मेरे घर आना जिंदगी / भाग 10 / संतोष श्रीवास्तव्

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हेमंत की मृत्यु के बाद मेरी बर्बादी के ग्रह उदय हो चुके थे। मीरा रोड का घर हेमंत के बिना खंडहर-सा लगता। जीजाजी का मकान था अहमदाबाद में जो खाली पड़ा था। मैंने प्रस्ताव रखा "अहमदाबाद शिफ्ट होना चाहती हूँ आपको किराया दूंगी मकान का।" उन्होंने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। मुझे मुंबई से बोरिया बिस्तर समेटना था। हमेशा के लिए छोड़नी थी मुंबई इसलिए फ्लैट भी बेचना था। अच्छा खरीदार भी मिल गया। तीन लाख में खरीदा फ्लैट सात लाख में बिक रहा था। (इन दिनो उस फ्लैट की कीमत 80 लाख है) मैं खुश थी। पैकर्स एंड मूवर्स सामान पैक कर रहे थे।

रंजना सक्सेना ने अपने घर मेरी विदाई पार्टी रखी। एक शाम मित्रो के साथ कविता, ग़ज़ल और बिछड़ने की भावुकता के संग यादगार गुजरी।

तय हुआ सामान पहले लोड होकर गोदाम में रखा जाएगा और हमारे अहमदाबाद पहुँचने पर सामान रवाना होगा।

2 दिन बाद रवानगी थी कि तभी जीजा जी का फोन आया उन्होंने मकान किराए से देने को इनकार कर दिया। कहा हम कुछ ही महीनों में अहमदाबाद शिफ्ट हो रहे हैं। तुम कोई दूसरा घर तलाश लो।

हालांकि वे अपने जीते जी कभी अहमदाबाद शिफ्ट नहीं हुए। ग्वालियर में ही उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका वह घर भी उनके सबसे छोटे दामाद श्याम और अमीता ने ओने पौने दामों में बेचकर सारा रुपया लंदन जाकर उड़ा दिया था।

अब क्या हो! फ्लैट भी बिक चुका था। सामान गोदाम में। हमारे हाथों में अहमदाबाद की टिकटें पर कटे पंछी-सी फड़फड़ा रही थी। आनन-फानन में औरंगाबाद में घर ढूँढा गया और हम वहाँ शिफ्ट हुए। जीजाजी अमिता के साथ ग्वालियर में थे पर उन्होंने मुंबई से "मैं कहाँ गई?" इस बारे में कोई चिंता प्रकट नहीं जबकि उन्हें पता था रमेश बीमार है और मैं अकेली। फिर भी इतना बड़ा धोखा!

मुश्किल से 4 महीने औरंगाबाद में गुजार पाई कि मन उखड़ने लगा। एक दिन हरीश पाठक का मुंबई से फोन आया मैंने कहा "मुंबई नहीं छोड़ना था। रमेश बीमार है और मैं अपसेट।" "आप ग्वालियर शिफ्ट हो जाइए। वहाँ जहीर कुरैशी से कहकर मकान दिलवा देता हूँ। साहित्यिक माहौल है वहाँ। अच्छे डॉक्टर हैं। आपका मन लग जाएगा।"

राहत मिली सुनकर। हरीश जी बोले "आप से प्रादेशिक रिश्ता है। सब अच्छे से हो जाएगा।"

ग्वालियर में जहीर कुरैशी ने डुप्लेक्स बंगले का ऊपर वाला हिस्सा टू बेडरूम हॉल किचन किराए पर दिला दिया।

ग्वालियर में 6 महीने रही और इन 6 महीनों के दौरान न तो जीजाजी अमिता को मेरी बर्बादी का अफसोस हुआ और न मैंने ही नाराजगी प्रकट की। सब कुछ को नियति मान मैंने स्वीकार कर लिया। मेरे पास दूसरा उपाय भी न था। जिंदगी का जुआ मुझे अकेले ही ढोना था।

मन बहल जाता जब पवन करण, महेश कटारे घर आते। एक दिन जबलपुर से ज्ञानरंजन दा और उनकी पत्नी भी घर आए। मैंने बड़े उत्साह से डिनर तैयार किया। ड्राइंग रूम देखकर ज्ञानरंजन दा बोले

"अरे इतना तामझाम इकट्ठा करने की क्या जरूरत थी। तुम तो संतोष सोफे वगैरह हटाकर चटाई बिछाओ। टिकने के लिए तकिये ले लो और टिफिन लगवा लो। चौके से भी फुरसत मिलेगी।"

मन रो पड़ा। यानी वह नहीं चाहते कि मैं ढंग से जियूं। पता नहीं ऐसा क्यों उन्होंने कहा। मैंने तो कभी उनसे आर्थिक मदद नहीं ली। जब भी घर आए खातिर तवज्जो में कसर नहीं रखी। मुंबई में भी खाना-पीना, रमेश के साथ शराब, जाते समय चांदी के गणपति की भेंट भी दी।

रमेश अशक्त हैं। बीमार हैं। महंगा इलाज दवाइयाँ सब अपने बलबूते पर ही तो कर रही हूँ।

ताज्जुब होता है न जाने कैसे लोग ऐसा सोच लेते हैं और मैं महामूरख, अंधे फैसले करने वाली जैसे भटकाव मेरी नियति शिला पर गहरे खुदा है। अपने आप से सवाल, सौ-सौ बार सवाल कि क्यों गई औरंगाबाद? आई क्यों ग्वालियर?

प्रमिला इस इरादे से ग्वालियर आई कि वह भी मेरे साथ रहेगी। जॉब ढूँढेंगी कोई। पर मेरी हालत देखकर घबरा गई बोली "तुम राजस्थानी सेवा संघ के विनोद टीबड़ेवाला को सारी परिस्थितियाँ लिखते हुए उनसे नौकरी मांगो।" पत्र लिखा जवाब दो महीने बाद आया।

रमेश की हालत बिगड़ती जा रही थी। उनकी इंद्रियाँ उनके कंट्रोल में नहीं थीं उनके दैनिक कार्य भी बिस्तर में ही सिमट गए थे। मैं घबरा चुकी थी। सोचा अगर मुंबई में नौकरी मिल जाती है तो तुरंत रमेश को मुंबई ले जा भी नहीं सकती।

लिहाजा रमेश को लेकर लखनऊ गई इस उम्मीद में कि शायद कुछ दिन वहाँ पनाह मिल जाए और जब मैं मुंबई सेटल हो जाऊँ तो उन्हें वापस ले आऊँ पर रमेश पहले ही अपनी करतूतों से सबसे बिगाड़ मोल ले चुके थे।

मैं अपने प्रयास में असफल रही। उम्मीद की हर किरण अंधकार में खो चुकी थी और मेरे कंधों पर रमेश की बीमार लकवाग्रस्त जिंदगी का बोझ था। मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? क्यों मुझे प्यार करने वाले मेरे बाबूजी, विजय भाई और हेमंत असमय दुनिया से चले गए? क्यों मैंने रमेश के साथ अनचाहे, अजनबीयत भरे जीवन की बेड़ियों में स्वयं को जकड़े रखा और क्यों दुनियादारी के तमाम तकाजों के बावजूद भी एक नकारात्मक सम्बंध के बोझ को मैं अपनी अंतरात्मा के कंधों से उतार नहीं पा रही हूँ। लगता है जैसे जिंदगी दो शून्यों के बीच झूलता एक पुल है और मैं उस पुल पर दम साधे चल रही हूँ कि अब टूटा, अब टूटा। मेरे ही भीतर बचना था यह सब?

लखनऊ से हम सीधे गुजरात गांधीनगर चले गए। जहाँ प्रमिला की बेटी यामिनी सर्विस करती थी।

मुझे घोर निराशा ने घेर लिया था। अपने चारों ओर अंधकार से घिरा हर पल नजर आने लगा था। सारी परिस्थितियों के लिए खुद को कोसने के अलावा और मेरे पास कुछ न बचा था। कि अचानक एक फिल्मी स्टाइल का ब्रेक मिला। मुंबई से एक रोमांचित करता फोन आया कि "आज शाम 7: 00 बजे घनश्यामदास पोद्दार हाई स्कूल मुंबई में मुख्य अध्यापिका के पद के साक्षात्कार के लिए आपको आना है"

इस सूचना पर विश्वास करना कठिन था। फिर भी विश्वास किया। खुशी की उठती लहर को कंट्रोल करते हुए मैं इस सोच में डूब गई कि इतनी जल्दी मुंबई जाना कैसे संभव है?

यह तभी संभव है जब मैं फ्लाइट लूं। लेकिन फ्लाइट के रुपए? टिकट? पर न जाने कैसे अविश्वसनीय तरीके से सारा इंतजाम होता चला गया। सारी फ्लाइट्स बुक थीं बस एयर इंडिया में आखरी टिकट मेरा ही इंतजार कर रही थी।

मेरी फ्लाइट ने रात 8: 00 बजे सांताक्रुज एयरपोर्ट पर लैंड किया। जबकि साक्षात्कार का समय 7: 00 बजे का था। मैं अंधाधुंध ऑटो की ओर भागी। इस बात से बेखबर की एजुकेशन डायरेक्टर ने मेरे लिए गाड़ी भेजी है और ड्राइवर मेरे नाम की तख्ती लिए खड़ा है। एजुकेशन डायरेक्टर लगातार ड्राइवर से पूछ रहे हैं "संतोष जी आईं?" ड्राइवर का घबराया जवाब "सारी फ्लाइट्स आ चुकी हैं पर मैडम का कहीं पता नहीं।" फिर मेरा ऑटो से उतरना, साक्षात्कार के लिए मेरा इंतजार करते पदाधिकारी। 2 घंटे तक मुझसे हुई उनकी लंबी बातचीत और मेरे सम्मान में दिए शानदार डिनर के बाद मेरे हाथों में नियुक्ति पत्र और हवाई किराया वापसी की टिकट सहित थमाना और यह भी कि

नौकरी के साथ फर्निश्ड फ्लैट भी जेबी नगर अंधेरी जैसे पॉश इलाके में दिया जाएगा।

6 सितंबर को आपको ज्वाइन करना है। "

मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। मन कर रहा था हवा में उड़ी और गाऊँ आज मैं ऊपर आसमां नीचे। लेकिन इस खुशी को हासिल करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी था।

मीरा रोड का घर बेचने से लेकर अब तक की मेरी भटकन वेदना अवसाद बार-बार चोट खाने की पीड़ा का जो अंबार था वह मेरे हौसलों की मीनार में तब्दील हो गया 6 सितंबर में अभी 25 दिन का वक्त था फिर दौड़ शुरू हुई गांधीनगर से ग्वालियर की ग्वालियर में सारा सामान औने पौने दामों में बेचकर मैं मुंबई शिफ्ट हो गई बहुत दिनों बाद जिंदगी को पटरी पर आते देखा।

मेरे मुंबई लौट आने तक के मेरे जीवन संघर्ष को प्रगतिशील आकल्प के लिए डॉक्टर शोभानाथ यादव ने लिखवाया जो अक्टूबर दिसम्बर 2007 अंक में पत्रिका के आत्मसंघर्ष स्तंभ में "फिर आंधियों को मेरा नाम और पता दे दे" शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके अगले अंक में डॉक्टर सुशीला गुप्ता मानद शोध निदेशक, संपादक हिंदुस्तानी जुबान का पत्र प्रकाशित हुआ-

" संतोष श्रीवास्तव का आत्म संघर्ष मन को छू गया। किस तरह एक महिला संघर्षों का सामना करती है और अपने कर्तव्य निर्धारण और उसकी पूर्ति में कहीं भी पीछे नहीं हटती इस का अनूठा परिचय मिला। संतोष निस्संदेह रचनाधर्मिता के प्रति समर्पित हैं। उनमें आंधियों से बचने की ख्वाहिश कम उन से टकराने की क्षमता ज्यादा है। गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की पंक्तियाँ यहाँ मौजूं प्रतीत हो रही हैं

मुझे अपनी नौका का लंगर उठाना ही होगा / हाय किनारे खड़े यूं ही / निष्क्रियता में समय / नष्ट हुआ जाता है।


6 तारीख ने लिया भी दिया भी। 6 सितंबर को नौकरी ज्वाइन की और 6 मई को रमेश की मृत्यु हो गई। रमेश के साथ सम्बंधों में कोई पुख्ता बात रही न थी लेकिन मैंने अंतिम समय तक उनका साथ निभाया। उनके दाह संस्कार से लेकर अस्थीपुष्प विसर्जन, हवन, तेरहवीं और बरसी के सारे अनुष्ठान मेरे ही हाथों हुए। उनके जीवन में केवल मैं थी पर यह बात वे समझ नहीं पाए। न जाने क्यों। लेकिन किन्ही मायनों में रमेश की मृत्यु मुझे भारी पड़ गई।

जब हेमंत गया था तो मेरे साथ सब की सहानुभूति थी। सब मुझे हर तरह की मदद देने को उतावले रहते थे। अब मदद के मायने बदल गए। सहानुभूति के फलसफे बदल गए। अब मेरी ओर उठे मदद के हाथ मुझसे कुछ और चाहते थे। 5 लंबे वर्षों की बीमारी में सूख कर कांटा हो गई देह लिए रमेश बिस्तर पर पड़े कहीं नजर ही नहीं आते थे लेकिन फिर भी उनका वजूद था जो मुझे सुरक्षा के घेरे में लिया था। वह घेरा टूट चुका था और

दीवार क्या गिरी मिरे खस्ता मकान की

लोगों ने मेरे सहन में रस्ते बना लिए

हालांकि अब मेरे पास वक्त ही वक्त था। नौकरी को समय देने के बाद भी बाकायदा आधा दिन मेरा अपना था। समरलोक में अंगना कॉलम चल ही रहा था। इस कॉलम के जरिए मैं कई औरतों के मन की गांठों को खोलती॥ हजारों पाठकों में अपनी जगह बनाती चली गई थी। मेरे लेखों में औरतों को लेकर कई सवाल थे। परिवार की मान मर्यादा, संस्कारों की सीमा रेखा केवल लड़कियों तक न रखकर लड़कों को भी दी जाती तो शायद एक बेहतर समाज की रचना हो पाती। इसका मतलब यह नहीं कि लड़के संस्कार हीन हैं पर अधिकांश परिवारों के लड़के ही तो बलात्कारी, यौनशोषण, आतंक और घातक अपराधों के अपराधी होते हैं। हम चाहे इस विषय को लेकर कितनी ही चर्चाएँ आयोजित कर लें। कैंडल मार्च निकालें, विरोध प्रकट करें पर ऐसा करते ही दुगने केस सामने आने लगते हैं। इन्हीं आंकड़ों के मेरे लेख खूब प्रचलित हो रहे थे।

मुझे लगा इन लेखों के कुछ अंशों से मैं भी तो गुजर रही हूँ। पिता भाई पुत्र पति इनकी सुरक्षा कहाँ रही मेरे पास। मैं नितांत अकेली अपने पैरों को मजबूती देने की कोशिश में जुट गई।

कुछ साहित्यकार मेरे घर रोज आने लगे। अपनी पत्नी के रूखे व्यवहार का दुखड़ा रोने लगे। नाम लेकर क्या करूंगी। मेरे इस ऐलान से घर ही टूटेंगे उनके। उनमें एक पत्रिका के संपादक, एक मारवाड़ी लेखक, एक अब विदेश जा बसे मौकापरस्त आत्ममुग्ध लेखक, एक मंचों के प्रतिष्ठित कवि जो अब इस दुनिया में नहीं है, एक मुझसे 20 वर्ष बड़े कवि कि मैं उनकी बुढ़ापे की लाठी बनूं। एक फिल्मों के संवाद लेखक, एक डबिंग आर्टिस्ट सब बीवियों से ऊबे हुए लेकिन फिर भी शौकीन मिजाज। एक तो रमेश की फुफेरी बहन के पति यानी मेरे नंदोई ही थे। कोई मुझे घर खरीद कर देने का प्रस्ताव रख रहा था तो कोई मौज मस्ती का। घृणा हो गई मुझे उन सब से। तुरंत रमेश भाई को नागपुर पत्र लिखा। सब बताया कहा तुम्हारे घर के कोने में पड़ी रहूंगी। अपना खर्चा पानी भी दूंगी बुला लो मुझे पर निराशा हाथ लगी। मैं अवसाद से घिरती गई। नींद की गोली खाकर ही नींद आती।

क्या करूं इस कलम का। उस आग का क्या करूं जो मेरे मन को घेर रही थी और उसकी तपिश से मेरा रोम-रोम जल रहा था। मेरे हाथों से वक्त फिसल रहा था। शब्द दिमाग से फिसल कर हालात के गर्त में समाते जा रहे थे। हे प्रभु यह कौन-सी आग पाल ली मैंने। जिसमें न तेरी रहमत है न औरों की दुआ। ऐसा क्यों होता है। एक ही लम्हे में आबाद घर वीराने में बदल जाता है। अपने हिस्से की धरती और आकाश के साथ रहना मेरा ख्वाब था जो मेरे पैरों तले से और सिर के ऊपर से सरक रहा था। औरत होने की सजा मेरे लिए मुकर्रर थी। पर मैंने उस सजा को भुगतने से इंकार कर दिया। मेरे अकेलेपन को बांटने, उसे गुलजार करने की आठ नौ लोगों की मर्दानी सोच को मैंने पास फटकने नहीं दिया। ऐलान कर दिया कि सिर्फ और सिर्फ मेरा अकेलापन ही मेरा साथी है। जिसमें इन मतलब परस्तियों की कोई जगह नहीं है और मेरी कलम जो हमेशा से मेरे लिए मानीखेज रही चल पड़ी। मैंने खुद पर कहानी लिखी। मैं खुद उस कहानी में तेजी से उठी। हौसले बुलंद हुए। कहानी की नायिका एक बवंडर से गुजरती है। विषम हालात में तय नहीं कर पाती कि अकेले जीने का साहस करे या रिश्तेदार के साए में दुबक कर अपना वजूद खो दे। वह फैसला करती है कि अकेले जिएगी। इस कहानी का शीर्षक था "फिर आंधियों को मेरा नाम और पता दे दे" यह कहानी रमणिका गुप्ता ने अपनी पत्रिका संघर्षरत आम आदमी में छापी। उन्होंने पुस्तिकाकार रूप में चार खंडों में महिला रचनाकारों की कहानियाँ के अंतर्गत इस कहानी को स्थान दिया। यह कहानी बहुत चर्चित हुई। कई भाषाओं में इन खंडों का अनुवाद हुआ। मराठी में अनुवाद मेरी मित्र डॉ प्रज्ञा शुक्ला ने किया। इस कहानी ने मुझे नई उठान दी। जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत दी। मैंने हर चुनौती का सामना किया। मैं मानती हूँ कि इन परिस्थितियों से बाहर आने के लिए मुझे एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। इन परिस्थितियों के विरोध में मेरे अंदर गुबार भरता गया और मैंने ठान लिया कि मैं इन सब के खिलाफ अपनी कलम थामुंगी।

अब मेरे अंदर विश्वास पनपने लगा था कि अकेले सरवाइव करते हुए भी मैं वह सब कर सकूंगी जिस का संकल्प लेकर मैं जबलपुर से मुंबई आई थी। उस जमीन को तलाशुंगी जहाँ मैं अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को सामाजिक संदर्भ देकर सहयोग, साहचर्य और सहकारिता की वैकल्पिक नारी संस्कृति को लिख सकूं। नारी विषयक वैचारिक अवरोधों के खिलाफ हल्ला बोल सकूं। रमेश की मृत्यु से उपजे अवरोधों ने मुझे मानसिक रूप से बहुत डिस्टर्ब किया। लेकिन धीरे-धीरे मेरा भला चाहने वाले मुझसे किसी भी तरह की बेजा अपेक्षा किए बिना मेरे करीब आने लगे। समझाने लगे कि जहाँ कीचड़, कांटे, कीड़े, मकोड़े पलते हैं वहाँ सुगंधित पुष्प भी तो खिलते हैं। माना कि फूलों को पाने के लिए कांटो से, कीचड़ से उलझना पड़ता है पर उससे क्या। जीवन को गतिमान बनाए रखना हमारी पहली प्राथमिकता है और मैंने प्रतिकूल परिस्थितियों में जीना सीख लिया। मान लिया कि सुख का एक अंश भी मेरी हाथ की रेखाओं में नहीं है। मैंने सुख के लिए भटकना छोड़ दिया। मैं समाज से अपनी लेखनी के जरिए जुड़ने लगी। मैंने पाया इस जुड़ाव का मजा ही कुछ और है। यह जुड़ाव जब रचना बनकर उभरता है तो कभी दस्तक देकर, कभी दबे पांव, कभी जान समझकर तो कभी अनजाने ही, कभी एक ही पल में तो कभी महीनों-महीनों तो मैं चमत्कृत हो जाती हूँ। वह पल मैं किसी से बांट नहीं सकती। और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अवसाद फिर घेर लेता है। अकेलापन फिर हावी हो जाता है तो याद आ जाती है पाकिस्तान से आई कवयित्री जिससे उर्दू मरकज के जलसे में भेंट हुई थी। उसने मेरी रचनाएँ पढ़ी थी और कहा था आपकी कलम में आग है और पठानकोट से मित्र सैली बलजीत ने मुझे ढांढस भरा पत्र लिखते हुए कहा था"कलम नहीं रुकनी चाहिए संतोष तुम्हारी, तुम लौह महिला हो"

और गूंजते हैं गोवा के केंद्रीय कारागार आग्वाद जेल में हेरोइन रखने के जुर्म में 8 वर्ष की सजा झेल रहे कैदी सुधीर शर्मा के शब्द जो उसने मुझे पत्र में लिखे थे"आप नारी चेतना ही नहीं बल्कि इंसानी चेतना की संपूर्ण लेखिका है। बेहद दृष्टि संपन्न और धारदार कलम है आपकी।"

तो सरहदों और जेल के सींखचों के अंदर पहुँचे अपने लेखन के कारण धन्य हो जाती हूँ।

सुधीर शर्मा नामक कैदी के महीने में दो पत्र जरूर आते। पत्र में वह लिखता कि किस तरह उसने साहित्यिक पत्रिकाओं में मुझे पढ़ा।

हुआ यूं कि विभूति नारायण राय इस जेल में तहकीकात के सिलसिले में आए थे। वे यूपी कैडर के आईपीएस अधिकारी थे और उनका उपन्यास तबादला उन दिनों काफी चर्चित था। सुधीर शर्मा के आग्रह पर उसके लिए उन्होंने आग्वाद जेल में साहित्यिक पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि की व्यवस्था कर दी थी। सुधीर शर्मा ने इन्हीं पत्रिकाओं में मुझे पढ़ा और मेरी पुस्तकों को भी पढ़ा। मुझे जाना और पत्र लिखना आरंभ किया।

जब तक रमेश थे मैं खुद को भूली हुई थी। ठीक उस मरीज की भांति जिसकी सर्जरी होने वाली है और एनिस्थिशिया से उसे बेहोश कर दिया गया है। मैं उनके साथ बिताए लंबे-लंबे वर्षों तक इस हाल में जीने को अभिशप्त थी। अब मैंने महसूस किया कि मैं पूरी तरह बेहोश नहीं थी। मेरे जिस्म में कुछ जिंदा रगें हैं जो रह-रहकर धड़कती हैं। एक पंछी रात के आखिरी पहर बहुत भीतर तक कहीं बोलता है। एक किशोर नदी बहती है। अपने संपूर्ण बहाव में पर रुक-रुक कर झिझकती-सी मुझ में से होकर फिर परे चली जाती है। जाने किस समंदर की तलाश है उसे।

एक समंदर मेरे घर में भी घुस आया था।

13 से 15 जुलाई 2007 को अमेरिका में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन का वीजा मुझे और मेरे समेत मुंबई के कई साहित्यकारों को नहीं मिल पाया था। मन में समंदर गर्जना कर रहा था। क्यों नहीं दिया वीजा एंबेसी ने। मेरे पास तो विश्व हिन्दी सम्मेलन का आमंत्रण पत्र भी था। उसके बावजूद!

उस वर्ष मई का महीना जमकर बरसा। घनघोर बारिश का पानी मेरे घर में समाने लगा। पानी इतनी तेजी से कमरों में घुसा था कि मैं घबरा कर ऊपर की मंजिल में अपने पड़ोसी के घर चली गई। उनकी बालकनी से पानी का उत्पात नजर आ रहा था। लक्ष्मी नारायण मंदिर की सीढ़ियाँ, चबूतरा पानी में डूब गया था। सड़क नदी बन गई थी और उसमें लोगों के घरों का सामान तैर रहा था। कुर्सी, लकड़ी की पेटियाँ, बर्तन, सोफे आदि। शाम तक पानी उतरा। घर जाकर देखा तो फ्रिज, टीवी सब औंधे मुंह पड़े थे। गद्दे बिस्तर पानी में तरबतर। राशन, सब्जी सबमें गटर का पानी प्रवेश कर गया था। उन दिनों पत्रकार जयशंकर पीछे के कमरे में बतौर पेइंग गेस्ट रहता था। हम दोनों ने मिलकर घर की सफाई की। रात पड़ोसी के यहाँ बिताई। सुबह विनोद सर को फोन किया "बाढ़ ग्रस्त इलाके का दौरा नहीं करेंगे सर?"

उनके साथ राजस्थानी सेवा संघ से और लोग भी आए हाल चाल पूछने।

मन बहुत खराब हो गया था। कुछ सूझ ही नहीं रहा था। जिंदगी कहाँ से शुरू हो। सब कुछ बिखर गया लग रहा था। उसी खिन्न मूड में किचन के लिए जरूरी सामान खरीदने बाज़ार गई। लौटने में अँधेरा हो गया। सड़क पार करने लगी तो स्कूटर से टकरा गई। डिवाइडर पर बुरी तरह गिरी। ट्रैफिक रुक गया। लोग स्कूटर चलाने वाले लड़के को मारने लगे। मेरा दाहिने हाथ का अंगूठा उल्टी दिशा में मुड़ गया था। फ्रैक्चर हो गया। शरीर पर अंदरूनी चोटें। मैं अपनी पीड़ा भूल कर जोर से चिल्लाई"मत मारो उसे" वह लड़का मेरे करीब आया। मुझे तुरंत मुकुंद हॉस्पिटल ले गया। एक्स-रे दवाई अंगूठे पर प्लास्टर। 2 घंटे बाद डॉक्टर ने घर जाने की अनुमति दी। वह मुझे घर तक छोड़ने आया। वह इतनी गिल्ट फील कर रहा था। बार-बार माफी मांग रहा था। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि माफ कर देना ही सबसे बड़ी सजा है। तब से मैंने अपने शब्दकोश में दो शब्द लिख लिए। किसी की बात का बुरा नहीं मानना और माफ कर देना। इन दोनों ही बातों को मैं पूरी ईमानदारी से आज तक निभाती आ रही हूँ। एक्सीडेंट का जब विनोद जी को पता चला तो तुरंत चौमाल जी को भेजा। चौमाल जी रात 11 बजे कांदिवली से अंधेरी दौड़े आए। विनोद जी जयपुर में थे। दूसरे दिन वालेचा मैडम खुद हॉस्पिटल लेकर गई। बोन स्पेशलिस्ट डॉक्टर प्रभु से सब जानकारी ली। दो दिन की कॉलेज से छुट्टी मिल गई। तीसरे दिन से मैं कॉलेज जाने लगी पर लिखने का काम तो रुक ही गया था। पूरे महीने एहतियात बरतनी थी।

शाम को आरती के समय अक्सर मंदिर चली जाती। मंदिर राजस्थानी सेवा संघ ने बनवाया था अतः मुझे विशेष तवज्जो दी जाती। प्रसाद लेकर में बैठी थी कि बड़े पंडित जी ने आकर कहा "मैडम एक बार त्रंबकेश्वर जाकर कालसर्प दोष का पूजन करा लें। विघ्न बाधाएँ दूर हो जाएंगी।" उन्होंने त्रंबकेश्वर में इस पूजा से सम्बंधित पंडित से फोन पर बात करा दी। 4000 का खर्च बताया पंडित ने। यह भी कि सफेद सलवार कुर्ता ओढ़नी पहनकर पूजा होगी तो इसकी व्यवस्था करके लाना। बाकी पूजन सामग्री वहीं मिलेगी।

एक के बाद एक हो रही विपरीत घटनाओं की वजह से मन से आवाज आई यह भी कर लो, हर्ज क्या है। अशोक ने साथ चलने की इच्छा प्रकट की। मैं भी अकेली कैसे जाती। नासिक तक हम ट्रेन से आए। फिर बस से त्रंबकेश्वर शाम को पहुँचे। गोबर भरी सकरी पथरीली गलियों को पार कर पंडित के घर पहुँचे। वहाँ पहली मंजिल पर 8, 10 कमरे थे। हमारे रहने की व्यवस्था उन्हीं कमरों में थी। 4000 का पैकेज कल से शुरू होगा। डिनर हमें स्वयं के खर्चे से लेना था। न जाने क्यों पवित्र तीर्थ इतनी गंदगी भरे होते हैं। सड़कों पर कचरा, गोबर, टहलती गाएँ। हम त्रंबकेश्वर मंदिर देख आए। 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है त्रंबकेश्वर। दर्शन करके खाना खाकर होटल लौटे।

सुबह 4 बजे पंडित के सहयोगियों ने जगाया। गोदावरी कुंड में स्नान करके लोटे में जल भरकर लाना है। ब्रह्मगिरि पर्वत से निकली गोदावरी नदी का प्रतीक है गोदावरी कुंड। कुंड में नहाना मेरे लिए सजा-ए-मौत जैसा। फूल, पत्ते, नारियल के बूच की बिछावन कुंड के जल स्तर पर थी। उसी में जगह बनाकर डुबकी लगानी थी। मैंने किनारे की सीढ़ियों पर बैठकर नहाया। कपड़े बदलने की कहीं जगह नहीं थी सीढ़ियों से ऊपर एक बड़ा कमरा था जिस पर छत नहीं थी। वहीं औरतें कपड़े बदल रही थी। वहीं लोग सिर भी मुंडा रहे थे। चारों ओर बाल ही बाल। उफ़... मैं गीले कपड़ों में ही होटल लौटी। सफेद सलवार कुर्ता पहन जल से भरा लोटा लेकर त्रंबकेश्वर मंदिर गए। जहाँ शिवजी की पूजा अर्चना की। वहाँ आधा जल चढ़ाकर आधा वापस पूजा के लिए लाना था। होटल से मंदिर जाना आना नंगे पांव धूल मिट्टी गोबर गिट्टियों से भरी कच्ची सड़क। तलवों में छाले पड़ गए।

पूजा कक्ष में 12 ब्राह्मण 12 व्यक्तियों की पूजा करा रहे थे। जिनमें मैं भी एक थी। पूजा 9 से 12 बजे तक चली। फिर 1 घंटे का हवन। पत्तल में भात का पिंडदान भी कराया गया जिसे हमें ऊपर छत पर कौवों के लिए रखना था। 1 बजे पंडित ने चावल, मेवे, नारियल, मिठाई से गोद भरी। सख्त ताकीद थी कि गोद की सामग्री स्वयं खानी है। सफेद परिधान दान करना था। क्योंकि परिधान में ही राहु, केतु, शनि की बुरी दशा समा गई थी। कपड़े बदलकर लंबी पंगत में पत्तलों में खाना परोसा गया। पूरी, कचोरी, मूंग का हलवा, आलू टमाटर की रसेदार सब्जी, कद्दू की सूखी सब्जी, रायता, पापड़, वगैरा। खाना स्वादिष्ट था।

शाम को हम नासिक आ गए। गोदावरी नदी के दर्शन कर किशमिश वगैरह खरीदकर मैं औरंगाबाद प्रमिला के पास चली गई। अशोक मुंबई लौट गए। प्रमिला के घर चार दिन रुककर वापस मुंबई। रास्ते भर सोचती रही। मैं इतनी भक्तिन कैसे हो गई? आखिर किस बात की शांति के लिए मैंने त्रंबकेश्वर में पूजा अनुष्ठान करवाया। क्या मन की शांति मंदिरों से मिलेगी? लाखो वर्ष पहले जब इंसान प्रकृति की विनाशकारी शक्तियों से भयभीत हुआ तो उसने डरकर सूर्य, जल, पवन, पृथ्वी, पेड़ पौधों को देवता स्वरूप माना। उनके लिए प्रार्थनाएँ, स्तुतियाँ रची। फिर उन्हें संपन्न कराने में पुरोहित वर्ग अस्तित्व में आया और पुरोहितों ने अपनी जेबें भरने के लिए तरह-तरह से ग्रहों की शांति पूजा पाठ अनुष्ठान रचे। इतना सब जान कर भी मैं बड़े पंडित के कहने से मंत्रबिद्ध-सी नासिक चली गई। यही तो मति भ्रम है।