मेरे आम / राजकिशोर
आम के बारे में लतीफे बहुत-से होंगे, मैं एक ही जानता हूँ। कहते हैं, एक सज्जन के पास एक आदमी आया और बोला, मियाँ जी, आम आए हैं। मियाँ जी ने जवाब दिया, तो मुझे क्या? आदमी ने बताया, आपके लिए आए हैं। मियाँ जी ने पहले जैसी ही तुर्शी के साथ जवाब दिया, तो तुझे क्या?
मुझे पूरा यकीन है कि यह किस्सा आम का महत्त्व समझाने के लिए नहीं गढ़ा गया होगा। इसमें आम की नहीं, नैतिकता की खुशबू (कुछ लोग कहेंगे, बदबू) है। सीख की बात यह है कि जो चीज तुम्हारी नहीं है, उससे कोई मतलब मत रखो। संस्कृत की एक उक्ति में बताया गया है कि दूसरे के धन को तृण की तरह, दूसरे की स्त्री को माँ की तरह समझो आदि-आदि। अच्छा हुआ कि मानवता ने इस सीख के कम से कम एक हिस्से को गंभीरता से नहीं लिया। आज का अर्थशास्त्री कहेगा, यदि नैतिक शिक्षाओं पर अमल किया जाता, तो सभ्यता का विकास ही नहीं होता। दूसरे के धन को तृणवत समझने की बात मान लेने पर पूँजीवाद चुल्लू भर पानी में डूब नहीं मरता? साम्यवादी विद्वान तक मानते हैं कि दास प्रथा ने सभ्यता के विकास में अद्वितीय योगदान किया है। अगर दास न होते, तो उन शुरुआती दिनों में अतिरिक्त मूल्य कहाँ से पैदा होता और अतिरिक्त मूल्य पैदा नहीं होता, तो सभ्यता और संस्कृति का विकास कैसे होता? हम पूर्व-सामंती युग में ही टापते रह जाते। इसी तरह, पूँजीवादी व्यवस्था अगर श्रमिकों के अभूतपूर्व शोषण से भारी अतिरिक्त मूल्य नहीं पैदा करती, तो इतनी संपन्नता कहाँ से आती और टेक्नोलॉजी के विकास के लिए निवेश कैसे हो पाता? भूमंडलीकरण तो पूरा का पूरा ही पराए धन को हस्तगत करने की कला पर टिका हुआ है। जहाँ तक पर-दारा का सवाल है, उसकी ओर ललचाई निगाहों से देखने में सभ्यता के विकास में कितना योगदान हुआ है, इस पर कोई अच्छी पुस्तक देखने में नहीं आई है। विद्वानों से निवेदन है कि वे इस विषय पर प्रकाश डालने की कृपा करें। वैसे, अनेक जानकार लोगों का कहना है कि यह अकादमिक शोध का विषय नहीं, प्रयोग और अनुभव का मामला है। जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। बताते हैं कि आधुनिक साहित्य में यह 'गहरे पानी पैठ' का मामला नहीं रहा। यहाँ समुद्र तल के बजाय समुद्र तट पर ज्यादा मोती मिलते हैं।
आप सोच रहे होंगे, मैं पुराने विद्वानों की तरह विषय पर आने में ज्यादा समय ले रहा हूँ। ऐसी बात है भी और नहीं भी है। हर भारतीय मुलाकात के दौरान या फोन पर आधे से ज्यादा समय इधर-उधर की बातें करने में खो जाता है। दर्जनों बार 'और क्या हाल है?' पूछने के बाद ही वह विषय आता है कि कहाँ सिफारिश भिड़ानी है या कहाँ कौन-सा काम करवाना है। मैं इस टेकनीक का प्रयोग लिखने में करता हूँ, क्योंकि तुरन्त विषय पर आ जाने से बहुत जल्द खलास हो जाने का डर रहता है। भला हो उन संपादकों का जो लेखों की शब्द सीमा घटाते-घटाते आठ सौ पर ले आए हैं। सो अब पृष्ठभूमि बनाने में मेहनत नहीं करनी पड़ती। लेकिन निवेदन है कि मैं यह बताने के लिए शुरू से ही पृष्ठभूमि बना रहा हूँ कि मेरे आम मेरे नहीं रहे, क्योंकि अब उनका निर्यात बढ़ने लगा है। अच्छे आम भले ही भारत में पैदा होते रहें, पर वे अमेरिकी रस मीमांसा का विषय बन जाएँगे और भारत सरकार खुश होती रहेगी कि चलो, आम भी हमारा विदेशी मुद्रा कोष बढ़ाने में सहयोग कर रहे हैं। मैं चीख-चीख कर कहना चाहता हूँ कि यह भारतीय आम का अपमान है, भारत की रस परम्परा का अपमान है और भारत के आम आदमी का अपमान है। लोकतंत्र खास को भी आम बनाने की कला का नाम है, यहाँ तो आम को भी खास बनाया जा रहा है।
आम भारत में पैदा होता है, तो उस पर सबसे पहला हक हम भारतीयों का होना चाहिए। अभी तक किसी ने यह दावा नहीं किया है कि भारत में आम का उत्पादन इतना अधिक हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जी भर कर, मसलन आम फलने के मौसम में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कम से कम एक, आम खाता रहे, तब भी हमारे पास निर्यात करने के लिए आम की कमी नहीं रहेगी। भारतीय ज्यादा हैं, आम कम। अलफांसो जैसे आम तो, जिन पर कलावादियों को कविताएँ लिखनी चाहिए और ललित निबन्धकारों को निबन्ध, और भी कम हैं। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता का ही नहीं, मानवता का भी तकाजा है कि आधे से ज्यादा भारतीयों को आमों की उचित संख्या से वंचित कर विदेशी मुद्रा कमाने के लिए उसका निर्यात करना अपराध है। अगर अस्पृश्यता मानवता के प्रति अपराध है, अगर युद्ध मानवता के प्रति अपराध है, तो पैसे के लालच में आम का देशांतरण भी मानवता के प्रति कोई मामूली अपराध नहीं है। ईश्वर ने कितने लगन से आम जैसा रसीला और खुशबूदार फल पैदा किया होगा और उसी आम को हमारे व्यापारी पता नहीं कहाँ-कहाँ ले जाकर बेच रहे हैं। यह तो कुछ वैसी ही बात हुई कि हम अपनी सुष्मिता सेनों और ऐश्वर्या रायों को अमेरिका और यूरोप की मंडियों में नीलाम कर दें। अगर मानव व्यापार यानी दास प्रथा फिर से खोल दी जाए, तो ऐसा होने में हफ्ता भर भी नहीं लगेगा। मेरे जैसे अनेक लोगों की मान्यता है कि फलों की दुनिया में आम का स्थान वही है, जो सुन्दरियों के समारोह में सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय का है।
अभी तक हम राम के लिए लड़ते आ रहे हैं। सुनते हैं कि उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में इस बार 'मेरे राम' कोई मुद्दा नहीं बन पाए। इसके लिए थैंक्यू। लेकिन यह अगर खुश होने का मामला है, तो धिक्कार की बात यह है कि 'मेरे आम' को चुनाव का मुद्दा नहीं बनाया गया। आम के अर्थशास्त्र को भारत की जनता के सामने ठीक से रखा जाए, तो बहुत आसानी से उसे समझाया जा सकता है कि हमारे विदेश व्यापार में कहाँ-कहाँ विसंगतियाँ हैं और भूमण्डलीकरण हमारे लिए क्यों बुरा है। मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि जो मुझे 'मेरे आम' से वंचित रखता है, वह मुझसे 'मेरे राम' को भी छीन रहा है। राम इतने कृपालु न होते, तो आम कहाँ से आते? बताइए मनमोहन सिंह जी, बताइए मोंटेक सिंह अहलूवालिया जी! अगर आम की राष्ट्रीय चोरी के खिलाफ मुझे थाने में एफआईआर लिखानी पड़े, तो सबसे पहले मैं आप दोनों को ही नामजद करूँगा।