मेरी शवयात्रा / प्रमोद यादव
जी हाँ, मेरी शवयात्रा में आप सब सादर आमंत्रित हैं। समय, काल, ‘काल ‘आने के चंद घंटों बाद सूचित किया जायेगा। संभवतः विश्व का मैं पहला व्यक्ति हूँ जो जीते-जी अपनी शवयात्रा का निमंत्रण दे रहा हूँ, वरना मरने के बाद रिश्तेदार ही इस कार्य को अंजाम देते हैं। इस अंतिम-यात्रा का अर्थ सभी भली-भांति जानते हैं। अन्य यात्रा-वृतांततरों की तरह यह सुखद नहीं होता, पर जो’ लेटकर ‘जाता है, उसके लिए यह निश्चित ही आल्हादकारी होता है। सारी दुनियावी झंझटों- जर, जोरू, जमीन, थाना, कचहरी, अस्पताल से मुक्ति जो मिल जाती है।
बचपन से लेकर आज तक तरह-तरह की शव-यात्राएं देखी । किसी यात्रा में केवल चार-छह लोग ही लुटे- लुटे से जा रहें हैं तो कहीं सौ-दो-सौ का काफिला किसी चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी संघ की रैली जैसे चुपचाप कदमताल करते आगे बढ़ रहें हैं। कहीं- कहीं तो हजार-दो-हजार की भीड़ वाली शवयात्रा जुलुस की शक्ल में दिखती है जैसे किसी नेता को छोड़ने एरोड्रम जा रहें हों । किसी यात्रा में घोर सन्नाटे के बीच केवल “राम-नाम-सत् “की गूंज है तो कहीं बाजे-गाजे के साथ “रघुपति राघव राजाराम “की धुन पर लोग हंसते-बतियाते, थिरकते जा रहें हैं । कई बार तो ऐसा भी होता है कि जानेवाले के साथ कोई भी जाने को तैयार नहीं ( बचारे अनाथ जो होते हैं ) तब मोहल्लेवाले ही मज़बूरी में पुण्य कमाने की जहमत उठाते हैं। अब तक तो स्वर्गवासी को कंधे पर ढोकर ही पहुँचाने का रिवाज रहा पर अब जमाना बदल गया है, लोग सुविधाभोगी हो गए हैं। आजकल स्वर्ग-रथ नामक वैन आ गया है। फूलों से सुसज्जित वैन। अब इसमें लिटाकर ले जाते हैं। जब कभी भी इस वैन को देखता हूँ- इसमें एक कमी हमेशा खटकती है- लाल-बत्ती की। लाल-बत्ती की लालसा लिए कईयों की बत्ती समय-असमय गुल हो जाती है। मरने के बाद तो इन्हें वी। आई। पी। ट्रीट मिले। स्वर्ग-रथ आने से एक फायदा जरुर हुआ है- अब स्वर्गवासी ही सबसे पहले मुक्तिधाम पहुंचाता है, जैसे उसे ही जल्दी हो। बाकी सगे-सम्बन्धी, दोस्त-यार, मुहल्लेवासी बड़े आराम से पीछे-पीछे चाय-सिगरेट पीते, गप्पे हांकते पहुँचते हैं। सबको मालूम होता है- घंटे- डेढ़ घंटे बाद ही हाजिरी होगी।
शवयात्रा में रौनक तब होती है जब मरनेवाले को यादकर कोई छाती पीटते, रोते-चीखते शमशान तक जाये। जाहिर है कि ये काम बेटा, भाई, भतीजा या काका ही करेगा। दोस्त-यार तो ठीक से सीरियस भी नहीं हो पाते, हमेशा हसीं-ठठ्ठे की आदत जो होती है- वे क्या खाक रोयेंगे? कहते हैं- सगों के होने से ( और रोने से ) जाने वाले की आत्मा को बड़ी राहत मिलती है । मेरे एक मित्र थे, विमान-दुर्घटना में मारे गए, जब शव आया तो दो दिन तक मरचुरी में आराम करता रहा । गोवा से पत्नी के आने के बाद वे रिहा हुए । उनकी यात्रा में कोई रिश्तेदार नहीं, कोई रोनेवाला नहीं, केवल कुछ विभागीय मित्र ही चुप्पी साधे साथ निभा रहे थे । ऐसा नहीं कि उनका कोई सगा न था- दो बेटे थे, पर दोनों विदेश में। एक को छुट्टी नहीं मिली और दूसरे को
फ्लाइट नहीं मिली । बेचारा मित्र बिना ‘मुखाग्नि ‘के चला गया। उसकी आत्मा आज भी भटक रही है । बच्चों को विदेश भेजने से यही हश्र होता है इसलिए मैंने अपने बेटो को यहीं म्युनिस्पल में सेट कर अपनी अंतिम यात्रा को सार्थक बनाने का जुगाड कर लिया है। मेरी आत्मा के भटकने का कोई चांस नहीं ।
यात्रा कैसी होगी। कौन-कौन और कितने लोग होंगे। यात्रा का रूट क्या होगा। स्वर्ग-रथ पर जाना है या कन्धों पर। अखबार में फोटो कौन सी लगेगी। कंडोलेंस का जिम्मा किसका होगा। यह सब मैंने सोच लिया है। अखबार में तो “जवा-मर्द “वाली जवानी के दिनों की फोटो ही देनी है ताकि समकालीन मित्रों (प्रेमिका, गर्लफ्रेंड वगैरह) को भी रुखसती का पता चले और वे दुखीं हों। ताज़ी फोटो लगने से धोखा हो सकता है। एक बात और पहले से बता दूं कि मुझे स्वर्ग-रथ में जाने का कोई मूड नहीं। मुझे बिलकुल पसंद नहीं कि मेरी यात्रा में कोई चाय-सिगरेट पीते जाये, गप्पें हांकते जाये। यह भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं। मैं तो अपनों के कन्धों पर जाना पसंद करूँगा । जिंदगी भर सबको ढोया, कम से कम एक दिन तो मुझे ढोने का कष्ट करें। शतायु नहीं हूँ अतः बाजा-गाजा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वैसे भी जिंदगी भर डीजे, बैंड, धमाल-बाजा से त्रस्त रहा, मरने के बाद तो शांति मिलनी चाहिए । यह हर-एक स्वर्गीय का “मरण-सिद्ध अधिकार “है।
आगे का कार्यक्रम यूँ है कि क्रियाकरम के पश्चात मेरे सम्मान में जो कसीदे (कंडोलेंस) कढे (पढ़े) जायेंगे – उसका मसौदा तैयार है। शहर के उदीयमान साहित्यकार श्रीयुत दुर्दांतसिंह को यह महती जिम्मेदारी नवाजने का इरादा है। घोर साहित्यिक नगरी में भी आज तक इन्हें एक ढंग का “प्लेटफार्म ‘नहीं मिल पाया जिससे कि अपनी प्रतिभा बिखेर सके। विनती है कि अधिक से अधिक समय देकर हम दोनों की आत्मा को शांति प्रदान करें। दुर्दांतसिंह के बारे में बता दूं कि जब वे बोलने पर आते हैं तो अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती है, अतः निवेदन है कि कोई उसे डिस्टर्ब न करे। वे स्वतः चुप हों तभी ‘कंडोलेंस ‘को ‘कनक्लूड ‘माना जाये। वैसे अब तक धारावाहिक बोलने का उनका रिकार्ड छह-सात घंटों का है। कमजोर दिल के लोग ‘कंडोलेंस ‘में हिस्सा न लें । अंत में पुनः निवेदन। यात्रा में शिरकत करने प्रतिदिन नियमित अखबार पढ़ें ताकि पुण्य कमाने का सुनहरा चांस मिले । मौत तो आनी है, आएगी एक दिन। मौत से किसकी रिश्तेदारी है। आज मेरी तो कल तेरी बारी है।