मेरी रामनामी / संतलाल करुण
मुखड़े पर मन की उछाह छहराता, आँखों में विश्वास की फेरी फेरता और हृदय में श्रद्धा-भक्ति के झोंके झकोरता लाखों का झमेला अयोध्या के सावन-झूले में झूम रहा है | छोटी छावनी हो या बड़ी जगह, रामकोट हो या लक्ष्मणकिला, श्रृंगारहाट हो या सरयूघाट– लोगों की दर्शनाभिलाषा देखते ही बनती है | हनुमानगढ़ी प्रसाद चढ़ाना हो या नागेश्वरनाथ जल, चाहे जन्मभूमि आस्था-द्रव अथवा छूँछे ही रमना हो– भीड़ का ताँता सर्वत्र है | नर-नारी, बालक-वृद्ध, साधु-संन्यासी, भिखारी-व्यापारी सब इस राममेले में रुचि-रुचि रमते विचर रहे हैं | राम ही इस महा समागम के सम्यक विन्दु-विस्तार हैं; वही मुझे भी छेड़ रहे हैं और उन्हीं की विन्दुता-विराटता में डूबता-उतराता यह सारा जनातिरेक भी ऊभ-चूभ हो रहा है– अपने बहु आयाम-बहु आपाधापी के उपरान्त भी, अपनी बहु बाँही-बहु सोनजुही के साथ भी |
किसी के संग जीती-जागती लक्ष्मी विहँस रही है, तो किसी के हाथ बढ़े कटोरे में टके की लक्ष्मी खनक रही है और वह भिनभिनाती मखियाँ बटोरे, घिनौना परिवेश सजाए, कातर किन्तु कृत्रिम पुकार में गिड़गिड़ा रहा है; सूखे-मरे आँसुओं में बिलबिला रहा है | कोई घेंचा ताने, राग-तान-सन्नद्ध, गाने-बजाने में लीन है, तो कोई मूड़ी उठाए, देखने-सुनने में तल्लीन | आला अफसर अधिकतर जीप-कार में ही झलकते हैं | उतरते भी हैं, किन्तु सब जगह नहीं, जहाँ उनका वैभवी कैम्प है, रुपहली सज्जा है | ये भारी भरकम खचाखच्च-ठेलपेल, जितनी कुछ है उतनी तो है ही, स्पीकरों से लोगों के भूलने-खोने की सूचनाएँ, अभ्यास-पगे प्रवचनों की उर्जस्वित ध्वनियाँ और टेप-रटे, भक्ति-भीने गीत-संगीत मेले को और अधिक मेला बनाते प्रतीत होते हैं; जैसे अदृश्य सरगर्मी की फैलती परिधियाँ, जैसे रागमयी संस्कृति के श्रव्य उन्मीलन, जैसे विश्व के, या छोटे-से विश्व के, या विश्व के सारभूत के कुछ हुलसते-किलकते, कुछ दबते-बैठते, उड़ते कहकहे |
यह विष्णु-चक्र पर अवस्थित, वैकुण्ठलोक की अयोध्यानन्दिनी अयोध्या नहीं है, जो कभी आदि प्रजापति के याचक हाथों, आदि संस्था की झँगुली पहने उतरी थी, उतारी गई थी, भूतल पर आई थी | लोक-नियमन के प्रथम आयास में लोक-वरेण्या राजनगरी-सी रचाई-बसाई गई थी | देवशिल्पी विश्वकर्मा की कलापटुता द्वारा निर्मित हुई थी | यह परिमिति प्रीति-रीतिवाली रामकालिक सुहावनी अयोध्या भी नहीं है, जो सर्व कल्याणी, सर्व चिन्मयी बताई जाती है | मुझे तो यह बहुत कुछ रुद्रयामलीय लगती है, तुलसीकृत लगती है | क्रूर काल ने, कालकवलित जिजीविषा ने इसमें इतना बदलाव ला दिया है कि बूढ़ा इतिहास इसे तरेर-तरेरकर देखता है; जैसे किसी अनजानी-अनपहचानी को देखता हो | फिर भी, यह आज भी पुण्यपरायणी ही है, नरकनिर्मुक्ता ही है, विघ्न-विनाशिनी ही है | यह कितनी र्रौंदी गई, मैली-कुचैली की गई, यह कितनी सजाई-सँवारी गई, अपनी व्यथा, अपने हर्ष-विषाद का अनुबोध लिये यही जानती है, यही जानेगी भी | पर कुछ-कुछ मैं भी समझ-बूझ गया हूँ, कुछ-कुछ मैं भी जानने लगा हूँ | इस पुरिवरा, इस विमला के अन्तरंग-बहिरंग की सह्य-असह्य सुषमा-ऊष्मा, इसके अंचल से खेलते सौन्दर्य-असौन्दर्य, खिलते-चुभते कोंपल-कंटक कोई आज नए का नहीं, वर्षों से देख रहा हूँ |
निकला तो हूँ, आज भी इसकी शोभा-समृद्धि ही देखने, इसकी बरसाती रंगरलियाँ ही निहारने, पर कैसे कहूँ कि निकृष्ट मनुष्यता की दुर्गन्ध यहाँ नहीं है, ऐहिक अधमता की सँड़ाध यहाँ नहीं है | भीतर-भीतर रामभक्तों के गुप्त आचरण से, चोटी-जनेऊ-तिलक-कण्ठी–छापा-जाप-चपरास आदि के छिपे छलावों से मंदिरों की सूक्ष्मता इतनी अविश्वस्त है कि यदा-कदा रहस्य उघड़े अमानवीय परिदृश्य हृदय चीर देते हैं; और बाहर-बाहर अवधवासियों के नैत्यिक व्यवहार से, दर्शनार्थियों की अनगढ़ भीड़-भाड़ से गली कूँचों की स्थूलता इतनी गँदली है, इतनी घिनावनी है कि कहीं-कहीं तो मन बहुत ही बिदक जाता है | छल-दंभ के, प्रपंच के, मोह-माया आदि के सारे-के-सारे बहुरूपिए यहाँ भी चढ़ा-उपरी करते एकजुट हैं | दिन भर के थके-माँदे संतप्त सूर्य की भाँति दौड़-धूप करते, भागते भौतिक मनुष्य को यहाँ आकर संत्रास-त्राण की जितनी श्यामल, सुकोमल और शीतल छाया मिलनी चाहिए, उतनी का अधिकांश तो जैसे है ही नहीं और जो कुछ है भी, वह भी अमल नहीं, वह भी विशुद्ध नहीं |
वनजीवी, पर्वतजीवी मानवजातियों को हेय दृष्टि से देखने वाले, प्रकृति की ममता से दूर होते हम चमक-धमक के नागरिकों की सुसंस्कृत जीवनचर्या और प्रशासन की युद्ध-स्तर की कर्मशीलता कहीं-कहीं तो इतनी प्रतिफलित है कि साँस लेना भी दूभर हो जाता है और आँखें मूँदना-खोलना भी ! किन्तु ऐसी गलियों में साधारण जनता ही घूमती नज़र आती है | बड़े लोग तो बड़े स्थानों, बड़े मन्दिरों में ही उतरते-देखते हैं | अधिकतर सीधे-सादे ग्रामीण जन ही सभी छोटी-बड़ी सड़कों, गन्दी-साफ गलियों में घूमते नहीं अघाते; क्योंकि उनके अवलोकन में सारी अयोध्या राममय जो है; उनकी अज्ञानता में भले-बुरे का उतना भेद जो नहीं है ! तभी तो इस मिट्टी में समोई जयगाथा, इस दिग्-दिगन्त से आभासित तपश्चरित्र उन्हें उतने ही पवित्र, पारदर्शी और सुवासित लगते है, जितने कि लगने ही चाहिए, जितने कि हमें नहीं लगते |
साँवली साँझ उतरने लगी है | साँवला सावन मनुहार कि आँखें झपकाने लगा है | साकेत-सम्राज्ञी साँवले रघुवर के साथ मन्दिर-मन्दिर हिंडोले चढ़ी झूल रही हैं | मैं अपने मन झूल रहा हूँ | सरयू-पुल पर खड़ा हूँ | कुछ दिख रहा है, कुछ देख रहा हूँ | और नयन के डोरों में पिरो रहा हूँ–निसर्ग की तंद्रिल छवि-छटा को, अयोध्या की पावन प्रभा को, उसके प्राणद प्राण को, उसकी सजलता-तरलता को, उसकी सुसरिता को या दूसरी अयोध्या को | मन न जाने कैसा हो चला है ! कहता है, जिसने यहाँ की शुभ संध्या, यहाँ के प्रिय प्रभात का तदास्वाद न लिया, समझो अयोध्या देखी ही नहीं | समय के निर्मम आवर्त में, सदैव के लिए, अयोध्या का बहुत कुछ सो गया, बहुत कुछ मिट गया, बहुत कुछ सूख गया | परन्तु यह शेष स्रोतस्विनी अवध का सर्वस्व निचोड़े, जो बीत गया उसे भी रसमोए, जो बीतेगा उसे भी सहने-भिगोने, आत्मसात करने की साध लिए, दुबली-पतली कृशगात हो-होकर भी हर साश्रु-सुहेले सावन में छलछला उठती है, हर भाव-भरे भादों में उमग आती है | आज तक बची है; आज भी हरी-भरी है | बस यही सरयू, यही रामगंगा ही तो बची-खुची अयोध्या है | बस केवल इसी ने ही तो मन-वचन से, कर्म से राम के सित-श्यामल स्वरूप को सहेजा है, सिरजा है | बस यही तो है, जो निष्ठुर परिवर्तन की निरंतर मार खाती हुई आज भी राम की सर्वात्मार्द्र निस्पृह दृष्टि से अनुरक्त है, संसिक्त है | श्री सरयू मुख से ही निकला यह प्रकथन —
“विष्णुनेत्रसमुत्पन्ना रामं कुक्षौ विभम्यर्यहम् |”
(रुद्र्यामालतंत्र, अयोध्याखण्ड, 3/63)
कि मैं श्री विष्णु के नेत्र से उत्पन्न हुई हूँ और श्री राम को कुक्षि में धारण किए रहती हूँ– स्मरण होते ही सुदूर, विह्वल आकाश में डबडबाते भगवन्नेत्र उभर आते हैं तथा सरयू के समुज्ज्वल अंचल में नील सरोरुह राम की श्यामता उतराने लगती है | उस रामचन्द्र में, उस लोलते-हिल्लोलते चन्द्र में मन भिंच-भिंच जाता है, तर-बतर हो जाता है, नील-नील हो जाता है |
नदी के उत्तरी कूल की ओर दूर-दूर तक फैली वर्षाकालीन हरीतिमा, जो कहीं-कहीं झाउओं के पुष्पित-से कत्थई अलंकरण से लदी है, जो कुछ ही सप्ताह में, भाद्रपद के उतरते-उतरते, काँस के फूलों से अपने बुढ़ापे की केशांचित श्वेत सौम्यता प्रकट करने लगेगी; दिक्सुन्दरी संध्या के आँचल में मुख छिपाते दिवाश्रांत सूर्य के पीले-ललौहें, रतिमुद्रित लावण्य को देख, आलक्तक हो रही हिलोरों की सलज्ज पदावली, जो किसी के बुला रहे, अभिमंत्रित अगाध अभिसार में तिरती-थिरकती, भागी चली जा रही है; और घाट के मन्दिरों का सघन विविघुत-प्रकाश, जो दक्षिण-कूल की जल-राशि में बिंबित-रेखित अच्छाभ-सा झिलमिला रहा है–निहारते रहने से स्वयं की बोझिल सत्ता हल्की, शून्य-सी होने लगती है | इसी साल गर्मियों की किसी साँझ, इसी सरयू-सेतु से मुझे दीपदान की लम्बी-बिरंगी, अविस्मरणीय कतार दिखी थी, पर आज नहीं है | बुझ तो वह उसी दिन गई थी, मेरे देखते-देखते ही; परन्तु उसे भूल नहीं पाया हूँ | वह तैरती शुचि, सुदीप्त सरणि, वह जल-करतल की गतिमयी घुतिमाला, आज भी मेरी अन्तस्सलिला में उसी तरह, उसी अभिरामता की श्री-साधे, प्रज्वलित है | किन्तु जानता हूँ, एक दिन वह भी बुझेगी, एक दिन उसके ज्योति-प्रयाण का भी अंत होगा, मेरी लौ-लहर के साथ, निस्सारता के अनंतरित सत्य में, महासत्य में या अपनी सिद्धि में |
सांध्य वेला में भी कुछ लोग डुबकी लगा रहे हैं | स्नान का आनंद ले रहे हैं | एक मैं हूँ, मेरे इर्द-गिर्द भी हैं, ऐसे ही और बहुत से हैं, जो उन्हें नहाते देख, दूर खड़े अनभीगे ही आनन्दित हैं | किन्तु उनके दरस-परस के गोते, उनके नमन-निमज्जन की निकटता पारलौकिक न सही, लौकिक ही सही, हमसे अधिक सफल है, हमसे अधिक पूर्ण है | कोई भोली-भाली जान पड़ती नारी अंजलि में तरल तरंगे यत्न से लोढ़ती है, यत्न से माथे चढ़ाती है, फिर नहाती आमोदमग्न होती है; और वहीं पूसी चाँदनी-सी लगती कुछ अधुनातन युवतियाँ, जो अपावन जल में नहाना तो दूर प्रसाधनलिप्त मुख भी पखारें तो कैसे पखारें, उसकी निर्मल सहजता का उपहास-सा करती उचकती हैं ! जिसे वे निम्नतर समझ रही हैं, क्या उसके इस प्रकार ज्ञात-अज्ञात सौन्दर्य के प्रति प्रणमन में, प्रकृति से उसके ऐसे लिपटने-भेंटने में नारी-सुलभ सात्विक उद्भावना व्यक्त नहीं होती ! या उनके भारी लिबास ने, अर्जित स्वच्छन्दता ने, चिकने मेक-अप ने उनके ही बिन सिंगारे सिंगारवाले नारी-निखार को दबोच नहीं लिया है ! किसी मायने में उससे भी निम्नतर नहीं बना दिया है ! उनके अभिनव के ऐसे अहं को, ऐसे नवीन संस्कार को वास्तविक शांति का छोर छूटने की त्रासदी कहूँ, उनकी ऐसी नवागत प्रतिक्रिया को नई नारी का प्रमाद कहूँ तो क्या बेजा है !
तट पर पण्डों के अपने-अपने घाट, अपने-अपने झण्डे, सिग्नल या साइनबोर्ड बहुत हैं | कुछ दाल, कुछ चावल मिले, हल्के सतनजा के पिसान भरे बोरे, द्रुत-अशुद्ध मंत्रोच्चारण, कोई खेद रहा है पंडिज्जी को ! पर इतने कुछ से ही जब इतना सब मिलता है, तो कर्मकाण्ड की निष्ठा कैसी ! पूँछ पकड़े किसी और से हँसते-बतियाते यजमान महाशय ही कहाँ स्थिरचित्त हैं ! चक्कर केवल परलोक सुधारने की औपचरिकता भर का है | थोड़ी देर में ही कई को वैतरणी का आश्वासन देने वाली दुबली-मल्लही बछिया उदास है | पता नहीं क्या सोचे जा रही है ! उसका पिचका पेट रुपये-पैसे का थैला भरते पण्डे-पुजारियों के तुंदिल उदरों से स्पर्धा नहीं कर पाता | लगता है, उसका इस श्रावण-मास से, इस सरयू-तीर से, इस दान-पुण्य से कोई हार्दिक अनुबंध नहीं है | उसका गलफंद, उसकी पगही उसके कटु यथार्थ का ही, उसकी भाग्यहीन विवशता का ही प्रतीक है, जो इतना निर्दय हो गया है कि उसके दुःख का हिस्सा छोड़, उसके सुख की साझेदारी ही बँटा रहा है | कल आधी रात से भी ऊपर का समय रहा होगा, इन्हीं घाटों के उस पूर्वी सिरे की ओर किसी की प्रशम-प्रगाढ़ निद्रा आलोकित हो रही थी | बसेरे के रौरव-कलरव बीच पता नहीं क्या ले-देकर, किसी पंचभूत पिंजड़े का पंछी उड़ गया था | ठाट की सूनी ठटरी सरयू का सानिध्य पाकर भी, उसके शीतल समीरण में भी मान-वियोग के दाह में जली जा रही है | एक अजीब-सी नीरव पीड़ा मेरे अन्तस्तल की गहराई नापने लगी | वह क्षण-दो-क्षण में ही अपना काम कर गई | फिर मुझे लगा, उस अकेली चिता की उन्मुख, उदग्र, लपलपाती लपटें अपने प्रियजन-परिजन को, विकट श्मशान को, उसकी अंधवर्ती निशीथिनी को और जैसे मुझको भी किसी चरम, सुर्ख सत्य की झलक दिखा रही हैं | मृण्मय संसार की वह अंतिम पावक-वेदिका, नश्वरता की वह अंतिम अग्निशिखा वैराग्यसंदीपिनी-सी जैसे कुछ कह रही थी– कुछ सुनने-गुनने लायक बातें, कुछ रहस्य के तथ्य, कुछ जीवनगत मूलमंत्र | पर उनींदी आँखें गन्तव्य की ओर बढ़ती रहीं, हम रुके नहीं, सब कुछ अनबूझ पहेली समझ अपनी राह चलते चले गए; उस फक्कड़ अपरिचित बटोही की तरह, जो लाख हाँक लगाने, गोहराने पर भी नहीं लौटता, नहीं सुनता |
मन्दिरों-मूर्तियों के निर्दशन में ऐसी कलाकृतियों की अधिकता खटक जाती है, जो या तो बे-मन से गढ़ी गई हैं या आवश्यकता से अधिक बनाव-ठनाववाली हैं | हाल ही के वर्षों में बना ‘श्रीमद् वाल्मीकि रामायण भवन’ इस धार्मिक नगरी की स्थापत्य-परम्परा में नवीनतम उत्कृष्ट संयोग है | इसमें रामायण के सातों काण्ड उत्कीर्ण हैं | स्पष्टतः पढ़े जा सकते हैं | संदर्भ-चित्रों एवं ललित रंगाभरणों से सुसज्जित इस विशाल मन्दिर के पश्च भाग में श्वेत-स्निग्ध प्रतिमाओं के रूप में अपने ऋषिगुरु वाल्मीकि के साथ सजीव-से खड़े किसलय-वय धनुर्धर लव-कुश आँखों के तारे ही लगते हैं | जितना ही देखिए, उतना ही देखने का मन होता है | ‘मानस ट्रस्ट भवन’ में राम, सीता और लक्ष्मण की स्मित-मुद्राएँ काव्यों में वर्णित उनके लोकोत्तर सौन्दर्य का विश्वास दिलाती हैं | ‘अमावाँ राजमन्दिर’ में पाषाण की कठोरता में सुयसी सिया सहित चारों भैया के नाक-नक्श सुघर, शीतल चन्द्र के समान अप्रितम हो गए हैं | ऐसी ही प्यारी मूर्ति राधा-माधव की भी इसी मन्दिर में है | मुरली मुरलीधर के अधरों पर है, किन्तु उसके स्वर-विवरवाले भाग पर कन्हइया जू की अँगुलियाँ ही नहीं, उनकी अंक-लगी पार्श्ववर्तिनी प्रिया की दोनों हाथों की अँगुलियाँ भी हैं | क्यों न हों, उनके उच्छलित हृदय से फूटता वंशीगत स्वर-संभार राधा जू के सरगम-साहाय्य से ही तो सुमधुर होता है ! कनक भवन की शबरी आज भी भृकुटी पर हथेली टिकाए, प्रभुदर्शन की साध में ताकती खड़ी है—एकाग्रचित्त-सी प्रेमयोग की मधुमती भूमिका में, जैसे कोई निश्चलव्रता प्राण-पाहुन का बाट जोह रही हो |
जैन मन्दिर में बत्तीस फुट की बड़ी मूर्ति, जो खड़ी मुद्रा में है, पूर्णतः नग्न है | जिसे अशिक्षित जन भगवान बुद्ध की समझते हैं और अर्धशिक्षित लोग महावीर की बताते हैं | परन्तु है वह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की, आदिनाथ की | इसका उल्लेख मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर ही मिल जाता है | वैसे तो इस मन्दिर में अन्य तीर्थंकरों की दिगम्बर मूर्तियाँ भी हैं, किन्तु वे मुख्य मूर्ति की तुलना में इतनी छोटी हैं कि सामान्य दर्शन-दृष्टि में गौण हो जाती हैं | यहाँ मूर्तियों की स्थूल नग्नता-दिगम्बरता जितेन्द्रिय वर्धमान की चरम उपलब्धि का प्रचार ही है, जिसे देखकर प्रायः औरतें अधिक हँसती-मुस्कराती हैं | यह मुझे नग्नता का सामाजिक प्रत्युत्तर समझ में आता है | शारीरिक-मानसिक विचलन का अनुभाव जान पड़ता है | कहा जा सकता है, तो फिर दर्शकों के पाँच-सात वर्षीय बच्चे क्यों हँसते-ठठाते हैं ! मैं कहूँगा, यह समाज का सीखता-पलता बचकाना संस्कार है, सामाजिक अनुकरण है | कहते हैं, कठोर तप करते हुए महावीर स्वामी एक वर्ष और एक मास तक एक ही वस्त्र धारण किए रहे | उसके जीर्ण-शीर्ण होकर गिर जाने पर, वे नग्न होकर ही मग्न रहते, तपस्या करते तथा नग्न ही विचरते | बालकों आदि के झुण्ड उनके पीछे दौड़ते-चिढ़ाते, हल्ला मचाते, लोग मारते-पीटते भी, परन्तु वे मौन ही रहते, शांत ही रहते | और सर्वथा निर्बाध-निर्बंध, सर्वथा निराश्रय-निर्लिप्त, सर्वथा शुद्ध, सर्वथा एकाकी एवं स्वतन्त्र जीवन ही बिताते | फिर वर्षों की कठिन तपश्चर्या के उपरान्त एक दिन ऐसा भी आया कि वे समस्त रागद्वेषादि मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने में सफल हो गए | उनकी अन्त: और बाह्य दोनों दृष्टियाँ परिपूर्ण हो गईं, परिशुद्ध हो गईं | आज उन्हीं जिनों की मूर्तित दिगम्बरता का, उनके नैसर्गिक व्यसन-वसन का सब मखौल करते हैं, ठिठोली उड़ाते हैं | याद करने लगता हूँ, रूसो की उस प्राकृतिक तद्रूप इच्छा को, जो सुखी होने की ललक में फिर से अज्ञान, भोलेपन और निर्धनता की याचना करती है | याद करने लगता हूँ, आदिम जातीय नग्न स्त्री-पुरुषों के उस चित्र को, जिसे पोर्टब्लेयर से लौटे मेरे एक सहपाठी ने अपने ही कैमरे का खींचा बताकर दिखाया था | वहाँ अध्यापक-पद के लिए साक्षात्कार में गए थे | बताते थे, प्रकृति की खुली गोद में रहने वाले वे नग्न नर-नारी आदम-हव्वा-जैसे निष्कलुष ही होते हैं | कुछ अच्छाइयाँ तो उनमें इतनी ऊँची होती हैं, जो हम भव्यता-भोगियों के हाथ ही नहीं आतीं, जिन्हें हम छू भी नहीं सकते |
तुलसी-उद्यान में एक हाथ खण्डित हो जाने से पुरानी, सीधी आदमकद मूर्ति की जगह प्रतिस्थापित तुलसी की नई अ-तुलसी-मूर्ति, जो आसनबद्ध है, दूर से तो वाल्मीकि की मूर्ति-सी लगती है, किन्तु निकट जाने पर न तुलसी की, न वाल्मीकि की | गांधी जी ने, ऐसा नहीं कि कभी ठाट-बाट के कपड़े न पहने हों, जूता-जुर्राब न चढ़ाए हों | किन्तु जो गांधी हमारे चित्त में बार-बार चित्रित होते हैं, वे अन्य गांधी नहीं, मात्र धोती पहने, अधनंगे, अस्थि-पिंजर-से, लकुटी टेकते चलते महात्मा गांधी ही होते हैं | ऐसे ही हमारे ह्रदय में कोई और तुलसी नहीं, गोस्वामी तुलसीदास ही दृढ़ होने चाहिए, जो मानस-जैसे काव्यरत्नाकर और विनयपत्रिका-जैसी कवितामंदाकिनी की रचना कर चुके हों | जो भक्ति के, जो शब्द के, जो लोक-मांगल्य के ऊर्ध्व साधन में यथेष्ठत: ऊपर उठ चुके हों | रामनाम की पूरी ‘परतीति’ सजोए, दाढ़ी-मूँछ मुण्डित, सिर-मुण्डित भद्रता —
“तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम, न तु
भेंट पितरन को न मुड़हू में बारु है |”
(कवितावली, 7/67)
कि मुझ तुलसी की हार-जीत का दाँव रामनाम ने ही लगा रक्खा है, नहीं तो मेरे पास पितरों को भेंट चढ़ाने के लिए सिर पर बाल भी नहीं है — जिनकी प्रौढ़-वृद्ध अवस्था को रुचने-फबने लगी हो | इस दाढ़ी-बालवाली, इस जटा-जूटवाली मूर्ति में गोस्वामी जी के व्यक्तित्व का संभ्रम देख रहा हूँ या मेरी दृष्टि में ही दोष है, किससे कहूँ, कैसे कहूँ !
कभी भावभरित सीता की क्रीड़ा-लालसा और महाबाहु राम की आज्ञा से खगश्रेष्ठ गरुण ने एक मनोहर मणिमय पर्वत लाकर, विद्याकुण्ड के समीप पश्चिम दिशा में स्थापित किया था | अपने विश्रुत मणियुक्त रूप में तो वह रह नहीं गया, पर उसकी ऊँचाई से रघुवीरपुरी का दर्शन और ही आनंद देता है–एक-साथ, एक ही दृष्टि में, सर्वांग समेटता हुआ | समष्टि रूप से पतली-सी सरयू, उसका उत्तरवर्ती तट-प्रांतर और सुदूर दिखती वनस्पतियों, ग्राम्य बस्तियों का धुँधला आभास, नदी के दोनों किनारे गड़े बिजली के विशाल खम्भे, छोटे-बड़े मन्दिर, घर-बार और बीच-बीच के पेड़-पौधे सब एक सुखद दृश्य-संकरी की रचना करते हैं | निश्चित ही सूर्योदय और सूर्यास्त के समय ये दुगुना नेत्र-लाभ देते होंगे | सुना हूँ, हनुमानगढ़ी के ऊपरी छत से भी ऐसा ही दिखाई देता है | पर वह नगर के लगभग बीच में स्थित है; इसलिए दृश्य-चित्र चतुर्दिक और कुछ दूसरे ढंग का ही बनता होगा | जबकि मणिपर्वत शहर से कुछ अलग-थलग ही पड़ता है |
प्रतिवर्ष का यह रामझूला मणिपर्वत से ही आरम्भ होता है | श्रावण सुदी की मधुश्रवा तृतीया, जिसे अवधवासी जानकी-तीज के रूप में जानते-मानते हैं, को विभिन्न मन्दिरों की रामपालकियाँ वहाँ उतरती हैं | मूर्तियों के रूप में या सजे-सजाए किशोरों के रूप में अनेक राम-जानकी-युगल अनेक झूलों में झूलते हैं, झुलाए जाते हैं | किन्तु वे झूले वहीं समाप्त हो जाते हैं और पालकियाँ यथास्थान लौट आती हैं | फिर उसी दिन से, उसी मंगल-विधायक युगल को, उसी युगल के रूप-स्वरुप को झुलाने-मल्हारने के लिए धूम-धाम के साथ आती हैं, शेष विभावरियाँ, जो एक पखवारे से नाच-गा रहीं हैं, अनिद्र रजनियाँ, जो आज विदा हो रहीं हैं; सलोनी-सजीली झिलमिलाती झाँकियाँ, जो कल नहीं रहेंगी, जो आज बहुत सजी हैं | आज की यह पूनम तो उस पीहर जाती नववधू-सी चितवन-राग जगा रही है, जिसके वंकिम नयन-बान से हृदय-उदधि आंदोलित हो उठता है, जिसके सूक्ष्म नेत्र-संकेत किसी चोखी-मूक गाँस की करोदती हूक छोड़ जाते हैं | तबलों के मसृण ठेके, घुँघरूओं की क्षिप्र छमक, लीलाओं के रसमत्त मंचन, भाव-भजन के रसोद्रेक, रामनाम-रटन के आरोह-अवरोह आज सब अति के तान पर हैं | कई शत वर्ष बीते, भले ही दीपमालिकाओं का स्थान विद्दुत्मालाओं ने ले लिया है, पर समूची अयोध्या का चित्रबिंब बहुत कुछ गीतावली-सा ही है | राजसदन के सामने वाले मैदान में गड़ा ऊँचा चर्खी झूला देख, यह दृश्य —
“झुण्ड-झुण्ड झूलन चलीं, गजगामिन वर नारि |
कुसुंभि चीर तनु सोहहीं, भूषन बिबिध अपार |”
(गीतावली, 7/19/4)
साकार हो उठता है | चढ़ती-उतरती, झूलती नव नारियों को, उनके हिंडोल-चक्र को, वह भी इस राम-धाम में भक्त कवि को बिसारकर मैं नहीं देखता, देख ही नहीं पाता |
पर किसी भी मन्दिर में, मैं जैसे ही रामझाँकी से, रामहिंडोले से, उसके झूलन-दोलन से, राम-सीता के ऐसे सुख-समाज से,ऐसी मधुरोपासना से और ऐसे वैभव-विलास से साक्षात होता हूँ, मेरी कल्पना से सारी यथावत् चित्रावली धूल-धूल हो जाती है। तब मुझे एक ओर अशोक-वन की विरह-व्यथित-तन्वी, क्षरित-मेघ-नयनी, मलिन मुखी, खिन्न सीता की सुधि आती है और दूसरी ओर वन-वन भटकते, लता-विटप से, खग-मृग से, भ्रमर-निकर से खोई जानकी का अता-पता पूछ्ते, रह-रहकर बिलखते अधीर राम की या फिर उस निरीह, निर्वासित, आपद्सत्वा वैदेही की, जो घोर-घनान्ध विपिन में निस्सहाय, अकेली, सिसकती विलप रही हों और उस श्लथ-शुष्क-तन, स्थिर-सुदूर-नयन, विकल मन, मौन बैठे यज्ञरत कौशलेय की, जिनके वाम भाग में कोई दूसरी परिणीता नहीं, स्वर्ण-प्रतिमूर्ति- सीता ही स्थान पाती हों | जन्मभूमि से लेकर गुप्तारघाट तक के बस यही आर्द्र चरित्र मेरी स्मृति में बार-बार आने लगते हैं। आ-आकर आँखों के सामने उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, चित्त में पैठने-समाने लगते हैं। तब सावन मेले की सारी चहक-चमक फीकी लगने लगती है। मन उचटकर एकांत चाहने लगता है। भीड़ काटने लगती है। और बने-ठने मठाधीशों की, रामनामी ओढ़े रामभक्तों की विभवशालिनी मुस्कराहट जहर-सी लगती है, मुझे फाड़ खाती है।
तब मैं राम के, सीता के, लक्ष्मण के, उनके वेदना-विह्वल क्षणों के, उनकी व्यथा-विक्षत गाथा के और अधिक सन्निकट हो जाता हूँ। उनकी पीड़ा, उनकी पीड़ायुक्त अंतर्भुक्ति, उनके आँसू ही भोगना चाहता हूँ , उनके सुख, उनके सुख-निनाद नहीं, उनके वियोग, उनके वन, उनके वनवास को ही, उनके संताप को ही। तब मेरी रामनामी, मेरी हृद-रामनामी, मेरे अन्तस् की पीड़ा-पिछौरी और अधिक सत्व-संपुष्ट, और अधिक तंतु-संहृत, और अधिक रंगीन हो जाती है। और मैं और अधिक करुण हो जाता हूँ।