मेरे गुरुदेव / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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जिनसे मैंने दंड ग्रहण किया उन गुरुदेव महाराज का नाम था श्री स्वामी अच्युतानंद सरस्वती। वे संस्कृतज्ञ न थे। केवल गीता आदि का पाठ कर लेते थे। लेकिन प्रेम और भक्ति की मूर्ति ही थे। मेरे जैसे तार्किक और रूखे मनुष्य के दिल को भी उन्होंने बलात अपनी ओर आकृष्ट किया था, यही क्या कम है? जब कभी भक्ति की बात आ जाती तो ईधर बोलते जाते और उधर आँखों से प्रवाह चलता था! यह तो मैंने सैकड़ों बार देखा। जरा सी भी भगवान की बात निकली कि आँखें छलछला आई! जब अत्यंत वृद्ध और अशक्त प्राय हो गए तभी विश्वनाथ बाबा के मंदिर में जा कर दर्शन करना बंद किया। तब चर्चा होने पर स्वयं ही कह बैठते जलपूर्ण आँखों के साथ ही, कि “क्या वे मंदिरनाथ हैं? वह तो विश्वनाथ हैं। वे तो सर्वत्र हैं। फिर मंदिर में क्यों जाऊँ? वे कैद तो हैं नहीं उन पंडों के हाथ।” नित्य दर्शन का फल अंत में यह अनुभव और अपार संतोष! यही तो भक्ति का असल रूप हैं।

वे सदा श्वेत भस्म लगाते थे। भेंट होने पर हमें भी देते थे। रुद्राक्ष की माला पहने रहते। उनकी सुमिरनी (हाथ में पड़ी रहनेवाली हरदम जपने की छोटी माला) बराबर चलती रहती। उसे कभी विराम नहीं मिलता। संयोगवश जब वह हाथ में नहीं रहती तो उँगलियों पर अँगूठा ही घूमा करता और सुमिरनी का काम उसी से निकल जाता। उँगलियोंवाला यह अभ्यास तो बहुत ज्यादा हो गया था। एक प्रकार से साँस की तरह उनकी यह स्वाभाविक चीज हो गई थी। इसीलिए निद्रा के समय भी उनकी उँगलियों पर अगूँठा घूमता ही रहता था। जानें कितनी बार मैंने स्वयं यह दृश्य देखा, जब कि अकस्मात मैं पहुँच गया और वे नींद में थे।

उनकी आँख और उनके दाँत मरते दम तक ठीक रहे। चश्मा लगाने की उन्हें जरूरत उस सौ वर्ष की उम्र में भी न हुई। दाँतों से वृद्धावस्था में भी चबेनी चबा लेते थे। मैं हैंरत में रहता। उन्हें सुँघनी सूँघने की सख्त आदत थी। पीछे तो यह हालत थी कि बाजार की बनी जिस सुँघनी के नाक में छुलाते ही हम छीं-छीं करने लग जाते उसका उन पर कुछ असर ही न होता। इसलिए काली मिर्च की अत्यंत महीन बुकनी उसमें मिला कर सूँघा करते थे। तब कहीं उसकी तेजी का भान उनको होता था। उनका कहना था कि बाल्यावस्था से ही सुँघनी से उनका संसर्ग हो गया था। वह यह भी कहते थे कि मस्तिष्क के विकार को यह रहने नहीं देती। उसमें गर्मी का नाम नहीं रहता। इसीलिए आँखें ठीक हैं और दाँत भी। मैंने औरों से भी ऐसा सुना है। कह नहीं सकता कि बात क्या है। इसकी पूरी-पूरी जाँच हो तो ठीक। क्योंकि आज कल तो दाँतों और आँखों की बीमारी से प्राय: सभी परेशान हैं। इसलिए अगर यह सच हो तो बड़ी आसान दवा है।

गुरु जी महाराज अतिथि-सत्कार में एक ही थे। पास में खाने-पीने की चीजें बराबर अपनी कुटिया में रखते और जो जाता उसे बिना कुछ खिलाए मानते ही न थे। मेरी तो सदा से खाने-पीने के बारे में सख्त नियम की आदत रही है। लेकिन उनका निश्छल स्वभाव मुझे भी विवश करता। सीधे वह इतने थे कि सभी बातें कह देते। छिपाते एक भी न। कभी-कभी ऐसा करने से अप्रतिष्ठा की संभावना रहती है। क्योंकि अपनी कमजोरियाँ और छिद्र सभी को विदित हो जाते हैं। मगर उन्हें कोई परवाह न थी। उनका हृदय अगाध और स्वच्छ गंगा जल की तरह शुद्ध था। वहाँ छल-कपट की गुंजाईश थी ही नहीं। मैं कई ऐसी घटनाएँ जानता हूँ जिन्हें प्रकट करने की हिम्मत किसी को भी नहीं होती। मगर उन्होंने उन्हें कभी नहीं छिपाया। फलत: मरते दम-तक उनकी पूजा होती ही रही। भगवान में तो उनका अपार विश्वास था। खाने-पीने की फिक्र उन्हें इसीलिए न थी। उनका भंडार भरपूर भी शायद इसी से रहता था।

कभी-कभी ऐसा होता कि अपने बचपन की बातें सुनाते थे। कहा करते कि एक रुपए की तीन मन पक्की तोल खेसारी कोई पूछता न था। हम गाँव के बनिए के पास तौल कर जबर्दस्ती रख आते थे कि वर्ष-दो वर्ष में जब हो सके इसका दाम देना। इसी प्रकार खेती की और चीजों के बारे में भी कहते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश की यह बात वह कहते थे। बनारस जिले में ही उनका जन्म स्थान था गंगा से दक्षिण। कहते थे कि एक गौ उनने पाली थी। उसकी सेवा अपने हाथों करते थे। वह कामधेनु थी। जब चाहे उससे दूध दुह लेते थे। कोई संन्यासी या महात्मा यदि समय-कुसमय पहुँच जाए तभी ऐसा करना पड़ता था। उनने महात्माओं की सेवा खूब ही की थी।

अंत में उनका एक उपदेश सुनाऊँगा जो और किसी से मुझे नहीं मिला। उन्होंने साधु और असाधु की जो परिभाषा अपने शब्दों में की वह स्मरणीय होने के साथ ही काव्यमय थी। एक दिन उन्होंने इसी प्रसंग में कहा कि “गुणग्राही साधु, अवगुणग्राही असाधु। अवगुणग्राही साधु, गुणग्राही असाधु”। फिर मुझसे चट पूछा कि इसका मतलब समझा? मेरी समझ में तो आया नहीं। अत: मैंने कहा कि नहीं। यह महाभारत के कूटश्लोक के तरीके की चीज थी। फिर समझता कैसे? तब उन्होंने समझाया कि “साधु का यह काम है कि दूसरों के गुणों को ही देखे। उनके हजार अवगुणों पर दृष्टि करे ही न। इसी प्रकार अपने सह्त्र गुणों पर दृष्टि न रख यदि एक भी अवगुण हो तो बार-बार उसी पर दृष्टि लाए। विपरीत इसके असाधु वह है जो गैर के हजार गुणों को छोड़ उसके ऐब को ही देखता फिरे। पर अपने सह्त्र छिद्रों को न देख एकाध गुण भी यदि अपने में पाया जाए तो मुनादी करता रहे।” यह एक नई चीज मुझे उनसे मिली इतनी नई और ऊँची कि कह नहीं सकता। मैं उनकी सेवा नहीं कर सका इसका दु:ख मुझे सदा रहेगा। कुछ समय तो पढ़ने से ही फुर्सत नहीं थी। पीछे सार्वजनिक कामों से ही। इस बीच शीघ्र ही वे इस छल-प्रपंच से भरी दुनिया को छोड़ कर चल बसे। संतोष यही रहा कि शरीरांत के समय मैं उनके चरणों में ही था।