मेरी रचना प्रक्रिया! लघुकथा के सन्दर्भ में / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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किसी भी विधा कि रचना पूर्व नियोजित कम एवं सहज अधिक होती है। सहजता के अन्तर्गत प्रत्येक बार प्रक्रिया एक जैसी ही हो, यह संभव नहीं। सहजता अपने साथ एक निजी प्रक्रिया लेकर चलती है। वैसे तो किसी रचना कि नियोजित प्रक्रिया भी दूसरी रचना कि नियोजित प्रक्रिया से एकदम साम्य नहीं रखती है।

लघुकथा लेखन में मेरे साथ ऐसा बहुत कम हुआ कि किसी विशिष्ट विषय को लेकर लघुकथा लिखने की खींचतान मन में चलती रही हो। जब तक कोई संवेदनशील क्षण, प्रसंग या घटना मेरे सामने न रही हो, तब तक मैंने लिखने की मशक्कत नहीं की। जून 1972 में मैंने अपनी पहली लघुकथा 'इंतजार' लिखी थी। वह भी लघुकथा के बारे में किसी शास्त्रीय ज्ञान के बिना। बस 'लघुकथा' शब्द में निहित बातें ही मेरे मस्तिष्क में घूमती रही थीं- 'लघुता' और 'कथा' । प्रसंग इतना था-एक युवक को पता चलता है कि उसके दफ़्तर के निकट आवासीय कॉलोनी में उसकी प्रेमिका आई हुई है। वह बहुत दिनों के बाद उससे मिलने का थोड़ा-सा समय निकालकर किसी तरह आ पाई है। युवक को यह सूचना मिलती है। वह दफ़्तर का काम तुरन्त समेटकर मिलने के लिए चल पड़ता है; लेकिन इंतज़ार करने के बाद वह तब तक वहाँ से चल पड़ी थी और काफ़ी दूर जा चुकी थी। संकोचवश वह उसे दूर से पुकार भी नहीं पाता है।

इस छोटे से प्रसंग ने मुझे कई दिनों तक उद्वेलित करके रखा कि कहाँ से शुरूआत करूँ, कहाँ समापन करूँ। संक्षिप्तता के साथ कथा का समापन भी कि मार्मिक हो, उस समय यह बात भी मुझ पर हावी थी। यह वह दौर था, जब नए लेखकों की लघुकथा में व्यंग्य और आक्रोश की प्रमुखता रहती थी। मेरे साथ 1972 के बाद का दौर कुछ अलग तरह का रहा। उसमें पारिवारिक एवं आर्थिक रूप से स्थापित होने का संघर्ष बहुत अधिक था। कई समस्याएँ एवं चुनौतियाँ मेरे सामने थीं। बेईमानी, भ्रष्टाचार और अवसरवादिता से घिरे वातावरण में घुटन महसूस हो रही थी। यह कमोबेश रूप में चलता ही रहा है। इन सब विद्रूपताओं के प्रति मेरे मन में आक्रोश रहा है। यही कारण है कि मेरी लघुकथाओं में एक तिलमिलाहट ज़रूर है। मेरा ध्यान उन क्षणों पर प्रायः केन्द्रित रहा है, जो तिलमिलाहट जगाते हैं। ऐसे विषयों पर लिखने का कारण बस यही रहा है कि मैं ऐसे क्षणों को गहराई से आत्मसात् कर पाया हूँ। मुखौटे, खलनायक चिरसंगिनी, अश्लीलता, भग्नमूर्ति, संस्कार, पागल कौन ऐसी ही लघुकथाएँ है। ये सभी कथाएँ बिना किसी काट-तराश के सीधे-सीधे लिख दी गई है। परिस्थितियों से उपजा कथानक हूबहू घटना या वही क्षण रहा हो, ऐसा नहीं। लिखने के बाद भी इनमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया। इस सन्दर्भ में मैं अपनी लघुकथा संस्कार का ज़िक्र करना चाहूँगा। बरेली कैण्ट में ऐसे बहुत अवसर मिले कि अफ़सर कुत्तों को सड़क पर टहलाते रहते हैं तथा उनके बच्चे नौकरों या सिपाहियों के साथ घूमने के लिए बाध्य हैं। कुत्ते को मानवीय चरित्र में रखकर मैंने कुत्ते पर आए अफसरी संस्कारों को रेखांकित किया है।

कुछ लघुकथाएँ संवेदनशील प्रसंगों को लेकर भी है। इनमें ऊँचाई, खुशबू, कालचिड़ी, गंगास्नान, चक्र, जाला, ज़हरीली हवा मुख्य हैं। इन कथाओं में मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की तड़प, मानवीयता का सूत्र है, जो हमारे समाज को किसी तरह जिन्दा रखे हुए हैं तथा टूटने से बचाए हुए हैं। ये सभी लघुकथाएँ सिर्फ़ चक्रव्यूह को छोड़कर मेरे मन में तूफ़ान की तरह घुमड़ती रही हैं। इनमें 'खुशबू' के सोचने और लिखने की प्रक्रिया का अन्तराल केवल 30 मिनट है। जो एक बार लिखा गया, वही अंतिम ड्राफ्ट रहा। इक लघुकथा ने मुझको बहुत संतुष्ट किया। इस कथा में एक बच्चे से जुड़ा सीधा-साधा कोमल-सा रूप है। मैं व्यक्तिगत कारण से बहुत परेशान था, तभी स्कूल आते समय छोटे-बच्चों ने मुझे रोककर प्रेमपूर्वक फूल भेंट किए। मेरा मन एकदम हल्का हो गया। इस कथा में न एक वाक्य या शब्द बाद में जोड़ा गया और न छोड़ा गया: लेकिन ऐसा बहुत कम होता है।

चिन्तन और संवेदन के स्तर पर ही आकार देने से पहले काफ़ी परिवर्तन होते रहते हैं। काग़ज़ पर लघुकथा उतारने के बाद भी यह प्रक्रिया बंद नहीं होती है। कभी-कभी तो शीर्षक बदलने से ही पूरी लघुकथा का पुनर्जन्म जैसा हो जाता है। कथा को सँवारने के लिए आवश्यक चर्बी का हटाना बहुत ज़रूरी है। जिस प्रकार आवश्यक शब्द या वाक्य लघुकथा को प्राणवान् बनाते हैं, उसी प्रकार अनावश्यक की उपस्थिति उसे कमजोर भी करती है। क्या कथा प्रकाशन के बाद भी रचना-प्रक्रिया स्थगित हो सकती है? मेरे विचार से ऐसा ज़रूरी नहीं। यदि छपने के बाद कभी लगे कि रचना में अपेक्षित परिवर्तन की गुंजाइश है, तो ऐसे परिवर्तन से परहेज नहीं करना चाहिए। मेरी लघुकथा 'मत मारो पापा' प्रकाशन के कुछ समय पश्चात् और छँट गई तथा 'चक्र' शीर्षक के रूप में नए अर्थ के साथ प्रकट हुई। प्रथम बार रचना के जिस अतिशय भावुकता का समावेश है, दूसरी बार वह भावुकता तो है; पर उसमें संयम का अभाव नहीं। यही रचनात्मक संयम उसके सम्पूर्ण प्रभाव को अलग ढंग से निर्दिष्ट करता है।

हर एक रचना का एक अपना निजी भविष्य एवं जीवन होता है। यद्यपि रचनाकार के हाथों उसका परिष्कार होता है, फिर भी उसकी बनावट और बुनावट हर दूसरी रचना से अलग होती है। प्रत्येक लघुकथा कि आन्तरिक गठन उसके स्वरूप को निर्धारित करती है; अतः प्रत्येक लघुकथा कि रचना-प्रक्रिया एक जैसी नहीं होती। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि अभिभूत करने वाली घटना लघुकथा बनने पर सारी ऊर्जा खो बैठी। दूसरी ओर एक साधारण-सा कथासूत्र गहरे तादात्म्य के कारण बेहतर लघुकथा बन गई। अतः गहरा तादात्म्य ही रचना को बेहतर बनाता है। धीरे-धीरे इस आँच में तपकर ही लघुकथा प्रभावशाली बनती है।

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