मेरे घर आना जिंदगी / भाग 11 / संतोष श्रीवास्तव्

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आलोक भट्टाचार्य नवोदित लेखिका सुमीता केशवा की किताब एक पहल ऐसी भी का लोकार्पण हेमंत फाउंडेशन के बैनर तले कराना चाहते थे। एक दिन वे सुमीता को लेकर घर आए। कार्यक्रम की योजना पर विचार विमर्श हुआ। तारीख वगैरह निश्चित कर सूर्यबाला दी, नंदकिशोर नौटियाल जी का चयन अध्यक्ष और मुख्य अतिथि के लिए किया गया। कार्ड छपा कर सब को भेजने की जिम्मेवारी सुमीता ने ली। सुमीता का घर में आना जाना शुरू हो गया और धीरे-धीरे हम अच्छे मित्र बन गए। लोकार्पण का आयोजन बहुत भव्य हुआ।

इतने सबके बावजूद मन शांत न हो पाया। जिंदगी की रफ्तार बदस्तूर जारी थी। वह रूकती भी तो नहीं। हम लाख चाहे की किन्ही मनचाही परिस्थितियों में रुके रहें पर ऐसा होता नहीं। दुख जरूर धीरे-धीरे सरकता है। मैं भी अपनी परिस्थितियों में रमने लगी। जो ईश्वर ने दिया उसे दोनों हाथों से सकेलने लगी। प्रभु, जिसमें तेरी रजा...

मुझे पता था मुझे अकेले जीना है और आन बान शान से जीना है। खुद को मजबूत बनाना है। मैंने यह सारी बातें रोहिताश्व जी से शेयर कीं। वे गोवा यूनिवर्सिटी में हिन्दी के शाखा प्रमुख थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि मैं कुछ दिन गोवा आकर उनके घर रुकूं, साहित्यिक चर्चाएँ हों, पर्यटन हो। हालांकि वे गोवा विश्वविद्यालय और गोवा साहित्य अकादमी में मुझे दो बार बहुभाषी कवि सम्मेलन और परिचर्चा आदि के लिए बुला चुके थे। पर तब बस कार्यक्रम के बाद मैं लौट आई थी। गोवा दर्शन रह गया था। उन्होंने फोन पर अपनी इच्छा दोहराई "इस बार आ ही जाओ, खूब घुमाएंगे आपको। मन बहल जाएगा।"

नवंबर का महीना था। लगभग 2 महीनों से रोहिताश्व जी हमारा गोवा में इंतजार कर रहे थे। मैंने कॉलेज में छुट्टी के लिए अप्लाई कर दिया। प्रमिला भी आ गई और हम गोवा जाने की तैयारियों में जुट गए।

हमारे रवाना होने के 2 दिन पहले रोहिताश्व जी को हैदराबाद जाना पड़ा। उनके बड़े भाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। मैंने फोन पर कहा

"फिर हम कैंसिल कर देते हैं, आप लौट आइए तब आएंगे।"

"नहीं कैंसिल मत करिए संतोष जी, मेरी पीएचडी की स्टूडेंट किरण आपको कर्मली स्टेशन पर मिल जाएगी। आपके रहने खाने की व्यवस्था मेरे घर पर की गई है।"

रोहिताश्व जी के आग्रह पर हम कोकण रेल्वे की ट्रेन में आरक्षित एसी कोच में जा बैठे। कोंकण बेहद खूबसूरत संपदा से भरा पूरा है। ट्रेन सहयाद्री घाटों को पार करती अंधकार और उजाले से आँख मिचौली करती लंबी-लंबी ढेरों सुरंगों से गुजरती ऊंचे-ऊंचे पुल और कभी-कभी सागर तट को लगभग छूती हुई कर्मली स्टेशन पर रुकी जहाँ किरण हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। सूने पड़े प्लेटफार्म पर हमें एक दूसरे को जानने में असुविधा नहीं हुई। जबकि इससे पहले हम नहीं मिले थे।

किरण ने मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया "भारत के 26 वें राज्य गोवा में आपका स्वागत है।"

रोहिताश्व जी का घर हरे-भरे परिसर में काफी ऊंचाई पर था। घर बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा था। ड्राइंग रूम की खिड़की से दिखती मांडवी नदी के शांत जल पर तैरते मालवाहक जहाज और नदी से लगा पर्वत। इस जगह पर तो कितनी रचनाएँ जन्म ले सकती हैं। रोहिताश्व जी के बिना उनके घर में रहते हुए खुद ही खाना पका कर खाते हुए हमने पूरा गोवा घूमा। गोवा की सुंदरता का बखान तो मैं अपने यात्रा संस्मरण में करूंगी। मेरी उत्सुकता थी आग्वाद जेल देखने की जहाँ सुधीर शर्मा ने अपनी कैद के 8 वर्ष गुजारे थे।

आग्वाद किला पंजिम से 18 किलोमीटर दूरी पर स्थित है जो मांडवी नदी और सिंकवेयम बीच से घिरा है। आग्वाद का अर्थ है ताजे पानी का झरना। जबकि आज भी यह मांडवी नदी के किनारे प्रवेश द्वार-सा खड़ा है। आग्वाद किले से लोहे के भारी जंगले से घिरी नीचे जाती सीढ़ियाँ आग्वाद जेल की हैं। जो गोवा में सेंट्रल जेल के हिस्से में आता है। जेल-सी लेवल पर है जबकि किला ऊंची पहाड़ी पर।

जेल की दीवारें, सीढ़ियाँ देर तक मुझे सुधीर शर्मा की याद दिलाती रहीं। 8 वर्ष तो कब के बीत गए। अब वह न जाने कहाँ होगा।

रोहिताश्व जी लगभग रोज ही फोन पर हाल-चाल पूछ लेते। पड़ोसियों ने छिलके वाले काजू मंगवाए थे जिन्हें मूंगफली की तरह छीलकर खाने में बड़ा मज़ा आता है। लिहाजा रोहिताश्व जी से काजू की दुकान दरयाफ्त की। खूब सारे पैकेट खरीदे काजू के। इतने दिनों गोवा ने काफी तरोताजा कर दिया था। आज इतने बरसों बाद गोवा को लेखनीबद्ध करते हुए रोहिताश्व जी याद आ रहे हैं। अब वे नहीं हैं। बेतहाशा शराब ने उनके शरीर को खोखला कर दिया था। उनकी पत्नी हैदराबाद में रहती थी और वे अकेले गोवा में रहते थे। उनके जीवन के अंतिम वर्ष में वे निपट अकेले थे।

मुंबई लौट कर मुझे लगा कि अगर गोवा का संस्मरण तुरंत नहीं लिखा तो शायद यह रोहिताश्व जी के अनुपस्थित आतिथ्य की अवहेलना होगी। लिखा और नवनीत में भेज दिया प्रकाशित होने। विश्वनाथ जी ने भी 2 महीने बाद प्रकाशित कर दिया। रोहिताश्व जी को नवनीत की प्रति डाक से भिजवाई। वे फोन से ज्यादा पत्र लिखने के शौकीन थे। उन्होंने पत्र में लिखा"इतने सालों से गोवा में रह रहा हूँ पर इस नजरिए से तो कभी देखा ही नहीं गोवा को। यार तुम भी कमाल लिखती हो।"

यही बात कमलेश बख्शी दी ने कही कि "मैं गोवा घूम चुकी हूँ पर तुम्हारा संस्मरण पढ़कर तो लग रहा है गोवा घूमा ही नहीं।"

अब क्या कहूँ गोवा ने मुझे भी तो खूब रिझाया।


दिसम्बर में मुंबई की जैसे जवानी लौट आती है। मौसम खुशगवार हल्की-हल्की ठंड। सुबह के वक्त हल्का स्वेटर पहनना पड़ता है। बाजार क्रिसमस और नए साल की सौगातो से रंगीन हो उठता है। तभी ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड में कॉन्फ्रेंस की सूचना अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ से मिली। दोनों देशों में तीन-तीन दिन की कॉन्फ्रेंस के लिए न्योता था 22 से 27 जनवरी 2008 का। मेरा मन उमंग से भर उठा था। मित्रों ने सुझाया दर्शनीय स्थलों को भी देख आना। फिर कहाँ दोबारा जाना होगा। मैं SOTC से ब्रोशर लेकर आई। पूरे 12 दिन लगेंगे सब कुछ देखने में। मैं वीजा पासपोर्ट आदि की औपचारिकताओं में जुट गई। विनोद जी भी खुश हुए। उन दिनों प्रमिला आई हुई थी। तनख्वाह का एडवांस ले हमने नाना चौक से कपड़े जूते आदि खरीदे। पोद्दार विद्यालय के नोटिस बोर्ड पर मेरी इस यात्रा की सूचना प्रिंसिपल कुलदीप शर्मा ने लगाई। यानी पूरे राजस्थानी सेवा संघ ने मेरा जाना हाथों-हाथ लिया। मेरी मन: स्थिति के लिए यह बहुत बड़ा सपोर्ट था जिसने मेरी एकाकी जिंदगी को मजबूती दी। चंद खुशियों के पल मेरी स्मृति में जोड़े। आस्ट्रेलिया देखने की चाह कॉलेज के दिनों से मेरे मन में थी जब कॉलेज की खेल टीम की कप्तान क्रिकेट टीम लेकर ऑस्ट्रेलिया गई थी। लगातार सुर्खियों में रहने वाला सिर्फ क्रिकेट ही नहीं बल्कि शिक्षा के नए-नए स्त्रोत, भविष्य की संभावनाएँ, अधिकतम वेतन, बहुत कम आबादी, बहुत अधिक क्षेत्रफल, प्रदूषण रहित, खिले फूलों, खिले खुशगवार मौसम के कारण भी यह देश सुर्ख़ियों में है। तरक्की की ऊँचाइयों को छुआ है इस देश ने। क्योंकि यहाँ की सरकार अपने नागरिकों का भरपूर ध्यान रखती है। जब छै: बजे शाम को...शाम नहीं चमकती दोपहर क्योंकि वहाँ सूरज भी आराम नहीं करता। चमकता रहता है रात साढ़े नौ बजे तक। कामकाजी पुरुष स्त्रियाँ घर लौटते हैं तो बाज़ार बंद हो जाते हैं और कहवाघरों, रेस्तराओं और फुटपाथों पर सजी टेबलकुर्सियों के दरम्यान कहकहे, मुस्कुराहटें, खुशियाँ कदमबोसी करती नज़र आती हैं।

आज यूँ लगा जैसे अतीत में पहुँच गई हूँ पूरी एक सदी पहले के लिखे नाटकों को नाट्य मंडली के युवा कलाकार एक महीने तक मंचित करेंगे। मेरे हाथ में भी बुलौवे का कार्ड है...ख़ास आग्रह "आप ही के लिए शो रखा है।" कुछ बाहर से भी लेखक आये हैं। अमेरिका से, मॉरिशस से। सड़कें सूनी हैं। जैसे कर्फ्यू लगा हो। लेकिन यह इस शहर का मिज़ाजहै। वैसे भी इतने बड़े महाद्वीपकीजनसंख्या9.5 मिलियन है। चारोंओर हिन्द महासागर, प्रशांत महासागर और दक्षिण सागरसे घिरे इस देश का इतिहास भी लगभग भारत जैसा ही है। जिस तरह भारत में अंग्रेज़ी हुकूमतकेदौरान आज़ादी के दीवानों को कैद कर अंडमान निकोबार में काले पानी की सज़ा भोगने को रखा जाता था उसी प्रकार इस सुंदर जनविहीन द्वीप पर विभिन्न देशों के कैदियों को लाकर रखा जाता था। ये वे देश थे जो अंग्रेज़ों के गुलाम थे। अंग्रेज़ों ने यहाँ के मूल आदिवासी मौरियों पर जुल्म ढाए। तमाम मुल्कों पर हुकूमत करने वाला ब्रिटिश राज्य...शायद यही वजह हो कि आज वह अपनी राष्ट्रीय पहचान खो चुका है और यूरोप का ही एक हिस्सा कहलाने लगा है। तो जैसे-जैसे देश आज़ाद होते गए यहाँ लाए कैदी भी आज़ाद होते गए। कुछ अपने देश लौट गये, कुछ यहीं बस गये। जो बस गये उन्होंने इस द्वीप को जीने लायक बनाया, बसाया। धीरे-धीरे अन्य देशों से भी लोग आए कुछ नौकरी पर, कुछव्यापार करने। भारत से हिंदू, सिक्ख आए, ईसाई आए, हिब्रूआए, हांगकांगी, सिंगापुरी, जापानी, चीनी और यूरोपियन मुसलमान...इसलिए यहाँ बोलचाल, रहनसहन, स्थापत्य में, खानपान में एक मिली जुली संस्कृति दिखाई देती है। अपनी सभ्यता न होने की वजह से अब जो ऑस्ट्रेलियन सभ्यता बनी है वह एक स्वतंत्र सभ्यता है जिसको गढ़ने में विभिन्न देशों का हाथ है।

मंच पर उन्नीसवीं सदी लौट आई थी। कलाकारों ने डूब कर अभिनय किया था। जब नाटक के नायक को फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था तो मेरे बाजू में बैठी तेईस वर्षीया लड़की सिसक पड़ी थी। जेल में वह अंडासेल...अंतिम प्रार्थना कराता पादरी...बेड़ियों से जकड़े पाँव लकड़ी के फर्श पर चर्रमर्र, झनझन करते और संग-संग दौड़ता मशालची...जलती मशालों ने रूह कँपा देने वाला दृश्य खींचदिया था। दर्शक सम्मोहन में जकड़े थे। मैं रात को सपने में भी उन्हीं दृश्यों के संग थी।

अपने प्रकल्प के प्रस्तुतिकरण की व्यस्तता के बावजूद मुझे लग रहा था कि मैं इस शहर में जी रही हूँ। या शायद शहर मुझे जी रहा हो। मेरा मौजूद होना सिमरन एण्डग्रुप के लिए नित नए कार्यक्रमों को आयोजित करना हो गया था। आज वह पत्रकारों से मेरी भेंट करवाने वाले थे। चार घंटों की इस विशेष गोष्ठी में भारतीय पत्रकारिता पर खुलकर बहस हुई। ताज्जुब इस बात का कि कई नई बातों का पता चला जो मैं यहीं आकर जान पाई। गोष्ठी में उपस्थिति गिनी चुनी थी पर बहस के लिए काफी स्पेस मिल रहा था। सिमरन नई-नई पत्रकार है, उसके संग सिलैका है जो उम्र में उससे बड़ी और काफी सीनियर है। कई अखबारों में उसके फीचर छपते हैं।

न्यूजीलैंड में मैं मौरी आदिवासी महिला अमेंड्रा की मेहमान थी। पहाड़ों की वादियों में बसे खूबसूरत शहर क्वींस टाउन घूमते हुए वह बता रही थी "राइटर (वह मुझे इसी नाम से सम्बोधित कर रही थी) हम यहाँ के मूल निवासी हैं...अत्याचार का एक लम्बा सिलसिला हमने झेला है। हमारे पूर्वज सदियों से यहाँ के जंगलों में कबीलों में रहते थे। हमारीअपनी संस्कृति थी, अपने रीति रिवाज़। उस समय हमारे पूर्वज पत्तों से बदन ढँकते थे। लाल, पीली, सफेद मिट्टी की धारियों से शृंगार करते थे। वे पूरी तरह समुद्री भोजन और शिकार पर निर्भर थे। शिकार वे तीर कमान से करते थे। समुद्री जीवों को तो वे तैरकर, गोता लगाकर हाथ से पकड़ लेते थे। अंग्रेजों ने जब यहाँ हुकूमत की तो मौरियों पर बहुत जुल्म ढाये। उन्हें जंगलों में ही रहने पर मजबूर किया। उनके पास बंदूकें थीं। बंदूकों के आगे तीर कमान भला टिक पाते? लेकिन फिर भी मौरियों ने अपनी संस्कृति मिटने नहीं दी। अपनी परंपराएँ जीवित रखीं। देश आज़ाद हुआ तो हमने चैन की साँस ली लेकिन सरकार हमें हमारे परिवेश में रहने देना नहीं चाहती। आज से 38 वर्ष पूर्व 1970 में जब मैं दस साल की थी तो मुझे और मेरे जैसे कितने ही बच्चों को उनके माता पिता से छीनकर सभ्य बनाने के लिए शहरों में लाने का अभियान चला। आज हमारी पीढ़ी को 'स्टोलन जेनरेशन' कहा जाता है। मेरे माता पिता मुझसे कभी नहीं मिले। पता नहीं वे जीवित भी हैं या नहीं। लेकिन मैंने अपनी बेटियों को भरपूर प्यार दिया है। जो मुझे नहीं मिला मैंने उनको दिया। मेरी बड़ी बेटी विला रोटोरुआ में रेडियो स्टेशन में सांस्कृतिक विभाग की डायरेक्टर है। उसने आपका एक प्रोग्राम...शायद इंटरव्यू अभी से शेड्यूल कर लिया है। रोटोरुआ में वह मिलेगी आपसे।"

मेरे होंठों से एक आह निकली और सारी वादी सिसक पड़ी। दोपहर में अमेंड्रा के बारे में ही सोचती रही। रात डिनर के लिए हम लिटिल इंडिया रेस्टॉरेंटआए तो वहाँ के मैनेजर राजेंदर सिंह से मुलाकात हुई। वहचंडीगढ़ का था। मैंने पूछा... "राजेंदर सिंह बेदी को जानते हो?" खुश होकर चहका वह... "हाँ... उनके उपन्यास मैला आँचल पर फ़िल्म भी बनी है।"

मैंने सुधारा... "मैला आँचल नहीं, एक चादर मैली सी।" वह झेंप गया। मीना दीदी ने उससे कहा... "" मैडम राइटर हैं, संतोष श्रीवास्तव। "

वह आधा झुका... मुग़लिया स्टाइल में मुझे सलाम किया और खुश होकर चला गया।

रात भर मुझे नींद नहीं आई। अमेंड्रा का चेहरा बार-बार आंखों के सामने आकर मुझे विचलित करता रहा। जितना जख्म, जितना जुल्म अंग्रेजों ने विश्व के देशों पर ढाया है वह पृथ्वी की संस्कृति पर बदनुमा दाग है। कितनी अद्भुत बात है कि प्रभावित भी किया है तो अंग्रेज लेखकों ने। अंग्रेज लेखकों को पढ़ना फख्र की बात मानी जाती है। क्या भारतीय लेखकों को पढ़ना फख्र नहीं है? क्यों शराब के पैग के साथ अंग्रेज लेखक याद आते हैं भारतीय नहीं? यह मानसिकता लेखक समुदाय के बीच से कब हटेगी।


कैसी विडंबना है कि एक तरफ किताबें पाठकों के लिए तरस रही है तो दूसरी ओर साहित्य के मठाधीश अपने साहित्य की वजह से कम बल्कि अपनी आत्ममुग्धता और खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की अंधी मानसिकता के शिकार हैं। उनका अहंकार, गुटबाजी, प्रायोजित चर्चाएँ ही उन्हें ज्यादा लाइमलाइट में ला रही हैं। ऐसे ही कवि हैं आलोक धन्वा जिन्हें पूरा सपोर्ट ज्ञानरंजन जी का मिल रहा है। बहरहाल यह बात मुझे बाद में पता चली क्योंकि तब तक मैं ज्ञानरंजन जी को अपना शुभचिंतक आत्मीय समझती थी। हुआ यूं कि सुधा अरोड़ा का फोन आया "संतोष, तुम कुछ दिनों के लिए असीमा भट्ट को अपने पास रख लो। घर का इंतजाम होते ही वह चली जाएगी।" मुझे भला क्या ऐतराज़ था और फिर कौन नहीं जानता था आलोक धन्वा के असीमा पर किए अत्याचारों को। लिहाजा मैं सहर्ष तैयार हो गई। मैंने मेहमानों वाला कमरा असीमा के लिए तैयार कर दिया। वह कल शाम तक आने वाली थी।

तभी ज्ञानरंजन जी का फोन आया "यह तुम क्या कर रही हो संतोष, असीमा अच्छी औरत नहीं है। मालूम भी है तुम्हें वह आलोक की कितनी लानत मलामत करके गई है।"

मैं घबरा गई "ज्ञान दा, मैं हाँ कर चुकी हूँ। असीमा आने ही वाली है।"

"तो मना कर दो। फँसोगी तुम बुरी तरह।" कहते हुए उन्होंने फोन काट दिया।

मेरी जान संकट में। क्या करूं? एक तरफ ज्ञान दा का हुक्म। दूसरी तरफ एक औरत की मदद। सुधा अरोड़ा को फोन लगाया। उनका जवाब सीधा था "तुम्हें मदद करनी चाहिए। आगे तुम खुद समझदार हो।"

तब मैं आलोक धन्वा के कारनामों से परिचित नहीं थी। ज्ञान दा के प्रति मेरा आदर भाव था। मैंने असीमा को मीठी इंकारी दे दी। यह वजह बताकर कि"मैं जहाँ नौकरी करती हूँ। यह बंगला उनका दिया हुआ है और वे परमीशन नहीं दे रहे हैं।"

वह रुआंसी हो गई।

"सामान टेंपो में लादा जा चुका है संतोष। अब मैं कहाँ जाऊँ।"

अपराध बोध से मैं विचलित हो गई। मानती हूँ गुनाह किया मैंने। अब तो और भी ज्यादा जब मुझे आलोक धन्वा की सारी सच्चाई पता चली। ज्ञान दा के प्रति भी मेरे भ्रम टूटे।

28 दिसम्बर 2019 को उन्हें मेरी कर्म भूमि मुंबई से अमर उजाला द्वारा शिखर सम्मान दिया गया। उनकी कहानियाँ पिता और घंटा जो मैंने स्कूल के दिनों में धर्मयुग में पढ़ी थीं कालजयी कहानियाँ कही जा रही है। निश्चय ही वे अच्छे लेखक, अच्छे संपादक हैं। कईयों के लिए अच्छे इंसान भी। पर क्या उन्होंने आलोक धन्वा को सपोर्ट देकर अपने आसपास उन्हीं के जैसा गुट निर्मित कर असीमा भट्ट को हर मददगार के दिल से निष्कासित नहीं किया?

7 दिसम्बर 2019 को ही मुंबई में मेरी किताब करवट बदलती सदी आमची मुंबई के चर्चा विमर्श कार्यक्रम में जब मैंने असीमा को आमंत्रित किया तो वह रो पड़ी "मुझे क्यों बुला रही हो संतोष, लोग तो मुझे खराब औरत कहते हैं।"

कौन है औरत की इस पीड़ा का जिम्मेवार? एक अच्छा कवि? एक कालजयी लेखक?

कुछ ही महीनों बाद मुझे घर खाली करना पड़ा। जिसका था वह बेच रहा था। विनोद सर ने मुझे सद्गुरु नगर में उनके बेटे विशाल के द्वारा खरीदे वन बेडरूम हॉल किचन वाले घर में शिफ्ट कर दिया। घर था तो अंधेरी में मगर सोसायटी सद्गुरु नगर थी। घर के पीछे मुसलमानों का इलाका। बकरीद पर खूब बकरे कटते। खून की गंध दिन भर मेरा पीछा करती। अब लक्ष्मी नारायण मंदिर की आरती के घंटे, फूलों की, प्रसाद की खुशबू छूट गई थी। पास ही मस्जिद से पांचों वक्त की नमाज का ऐलान करती मुल्ला की आवाज सुनाई देती। यानी किसी न किसी रूप में ईश्वर मेरे नजदीक है।


विनोद सर झुंझुनू से 35 किलोमीटर दूर चुडैला ग्राम चुरू में यूनिवर्सिटी खोलना चाहते थे। 5 फरवरी 2009 में यूनिवर्सिटी बनकर तैयार हुई और जून के प्रथम सप्ताह में वहाँ उद्घाटन स्वरूप एक पत्रकार सम्मेलन आयोजित करने की पूरी जिम्मेवारी उन्होंने मुझे और विनोद तिवारी (पूर्व संपादक माधुरी) को दी। राजस्थान के साहित्यकारों, पत्रकारों को फोन पर और पत्र के द्वारा सूचना दी गई। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को आमंत्रित किया गया। वे बीमार थे। मगर उन्होंने आने की स्वीकृति दी और अपने लिए व्हील चेयर का भी प्रबंध करने को कहा।

पूरा राजस्थानी सेवा संघ इस सम्मेलन में शामिल हुआ। मुझे विनोद सर ने अपनी हवेली में रुकाया। बाकी सभी लोग रानी सती परिसर में रुके। सम्मेलन तीन दिन चला। उद्घाटन सत्र का संचालन मैंने किया जिसमें मुख्यमंत्री कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे थे। तीन दिन विभिन्न सत्रों में विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। राजस्थान की संस्कृति मंच पर साकार हुई। सबको सम्मान सूचक पगड़ी, जामा पहनाया गया। शाम को राजस्थानी नृत्य, नाटक आदि हुए। तीन दिन उत्सव की तरह बीते। ग्राम चुडैला का नाम बदलकर विद्यानगरी रखने का प्रस्ताव पास हुआ।

विनोद सर के चाचा जी के नाम पर विश्वविद्यालय का नाम श्री जगदीशप्रसाद झाबरमल टिबडेवाला विश्वविद्यालय रखा गया। अब तो वहाँ स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, अस्पताल आदि का निर्माण भी हो चुका है।


थक चुकी थी। चाहती थी किसी शांत पहाड़ी जगह जाकर गर्मियाँ बिताऊँ। अपने अधूरे पड़े उपन्यास "लौट आओ दीपशिखा" को भी पूरा कर लूं। मैंने शिमला में हरनोट जी से पूछा कि क्या वे शिमला में राईटर्स होम में मेरे और प्रमिला के 15 दिन रहने का इंतजाम कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि"राइटर्स होम तो उजाड़ पड़ा है अब। वहाँ कंप्यूटर की क्लासेस चलती हैं। मैं आपके रहने के लिए एक कमरा वाईएमसीए में बुक करवा देता हूँ। वहीं सीढ़ियाँ उतरते ही मेरा यानी हिमाचल पर्यटन विभाग का ऑफिस है। बगल में क्राइस्टचर्च वगैरह।"

मैं प्रमिला के साथ टॉय ट्रेन से दिल्ली से शिमला जब रात के 10 बजे पहुँची तो बारिश हो रही थी।

हरनोट ने फोन पर तसल्ली दी"पहाड़ी बारिश है। अभी थम जाएगी। आपके रहने का इंतजाम वाईएमसीए में है ही। वहाँ जय सिंह से संपर्क करना। वही वहाँ का सर्वे सर्वा है।"

बारिश थम चुकी थी। हम मिनी बस से लिफ्ट तक पहुँचे। लिफ्ट से कुली लिया। मैंने पता बताया तो उसने ऊंचे पर्वत की ओर इशारा किया। "वहाँ चलना है।"

ऊंचाई देखकर दिमाग चकरा गया। लेकिन अब तो माल रोड तक लिफ्ट की सुविधा है। जयसिंह ने हमें पहली मंजिल पर कमरा दिया। वहाँ के सभी कमरे खाली थे और पूरी मंजिल में हम अकेले थे। रात काफी हो गई थी। थोड़ा बहुत खाकर बिस्तर में जो घुसे तो सुबह बंदरों की धमाचौकड़ी से नींद खुली।

सुबह हरनोट जी हमें अपने ऑफिस ले गए। ऑफिस में शिमला से निकलने वाली पत्रिका अखबारों के हवाले से हम साहित्यिक चर्चा करते रहे। गर्मागर्म चाय ने ठंडी हवाओं से राहत दी। फिर वे हमें हिमाचल पर्यटन द्वारा संचालित आशियाना में ले आए। आशियाना जहाँ है वहाँ पहले रिवाल्विंग रेस्त्रां हुआ करता था। आज से 34 वर्ष पहले उस रेस्तरां में बैठकर हमने कॉफी पीते हुए शिमला के खूबसूरत व्यूज देखे थे। कितनी यादें ताजा हो गई।

"संतोष जी कल आपको बद्री सिंह भाटिया और सुदर्शन वशिष्ठ से मिलवाएंगे। हो सका तो गोष्ठी भी यही रखेंगे। बड़ी समृद्ध साहित्यिक विरासत है यहाँ की। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं यहाँ के लेखक। सरकारी पत्रिकाएँ हिमप्रस्थ और बिपाशा निकलती है। यहाँ का अखबार है दिव्य हिमाचल। बाकी सभी मशहूर अखबारों के एडीशन निकलते हैं।" कहते हुए हरनोट जी हमें नीचे बाज़ार तक ले गए। बाज़ार बल्कि पूरे शिमला में कहीं कोई बदलाव नहीं आया।

दूसरे दिन हम अमर उजाला के ऑफिस गए। सिर्फ दो पत्रकार बैठे थे जिन्होंने खूब आवभगत की। चाय नाश्ते के बाद सड़क तक छोड़ने आए। शाम को सुदर्शन वशिष्ठ मिलने आए। अपनी कविताओं की किताब मुझे भेंट की। डेढ हफ्ता शिमला में गुजारकर हम कुल्लू मनाली चले गए। हरनोटजी ने टिकटें बुक करा दी थी और मनाली में हिमाचल टूरिज्म का कमरा भी 4 दिन के लिए आरक्षित करवा दिया।

मनाली से हम दिल्ली यामिनी के लिए लड़का देखने आए और शादी पक्की कर दी।

मुंबई लौट कर दूसरे ही दिन सड़क पर चलते हुए पेड़ की डाल आकर मेरे सामने गिरी। वह मेरे ऊपर नहीं गिरी लेकिन मैं उस पर गिर पड़ी। अगर मेरे सिर पर गिरती तो! घुटना घायल हो गया। एक्सरे में अंदरूनी चोट के साथ ऑस्टियोपोरोसिस भी निकला। दर्द, बेचैनी। सीढ़ियाँ चढ़ना मुश्किल। तब कॉलेज में लिफ्ट नहीं थी और स्टाफ रूम तीसरी मंजिल पर था। कई सारी कक्षाएँ भी उसी मंजिल पर।

4 दिन बाद कॉलेज खुल गए। मुझे नौकरी से लंबी छुट्टी लेनी पड़ी। साहित्यिक कार्यक्रमों में भी मेरा जाना नहीं के बराबर था। उपन्यास अंतिम चरण में था और मैं उसी में जुटी थी। साथ ही यामिनी की शादी की तैयारियों में भी। मुझे आर्थिक रूप से भी प्रमिला की मदद करनी थी। मैंने विनोद जी से शादी के लिए आर्थिक मदद मांगी। खुद भी रुपया लगाया और प्रमिला को दिया। मेहंदी की रस्म का भव्य इंतजाम करवाया। मुंबई शहर में मेरे अपने मित्र थे। अब मेरे घर तो कुछ होना नहीं था इसलिए मेहंदी की रस्म मुंबई से करके मैंने एक तरह से अपनी मित्रता के सम्बंधों को मजबूत किया।

शादी के लिए हमें बांदा जाना था। जितने लोग मुंबई से जा रहे थे सबके लिए नाश्ते और खाने के पैकेट मैंने कैंटीन में ऑर्डर देकर बनवाए। शादी सादे तरीके से संपन्न हुई। शादी के बाद मैंने पुनीत और यामिनी का गोवा में रोहिताश्व जी से कहकर हनीमून अरेंज किया। उनकी हवाई टिकट भी मैंने उन्हें प्रेजेंट की। नहीं इतना सब लिखने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन मेरी इतनी मदद के बावजूद आज तक यामिनी पुनीत न तो कभी मेरे घर आए न ही बीमारी में कोई केयर की। सो दिल चाक-चाक है। अब तो 9 वर्ष बीत गए शादी हुए। 9 की गिनती सर्जन का प्रतीक है मगर मेरे लिए 9 अशुभ है। 9 अगस्त को क्रांति दिवस पर मेरी शादी हुई थी। जो जीवन भर मेरे लिए भ्रम बनी रही। बड़ी कचोटती है सारी बातें। मनुष्य जन्म ही बड़ा कठिन है। हम भले यह माने कि 84 लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म संचित पुण्यों का फल है लेकिन जिंदगी की व्यर्थता ढोते हुए केवल जिंदा रहना ही कितना दूभर है। नहीं मुझे केवल जिंदा नहीं रहना है... जिंदगी को व्यर्थ नहीं होने देना है।

फिर अटैची तैयार हो गई इस बार जापानी कवि बोंचो और रीटो के देश जापान की उड़ान भरनी है। कॉलेज के दिनों में रीटो के काव्य संग्रह एक चीड का खाका पढ़ी थी और हाइकु की दुनिया से पहली बार परिचित हुई थी। न केवल हाइकु बल्कि बोनसाई कला से भी मैं खासी प्रभावित हूँ। कई पौधों की बोनसाई भी की थी मैंने हेमन्त के समय। मगर अब बस एक बचा है जटा जूट धारी बरगद उसके डेढ़ फीट के आकार में मोटी पींड, उभरी जड़ें और डालियों से लटकी जटाएँ उसे बहुत आकर्षक बनाती हैं।

एक साथ खुशी और गम से आंदोलित हुई मैं 10 दिवसीय (8 से 18 सितंबर 2009) जापान यात्रा के लिए निकल पड़ी। यात्राओं का सुख अनिर्वचनीय है। मैं तमाम मौसमों से गुजरती हूँ। नदी, नाले, पर्वत, कंदराएँ, समुद्र, ज्वालामुखी पार करती हूँ। मैंने जापान में टोक्यो, अक्वा सिटी, शिंजुकी सिटी, सिमिथोमो सिटी, मिथिबिशी सिटी, नागोया शहर, क्योटो, ओसाका जैसे खूबसूरत शहर और बेशुमार फूलों, फलों से भरी घाटियाँ। लगभग 200 जीवित ज्वालामुखी, घने जंगल जहाँ पेड़ पौधों से आर्केस्ट्रा की धुन सुनाई देती है, पगोडा मंदिर और चिर प्रतीक्षित माउंट फ्यूजी पर्वत जिसे देखकर जापानी कवि रांसेंत्सू ने लिखा था

फुतेन कि / नेतारू सुगाता या / मा फ्यूजी याना

चादर ओढ़े सोई सी / आकृति / मा फ्यूजी पर्वत की /

चंद लफ्जों में माउंट फ्यूजी उभरता है आँखों के सामने। सौंदर्य की लहरें डुबा ले जाती हैं अनंत गहराइयों में। एक ऐसा भी जंगल है जहाँ के पेड़ वनस्पति हवाएँ मनुष्य को पागल कर देती हैं। अब वहाँ जाना सरकार की ओर से प्रतिबंधित है।

सुना था जापानियों के देश प्रेम का किस्सा और अभी-अभी आये सूनामी संकट में पूरे विश्व ने देखा जापान का आत्मसम्मान, सहिष्णुता, देशप्रेम। किसी भी देश से कोई मदद लिए बिना इस विभीषिका को अपने बलबूते पर निपटने में लगा है जापान। मैंने जापानी गांवों की यात्रा की, महानगरों की यात्रा की तो पाया कि जापानी अपने देश अपनी भाषा से बेहद लगाव रखते हैं। वे किसी अन्य भाषा में बात करना पसंद नहीं करते। उन्होंने अंग्रेजी का सॉरी शब्द ही अपनाया है जिसका इस्तेमाल वे टूरिस्टों के लिए करते हैं। वहाँ नीली शर्ट और सफेद पैंट पहने कई नौजवान दर्शनीय स्थलों, मॉल, मंदिर, बौद्ध मठ, चर्च और अन्य दर्शनीय स्थलों में मिल जाएंगे जिनकी शर्ट की दाहिनी आस्तीन पर इंग्लिश लिखा है। ऐसे लोग बिना कोई मेहनताना वसूले टूरिस्टों की मदद करते हैं। हिरोशिमा-नागासाकी को एक स्मृति स्थल बनाने में जापानियों ने दिन रात मेहनत की थी। उन्होंने सालों तक एक भी छुट्टी नहीं ली थी। मैं जापानियों के जज्बे को सलाम करती हूँ।

जापान से लौटी तो पता चला जिस घर में रह रही हूँ उसे विशाल बेच रहा है जबकि जापान जाने से पहले विनोद जी ने विशाल के साथ अपने घर डिनर पर बुलाया था और विशाल ने कहा था कि आप भारत की प्रेम कथाओं पर एक किताब लिखिए। विशाल ने मुझे इससे सम्बंधित कुछ सीडी भी दी थीं। मैंने इस पुस्तक पर काम करना शुरू कर दिया था और विश्वामित्र मेनका और उर्वशी पुरुरवा के अध्याय भी तैयार हो गए थे। विनोद सर ने यह भी कहा था कि विशाल को एक लेखक की जरूरत है और अब तो तुम्हारा उस घर में रहना पक्का है। फिर जाने क्यों विशाल ने उस घर को बेच दिया और महीने भर के अंदर मकान खाली करने का नोटिस भिजवा दिया। जापान घूमने की खुशी आहुति बन मेरी नियति की अग्नि में स्वाहा हो गई।

चौमाल जी ने मुझे कांदिवली चारकोप में दस हज़ार महीने और पचास हजार डिपाजिट पर केदारनाथ बिल्डिंग में दूसरी मंजिल पर वन बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट दिला दिया। मकान के ओनर योगेश जोशी ने बहुत आत्मीयता का व्यवहार किया लेकिन उनकी आत्मीयता समझ में नहीं आई। कहाँ तो फ्लैट लेते वक्त उन्होंने कहा था कि संतोष बेन रहो हमेशा। आपके भाई का फ्लैट है और कहाँ ग्यारह महीने बाद ही टोकना शुरू कर दिया। खाली करो फ्लैट। कभी बेटे की शादी का हवाला। कभी फ्लैट बेचना है आदि। मेरे भाग्य बंजारन जैसे। दो या ज्यादा से ज्यादा 3 साल तक किसी घर में टिक पाई। योगेश जोशी के घर में भी हाँ न के झूले में झूलती पौने चार साल रह ली।

अपनी इतनी अव्यवस्थित जिंदगी को मैंने नियति मान स्वीकार किया। बिल्डिंग के कंपाउंड में लगे जामुन, नारियल, बादाम के झाड़ रातों के सन्नाटे में सिंफनी बजाते तो डर कर उठ बैठती। बाजू में ही खाड़ी थी जिसमें निवास कर रहे मेंढक झींगुर और पता नहीं किन बेनाम जीव-जंतुओं की आर्त पुकारें रहस्य का जाल बुनती मुझे अपने में समेट लेतीं। मैं अकबका जाती। लगता जैसे जाल में बुरी तरह फंसी जा रही हूँ। मेरे आस-पास घटने वाली घटनाओं में और मेरे साथ जारी नियति की क्रूरता ने मेरे अंदर प्रश्न ही प्रश्न भर दिए। विरोध की प्रवृत्ति तो जन्मजात थी। आँख मूंदकर हर उल्टे सीधे को मान लेना मेरा स्वभाव न था। अब कुछ विद्रूपताओं को लेकर विद्रोह भी अंकुरित होने लगा। मध्यवर्गीय समाज के आडंबरों और नैतिकताओं ने स्त्री शोषण के खिलाफ कदम उठाने को मजबूर कर दिया। कलम तो दस साल पहले ही उठ गई थी, जब समरलोक में अंगना स्तंभ की शुरुआत हुई थी। उन्हीं लेखों का अंजाम है "मुझे जन्म दो माँ" पुस्तक। खूब मेहनत की। खूब होमवर्क किया। आंकड़े जुटाए। चिंतन मनन किया। तीन ड्राफ्ट तैयार हुए तब जाकर पाण्डुलिपि पूर्ण हुई।

महेश भारद्वाज को सामयिक प्रकाशन में जब पाण्डुलिपि भेज दी तो लगा मेरे मन पर जमा आइसबर्ग थोड़ा-सा पिघला है। थोड़ी-सी धूप उसके हिस्से आई है।

महेश जी ने बहुत खूबसूरत कवर और भीतरी पृष्ठों पर बेहद अच्छी छपाई कर सन 2010 में किताब मेरे पास भेजी। किताब को सफलता मिली। चर्चित हुई। सभी स्तरीय पत्रिकाओं में समीक्षा छपी। नजमा हेपतुल्ला हॉल सांताक्रुज में नारीवादी लेखिका सुधा अरोड़ा के हाथों लोकार्पण हुआ। लोकार्पण के समय विवाद भी उठ खड़ा हुआ जब डॉ रविंद्र कात्यायन ने मातृसत्तात्मक समाज पर लिखे इस पुस्तक के अध्याय पर चर्चा छेड़ी तो सागर त्रिपाठी ने सभा में खड़े होकर इसका विरोध किया। पक्ष विपक्ष पर सभा अपने-अपने मत रखने लगी। बहरहाल संचालक आलोक भट्टाचार्य ने स्थिति को संभाला। स्टेज पर डॉ करुणा शंकर उपाध्याय भी थे। पर वे चुप रहे।

मुझे जन्म दो माँ लिखने में मुझे 4 वर्ष लगे। अंगना के लेखों को विस्तार देने में मुझे अधिक दूर नहीं जाना पड़ा। अपने आजू-बाजू खड़ी या खुद में समाई औरत को टटोलते ही परत दर परत उघड़ती गई पीड़ा, दर्द, शोषण, तिरस्कार, वर्जनाएँ, परंपराएँ, मान्यताएँ और बंदिशों के परनाले फूटते गए। इस सब का बस एक अंश ही लिख पाई हूँ मैं। औरत के इतिहास को, वर्तमान को लिखना कोई आसान काम नहीं है।

2010 में ही मेरा उपन्यास टेम्स की सरगम भी छप कर बाज़ार में आ गया। उपन्यास लिखना हेमंत के रहते शुरू कर दिया था। क्योंकि एक बहुत बड़े कथा समय सन् 1912 से 2000 को इसमें लेना था। अतः होमवर्क बहुत किया। उपन्यास कोलकाता से शुरू होता है। अतः मैं 20 दिन कोलकाता जा कर रही। मेरे रहने का इंतजाम उस समय वागर्थ के संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने भारतीय भाषा परिषद में किया। मेरे साथ प्रमिला और रमेश भी थे। प्रभा खेतान से मिलने हम लिटिल रसेल स्ट्रीट उनके घर गए। साथ में मैं अपनी सभी प्रकाशित पुस्तकें ले गई थी। लेकिन जब हम ऊपर उनके सुंदर फ्लैट में गए तो पता चला वह मद्रास गई हैं। उपहारों का पैकेट उनकी केयरटेकर बसंती को थमा कर हम कैमिक स्ट्रीट पार करते हुए सीधे चौरंगी रोड पर आ गए।

वसुंधरा मिश्र "बात" नामक पत्रिका के संपादक मंडल से जुड़ी हैं। उन्होंने अपने घर हमें चाय पर बुलाया। शाम को "बात" की ओर से कवि गोष्ठी का भी आयोजन था। उनके घर से हम उनकी कार से कवि गोष्ठी में गए। लगभग 60 कवि थे। जिन्होंने मेरा और प्रमिला का भरपूर स्वागत किया। हम उन्हें नहीं जानते थे पर वे सब विजय वर्मा कथा सम्मान के द्वारा हमें जानते थे। विजय वर्मा कथा सम्मान की राष्ट्रीय व्यापकता का एहसास कोलकाता जाकर हुआ। भारतीय भाषा परिषद पहुँच कर पता चला अलका सरावगी और मधु काँकरिया का फोन हमारे लिए था। साथ में मैसेज कल मिलने का।

चौरंगी से गुजरते हुए बांग्ला लेखक शंकर याद आए और उनका उपन्यास चौरंगी जिसने पाठकों के बीच बहुत लोकप्रियता हासिल की।

कोलकाता लेखकों कलाकारों की कद्र करना जानता है। लेखकों को तो यहाँ पूजा जाता है। पूरा कोलकाता रविंद्रमय है। रवींद्र सदन, रविंद्र पुल, रविंद्र हॉल, मेट्रो का रविंद्र स्टेशन। जोड़ासाँको में उनका पैतृक मकान जिसे देखने को पर्यटक उतावले रहते हैं।

हमने बाग बाज़ार में नवीन चंद्र सरकार की वह ऐतिहासिक रसगुल्ला की दुकान से रसगुल्ले खाए जहाँ पहले पहल रसगुल्ले का आविष्कार हुआ था। इन्हीं बाजारों में मिलते हैं तरह-तरह के गुड़। खेजूरी पाटली गुड़, ताल पाटली गुड़। सरसों के रस से तैयार किया कासुंदी मिलता है जिसे बंगाली माछझोल और भात में मिलाकर खाते हैं। यहाँ नौका यात्रा में एसडी बर्मन का भटियाली संगीत मल्लाह बड़ी तन्मयता से गाते हैं और ट्राम में यात्रा करते समय संथाली युवक इकतारे पर बाउल गीत गाते हुए दिखलाई पड़ते हैं।

कोलकाता की इन सभी खास बातों, आदतों को अपने उपन्यास "टेम्स की सरगम" में लिखकर मैंने कोलकाता को चिर स्मरणीय बना दिया।

बीसवीं सदी के अंग्रेजों की गुलामी के कुछ दशक भारतीय मंच पर तमाम ऐसी घटनाओं को फोकस करने में लगे रहे जिससे सम्पूर्ण जनमानस जागा और गुलामी के कलंक को माथे से मिटाने में जुट गया। आजादी का प्रयास इतना, महत्त्वपूर्ण हो उठा था कि तमाम धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक असमानताएँ भूल बस संघर्ष की आँच में कूद पड़ने का जनमानस बन चुका था। एकबारगी धर्म, साहित्य, कला (संगीत, नृत्य, चित्रकला) से जुड़े लोग भी कुछ ऐसी ही मानसिकता बना खुद को उसमें झौंकने को तत्पर थे। बीसवीं सदी की शुरूआत के वे चार दशक मैंने बड़ी बारीकी से पढ़े थे और उस वक्त की परिस्थितियों ने मेरे मन में अन्य किसी भी काल के इतिहास से अधिक जगह बना ली थी। मैं साहित्य में उतरी, फिल्मों को खँगाला, संगीत, चित्रकला और नाट्यकला के द्वार खटखटाए और इतनी असरदार तारीख़ों से गुज़री कि मुझे लगा अगर इन तारीखों पर मैंने नहीं लिखा तो मन की उथलपुथल कभी शांत नहीं हो सकती। मैंने आजादी के लिए सुलगते उन दशकों में एक प्रेम कहानी ढूँढी और खुद को उसमें ढालने लगी। यदि खुद को नहीं ढालती तो शायद न घटनाएँ सूझतीं, न शब्द। पूरे विश्व को अपने सम्मोहन में बाँधे भगवान कृष्ण को भी मुझे उन दशकों में जोड़ना था। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने वहाँ कृष्ण के विराट रूप को इस्कॉन के जरिए जीवंत होते देखा और बड़ी मेहनत से उस काल को इस काल तक जोड़ने की कोशिश की। सात वर्षों की मेरी अथक मेहनत, शोध...एक-एक पेज को बार-बार लिखने की धुन और हेमंत के शेष हो जाने के शून्य में खुद को खपाना।बहुत मुश्किल था ऐसा होना पर मैं कर सकी। अक्सर उसका भोला चेहरा कभी दाएँ से झाँकता, कभी बाएँ से..." माँ, कलम मत रोको, लिखो न...ओर मैं जैसे जादू से बँधी बस लिखती चली जाती...तो मैं कह सकती हूँ कि हेमंत ने यह उपन्यास मेरी यादों में घुसपैठ कर मुझसे लिखवाया।

इस उपन्यास के रचना समय के दौरान तमाम आवश्यक, अनावश्यक परिस्थितियों को खारिज करते हुए मैंने खुद को समेट कर रखा और इसके हर पात्र हर घटना को जीती रही। चाहती हूँ मेरी आवाज़ उन तक पहुँचे जो जिन्दगी और प्रकृति के जरूरी तत्व प्रेम को भूलकर मात्र अपने लिए जी रहे हैं और मनुष्यता को ख़त्म कर रहे हैं।

उपन्यास 2007 में लिखकर पूरा हो गया। मैंने पाण्डुलिपि राजकमल प्रकाशन में भेज दी। अशोक माहेश्वरी जी से बात भी कर ली। उन्होंने कहा जरूर प्रकाशित करेंगे। समय लगेगा। साल भर निकल गया। पता चला अभी दो तीन साल कोई उम्मीद न करें। हम रॉयल्टी के केस में उलझे हैं। मैंने मन्नू भंडारी जी को फोन किया। उन्होंने कहा "उपन्यास की पांडुलिपि मैं अशोक से मंगवा लेती हूँ। तुम दिल्ली आओ फिर बात करते हैं।" उसी साल कोलकाता के अनुज कुमार ने मानव प्रकाशन से साहित्यिक पुस्तकें छापने की शुरुआत की। मुझे फोन किया कि "कोई पाण्डुलिपि हो तो भेजिए।"

मैंने कहा पाण्डुलिपि दिल्ली में मन्नू भंडारी जी के पास है। अनुज तुरंत दिल्ली जाकर पाण्डुलिपि ले आए और 2010 की जनवरी में उपन्यास छाप दिया। यह बड़ी विशेष घटना थी क्योंकि मेरा उपन्यास कोलकाता की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था। उसे प्रकाशक भी कोलकाता का मिला। इस उपन्यास को लेकर मैं बेहतरीन अनुभव से गुजरी। चूँकि कथानक कोलकाता, वृंदावन और लंदन की घटनाओं, पृष्ठभूमि से जुडा था सो मैंने नजदीक से उन जगहों को वहाँ रहते हुए समझा। लंदन मैं हफ्ता भर रही। मुंबई का भी वर्णन है। मुंबई में तो मैं रहती ही थी।

उपन्यास का लोकार्पण राजस्थानी सेवा संघ ने कराया जिसमें मुख्य अतिथि पुष्पा भारती थीं। वक्ताओं में ओमा शर्मा, धीरेंद्र अस्थाना। पुष्पा जी लोकार्पण के हफ्ते भर पहले बीमार पड़ गईं। मैं उदास हो गई। विनोद सर बोले "नौटियाल जी को बुलाओ" पर वे उन दिनों बद्रीनाथ में थे। मैंने मान लिया था कि जितने लोग उपलब्ध होंगे उन्हीं की उपस्थिति में लोकार्पण हो जाएगा। कार्यक्रम के दो दिन पहले पुष्पा जी बोली मैं आऊंगी। वे आने लायक स्थिति में नहीं थीं। फिर भी आईं। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा "जिस प्रेम का संतोष ने वर्णन किया है इस उपन्यास में। मैं उस प्रेम से भारती जी को लेकर गुजर चुकी हूँ। मैं खुद को रोक नहीं पाई। संतोष कैसे लिखा तुमने यह सच्चा, उदात्त, समर्पित प्रेम।"

उन्होंने जो कुछ कहा वह वक्तव्य पूरा का पूरा समीक्षा के नाम से हंस में राजेंद्र यादव ने छापा। लगभग डेढ़ सौ लोगों की उपस्थिति में कार्यक्रम संपन्न हुआ। मुझे विभिन्न संस्थाओं ने फूलों से लाद दिया।

इस उपन्यास की समीक्षा डॉ वीरपाल सिंह ने पुस्तक वार्ता के लिए की जो वर्धा से प्रकाशित होती है। नया ज्ञानोदय में प्रभाकर मिश्र ने की। लगभग 12 पत्रिकाओं में समीक्षा छपी और किताब का दूसरा संस्करण भी अब बाज़ार में उपलब्ध है।

लोकार्पण के बाद ओमा शर्मा का फोन आया "आपने इसमें पृथ्वी थियेटर का जिक्र जिस काल में किया तब तो उसकी स्थापना ही नहीं हुई थी।"

"मैंने कहा ध्यान से पढ़ा नहीं आपने उस काल में पृथ्वी थियेटर एक मोबाइल कंपनी के रूप में जाना जाता था और पृथ्वीराज कपूर जगह-जगह जाकर थिएटर किया करते थे।"

"मुझे जन्म दो माँ" और "टेम्स की सरगम" 2010 और 11 में खूब चर्चित रही। अब दोनों ही किताबों के अंग्रेजी अनुवाद हो चुके हैं। टेम्स की सरगम का अनुवाद शील निगम ने किया जिसे सामयिक प्रकाशन ने Romancing the Thems नाम से छापा और 2015 के विश्व पुस्तक मेले में अशोक वाजपेई के द्वारा उस का लोकार्पण हुआ। लेकिन उसकी कीमत ₹900 बहुत अधिक लगी मुझे।

टेम्स की सरगम पर ही चर्चित पत्रकार कुमार सुशांत कूच बिहार से इस पर आलोचना ग्रंथ लिखवा रहे हैं। यह इस पुस्तक की बड़ी उपलब्धि है।