मेरे घर आना जिंदगी / भाग 12 / संतोष श्रीवास्तव्

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इसी वर्ष नमन प्रकाशन ने सुरेंद्र तिवारी के संपादन में 20वीं सदी की महिला कथाकारों की 10 खंडों में कहानियाँ छापी। मेरी कहानी "आईरिस के निकट" खंड 8 में छपी। इन खंडों में कहानियाँ इकट्ठी करने में और उन्हें जन्मतिथि के अनुसार व्यवस्थित करने में सुरेंद्र तिवारी ने बहुत मेहनत की थी। वे अब इस दुनिया में नहीं है पर उनका यह उपहार साहित्य जगत में सदैव याद किया जाएगा।

मुम्बई पर बहुत कुछ लिखने की इच्छा थी लेकिन फिलवक्त तो उस पर एक सफरनामा ही लिखकर इति कर ली। मेरा यह सफरनामा "मुम्बई भारत की शान" रायपुर की पत्रिका पाण्डुलिपि में प्रकाशित हुआ। जिसके लिए संपादक जयप्रकाश मानस ने मुझसे रचना आमंत्रित की थी। इस रचना से वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे रायपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित प्रेमचंद जयंती समारोह में 31 जुलाई 2011 को आमंत्रित किया। यह समारोह छत्तीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक विश्वरंजन जी के द्वारा आयोजित किया जा रहा था। जिन्हें नक्सलवादियों से सुरक्षा के लिए जेड सुरक्षा दी गई थी। विश्वरंजन जी रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी के नाती हैं। लिहाजा मुझे स्टेशन पर लाल बत्ती वाली पुलिस गाड़ी लेने आई और ट्रेन से सामान भी पुलिस ने उतारा। मेरी बुआ और उनकी बहू कवयित्री नीता श्रीवास्तव भी मुझे लेने आई थी। भोली भाली बुआ पुलिस देखकर डर गईं और मुझसे लिपट कर रोने लगीं "क्या किया है तूने जो पुलिस पकड़ कर ले जा रही है।"

हम सबका हँसते-हँसते बुरा हाल था।

होटल में कमरा मुझे भोपाल से आई पत्रकार जया केतकी से शेयर करना था। वह भी इसलिए कि वह अपनी साक्षात्कार की पुस्तक "फेस टू फेस" के लिए मेरा साक्षात्कार ले सके। इस पुस्तक के लिए उसने मशहूर साहित्यकारों के साक्षात्कार ले लिए थे जिनमें से अधिकतर भोपाल के थे। सफर की थकान की वजह से मैंने जया से क्षमा मांगते हुए कहा

"क्या मैं लेटे-लेटे आपके प्रश्नों का उत्तर दे सकती हूँ?"

"दीजिए न, बल्कि यह तो अविस्मरणीय साक्षात्कार होगा।"

" हाँ, देखिए न आपके प्रश्नों की मेरी तैयारी भी तो नहीं है।

"हाँ, इंस्टेंट उत्तर रहेंगे आपके।"

वह रात 1: 30 बजे तक मेरा साक्षात्कार लेती रही। अंतिम प्रश्न में मैं सो चुकी थी। जया ने वह प्रश्न सुबह चाय के समय पूछा।

समारोह के सम्मान सत्र का सँचालन जिसमें मुझे प्रमोद वर्मा स्मृति साहित्य सम्मान दिया जाना था युवा पत्रकार डॉ संजय द्विवेदी ने किया। समारोह शाम तक चला, संजय मुझे और जया को छोडने होटल आये, इन दिनो वे भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी विश्व विद्यालय में प्रोफसर हैं।

दूसरे दिन मैं बुआ के घर आ गई। पुराने किस्से मेरे बचपन की यादें बाबूजी अम्मा सभी को तो बुआ ने याद कर ढेरों बातें बताई। तरह-तरह के व्यंजन। आवभगत ऐसी कि जैसे कोई वीआईपी आ गया हो। अगले दिन ऋचा संस्था ने मेरे सम्मान में कवि गोष्ठी का आयोजन किया। बुआ सुबह से ही साड़ी सिलेक्ट करती रहीं।

"कौन-सी पहनूं। मेरी सेलिब्रिटी बिटिया का सम्मान हो रहा है। बुआ को भी तो रुतबे से जाना होगा।" समारोह में जैसे पूरा रायपुर का साहित्यिक वर्ग उलट पड़ा। सभी अखबारों की कवरेज मिली।

उसी वर्ष 16 से 21 दिसम्बर को थाईलैंड में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के लिए मुझे निमंत्रित किया गया। जयप्रकाश मानस ने कहा "आ रही हैं न। सर्जन श्री सम्मान आप की बाट जोह रहा है।" मैंने हामी भर दी।

कथाबिम्ब में एक कॉलम आमने-सामने निकलता है। जिसमें लेखक का साक्षात्कार और एक कहानी छपती है। इसमें प्रकाशित महिला लेखकों के साक्षात्कारों का संग्रह "महिला रचनाकार अपने आईने में" संग्रह डॉ अरविंद के संपादन में भारत विद्या इंटरनेशनल कोलकाता से प्रकाशित हुआ जिसमें मेरा भी साक्षात्कार था "खुद के कटघरे में।"

इन दोनों साक्षात्कारों की किताबों में छपे साक्षात्कारों ने मुझे चर्चित कर दिया और साक्षात्कार लेने के विभिन्न प्रस्ताव मेरे पास आने लगे। अब तक 26 लोगों हिन्दी और मराठी के लेखक, रंगकर्मी, संपादक, पत्रकार, कवि द्वारा साक्षात्कार लिए जा चुके हैं जिनका संकलन शीघ्र ही नमन प्रकाशन से "रूबरू हम तुम" नाम से प्रकाशित होगा। इस पुस्तक का संपादन वरिष्ठ कहानीकार, संपादक विकेश निझावन कर रहे हैं।


उन दिनों मैं कमल गुप्त का मैकाले का भूत पढ़ रही थी। इसे जो पढ़ना शुरू किया तो खत्म करके ही उठी। दो रातों के जागरण ने मेरी तबीयत खराब कर दी। पेट खराब हो गया। इतने लूज मोशन हुए। चक्कर आने लगे। बिस्तर पकड़ लिया। सुमिता को फोन लगाया वह अपनी बहू पायल और बेटे मोहित के साथ दवा और खिचड़ी लेकर आई। लेकिन मेरी हालत देखकर वह मुझे अपने घर ले गई। तब विनोद सर कैलिफोर्निया में थे। उन्हें फोन लगाया। उन्होंने तुरंत वालेचा को फोन पर कहा कि"संतोष का प्रॉपर ट्रीटमेंट कराओ। रुपयों की मदद पहुँचाओ।" सुबह सुमिता मुझे डॉ के पास ले गई। दवा पथ्य शुरू हुआ। विनोद सर सुबह शाम हालचाल पूछते। 5 दिन सुमीता के घर इलाज और आराम किया।

सुमीता की भी इच्छा थी थाईलैंड जाने की। मैंने जयप्रकाश मानस से बात की। लेकिन वे सुमीता को जानते न थे। मेरे अनुरोध पर हामी भरी। सुमीता के पास पासपोर्ट न था। मेरी तबीयत थोड़ी-थोड़ी सुधर रही थी। पासपोर्ट की भाग दौड़ में मैं भी दो बार सुमीता के साथ पासपोर्ट ऑफिस गई।

पासपोर्ट तत्काल में बन गया और हम दोनों थाईलैंड की तैयारियों में जुट गए।

16 से 21 दिसम्बर हम थाईलैंड में थे। जहाँ चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया जा रहा था। बैंकॉक में मुझे सर्जन श्री साहित्य सम्मान प्रदान किया गया। काफी लेखक आए थे थाईलैंड। आधारशिला के संपादक दिवाकर भट्ट से वहीं पहचान हुई।

थाईलैंड से लौटते ही घटनाएँ तेजी से घटीं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी शाखा प्रमुख डॉ बिपिन ने आमंत्रित किया। 23, 24 जनवरी को राष्ट्रीय संगोष्ठी थी। जिसका विषय था"21वीं सदी की हिन्दी समकालीन विमर्श" हिन्दी विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय तथा साहित्यिक पत्रिका अनिश का संयुक्त आयोजन था। मेरे लिए वहाँ जाना इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि बाबूजी वहीं के पढ़े थे और पंडित मदन मोहन मालवीय जी के जमाने में छात्रावास में भी रहे थे।

बिपिन जी ने मेरे रहने की व्यवस्था यूनिवर्सिटी फैकेल्टी हाउस में की थी। एक गाड़ी भी मेरे लिए अरेंज कर दी ताकि मैं अच्छे से विशाल परिसर में स्थित विश्वविद्यालय और बनारस घूम सकूं। कार्यक्रम राधाकृष्णन सभागार कला संकाय में संपन्न हुआ जहाँ मुझे दलित साहित्य सम्मान प्रदान किया गया। मैं इतनी इमोशनल हो रही थी, डॉ राधाकृष्णन ने ही तो बाबूजी को दर्शनशास्त्र पढ़ाया था। मैंने अपने वक्तव्य में इसका जिक्र किया और उस जमाने की बाबूजी की बताई बातें साझा की।

कार्यक्रम के बाद छात्रों ने मुझे घेर लिया और मेरा ऑटोग्राफ लेने लगे। आग्रह करने लगे कि और भी बातें बताइए न यूनिवर्सिटी से जुड़ी। मैं उन छात्रों के साथ ही संस्कृत विभाग, छात्रावास आदि देखती रही। मुझे लगा जहाँ बाबूजी के चरण चिह्न हैं वह जगह तो मेरे लिए तीर्थ समान है। क्या आलम रहा होगा तब। शिक्षा के साथ क्रांति की सरगर्मियाँ भी।

शाम को डॉक्टर विपिन के यहाँ चाय पार्टी थी। उनकी पत्नी ने ताज़ी मटर और फिंगर चिप्स की चाट परोसी। चाय भी बेहद स्वादिष्ट थी। डॉ बिपिन बताते रहे अनिश पत्रिका के प्रकाशन की बातें "आपने आज जो वक्तव्य दिया है वह अगले अंक में प्रकाशित होगा।" अनिश में लेख ही ज्यादा प्रकाशित होते हैं। लेकिन समकालीन मुद्दों पर विमर्श की अच्छी पत्रिका है।

मेरी ट्रेन कल शाम की थी। सुबह से सम्मेलन में आए साहित्यकार साथियों के साथ बनारस भ्रमण किया। पहले भी देख चुकी थी बनारस। सबसे ज्यादा आनंद आया गंगा के विभिन्न घाटों की सैर करने में। दशाश्वमेध घाट से नौका ली थी। बाबूजी इसी घाट पर ब्राह्ममुहूर्त में आकर सूर्य उपासना करते थे। तब गंगा शुद्ध निर्मल थी। अब मैली। गंगा को यह मैलापन मनुष्य ने ही तो दिया है। एक ओर धार्मिक आस्था की प्रतीक गंगा। दूसरी ओर कचरे का महासागर।


नौकरी छोड़ दी थी और मेरे पास समय ही समय था। हालांकि यूनिवर्सिटी से जुड़ाव बना रहा। हफ्ते में दो बार तो चली ही जाती। ऑफिस के काम निपटाती। कभी-कभी विनोद सर खुद का लेखन भी करवाते। लेकिन उन्हें अपना कैलिफोर्निया प्रवास का संस्मरण लिखाना था तो उस पर मुझ से काम करवाते।

राजस्थानी सेवा संघ की स्थापना के 50 वर्ष पूरे हो चुके थे। जिस पर मुझे नाटक लिखना था और नाटक का निर्देशन भी करना था। सभी घटनाओं पर होमवर्क करके मैंने नाटक लिखा। रंगकर्मी एबनेर के बैच ने नाटक खेला। लगभग डेढ़ घंटे का नाटक तैयार हो गया जो भाई दास हॉल में 400 लोगों की उपस्थिति में खेला गया।

स्वर्ण जयंती थी। सुबह 11: 00 से शाम 6: 00 बजे तक कार्यक्रम हुए। विनोद सर ने शिक्षा मंत्री, पुलिस महानिदेशक, गवर्नर और विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को आमंत्रित किया था। मेरे द्वारा निर्देशित गीत की सीडी तैयार हुई। जिसे सभी को उपहार स्वरूप भेंट किया गया।

न जाने क्यों मुझे लगने लगा जैसे मैं वैसा जीवन नहीं जी पा रही हूँ जैसा मैं चाहती हूँ। मेरे कमरे की खिड़की से दिखते जवाकुसुम के लाल फूलों से लदा पेड़ और उस पर फुदकती चिड़ियाँ जो अपनी चहचहाहट से माहौल को संगीतमय बना देती हैं मुझे बहुत हॉन्ट करतीं, न जाने क्यों!

मुंबई में साहित्यिक सरगर्मियाँ बढ़ रही थीं। आशीर्वाद संस्था के डॉ उमाकांत बाजपेई ने फोन पर बताया कि वे मुंबई के हिन्दी कवियों की पुस्तक संपादित करने जा रहे हैं। जिसमें मैं भी अपनी कविता फोटो, परिचय सहित भेजूं। इसी समय दिल्ली से प्रेमचंद सहजवाला ने भी 10 कविताएँ मंगवाई। वे भारत के सिलेक्टेड कवियों की किताब "लिखनी ही होगी एक कविता" जो बोधी प्रकाशन से प्रकाशित होगी, संपादित कर रहे थे। मैं छिटपुट कविताएँ लिखती थी। तब अधिक छपी भी नहीं थी पर एक बार विश्व पुस्तक मेले में उन्हें कुछ कविताएँ सुनाई थीं। बहुत प्रोत्साहित किया था उन्होंने "लिखो मन के भाव कागज पर उतारती रहो। फिर उन पर होमवर्क करो। कविता सृजित होगी। अब वे इस दुनिया में नहीं है। उनके द्वारा संपादित संग्रह" लिखनी ही होगी एक कविता"मेरी किताबों की अलमारी में है। मैं उन्हें बताना चाहती हूँ कि हाँ मैं लिख रही हूँ कविता और मेरा एक संग्रह भी छप चुका है" तुमसे मिलकर" लेकिन उसे पढ़ने के लिए आप नहीं है।

कितने आत्मीय हमेशा के लिए बिछड़ जाते हैं लेकिन लेखक फिर भी अपनी लेखन यात्रा जारी रखता है। मेरे लेखन ने जब जन्म लिया, वह पूरी प्रक्रिया, मेरी जिज्ञासाएँ, मेरे भीतर कुलबुलाते प्रश्न और बीहड़ संवेग, पथरीली घटनाएँ जिस पर से गुजर कर एक लंबा कष्टप्रद सफर मैंने तय किया। क्या मैं अपने भीतर के सफर को कभी परिभाषित कर पाऊंगी। दुनियादारी साथ-साथ चलती रहती है। अगर शब्दों का सफर सड़क से गुजरता है तो दुनियादारी उसका फुटपाथ होती है।