मेरे घर आना जिंदगी / भाग 13 / संतोष श्रीवास्तव्

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वर्ष 2015 में मेरे साहित्य पर केंद्रित दो विशेषांक निकले। विकेश निझावन के संपादन में अंबाला से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका पुष्पगंधा का मई से जुलाई 2015 का अंक मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक था। जिसमें जयप्रकाश मानस द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार, मेरे मित्रो के मेरे विषय में विचार जिन्हें अभिव्यक्ति कॉलम दिया गया जिसके अंतर्गत प्रसिद्ध रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज, मोहनदास फकीर, आलोक भट्टाचार्य, गुलशन आनंद, सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज, पत्रकार महेश दर्पण तथा कवि, आलोचक भारत भारद्वाज के लेख प्रकाशित किए गए।

अपने संपादकीय में विकेश निझावन ने लिखा कि " साहित्य की विभिन्न विधाओं को संतोष श्रीवास्तव ने जिस गहरे से छुआ हमारे पाठकों की जिज्ञासा उनके साहित्य और जीवन के और करीब जाने के लिए बढ़ती चली गई। यह अंक भी संतोष जी के जीवन के अन्य पहलुओं से रूबरू होने जा रहा है जो पाठकों के विशेष अनुरोध पर उनके साहित्य पर केंद्रित किया गया है। कहा जाता है कि दर्द का हद से गुजर जाना हो जाता है दवा, लेकिन यहाँ हमें संतोष जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखा प्रसिद्ध कवि आलोक भट्टाचार्य का यह लेख कि संतोष ने दुख की परिभाषा बदली है बहुत अधिक सटीक लगा।

दुख की परिभाषा बदली है संतोष ने

उनका नाम भर संतोष है। बाकी बात यह है कि अपनी लिखी रचना से वे कभी संतुष्ट नहीं होतीं और इसीलिए वे अपनी रचनाओं की सबसे बड़ी आलोचक भी हैं। आप पाएंगे कि उनमें एक तड़प है, एक अबूझ छटपटाहट है। वह हमेशा कुछ न कुछ नया सोच रही हैं। नई योजनाएँ, नए कार्यक्रम बना रही हैं। उनमें बहुत उत्साह है। आप उनसे मिलें, वह आपको बताएंगी कि उन्होंने क्या-क्या किया है। क्या कर रही हैं और क्या करने वाली हैं। उनके यह सभी काम साहित्य से जुड़े होते हैं। वह अपने घर पार्टी कर रही हैं तो स्थानीय या मुंबई के बाहर से आए साहित्यकारों के साथ। पिकनिक जा रही हैं तो साहित्यकारों के साथ।

कई लोगों को लगता है लग ही सकता है कि यह संतोष की अतिरिक्त गतिविधियाँ हैं। एक्स्ट्रा करिकुलर यानी साहित्येतर, साहित्य से बाहर की दौड़ भाग लेकिन ऐसा है नहीं। दरअसल वे इन्हीं गतिविधियों में से अपनी रचनात्मकता की आग को धधकाए रखने का ईंधन जुटा लेती हैं। उनके इस कार्य का एक अहम हिस्सा है दूरदराज के लेखकों से संपर्क बनाए रखना। जिनके साथ उनकी मुलाकात विभिन्न साहित्यिक सम्मेलनों या विश्वविद्यालय के सेमिनारों में होती रहती है। इन्हें वे अपनी बिरादरी भी कहती हैं। ऐसा करके अपने परिवेश को साहित्यमंडित बनाए रखती हैं और इस तरह खुद को ऑक्सीफाइड कर लेती हैं। संतोष उदार होती हैं, स्नेहिल होती हैं, मददगार या फिर नए लेखकों को प्रमोट करने की दरियादिली... उनका अंतिम ध्येय अंततः साहित्य होता है।

अच्छे साहित्य को धर पकड़ने के लिए सांसारिक लापरवाही या व्यवहारिक क्रूरता आपको देखनी है तो बाबा नागार्जुन में देखें, राजकमल चौधरी में देखें। फर्क यह है कि संतोष में लापरवाही सिरे से गायब है। वे सजग हैं। व्यवहार में क्रूर नहीं अति कोमल हैं।

संतोष के खून में साहित्य है। उनके डीएनए में साहित्य है। उनके पिता दर्शन शास्त्र की किताबें लिखते थे। माँ गीत। उनके भाई विजय वर्मा साहित्य की बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। छोटी बहन डॉ प्रमिला वर्मा भी हिन्दी की स्थापित कथाकार हैं। संतोष का एकमात्र बेटा हेमंत मात्र 23 साल की उम्र में जिसकी अकाल मृत्यु एक दारूण, ह्रदय विदारक दुर्घटना में हो गई वह भी कविताएँ लिखता था। बाद में हेमंत की कविताओं का संग्रह छपा "मेरे रहते।"

मेरा संतोष से परिचय उनके पहले कथा संग्रह बहके बसन्त तुम के लोकार्पण के अवसर पर नूतन सवेरा के ऑफिस में हुआ और तब से हम घनिष्ठ मित्र हैं। अब तो और भी अधिक जब उनके बड़े भाई विजय वर्मा और पुत्र हेमंत की स्मृति में स्थापित हेमंत फाउंडेशन से मैं भी जुड़ गया हूँ।

संतोष ने बहुत जल्दी-जल्दी दो बड़े दुख झेले पहले जवान होनहार बेटे हेमंत की अकाल मृत्यु और फिर कुछ ही समय बाद कैंसर से पति की मृत्यु। कोई भी महिला टूट ही जाती। संतोष भी टूटती अगर उनके पास साहित्य की शक्ति न होती।

प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार प्रमथ चौधरी ने कहा है साहित्य भले ही रोटी रोजगार नहीं दे पाता है, आत्महत्या से तो बचाता है। संतोष भी बच गईं। वे आत्महत्या तो नहीं करतीं लेकिन शोक से भरी तन्हाई में घुल-घुल कर जीते रहने को भी तो जीवन नहीं ही कहा जा सकता।

उससे उबर कर फिर से जीवंत हो पाने का अवसर उन्हें निश्चित रूप से साहित्य ने ही दिया। संतोष पहले भी खूब सक्रिय थीं लेकिन शोकस्तब्ध एकाकीपन की उस उदास अंधकार भरी खाई की मृत्यु शीतल जकड़ से स्वयं को मुक्त करने के लिए संतोष ने अपनी साहित्यिक सक्रियता को खूब बढ़ा लिया। स्थिर बुद्धि के अचंचल लोगों को संतोष की सक्रियता अतिरेकी जरूर लग सकती है। लेकिन मुझे लगता है संतोष ने ठीक ही किया। दुखों की परिभाषा बदल कर संतोष ने दुख को कोसों दूर झटक दिया। लिखना तो कलम मात्र के बस की बात नहीं कि जब चाहा कलम चलाने लगे। यह तो कलम घिसना हुआ कि दुख आन पड़ा और लिखने बैठ पड़े, ऐसा होता नहीं। दुख पचने को समय लेता है। उसका रूपांतरण समय साध्य है। झटपट कुछ नहीं होता। जब तक लिखना "आता" या उर्दू लहजे में कहूँ तो "उतरता" या अपने पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के अंदाज में "अवतरित" होता तब तक क्या संतोष बैठी रहतीं? इंतजार करतीं? संतोष ने तय किया लिखना तो होगा ही। जब होगा तब होगा। अभी यह बहुत ज्यादा जरूरी है कि उनका टूटा मन कहीं तो थोड़ा जुड़े। सो वे साहित्यिक गतिविधियों में डूबती चली गईं। शुरू हो गया लेखकों के जन्मदिवस, शताब्दी दिवस, स्मृति दिवस, कहानी पाठ, कवि गोष्ठी, पुस्तक लोकार्पण, विजय वर्मा कथा सम्मान, हेमंत स्मृति कविता सम्मान, साहित्य सम्मेलनों में प्रतिभागिता। रायपुर, जगदलपुर, भोपाल, पटना, रांची, इंदौर, लखनऊ, गोवा, सूरत, वडोदरा, हल्द्वानी, देहरादून, अमृतसर, डलहौजी, दिल्ली, कोलकाता और शुरू हो गया कहानी उपन्यास के साथ गजल, कविता लेखन, स्तंभ लेखन भी। आज मुंबई में संतोष श्रीवास्तव साहित्य की एक जीती जागती प्रतिष्ठित प्रतिमा हैं और भारत की चर्चित महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर।

लेकिन इस सबके बावजूद दुख तो दुख ही होता है। अकेलापन, अकाट्य, अभेद्य। वरना हंसती मुस्कुराती संतोष की कलम से यह शब्द न रिसते।

"रात 12: 00 या 1: 00 बजे तक लिखती हूँ पर कोई कहने वाला नहीं कि अब सो जाओ।"

उन्हीं का एक शेर

अब रात बीतती है चलो घर की राह लें

पर वहाँ भी मेरे सिवा मिलेगा कौन?

शायद संतोष इस बात को आत्मा की गहराई से अनुभव करती हैं कि सिर्फ और सिर्फ लिखने और गहरे सच्चे लिखने के अलावा बाकी सभी कुछ मात्र आवरण ही है। थोथा तामझाम। अनुभव कर पाती हैं तभी तो सब कुछ के बावजूद, सब कुछ के बाद संतोष कलम की शरण गहती हैं। लेखन का ही हाथ थामती हैं। संतोष जानती हैं कि दुख विराट है। दुख में से ही सांस रोककर, खींचतान कर थोड़ा-सा सुख निकाला जा सकता है। दुख की विशाल मूर्ति के यहाँ-वहाँ कोने-कोने से कुरेद-कुरेद कर थोड़ी-सी ऐसी मिट्टी निकाली जा सकती है कि एक छोटी-सी मूर्ति गढ़ी जा सके।

संतोष दुखों की एक विराट मूर्ति हैं। खुद अपने को कुरेद-कुरेद कर वह सुख के छोटे-छोटे गुड्डे गुड़ियाएँ गढती जाती हैं। दो एक अपने लिए बाकी दुनिया जहान के लिए। यही संतोष की रचना प्रक्रिया है।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि संतोष श्रीवास्तव चित्रकार भी हैं। चित्रकला की उनकी जानकारी की एक झलक उनके आगामी उपन्यास "लौट आओ दीपशिखा" में पाठक देख सकेंगे। उपन्यास शायद किताबवाले पब्लीकेशन से आ रहा है। संतोष नृत्य कला प्रवीण भी हैं। अच्छी वक्ता भी हैं।

रही संतोष के साहित्य की बात तो वहाँ जीवन अपनी तमाम विशेषताओं और आकस्मिकताओं के साथ मौजूद है। वहाँ रूमान अगर अपनी पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित है तो सामाजिक सरोकार के खलबलाते, उबलते, बेचैन करते तमाम सवालात भी। टेम्स की सरगम में रूमान अपने उच्चतम ताप और समस्त और तार्किकता के साथ यदि मौजूद है तो माधवगढ़ की मालविका में सती प्रथा के खिलाफ, मुझे जन्म दो माँ में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ और नहीं अब और नहीं में सांप्रदायिकता के खिलाफ संतोष ने आवाज उठाई है। संतोष के पास जीवन की अद्भुत जटिलताओं को समझने की सहृदयता है। समाज की आर्थिक, राजनीतिक खासकर भारत जैसे विशिष्ट समाज की जातीय और सांप्रदायिक समस्याओं को समझने की दृष्टि है। साथ ही रूमान की अबूझ बचपनाभरी, नासमझी को भी लाड़ भरी शह देने का ममतापूर्ण माद्दा है और इन सबको मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति देने के लिए प्रवाहमयी, प्रांजल, खूबसूरत भाषा भी है उनके पास।

संतोष अत्यंत परिश्रमी, समय की पाबंद, स्वाभिमानी, साहसी हैं। गलत चीजों पर कभी समझौता नहीं करतीं। अड़ जाने में तनिक भी नहीं डरती। स्पष्टवक्ता हैं लेकिन मृदुभाषी भी। स्नेह से लबालब उनका ह्रदय है। सारे संसार की पीड़ा धारे, खुद की पीड़ा भूले अप्रतिम संतोष लिखती रहें। हिन्दी साहित्य समृद्ध होता रहे।

आलोक भट्टाचार्य का यह लेख मेरे साहित्य पर केंद्रित अन्य पत्रिकाओं ने भी छापा।

प्रतीक श्री अनुराग के संपादन में वाराणसी से निकलने वाली मासिक पत्रिका वी विटनेस का अप्रैल 2015 का अंक भी मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक था।

प्रतीक अनुराग ने अपने संपादकीय में लिखा "महान कवि आलोचक व नोबेल प्राइज विजेता टी एस इलियट ने अपने संस्मरण में रोला रोमा, रिल्के और दूसरे समकालीन यूरोपीय लेखकों की उपस्थिति पर हर्ष व्यक्त करते हुए आशंका जताई थी कि क्या भविष्य में कभी ऐसे लेखक दोबारा जन्म लेंगे। प्रतिभावान, सादगी भरे, शोहरत से कोसों दूर, असुविधाओं में फंसे मगर फिर भी अपने काम में निमग्न... समय समाज की आत्मा को अपनी रचनात्मकता का हिस्सा बनाती ऐसी संवेदनशीलता जो मनुष्य को न सिर्फ उसके अस्तित्व का एहसास कराए बल्कि उसका सम्बल भी बने।"

उस टिप्पणी के संदर्भ में अपनी भाषा के सम्माननीय लेखकों की उपस्थिति और रचनात्मकता के बरक्स लेखिका संतोष श्रीवास्तव की याद बरबस आ जाती है। पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से लेखन एवं कला जगत को समर्पित एक ऐसी कलमकार को, उसके वृहद सर्जन संसार को कुछ पन्नों में समेटना एक दुरूह कार्य है फिर भी वी विटनेस ने संतोष जी के साहित्य आकाश के मर्म को स्पर्श करने का प्रयास किया है।

जब राजस्थानी सेवा संघ की स्वर्ण जयंती भाईदास हॉल में मनाई जा रही थी तब माया गोविंद और गोविंद जी से चाय के दौरान पता चला कि वे माया गोविंद पर एक किताब तैयार कर रहे हैं। "सृजन के अनछुए प्रसंग" जिसमें माया जी से जुड़े साहित्यकारों, पत्रकारों और फिल्मी दुनिया के लोग संस्मरण लिख रहे हैं।

"आप भी लिखिए न"

" हाँ मैं जरूर लिखूंगी गोविंद जी। आखिर मैं माया जी की बिटिया हूँ।

(वे मुझे बिटिया कहकर सम्बोधित करती थीं) मैं उनके व्यक्तित्व कृतित्व पर लिखूंगी। " इस पुस्तक के संपादक डॉ करुणाशंकर उपाध्याय हैं। माया गोविंद दी पर जितना लिखो कम है। एक महान हस्ती हैं वे। जिनकी जिंदगी की किताब सबके सामने खुली है। यह कि उन्होंने तीन शादियाँ की, गोविंद जी उनके तीसरे पति हैं। यह कि वे अब तक 350 फिल्में, टीवी सीरियल प्राइवेट एल्बम के लिए 800 गीत लिख चुकी हैं और गीतों से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

इस किताब का खूब धूमधाम से लोकार्पण हुआ। इस वर्ष उन्होंने अपना जन्मदिन भी खूब धूमधाम से मनाया। हरे-भरे रिसॉर्ट में फिल्मी हस्तियों के बीच सागर त्रिपाठी के संचालन में गीत ग़ज़ल का कार्यक्रम रात 1: 00 बजे तक चला। 2: 30 बजे माया दी ने बोधिसत्व से कहा कि वे मुझे घर तक पहुँचा दें। वे मेरे घर से 5 मिनट की दूरी पर रहते थे।

बोधिसत्त्व को जाने क्या हुआ। पहला हेमंत स्मृति कविता सम्मान उन्हें ही दिया गया था। तब उन्होंने पुरस्कार राशि संस्था को मंच पर ही डिक्लेअर करते हुए डोनेट कर दी थी। अब कहते फिर रहे हैं कि संस्था के दबाव में आकर डोनेट की। जहर उगल रहे हैं मेरे और प्रमिला के प्रति कि ये दोनों बहनें याचना की पात्र हैं।

धन्य हैं बोधिसत्व जी, दोगलापन तो कोई आपसे सीखे। आप हेमंत फाउंडेशन से पुरस्कृत कवियों में एक धब्बा हैं।

ताशकंद में आयोजित 5 वें अंतरराष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मुझे सृजनगाथा पत्रकार सम्मान के लिए प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान छत्तीसगढ़ ने आमंत्रित किया। 4 जून 2012 को लगभग 70 भारतीय लेखकों के साथ मैं दिल्ली से ताशकंद रवाना हुई। कार्यक्रम बहुत ही सफलतम कहा जाएगा। मुझे बुद्धिनाथ मिश्र के हाथों पुरस्कार प्रदान किया गया। यह मुझे मिले पुरस्कारों में तीसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मान था। ताशकंद भ्रमण के दौरान शास्त्री जी से जुड़ी यादों ने भाव विभोर कर दिया। इसलिए नहीं कि वह मेरे मामा ससुर थे बल्कि इसलिए कि उनका यहाँ आश्चर्यजनक परिस्थितियों में देहावसान हुआ था और हमने अपना बेहद प्यारा नेता खो दिया था। समरकंद यात्रा के दौरान बुलेट ट्रेन की बोगी में बुद्धिनाथ मिश्र, देवमणि पांडे, जयप्रकाश मानस आदि की कविताएँ सुनते हुए समय का पता ही नहीं चला था। सम्मेलन के दौरान मुझे महाराष्ट्र का अध्यक्ष घोषित किया गया। अगला सम्मेलन कंबोडिया में होना तय हुआ।

अब सोचती हूँ तो लगता है परिवार को खोकर तो मेरी जिंदगी पहियों पर सवार हो गई। कभी नाशिक, कभी पूना, कभी भंडारदरा, कभी घाटघर, कभी इंदौर, कभी पटना, तो कभी रायपुर। हर जगह मेरे लिए कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। सम्मान पुरस्कारों की लिस्ट में इजाफा हो रहा है और अखबारों में सुर्खियों में हूँ। मेरे साक्षात्कार, लोकल न्यूज़ चैनलों में बाइट्स कुल मिलाकर बेहद व्यस्त जिंदगी हो गई। समय ऐसा गुजरा जैसे किताब के पन्ने। हर पन्ना आश्चर्य, सफलता चर्चा में बना रहने वाला। साथ ही मेरी पीड़ाओं का खुलासा करने वाला। यही दास्तान पेज दर पेज।

और मैं दिशाहीन हो समय की सरिता में बेकाबू होकर चप्पू चला रही हूँ। किनारा दिखाई नहीं देता। न जाने कब ख़तम होगी यह किताब।


मुंबई में बारिश का मौसम चल रहा था। इंदौर से कृष्णा अग्निहोत्री जी की घबराई हुई आवाज

"अरे संतोष, नातिन आज ही 6 महीने की ट्रेनिंग के लिए मुंबई पहुँची है। बारिश से घबराकर एयरपोर्ट पर ही बैठी है। सुधा अरोड़ा ने अपने घर रुकने को हाँ कहा था पर वह तो फोन ही नहीं उठा रहीं। तुम कुछ करो।"

"कृष्णा दी, उनको मेरा फोन नंबर दे दीजिए। बात कर लेती हूँ।"

थोड़ी देर बाद नातिन का फोन आया। मैंने उसे अपने घर का रास्ता समझाया और कहा तुम मेरे घर रह सकती हो। वह मेरे घर एक हफ्ते रही। फिर उसे फ्लैट मिल गया। पेइंग गेस्ट वाला। अंधेरी में। कृष्णा जी का फोन आया " संतोष तुमने हमारी बहुत मदद की। ऐसे में जब सभी ने उसे अपने घर रुकने को मना कर दिया था तुमने साथ दिया। तुम्हारा एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी।

कृष्णा दी साहित्य जगत से असंतुष्ट हैं। वे सोचती हैं कि साहित्य में उनका मूल्यांकन नहीं हुआ और उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया है।

इंदौर लेखिका संघ ने मुझे सम्मानित करने और सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंदौर बुलाया। प्रेम कुमारी नाहटा ने मेरे रुकने का प्रबंध होटल में किया था पर कृष्णा दी नहीं मानी। मेरे ही घर रुकना है तुम्हें।

प्रेम कुमारी नाहटा की पुस्तक कोठरी से बाहर की भूमिका मैंने लिखी थी। उसका भी लोकार्पण होना था। दूसरे दिन इंदौर लेखक संघ के कार्यक्रम में मेरा एकल कविता पाठ रखा गया। दो दिन बेहद व्यस्तता से गुजरे। कृष्णा जी के साथ जैसे ही फुर्सत होकर बैठी थी डॉक्टर सतीश दुबे (लघुकथाकार) के घर से कृष्णा दी के पास फोन आया। "यह क्या बात हुई। संतोष पहले हमारी है फिर आपकी। कल उसे हर हाल में मेरे घर लेकर आइए।"

मैं नि: शब्द, इतनी आत्मीयता, दुलार। सतीश दुबे जी न चल पाते हैं। न लिख पाते हैं। हाथ-पैर से लाचार हैं। व्हीलचेयर पर रहते हैं फिर भी उनकी किताबें प्रकाशित होती हैं। उनकी किताब डेराबस्ती का सफरनामा की उनके खास अनुरोध पर कथाबिंब के लिए मैंने समीक्षा लिखी थी। मुझे बहुत मानते हैं। इतना भव्य स्वागत किया उन्होंने मेरा। फूलों की माला, शॉल, नारियल, अपनी किताबों का सैट दे कर। फिर मेरी कहानी का पाठ हुआ और उस पर उपस्थित लेखकों द्वारा प्रश्न भी पूछे गए। मैंने "शहतूत पक गए" कहानी का पाठ किया था। जब यह कहानी कथाबिंब में छपी थी तो नंदकिशोर नौटियाल जी ने हिंदुस्तानी प्रचार सभा के मंच से कहा था कि

"यह सर्वश्रेष्ठ प्रेम कथा है। राजम जी आप अरविंद जी (संपादक कथाबिंब) को इस विषय में पत्र लिखिए और यहाँ बैठे सभी लोगों से उस पर हस्ताक्षर करवाएँ।"

हस्ताक्षरों वाला वह पत्र मेरी कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

सतीश दुबे जी अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन निर्जीव हाथों की लिखी उनकी ज्वलंत पुस्तकें हमारे बीच हैं।

मुंबई लौटते ही कृष्णा दी का फोन "अरे तुम जिस तखत पर सोती थीं उसके नीचे अजगर का बिल था। वह तो मजे से बिल से बाहर आकर तखत के नीचे सोता हुआ मिला।"

मुझे तो लगता है ऊपर तुम और नीचे अजगर सोता रहा होगा। मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए। दो-तीन दिन तक सपने में भी अजगर दिखता रहा लेकिन आज भी कृष्णा दी मुझे फोन करती हैं। सुख-दुख की चर्चा करती हैं। एक छोटी-सी मदद के बदले इतनी आत्मीयता प्यार मिला।


मध्यप्रदेश में जबलपुर मेरी जन्मभूमि है। मेरी स्मृतियों के कोष छलछल बहती नर्मदा, सतपुड़ा के घने जंगल और विंध्याचल की वादियों से जुड़े हैं। मदन महल के आसपास की चट्टानों पर लगे सीताफल के पेड़ों से, घुंघची की लाल काली बीजों वाली फलियों से कितना कुछ सीखा है मैंने। निरंतर बहते रहने का मंत्र, चट्टानी अवरोधों को सहजता से पार कर लेने का मंत्र। यही मेरे जीवन की बूंद भर कामयाबी का स्रोत है।

उन दिनों हिंदमाता से तेजस्वी भारत साप्ताहिक नगर पत्रिका निकलती थी। मधुराज संपादक थे। उन्होंने तेजस्वी भारत के लिए मुझसे बहुत लिखवाया। लगभग हर हफ्ते मेरी रचना उस में प्रकाशित होती पर पारिश्रमिक देने के नाम पर बहुत रुलाया उन्होंने। पारिश्रमिक लेने हम हिंदमाता का बेहद भीड़ भरा बाज़ार पार कर तेजस्वी भारत के ऑफिस जाते। खूब सारी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती। पारिश्रमिक का आधा दूधा मिलता। मन खट्टा हो गया। वहाँ लिखना बंद कर दिया।

अब मैं समीक्षाएँ भी लिखने लगी थी और किताबों की भूमिका भी। बलराम, सुधा अरोड़ा, सूर्यबाला, मन्नू भंडारी आदि की पुस्तकों पर मैंने समीक्षाएँ लिखीं और भूमिकाएँ तो अनगिनत। उभरती हुई लेखिकाओं को मैंने सपोर्ट किया। एक नई पौध तैयार की जो आज छतनारा दरख्त बन गई है। अब तो हाल यह है कि विभिन्न साहित्य अकादमियों में पाण्डुलिपि के लिए प्रसिद्ध पुस्तकों की समीक्षा मुझी से लिखवाई जाती है।

मेरी लघुकथाएँ सारिका, नवभारत टाइम्स, पत्रिका, सर्जना, पुष्पगंधा, संरचना, लघु आघात, सरस्वती सुमन, सबरंग, संवाद सर्जन का लघुकथा विशेषांक, मिन्नी (शहीद की विधवा पंजाबी में श्याम सुंदर अग्रवाल द्वारा अनूदित) स्पंदन, आरोह अवरोह, अविराम साहित्यकी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। एक दिन डॉ सतीशराज पुष्करणा का पत्र आया कि आपको अखिल भारतीय लघुकथा मंच ने लघुकथा रत्न सम्मान के लिए चुना है जो पटना में आयोजित होगा और यह 2012 में आयोजित 25 वां अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन होगा जिसमें अखिल भारतीय हिन्दी प्रसार प्रतिष्ठान के अंतर्गत आपको सम्मानित किया जाएगा। मजे की बात यह थी कि यह पत्र लघुकथा नगर से आया था।

जाडों के दिन। दिसम्बर की शुरुआत। पटना एयरपोर्ट पर स्वयं डॉ सतीश राज पुष्करना मुझे लेने आए। मुझे पुष्पा जमुआर जी के घर रुकना था। फ्रेश होकर बैठी थी कि पटना की मेरी लेखिका मित्र संजू पाल, निवेदिता वर्मा मिलने आ गईं। पुष्करणा दादा भी कल की व्यवस्था देख कर वहीं आ गए। रात 11: 00 बजे तक हम बतियाते रहे। 12: 00 बजे रात को पुष्करणा दादा प्रमिला वर्मा को स्टेशन से लिवा लाए।

सुबह 10: 00 बजे नाश्ता चाय भी आयोजन स्थल पर ही था। भारत भर से लघुकथाकार इकट्ठे हुए थे। कांबोज जी, सुकेश साहनी जी, बलराम अग्रवाल जी और पटना की ही बेहद कर्मठ डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र जिन्होंने अपनी अंतिम साँस तक मेरा साथ दिया। उन्होंने न केवल अपने पति मूलचंद मिश्र की स्मृति में प्रियंवदा साहित्य सम्मान लखनऊ से मुझे दिया बल्कि बिहार की सरकारी साहित्यिक पत्रिका "परिषद पत्रिका" में मेरे आदिवासियों पर लेख भी प्रकाशित किए और 2 साल बाद भूटान में विश्व मैत्री मंच द्वारा आयोजित महिला लघुकथाकारों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में 12 सदस्यों को लेकर शामिल भी हुईं। विश्व मैत्री मंच के लिए उन्होंने बहुत काम किया। वे विश्व मैत्री मंच पटना शाखा की प्रभारी थीं। वे समय-समय पर मुझे सलाह देती रहतीं और जब मुझे दूसरी बार पटना में ही 2014 में प्रगतिशील लघुकथा संघ से लघुकथा सारस्वत सम्मान मिला तो मिथलेश दीदी की खुशी का ठिकाना न था

"तुम डिजर्व करती हो।"

अब वे हमारे बीच नहीं हैं। अब पटना जाने की हिम्मत नहीं होती।

अभी वर्ष 2019 बिहार साहित्य अकादमी द्वारा मुझे गोवा की गवर्नर मृदुला सिन्हा द्वारा महादेवी वर्मा शताब्दी सम्मान दिया जाना था जिसमें मैं नहीं गई। चित्रा मुद्गल दी ने कहा भी कि "आ जाओ। हमें तो नालंदा देखना है इसलिए जा रहे हैँ।" मैंने कहा "नालंदा, वैशाली, बोधगया, राजगीर सब पहली पटना यात्रा में ही देख लिए थे। मेरे नहीं आने की वजह मिथलेश दीदी का न होना है। हालांकि पुष्पा जमुआर, मधु वर्मा, अनिल सुलभ सभी ने आग्रह पूर्वक बुलाया है।"

जिंदगी में जितना देखा हर चरित्र जो जैसा दिखा मुझे लगा उसके पीछे ढेरों कहानियाँ हैं। अवसाद, पीड़ा, जिंदगी से संतुष्टि और खुद के लिए जीने, पाने की चाह। मेरी कई कहानियाँ इन सब की गवाह है।

इन कहानियों के जरिए अनगिनत पाठक मुझसे जुड़े। कभी तारीफों के पुलिंदे लिए, कभी आलोचना के, कभी बखिया उधेड़ते हुए तो मुझे लगता इस बहाने मेरा लेखन निखर तो रहा है। साथ ही मैं पाठकों से गहरे जुड़ती जा रही हूँ और वे अब अधिक समय तक मुझे याद रखेंगे। कहानियों में तो सभी कुछ का खाका खींचना होता। कहानियों के चरित्रों ने ही मुझे धर्मनिष्ठ समाज की कठोर मान्यताओं से मिलवाया, दोहरे मानदंडों और आडंबरों से रूबरू करवाया। मैंने अपनी कहानियों के जरिए समाज को खंगाला। आंकड़ों को जुटाया और इसीलिए मेरे भीतर इस सब के विरुद्ध लावा सुलगने लगा। मेरा कट्टरपंथी समाज की मान्यताओं से विश्वास उठ गया और यही वजह है कि मैं पारिवारिक, सामाजिक आयोजनों में रहना पसंद नहीं करती। मेला उत्सव से भरी जगह मुझे कभी आकर्षित नहीं करती। शादी ब्याह में स्वयं न जाकर उपहार भेज देना मैंने अपने स्वभाव में शामिल कर लिया। मैं इस सब से दूर प्रकृति से जुड़ने लगी। प्रकृति के रंग रहस्य मुझे सम्बोधित करते। प्रकृति ढोंगी नहीं है। निश्छलता से अपना सौंदर्य लुटाती है। बर्फीले पहाड़ मीलों फैले घने जंगल साफ शफ्फाक पानी से भरी नदियाँ, पारदर्शी झरने। इन सब में घूमते हुए मैंने पाया कि प्रकृति का अपना एक नशा है। जो धीरे-धीरे सुरूर देता है।