मेरी ये कहानियाँ......सार्थकता के लिए / अजय नावरिया
सार्थकता के लिए
मेरी ये कहानियाँ मेरे सपनों की रचनात्मक रूपाकृतियाँ भर हैं-इन्हें आप सुविधा के लिए कहानियाँ कह-समझ सकते हैं, लेकिन इनको पूरा समझने के लिए, इनको सपनों के ही रूप में समझा जा सकता है। क्या भारतीय समाज और संस्कृति में ऐसे सपने देखना समाजविरोधी और धर्मविरोधी नहीं समझा जाता ? क्या रचनाकार धर्मादेशों या फतवों से डरकर सपने देखना छोड़ देता है ? क्या उसे छोड़ देना चाहिए ? निर्भीकता की अपनी इसी परम्परा से मैंने भी अपने लिए साहस चुना और सँजोया। यह संयोग नहीं है कि इन कहानियों के मुख्यपात्र या स्वप्नदर्शी प्रोटोगानिस्ट दलित हैं। आज के समाज में यह भी एक अपरिहार्य स्थिति है कि उनका पल-पल सामना गैर-दलितों से होता है और वहाँ अपने आत्मसम्मान और अस्मिता को बचाए रखना बहुत मुश्किल है। यह एक ऐसी भूल-भुलैया है जिसमें जा कर दलित अक्सर निकलने का रास्ता भूल जाता है और उन्हीं में उन जैसा बनने की कोशिश करता है या उससे अपेक्षा की जाती है कि वह उनके बनाए मानदंडों के हिसाब से जीवन-निर्वाह करें साहित्य में इससे अलग क्या हुआ है ?
इन कहानियों के क्रम को मेरी समझ के क्रमिक विकास के रूप में भी यदि समझा जाए तो शायद बहुत अनुचित नहीं होगा। इस क्रम में जितना अनुचित समझे जाने की सम्भावना है, उतना मेरे लेखों और आगामी कहानियों से सुधारा या स्पष्ट किया जा सकता है। कहानी मेरे लिए निजी से सामाजिक के बीच बनने वाला पुल है। रचनाकार इस पुल से दूसरों तक पहुँचता भी है और दूसरों को खुद तक आने का आमन्त्रण भी देता है। यह न्यूनतम एक्टीविज्म, हो सकता है कि दूसरों को अखरे, पर रचना के स्तर पर इससे अधिक एक्टीविज्म मुझे रचना की हत्या ही लगता है। रचनाधर्मिता में अधर्मिता से बचा ही जाना चाहिए, शायद इसीलिए मैंने अधिकतम सामाजिकता के लिए दूसरे क्षेत्रों को चुना। यह द्वन्द्व भी कई सालों की उम्र का है, पर आखिरकार मुझे रास्ता मिला और मैंने इस पर बढ़ना शुरू किया।
यूरोप में जिस तरह मार्क्स के दर्शन की जरूरत और सार्थकता है वैसे ही यहाँ भारत में डॉ. अम्बेडकर के दर्शन की जरूरत और सार्थकता है। जब यह दर्शन भारत में सर्वस्वीकार्य हो जाएगा, शायद तभी मार्क्स के दर्शन की स्वीकार्यता भी बन पाएगी। जब वे एक दूसरे के पूरक के रूप में देखे जाएँगे, तभी ये पूरे समझे जाएँगे-वरना तो इन्हें एक-दूसरे के विरोधी के रूप में ही विरोधी ‘प्रोजेक्ट’ करते रहेंगे। यह साझी जिम्मेदारी है-पर पहल सम्पन्नों और सवर्णों को ही करनी होगी। दक्षिण अफ्रीका में गोरों की वर्तमान पीढ़ी ने भी अपने पूर्वजों के कुकृत्यों के लिए सामूहिक ‘कन्फैशन’ करके यह शुरूआत की थी। अभी तक एक शुरुआत कथा-साहित्य में किसी गैर-दलित कथाकार की नहीं दिखाई दी है। दलितों पर साहित्य लिखने से कहीं अच्छा है कि वे आत्मभर्त्सनापरक रचनाएँ साहित्य को दें ताकि आपसी संवाद और विश्वास बन सके। अन्त में यही कि हम सब मिलकर ऐसे आधुनिक साहित्य का सृजन करें जहाँ मेहनतकशों को इज्जत दी जाती हो और पोंगापंथी निठल्लेपन को दुरुस्त कर उपयोगी कामों में प्रवृत्त किया जाए। डॉ.अम्बेडकर और मार्क्स का सपना इस सपने से क्या अलग है। क्या हमारा अब तक का साहित्य ‘लोकतान्त्रिकता’ के इस स्वरूप से अब तक जुड़ा ? यह एक बड़ा सवाल है।
नयी दिल्ली