मेरी रचना-प्रक्रिया/(लघुकथा के संदर्भ में) / सुभाष नीरव
पिछली सदी के अस्सी के दशक के पूर्वाद्ध में जब मैं रमेश बत्तरा के आग्रह पर लघुकथा लेखन में उतरा, तब तक मेरी कुछ कहानियाँ अखबारों के रविवासीय परिशिष्टों और पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। पहली लघकुथा 'कमरा' जब सारिका के लघुकथा विशेषांक (1984) में छपी तो उसके बाद एक के बाद एक लघुकथाएँ मैं लिखता चला गया। न मैं लघुकथा का शास्त्र जानता था, न ही मुझे इसकी रचना-प्रक्रिया का कुछ पता था। बस एक जोश था, लिखने से पूर्व एक तीव्र दबाव महसूस करता और एक झोंक में मैं लघुकथा लिख डालता। लिखने के बाद भी उस पर कोई काम नहीं करता था। जो लिख दिया, बस लिख दिया। लिखने के बाद कई-कई दिन तक उस रचना का नशा सिर चढ़कर बोलता। मन खुश रहता। सर्जन का सुख महसूस करता। लिखी रचना को छपने के लिए भेजने की जल्दी भी रहती। लिखे जाने के दो-चार दिन के अंदर मैं उसे कहीं न कहीं छपने के लिए भेज ही देता। 'कमरा' , 'दिहाड़ी' , 'अपने क्षेत्र का दर्द' , 'रंग-परिवर्तन' , 'वॉकर' , 'अपना अपना नशा' , 'कड़वा अपवाद' आदि इसी शुरुआती दौर की लघुकथाएँ हैं जिन्हें मैंने एक झोंक में लिखा अर्थात एक खयाल, एक विचार या एक बात दिमाग़ में कौंधी नहीं कि बिना कोई अतिरिक्त चिंतन-मनन किए काग़ज़ पर उतार दीं और उसी को फाइनल मानकर छपने भी भेज दिया और वे छपीं भी। 'लिखने' और 'भेजने' के बीच का अंतराल बहुत कम होता था। मजे की बात यह कि वे सब छप भी जाती थीं।
लेकिन जल्द ही यह 'तुरत-फुरत' का दौर ख़त्म हो गया। अब रचना लिखने से पहले और लिख लेने के बाद के समय में वृद्धि होने लगी। काग़ज़ पर रचना उतरने से पहले मुझे ख़ूब छकाती। कई-कई दिन मेरे अंदर चिंतन-मनन होता। उठते-बैठते, चलते-घूमते यह चिंतन प्रक्रिया चलती रहती। रचना लिख लेने के बाद भी उसको तरासने में, सही करने में, उसे अपनी पहली लघुकथाओं से अलग दिखाने की मशक्कत में हफ्ते और महीने लग जाते। कारण यह था कि हिन्दी के बड़े नाटककार और उपन्यासकार डॉ. ल्क्ष्मीनारायण लाल की कही एक बात मेरा पीछा न छोड़ती थी। उनका कहना था कि हर लेखक को अपने भीतर एक पाठक और एक संपादक भी बिठा लेना चाहिए। इन दोनों की संतुष्टि से पहले रचना को छपने के लिए नहीं भेजना चाहिए। ऐसा करने के लिए रचना लिख लेने के बाद उसे इधर-उधर रख देना चाहिए और कुछ दिन के लिए बिलकुल भूल जाना चाहिए। ये कुछ दिन सप्ताह, दो सप्ताह और कई महीने भी हो सकते हैं। कुछ अंतराल के बाद जब लेखक उस रचना को पढ़ता है तो उसके ऊपर से तब तक लेखकीय नशा उतर चुका होता है, तब वह अपनी रचना को एक पाठक / संपादक के तौर पर पढ़ता है। तभी रचना की कमियों-खामियों, खूबियों का पता चलता है। यदि रचना भीतर बैठे संपादक-पाठक को संतुष्ट करती है तो ठीक, नहीं तो लेखक को उस पर दुबारा काम करना चाहिए।
और सच जानिए, इसके बाद मैंने आज तक जो भी लघुकथाएँ लिखीं, वह इसी रचना-प्रक्रिया की भट्टी में तपकर, पक कर सामने आईं। कम से कम मेरे अंदर का लेखक, संपादक और पाठक संतुष्ट हुआ, बेशक कई लघुकथा लेखकों ने उस लघुकथा को लेकर किन्तु-परन्तु किए और आलोचना की। 'वाह मिट्टी' और 'वेश्या नहीं' ऐसी ही मेरी लघुकथाएँ हैं जिन्हें तमाम आलोचनाओं के बावजूद मैंने उनमें आज तक कोई हल्का-सा भी परिवर्तन नहीं किया।
हिन्दी के वरिष्ठ लेखक सुकेश साहनी कहते हैं कि लेखक के भीतर किसी रचना के कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना-प्रक्रिया है। पंजाबी के वरिष्ठ लेखक डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति अक्सर कहते हैं कि मैं नई लघुकथा पर काम कर रहा हूँ, यह नहीं कहते कि मैं नई लघुकथा लिखने जा रहा हूँ। यह 'काम करना' लेखक की वह रचना-प्रक्रिया ही है जिसमें से होकर रचना काग़ज़ पर अपना परिपक्व आकार लेकर लेती है।
2000 के दशक में इंटरनेट और ई-कॉमर्स प्लेटफार्म के आगमन ने क्रेडिट कार्ड के उपयोग के तरीके में एक क्रांति ला दी थी। क्रेडिट कार्ड हमारे वित्तीय जीवन का एक अभिन्न अंग बनने की एक तेज प्रक्रिया में था। मैं भारत सरकार के एक मंत्रालय में कार्यरत था। तब आज जैसी सख्त सिक्युरिटी सरकारी दफ्तरों में न थी। आए दिन खूबसूरत युवतियाँ और युवक बिल्डिंग में घुस जाते और रूम-टू-रूम अपने-अपने बैंक के क्रेडिट कार्ड का प्रचार करते और क्रेडिट कार्ड बनवाने के लिए आग्रह करते। वे आकर्षक और लुभावने प्लैन बताते। बहुत सारे कर्मचारी, अधिकारी इस प्लास्टिक कार्ड की जादुई गिरफ्त में आ जाते। ये खूबसूरत युवतियाँ दफ्तरों में ही नहीं, डोर-ट-डोर घरों में भी जाती थीं और सुखद भविष्य के सपने बेचती थीं। हुआ यह कि एक बहुत बड़ा मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग इसके चंगुल में आ गया। वह एक नहीं, कई-कई बैंकों के क्रेडिट कार्ड रखने लगा और-और घर परिवार की अनाप-शनाप ज़रूरतों को इन्हीं के जरिये पूरा करने लगा और जब कुछ वर्ष बाद इनकी कड़वी सच्चाई का उन्हें पता चला, तो बहुत देर हो चुकी थी। बहुत से लोग डिप्रेशन में चले गए। वे चादर से बाहर पैर फैलाने के अपने फ़ैसले पर पछता रहे थे। वे अपने आप को एक ऐसे मकड़जाल में फँसा हुआ महसूस करने लगे, जिसमें से निकल पाना अब उनके लिए असंभव-सा हो गया था।
यह विषय मुझे एक-डेढ़ वर्ष लगातार हांट करता रहा। सोचता और लिखता, लिखता और फाड़कर फेंक देता। एक-दो मित्रो से ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि यह विषय बहुत भारी भरकम है और लघुकथा इसका बोझ वहन नहीं कर पाएगी। इस पर कुछ और लिखो। लेकिन मैं बजिद था। सोचता था, एक प्रयोग ही सही। सफल न हुआ, तो न सही। पर मुझे इस पर कुछ लिखना है, जो लघुकथा के आस पास हो और मैंने बहुत चिंतन-मनन करके इसे 'मकड़ी' शीर्षक से लिखा। कुछ मित्रो को पढ़वाया। नया विषय था और वह भी लघुकथा में। उन्हें इसमें संशय था कि पाठक इसे स्वीकार कर पाएँगे। मित्र अशोक भाटिया ने कहा, 'ये क्रेडिट कार्ड क्या है? जब आपके बैंक खाते में पैसे नहीं होंगे तो आप कैसे ख़र्च करेंगे।' मुझे हैरानी हुई कि अशोक भाटिया जैसा लेखक 'क्रेडिट कार्ड' और 'डेबिट कार्ड' के कंसेप्ट को नहीं समझ पा रहा। मुझे उसे समझाना पड़ा, लथुकथा में 'डेबिट कार्ड' की नहीं, क्रेडिट कार्ड की बात की गई है। 'क्रेडिट कार्ड' एक ऐसा महाजन है जो प्लास्टिक कार्ड के रूप में आपकी जेब में पड़ा रहता है और आपको उकसाता रहता है कि पैसे की चिंता न करना। बाज़ार से कोई सामान लेना हो, या नकदी निकालनी हो, तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। मैं हूँ न!
शुरुआत में कोशिश की गई कि 'मकड़ी' को नकारा जाए। लेकिन मेरा यह मानना रहा है कि यदि आपकी रचना में लेखकीय ईमानदारी है और आप के भीतर का लेखक, संपादक और पाठक संतुष्ट है तो एक दिन पाठक भी उसको स्वीकार करेगा। 'मकड़ी' के साथ ऐसा ही हुआ। बाद में लघुकथा जैसी छोटे कलेवर की विधा में मेरे इस प्रयोग को पाठकों ने सराहा। इस लघुकथा को लिखने के पीछे मेरी रचना-प्रक्रिया के जो पड़ाव रहे, उन्होंने इसे आकार देने और तराशने में बड़ा योगदान दिया। ये रचना-प्रक्रिया ही रही है जो मेरी दृष्टि को धुँधला होने से बचाती रही है और मुझे मेरे मंतव्य तक पहुँचाने में मेरी मदद करती रही है। -0-
मकड़ी
अधिक बरस नहीं बीते जब बाज़ार ने ख़ुद चलकर उसके द्वार पर दस्तक दी थी। चकाचौंध से भरपूर लुभावने बाज़ार को देखकर वह दंग रह गया था। अवश्य बाज़ार को कोई ग़लतफ़हमी हुई होगी, जो वह ग़लत जगह पर आ गया–उसने सोचा था। उसने बाज़ार को समझाने की कोशिश की थी कि यह कोई रुपये-पैसे वाले अमीर व्यक्ति का घर नहीं, बल्कि एक गरीब बाबू का घर है, जहाँ हर महीने बँधी-बँधाई तनख़्वाह आती है और बमुश्किल पूरा महीना खींच पाती है। इस पर बाज़ार ने हँसकर कहा था, "आप अपने आप को इतना हीन क्यों समझते हैं? इस बाज़ार पर जितना रुपये-पैसों वाले अमीर लोगों का हक़ है, उतना ही आपका भी? हम जो आपके लिए लाए हैं, उससे अमीर-ग़रीब का फ़र्क ही ख़त्म हो जाएगा।" बाज़ार ने जिस मोहित कर देने वाली मुस्कान में बात की थी, उसका असर इतनी तेज़ी से हुआ था कि वह बाज़ार की गिरफ़्त में आने से स्वयं को बचा न सका था।
अब उसकी जेब में सुनहरी कार्ड रहने लगा था। अकेले में उसे देख-देखकर वह मुग्ध होता रहता। धीरे-धीरे उसमें आत्म-विश्वास पैदा हुआ। जिन वातानुकूलित चमचमाती दुकानों में घुसने का उसके अन्दर साहस नहीं होता था, वह उनमें गर्दन ऊँची करके जाने लगा।
धीरे-धीरे घर का नक़्शा बदलने लगा। सोफ़ा, फ्रिज़, रंगीन टी.वी., वाशिंग-मशीन आदि घर की शोभा बढ़ाने लगे। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में रुतबा बढ़ गया। घर में फ़ोन की घंटियाँ बजने लगीं। हाथ में मोबाइल आ गया। कुछ ही समय बाद बाज़ार फिर उसके द्वार पर था। इस बार बाज़ार पहले से अधिक लुभावने रूप में था। मुफ्त कार्ड, अधिक लिमिट, साथ में बीमा दो लाख का। जब चाहे वक़्त-बेवक़्त ज़रूरत पड़ने पर ए.टी.एम. से कैश। किसी महाजन, दोस्त-यार, रिश्तेदार के आगे हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं।
इसी बीच पत्नी भंयकर रूप से बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने आपरेशन की सलाह दी थी और दस हज़ार का ख़र्चा बता दिया था। इतने रुपये कहाँ थे उसके पास? बँधे-बँधाये वेतन में से बमुश्किल गुज़ारा होता था और अब तो बिलों का भुगतान भी हर माह करना पड़ता था। पर इलाज़ तो करवाना था। उसे चिंता सताने लगी थी। कैसे होगा? तभी, जेब में रखे कार्ड उछलने लगे थे, जैसे कह रहे हों–"हम है न!" धन्य हो इस बाज़ार का! न किसी के पीछे मारे-मारे घूमने की ज़रूरत, न गिड़गिड़ाने की। ए.टी.एम.से रुपया निकलवाकर उसने पत्नी का आपरेशन कराया था।
लेकिन, कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाज़ार अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी तनख़्वाह ख़त्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढाई का ख़र्च बढ़ रहा था। हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, ऑफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट टाइम करने लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर पाता था। बकाया रक़म और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चैन छीन लिया था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, बमुश्किल आँख लगती, तो सपने में जाले-ही-जाले दिखाई देते, जिनमें वह ख़ुद को बुरी तरह फँसा हुआ पाता।
छुट्टी का दिन था और वह घर पर था। डोर-बेल बजी तो उसने उठकर दरवाज़ा खोला। एक सुन्दर-सी बाला फिर उसके सामने खड़ी थी, मोहक मुस्कान बिखेरती। उसने फटाक-से दरवाज़ा बन्द कर दिया। उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं, जैसे बाहर कोई भयानक चीज़ देख ली हो। पत्नी ने पूछा, "क्या बात है? इतना घबरा क्यों गये? बाहर कौन है?"
"मकड़ी!" कहकर वह माथे का पसीना पोंछने लगा।
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