तारा ने कहा था।
“कुंआरो को तो बस ख्वाब ही देखते रहना चाहिए, कल्पना करते ही रहना चाहिए जब तक कि ख्वाब हकीकत में न बदल जाये, शादीशुदा होकर बाल-बच्चेदार न हो जायें। शादी से पहले जो कुछ भी करो, कहीं भी मुंह मारो। सब कुछ जायज है लेकिन शादी के बाद में तो एक ही खूंटे पर एक के साथ बंधकर रहना होगा, एक ही बर्तन में खाना पड़ेगा। हमेशा एक ही बात दिल में रहेगी कि काश दुनिया की सारी लड़कियां मेरी पत्नियां होती। तमाम योग्यताओं की मल्लिकायें। कोई शारीरिक रूप से सुन्दर होती तो कोई मानसिक रूप से। कोई गुणों की खान होती तो कोई दौलत की। किसी के पास सुन्दरता की दौलत होती तो किसी के पास डिग्री के रूप में योग्यता की। कोई पाकशास्त्र में लाजबाव होती तो कोई (टाक शास्त्र) बातचीत में। अर्थात् जिस किसी की भी योग्यता की आवश्यकता होती वही, उसी योग्यता को रखने वाली पत्नी सामने आ जाती ठीक पांच पांडवों की तरह। जैसे कि वे अकेली द्रौपदी के पांच पति थे। सब किसी-न-किसी प्रकार की योग्यता के माहिर। हमें भी ऐसा ही पत्नियां मिल जानी चाहिए। सब हमारी तकदीर पर जल उठते। आज हम केवल कल्पना करते हैं कि कोई भी, कैसी भी मिल जाये बस। कल कहा करेंगे हमारे पास भी ऐसी होती, वैसी होती, फलां जैसी होती। फिल्मी तारिकाओं जैसी होती। परसों लोगों की तकदीर पर जला करेंगे जब अपने ही घर की मुर्गी दाल के बराबर बेस्वाद हो जायेगी, दूसरे की थाली का लड्डू अपेक्षाकृत बड़ा व स्वादिष्ट लगने लगेगा और जब यह लगने लगेगा कि अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत तो सब कुछ खाली लगने लगेगा, शराब की खाली हुई बोतल की तरह तब नानक दुखिया सब संसार को मानना ही पड़ेगा। यह समझ लेना होगा कि यह संसार या यह रिश्ता चार दिन की चांदनी और फिर हमेशा ही अंधेरी रातों के सिवा कुछ भी नहीं है जो कुछ भी है बन्द बोतल है नशे से भरपूर। अक्ल पर पड़ा हुआ पर्दा है जो शादी से पहले अगर उतर जाये तो ठीक वरना पर्दा रोज-रोज बढ़ता ही जाता है।” हम तीनों बारी-बारी से एक-दूसरे के साथ इसी वार्तालाप का मजा ले रहे थे और चाहते थे कि शराब का नशा कभी उतरे नहीं और बोतल कभी खत्म न हो लेकिन बोतल की भी सीमा होती है और पीने वाले की हिम्मत। या फिर शराबी की समझ, चाहे तो उसे वह उसे धीरे-धीरे पी ले या फिर एक ही सांस में। वह चाहे देशी हो या अंग्रेजी।
“हम तो भैया जला ही करेंगे कभी अपनी तकदीर पर कभी लोगों की अच्छी तकदीर पर। तकदीर और लड़कियांे में हमेशा उल्टा ही सम्बन्ध होता है। तभी तो जलना पड़ता है। कभी आग बनकर कभी कोयला बनकर। जिसकी पत्नी अच्छी होती है उसकी तकदीर बेकार और जिसकी पत्नी बेकार होती है उसकी तकदीर अच्छी। अनेक लड़कियों को पाने की ये चाहत, उनकी कल्पना की मृगतृष्णा हमें पागल किये जा रही हैं। समझ में नहीं आता कि इस तरह एकतरफा चाहत से हम पिण्ड कैसे छुड़ायें ? ऐसा क्या कर देवें कि मृगमृष्णा हमें आजाद कर दे अपने शिकंजे से। हमारा दिल भर जाये।”
“जब तृष्णा खत्म हो जाती है तो मृग अपने आप ही भागना छोड़ देता है। इसका मतलब है कि एक बार प्यास बुझने के बाद शान्त हो जाती है, कुछ देर तक पानी की जरूरत नहीं रहती। अपने दिल को मृग बनाने की बजाय अपनी चाहत की प्यास को ही खत्म कर डालो, एक से ही संतुष्टि कर लो। दूसरी पाने की बात को भूल जाओ।”
“ये मृगतृष्णा भी बहुत भयानक चीज है। मरते दम तक पीछा नहीं छोडे़गी दोस्त। ये एक ऐसी प्यास है जो एक बार बुझने के बाद दुबारा फिर सिर उठा लेती है, फिर से लगने लग जाती है, उम्र भर भगाती रहती है। ये पानी नहीं देखती या पानी का स्वाद या मात्रा नहीं देखती बल्कि पानी के बर्तन को देखती है। प्यास पानी से बुझती है बर्तन से नहीं। मैं, तुम, वह या सभी अन्त तक दूसरी के चक्कर में, प्राप्ति की कोशिश में, पाने की लालसा में आगे-पीछे दौड़तें ही रहेंगें। कांच के गिलास को छोड़कर स्टील के गिलास को, स्टील के गिलास को छोड़कर चांदी या चांदी को छोड़कर सोने के गिलास को पाने का चक्कर चलाते रहेंगे। बस दौड़ते-दौड़ते मर-खप जायेंगे। ये मृगतृष्णा कभी नहीं मरेगी। ये बार-बार उठेगी और हमें हर जगह मुंह चिढ़ायेगी। मारीच रूपी मृग दौड़ता ही रहेगा कभी दो हाथ आगे कभी दो कोस आगे, पर हाथ कभी नहीं आयेगा। ये दूरी कम-ज्यादा हो सकती है मगर खत्म कभी नहीं होगी। उसे पाने के चक्कर में पीछा करते-करते हम भी भगवान श्री रामचन्द्रजी की तरह सीता से भी हाथ धो बैठेंगे।” तारा दार्शनिकता पर उतर आया था।
“अच्छा छोड़ो यार। तू स्टेशन जाकर जगह देख हम दोनों अभी आते है।” संतोष को सीट रोककर रखने का आदेश देकर हम दोनों सिगरेट लेने भागे।
“बाप रे। गाड़ी का समय हो गया है। सिगरेट लेकर जल्दी से आना वरना गाड़ी मृगतृष्णा हो जायेगी और हम सभी-के-सभी राम। इंजिन भागने को तैयार है। मुझे (व्हिसिल) सीटी सुनाई देने लगी है। गाड़ी चली गई तो तुम यहीं बैठे-बैठे सिगरेट पी-पीकर छल्ले उड़ाते रहना समझे।” संतोष घबराकर बोला था। उसका ध्यान सिगरेट की तरफ कम और गाड़ी की तरफ ज्यादा था।
“तू फटाफट जाकर सीट देख। हम ये गये और ये आये।” तारा चुटकी बजा कर बोला। संतोष और मैं, दोनों स्टेशन की ओर भागे क्योंकि गाड़ी के चलने का समय हो चुका था, चहल-पहल बढ़ गई थी, टोकन जा चुका था और इंजिन धुएं के छल्ले बनाने को तैयार हो रहा था।
जब तक हम दोनों स्टेशन पहुंच पाते गाड़ी के प्रस्थान की घोषणा हो चुकी थी। चालक (व्हिसिल) सीटी बजाकर गार्ड को झण्डी देने को कह रहा था। वह गार्ड की हरी झण्डी देखने को बेकरार था। देखते-देखते गार्ड ने भी हरी झण्डी दिखाकर चालक को चलने का संकेत दे दिया था। गाड़ी ने धीमे-धीमे सरकना शुरू किया ही था कि दूर किसी कम्पार्टमेण्ट की खिड़की में से हाथ बाहर निकालकर संतोष हमें बुला रहा था शायद बैठने लायक जगह बन चुकी थी। हमारा ध्यान स्टेशन पर छोड़ने आये लोगों की गतिविधियों पर था जिन्होंने गाड़ी प्रस्थान के साथ-साथ डिब्बों के साथ-साथ चलना प्रारम्भ कर दिया था। कोई यात्रा में बरती जाने वाली सावधानियों को समझा रहा था तो कोई जाते ही खत लिखने का आदेश दे रहा था। लोग-बाग डिब्बों में चढ़ने-उतरने शुरू हो गये थे, कुछ-एक दरवाजों में खड़े हुए थे या बाहर हत्था पकड़े लटक रहे थे शरारत के तौर पर। कुछ यूं ही हाथ हिला-हिलाकर विदाई दे रहे थे, लोग समझ नहीं पा रहे थे कि वास्तव में किसे कौन-कौन विदाई दे रहा था।
“देखें चलकर आज कौन-सी मिस 9712 से सामना होता है हमारा। संतोष ने भी किसी बोर्ड के सदस्य की तरह सिलैक्शन करने के लिहाज से जगह का जुगाड़ नहीं किया होगा जहां पर आज के यात्रियों मे से सबसे खूबसूरत और कमसिन लड़की/महिला बैठी होगी। परिणामस्वरूप वहीं लड़की/महिला ही आज की मिस/मिसेज 9712 होगी। हमारे द्वारा दी जाने वाली उपाधि के बारे में चौथा कोई भी नहीं जानता। बस तीन ही इस सिलैक्शन बोर्ड के चयनाधिकारी हैं। इस पिक्चराइजेशन के निर्माता निर्देशक।” जाने क्या सोचते-सोचते प्रवीण मुझे बताने लगा था।
“ये मिस या मिसेज तो ठीक है। परन्तु 9712 शायद हमारी गाड़ी का नम्बर है।” प्रवीण फिर अपने आप ही बोल पड़ा था।
“कमाल है यार। तू खुद ही सवाल करता है खुद ही जवाब भी देता है। मुझे काहे को घसीटता है फालतू में। तुझे अपनी उस गाड़ी का नम्बर नहीं पता जिससे अप डाउन करते हुए हमें बरसों बीत गये। हमारी जयपुर-श्रीगंगानगर गाड़ी का नम्बर है। सुबह जब हम घर से जाते हैं तो इसका नम्बर होता है 9711 और जब हम वापस जाते हैं तब होता है 9712, तुम्हें तो इसके बारे में पता होना चाहिए। कोई-न-कोई पूछ ही लेता है।” उसकी जिज्ञासा शान्त करने के साथ-साथ उसे आश्चर्य हुआ था मेरी बात पर। तब तक गाड़ी की गति कुछ बढ़ चुकी थी। शहर का आबादी वाला क्षेत्र काफी पीछै छूट चुका था। यात्री अपनी-अपनी सीटों पर बैठने लग गये थे। कण्डकटर उन्हें टिकिट नंबर देख-देखकर सीट नम्बर बता रहा था। फिर भी कुछ यात्री गैलरी में खड़े हुए थे जिन्हें थोड़ा-सा सफर करना था, आसपास ही उतरना था, जिनकी यात्रा का समय कम था या किसी को दूसरे यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखते हुए धुम्रपान करना था।
यात्रियों की भीड़ में से जगह बनाते-बनाते, आगे बढ़ते हुए जब तक हम संतोष के पास पहुंचते, हमारे कानों में संतोष के किसी महिला के साथ मधुर वार्तालाप के कुछ अंश पड़े। पहले हमने केवल संदेह समझा। लेकिन जब कान लगाकर बातचीत सुनी तो वहीं संदेह विश्वास में तुरन्त बदल गया। कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। मामला भी कुछ उल्टा-सुल्टा ही लगा था उन दोनों की बातचीत से-
“तुम्हारे घर में सब कैसे हैं जैसे कि अंकल-आंटी, गोलू और मोलू।”
“सब मजे में हैं एकदम बढ़िया हाल में। टनाटन हैं। मजे से दिन कट रहे हैं।”
“कौन-सी कक्षा की परीक्षा दी है इस साल ?”
“बी0 ए0 का।”
“परीक्षा परिणाम कब तक आ जायेगा ?”
“यही कोई तीन-चार माह में ?”
“आगे क्या इरादा है तुम्हारा ?”
“किसी (कम्पीटिशन) प्रतियोगिता में बैठने की इच्छा है मेरी।”
“किस तरह के, हम भी तो जाने जरा।”
“जैसे कि बी. एड., बैंक कम्पीटिशन, आर. पी. एस. सी. के।”
“तैयारी कैसी चल रही है ?”
“बस ठीक ही है, ज्यादा अच्छी नहीं है।”
“खाली समय कैसे निकलता है, बोरियत तो नहीं होती तुम्हें ?”
“कभी पुस्तकें पढ़कर, कभी रेडियों सुनकर, कभी दूरदर्शन के कार्यक्रम देखकर।”
“इन सबमें अच्छा क्या लगता है ?”
“पुस्तकें पढ़ना।”
“कैसी पुस्तकें पढ़ना-फिल्मी या साहित्यिक ?”
“कभी-कभी दोनों। लेकिन ज्यादातर तो साहित्यिक ही।”
अपनी आदतों और मनोविज्ञान को देखते हुए प्रवीण ने मुझसे कहा-”ये पट्ठा तो बड़ा ही तीसमारखां निकला यार।” अप-डाउन करते हुए हमें कई साल बीत गये, हमने आज तक किसी भी लड़की को पटाने की कोशिश नहीं की, न ही हम कभी कामयाब हो सके। शायद हममें लड़की पटाने की योग्यता ही न हो। हमें भी कहीं-न-कहीं से लड़की पटाने का गुर सीखना पड़ेगा। लड़की पटाने वाले किसी एक्सपर्ट को गुरू धारण करना पड़ेगा। गुरू-दक्षिणा देनी होगी। किसी ऐसे ही विद्यालय में दाखिला लेना ही होगा। प्रशिक्षण लेना होगा और फिर चेला बनना होगा। इस कला को आगे बढ़ाने का मौका, मार्ग प्रशस्त करना होगा, सही रास्ता दिखाना होगा। कार्यशाला का आयोजन करना होगा।” हमें आपस में बातचीत करते हुए देखकर संतोष भी तलाश करते हुए वहां तक आ पहुंचा, पास आकर रूका और बोला -
“तुम दोनों यहां पर खड़े हुए क्या कर रहे हो यार ? मैंने तुम्हें इशारा भी किया था। वहां पर दूसरे यात्री जगह के लिये झगड़ा करने पर उतार हो रहे है। वे बैठने के लिये अड़े हुए हैं। मैं वहां उन्हें कब से समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि तुम दोनों आने वाले हो। फिर भी नहीं मान रहे वे लोग। अपनी ही जिद पर अड़े हुए हैं। कह रहें हैं कि जब तुम दोनों नहीं आ जाते मैं उन्हें बैठ जाने दूं तुम दोनों के आते ही वे उठ जायेंगे। जगह खाली कर देंगे। चलो यार मैं कितनी देर से तुम्हार इंतजार कर रहा हूं सीट रोककर सीट के लिये झगड़ा भी कर रहा हूं।”
“हम यहीं पर ठीक है यार। तुझे डिस्टर्ब नहीं करना चाहते थे।” प्रवीण ने पहले जैसी बात करते हुए कहा था।
“क्या मतलब ? मैं उन्हें बिठा दूं जो वहां पर झगड़ा कर रहे हैं।” संतोष फिर बोला उसकी बात को न समझते हुए।
“उन्हें ही बिठा ले यार। उनका झगड़ा खत्म कर। हम यहीं पर खड़े-खड़े सफर कर लेंगे। हमने वहां पर आना ठीक नहीं समझा। तू वहां पर बैठ कर मौके का फायदा उठा। मीठी-मीठी बातें कर। अपना समय मजे से पास कर। गंगा स्नान कर।”
“तुम आखिर कहना क्या चाहते हो यार ?” संतोष कुछ भी समझ नहीं पा रहा था।
“मैं यह कहना चाहता हूं साले कि तूने तो कमाल ही कर डाला। सिर्फ एक महीने में ही तू हमसे भी आगे निकल गया। हमारा भी उस्ताद हो गया। एक बात बता, तूने कहां से शिक्षा ली ? हमें भी उस विद्यालय का रास्ता दिखा।”
“क्या कमाल हो गया यार। कौन सा उस्ताद, कौन-सी शिक्षा। उस्ताद की बात मेरी तो समझ में नहीं आ रही यार। डिटेल्ड बात करो न।”
“तेरे पैर छूकर हम तुझे अपना गुरू बनाने का प्रण करते हैं। हमें भी कोई मंत्र दे। शायद हम भी कभी कामयाब हो जायें। हम होगें कामयाब एक दिन। हां, मन में है विश्वास। काम नहीं कोई मुश्किल अगर ठान लीजिये सिर्फ एक बार।”
“तुम क्या पहेलियां-सी बुझा रहे हो यार। तुम्हारी ये पहेलियां तो मेरी समझ से बिल्कुल ही बाहर की बात है। कृपा करके इन सबका उत्तर मेरे दिमाग में डालने का कष्ट करें ताकि मैं भी कुछ जान सकूं कि तुम किस-किस मामले में उस्ताद बनना चाहते हो।”
“क्या लड़की पटाई है तूने गुरू। पटाख है पटाखा। हमारा तो दिल ही जल रहा है। विस्फोट हो रहा है दिमाग में। अरमान मचल रहे हैं हमारे, तेरे सामने वाली सीट पर बैठी हुई फुलझड़ी उर्फ मिस 9712 को देखकर। क्या चीज है।”
इससे पहले कि प्रवीण अपनी बात पूरी करके कुछ और कहने की कोशिश करपाता, संतोष का एक जोरदार हाथ उसके गाल पर पड़ा यह कहते हुए, इस वाक्य के साथ कि-
“हरामजादे मुंह संभालकर बात कर। जुबान खींच लूंगा अगर एक शब्द भी और कहा तो उसके बारे में। मेरी चचेरी बहन है वो।”
हम तीनों चुप थे ठीक वैसे ही सिर को झुकाये जैसे कि तूफान के बाद होता है।