मेरे घर आना जिंदगी / भाग 18 / संतोष श्रीवास्तव्
इतनी लंबी साहित्यिक यात्राओं के बाद मुझे काफी समय खुश रहना चाहिए था पर मेले की समाप्ति का सूनापन मेरे साथ हो लिया। मेरे साथ अक्सर यही होता है। यह सूनापन मुझे ले जाता है कभी हिस्ट्री चैनल, कभी नेशनल जियोग्राफी, कभी डिस्कवरी चैनल की ओर। जानवर, पक्षियों से प्यार है न इसलिए मन बहल जाता है। डिस्कवरी चैनल में मछलियों का पूरा संसार समंदर में दिखा रहे हैं। नौकाओं से बड़े-बड़े जाल समुद्र की लहरों पर फेंके जा रहे हैं। इस जाल में न केवल मछलियाँ फंसेगी बल्कि वे समेट लेंगे ढेर सारी खुशियाँ। फिर जाकर उन्हें बांट आएंगे उन लोगों के बीच जिनकी जिंदगी से छिटक कर निकल गए हैं सुख। लहरों में हमेशा कुछ न कुछ मिलता ही है। बस ठीक से खोजने की जरूरत है। जरूरत है जाल फैलाने की। इसके लिए किसी मछुआरे का धैर्य चाहिए। मछुआरे के भीतर उम्मीद की एक लौ हमेशा जलती रहती है। यही उसे जिलाए रखती है। मेरे अंदर भी उम्मीद की लौ निरंतर जल रही है।
जो मुझे मेरे अवसाद से निकालती है।
स्टोरी मिरर में मेरा उपन्यास मालवगढ़ की मालविका ई बुक के रूप में उपलब्ध है सूचना मिली।
भोपाल से कांता राय ने फोन किया कि फेसबुक पेज लघुकथा के परिंदे समूह द्वारा पूनम डोगरा की पुस्तक एक पेग जिंदगी का ऑनलाइन विमोचन होगा। जिसमें आपको स्वागत भाषण देना है। अद्भुत यह पहला ऑनलाइन विमोचन था। डॉ निरुपमा वर्मा ने सरस्वती वंदना का ऑडियो भेजा। रूपेंद्र ने दीप प्रज्वलन करती हुई अपनी तस्वीर अपलोड की। मैंने अपना स्वागत भाषण कॉपी पेस्ट किया फिर पुस्तक पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हुई। यह अपने आप में अनूठा प्रयोग था। जो सफल रहा। विमोचन के अवसर पर भी देश-विदेश से वरिष्ठ लघुकथाकारों ने अपनी आभासी उपस्थिति दी। फेसबुक के प्रस्तोता मार्क जुकर को सलाम जिन्होंने कर दी दुनिया मुट्ठी में।
जब से औरंगाबाद आई हूँ इस प्रयास में हूँ कि कुछ लोगों को साहित्यिक बतरस के लिए जोडूं। लोकमत समाचार के संपादक अमिताभ श्रीवास्तव से मंशा प्रकट की। वहाँ से कोई रिस्पांस नहीं मिला। महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी की सदस्य तथा रंगकर्मी अनुया दल्वी का कहना है कि यहाँ मराठी का बोलबाला है। मराठी साहित्य के कार्यक्रम तो बहुत होते हैं पर हिन्दी के नहीं। मन मसोस कर रह गए। अलबत्ता इतना जरूर हुआ कि एक दिन आकाशवाणी से कहानी पाठ के लिए बुलावा आ गया।
23 नवंबर मेरे जन्मदिन पर अनुया दल्वी घर आईं केक लेकर और मराठवाडा का प्रसिद्ध शॉल हिमरू मुझे उढाते हुए कहा "यह आपके औरंगाबाद आने के उपलक्ष्य में है।" हिमरू रेशमी धागों से बुना जाता है। भारी भी खूब था। अरसे बाद इस तरह की शाम बीत रही थी जब हम साहित्य की बातों में डूबे थे। फिर गीत भी खूब गाये सबने।
विश्व मैत्री मंच के व्हाट्सएप समूह में भी मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा था। सब अपने-अपने संस्मरण साझा कर रहे थे। व्हाट्सएप ग्रुप में जन्मदिन मनाने की योजना सुरभि पांडे की थी। उस दिन मुझे पता चला मुझे सब कितना चाहते हैं। कितना मान सम्मान देते हैं। अनुया दल्वी ने उस शाम की सभी तस्वीरें ग्रुप में शेयर कीं। मैंने सभी के संस्मरण, तस्वीरें अपने ब्लॉग हेमंत कलेवर में अपलोड करके लिंक फेसबुक पर शेयर कर दिया। कितना जरूरी हो गया है मौजूदा समय में सोशल मीडिया से जुड़ना।
कई सोशल साइट्स पर मेरी किताबें लेख उपलब्ध हैं। मातृभारती ऐप में मेरे जन्मदिन के अवसर पर ही जयेश खत्री ने मॉरीशस का यात्रा संस्मरण "चांद की आँख से झरा द्वीप मॉरीशस" प्रकाशित किया। मुंबई से चंद्रकांत जोशी ने भी हिन्दी मीडिया पर विश्व मैत्री मंच व्हाट्सएप ग्रुप की प्रतिदिन की पोस्ट के लिए कॉलम दिया "व्हाट्सएप पर साहित्य कला सर्जन कर्मियों का गुलदस्ता है विश्व मैत्री मंच"
मेरी मेहनत रंग ला रही थी। विश्व मैत्री मंच लगातार सफलता के सोपान चढ़ रहा था। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, दिल्ली में संस्था की शाखाएँ खुल गई थीं और व्हाट्सएप ग्रुप बन गए थे जहाँ केवल साहित्यिक चर्चाएँ होती हैं।
मेरे उपन्यास "लौट आओ दीपशिखा" के प्रूफ का भी पार्सल आ गया। किताब वाले प्रकाशन से सुकून भाटिया का अनुरोध "संतोष जी, 15 दिन में प्रूफ पढ़कर भेजिए। जनवरी 2017 विश्व पुस्तक मेले में इसे लांच करना है।" बहुत सारे तकाज़ों की भरमार थी। वर्धा से वर्धा विश्वविद्यालय के मीडिया प्रमुख दरवेश कठेरिया मेरे संपूर्ण साहित्य का ऑडियो तैयार कर नेत्रहीनों तक पहुँचाना चाहते थे। यह बेहद सार्थक पहल थी। उन्होंने बुक्स इन वाइज डॉट कॉम पर अपनी साइट बना ली थी और कई लेखकों की कृतियों को आवाज दी थी। उनका आग्रह था कि मैं वर्धा आकर कुछ दिन रहूँ। उन्होंने मेरी सारी किताबें मेरे प्रकाशकों से मंगवा ली थीं। हेमंत की कविताओं पर भी काम कर रहे थे।
प्रूफ पढ़ते हुए दिमाग कहाँ-कहाँ भटक रहा है। एक पीड़ा निरंतर बनी हुई है। मेरा अपना घर नहीं होने की। बहुत मन लगाने की कोशिश कर रही हूँ पर हर बार कुछ न कुछ ऐसा सामने आ जाता है कि यहाँ से मन उखड़ने लगता है। भारी उधेड़बुन में हूँ। एक द्वंद्व लगातार मथ रहा है मुझे। एक तरफ यथार्थ दूसरी ओर यूटोपिया। एक ओर कटु सत्य, दूसरी ओर अपने झिलमिल सपनों को पकड़ने की कोशिश। फिर मैं यह भी सोचने लगती हूँ। इन सब वजहों ने मुझे और भी अधिक मजबूत ही तो बना दिया है। मुंबई में रहते हुए लग रहा था मेरे साथ किसी का होना जरूरी है। बीमार पड़ी तो कौन देखभाल करेगा। अब मैंने अपनी दुर्बलता के ऊपर काबू पा लिया है। मेरी स्मृतियों में वह लोग भी मौजूद हैं जिन्होंने मेरे लिए कुछ किया है और वह भी जिनके लिए मैंने कुछ करके लानत मलामत झेली है। कृतज्ञता, आत्मपरीक्षण, स्वप्न, जिरह और सोच की अभिव्यक्ति... हमेशा यह सवाल मन की मिट्टी में खुपे रहते हैं। जवाब खोज कर भी आज तक नहीं मिले।
पूना से डॉ शाकिर ने फोन पर बताया पूना कॉलेज ऑफ आर्ट्स साइंस व कॉमर्स महाराष्ट्र के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी में मुझे वक्ता और विषय प्रवर्तक के रूप में शिरकत करनी है। विषय है "राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव" कार्यक्रम 2 और 3 जनवरी 2017 को होगा। सुकून भाटिया ने भी विश्व पुस्तक मेले में लौट आओ दीपशिखा के विमोचन की तारीख 13 जनवरी तय कर दी थी और फरवरी में विश्व मैत्री मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन अहमदाबाद में होना तय हुआ था। लिहाजा काम ही काम। जनवरी में ही भोपाल भी जाना था।
बस से पूना 10: 30 बजे पहुँचे। बस अड्डे पर ही स्वागत में पुष्पगुच्छ लिए सादिक आए थे लेने। नाश्ते के तुरंत बाद कार्यक्रम शुरु हो गया। डॉ शाकिर ने शोध छात्रों के बीच मेरा संवाद भी रखा। हरे-भरे रंग बिरंगे फूलों वाले कॉलेज परिसर में ही मेरे रुकने की व्यवस्था थी। डिनर के लिए हम पुणे की रात्रि कालीन सुंदरता निहारते हुए चाइनीस रेस्तरां में गए।
पुणे यात्रा सुखद और रोचक रही। नया साल लग गया। जनवरी आ गई। इस बार मेरा सबसे व्यस्त महीना है जनवरी का। लौट आओ दीपशिखा के विमोचन के निमंत्रण पत्र किताब वाले प्रकाशन की ओर से सबको भेजे गए। चित्रा मुदगल के हाथों विमोचन होगा। गिरीश पंकज, महेश कटारे के सान्निध्य में संचालन वरिष्ठ पत्रकार राकेश पाठक करेंगे। इसी समारोह में मैं भारत भारद्वाज की किताब "मेरे पत्र" का लोकार्पण करूंगी।
सर्दी गजब की पड़ रही थी। मैं अकेली ही दिल्ली की ओर रवाना हुई।
राकेश पाठक मुझे गाड़ी से लेने आए। विमोचन के एक दिन पहले यानी 12 जनवरी को मैं मेले में सबसे मिली। कई पुस्तकों का मेरे हाथों विमोचन हुआ। सुशीला शिवराण के दोहा संग्रह का विमोचन मेरे और रामेश्वर कांबोज, नंद भारद्वाज, विजय द्विवेदी तथा सुपरिचित कार्टूनिस्ट इरफान के हाथों हुआ।
साहित्यिक एप मातृभारती के संस्थापक महेंद्र शर्मा ने अपने स्टॉल पर मुझे सम्मानित किया। मेरी रचनाओं के सर्वाधिक डाउनलोड होने के उपलक्ष्य में। मातृभारती लिखा हुआ बहुत खूबसूरत चाय का मग स्मृति चिह्न के रूप में दिया।
शाम को साहित्य मंच पर "महिला कलम से" काव्य गोष्ठी में मुझे गजल के लिए अलका अग्रवाल सिगतिया ने बुलाया। सारी कवयित्रियाँ मुंबई की ही थीं। मैंने सभी को कल होने वाले विमोचन समारोह में आमंत्रण के कार्ड दिए। बहुत शानदार और भव्य आयोजन हुआ लौट आओ दीपशिखा के विमोचन का। डॉ राकेश पाठक ने बेहद जीवंत और रोचक संचालन किया। चित्रा मुद्गल, नीलम कुलश्रेष्ठ, गिरीश पंकज, भारत भारद्वाज, महेश कटारे तथा लखनऊ, पुणे, नासिक, फरीदाबाद, दिल्ली, गाजियाबाद, देहरादून, अंबाला से मेरे साहित्यकार मित्र सिर्फ इस कार्यक्रम के लिए आए। चित्रा जी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि "संतोष का जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा है। उसने नए लेखकों को प्रमोट करने का बीड़ा भी विश्व मैत्री मंच के द्वारा उठाया है। संतोष जिस दिन खुद पर किताब लिखेगी वह दिन उसकी पूर्णता का दिन होगा। भावातिरेक में मैं उनसे लिपट गई। सरस दरबारी ने कहा" संतोष दी एक घंटे बाद मेरी किताब का विमोचन है। आपको याद है न कि आपको मेरी तारीफ करनी है। "
हम सब हंस पड़े। फिर भारत भारद्वाज के पत्रों की किताब का विमोचन किया। उन्हें सर्दी खाँसी ने जकड़ रखा था अतः वह तुरंत ही घर चले गए।
सरस दरबारी की किताब मेरे हिस्से की धूप का विमोचन काव्या सतत साहित्य यात्रा में हुआ। विमोचन के बाद निवेदिता श्रीवास्तव के संचालन में मैंने जो गजल सुनाई उसे श्रोताओं का भरपूर प्रतिसाद मिला। मेले में घूमते लोग भी रुक कर एक-एक शेर पर दाद देने लगे। जमघट लग गया श्रोताओं का। सरस ने कहा "दी देख लो अपनी लोकप्रियता। हमारी किताब को कोई पूछ ही नहीं रहा।"
कल औरंगाबाद लौट जाना है। इसलिए अँधेरा होते तक मेले में सबसे मिलती-जुलती रही।
जब मैं पूना गई थी तो वहाँ मेरी मुलाकात शेख शहाबुद्दीन से हुई थी। जो औरंगाबाद के लोक सेवा कला व विज्ञान महाविद्यालय में प्रिंसिपल थे। उन्होंने मुझे एम ए के छात्रों के लिए आयोजित हिन्दी साहित्य एवं ग़ज़ल के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। दिल्ली से डॉ गंगा प्रसाद विमल अध्यक्षता करने आ रहे थे। कार्यक्रम एक क्लास रूम में रखा गया। लगता था जैसे खानापूर्ति करने के लिए कार्यक्रम रखा गया है। कॉलेज को इन सब चीजों की सरकारी ग्रांट मिलती है। जिसमें मुझे मुंबई का और विमल जी को दिल्ली का बताकर बजट पेश करेंगे। कार्यक्रम के बाद लंच के लिए भी सिर्फ गंगा प्रसाद विमल को ले गए। मुझे सूनी सड़क पर ऑटो के इंतजार में छोड़ गए। गाड़ी में लिफ्ट तक नहीं दी। मैं शेख शहाबुद्दीन के ऐसे व्यवहार से जितनी आहत थी उतनी ही विमल जी के व्यवहार से भी। कैसे उनके साथ वे अकेले लंच के लिए चले गए और मुझे क्यों अकेला सड़क पर छोड़ा। गंगा प्रसाद विमल जी से मेरा पुराना परिचय था। उन्हें हम हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कार समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बुला चुके थे। दिल्ली में भी उनसे कई बार विश्व पुस्तक मेले में मुलाकात हुई।
फिर भी...
बाद में मुझे कई बार शेख शहाबुद्दीन ने बुलाना चाहा पर मैंने मीठी इंकारी दे दी।
अब मन ऐसा हो गया है कि न परिस्थितियों को तवज्जो देती हूँ। न लोगों के व्यवहार से अपसेट होती हूँ। ये दोनों बिना मेरे रिएक्शन के बिल्कुल पावरलेस हैं, शक्तिहीन हैं।
भोपाल के आईसेक्ट विश्वविद्यालय द्वारा अविभाजित मध्यप्रदेश के कथाकारों की कहानियों के 6 खंड प्रकाशित किए गए हैं। यह प्रोजेक्ट 3 साल पुराना है। मेरी कहानी अरुणेश ने मंगवाई थी। फिर कुलपति और कथाकार संतोष चौबे जी ने लिस्ट भेजी थी। कोई नाम रह गया हो तो बताएँ। मैंने प्रमिला का नाम दे दिया जो लिस्ट में नहीं था। बहरहाल अब ये खंड छप कर तैयार हैं। इनका लोकार्पण 23 जनवरी को भोपाल में होगा। दूसरे दिन वनमाली सर्जन पीठ के पुरस्कारों को भी समारोह पूर्वक दिया जाएगा। लिहाजा 3 दिन के लिए मैं और प्रमिला भोपाल आ गए। मध्यप्रदेश के काफी सारे लेखकों से मिलना हुआ। मुझसे मिलने मेरी भोपाल की सहेलियाँ होटल आईं। स्वाति तिवारी, जया केतकी विविध व्यंजन बनाकर लाई। राकेश पाठक, सुषमा मुनींद्र, महेश कटारे, राजनारायण बोहरे भी उसी होटल में रुके थे। सब मेरे कमरे में इकट्ठे हो गए। सुषमा मुनींद्र जी लौट आओ दीपशिखा किताब की समीक्षा लिख रही थीं। बोली
"संतोष जी आपका उपन्यास बहुत रोचक है लेकिन मेरे मन में कई सवाल भी हैं जिन्हें मैं समीक्षा में लिखूंगी।"
"इंतज़ार रहेगा।"
हम देर रात तक बतियाते रहे। सभी का आग्रह था कि मैं भोपाल शिफ्ट हो जाऊँ। हरा-भरा झीलों का शहर है और साहित्यिक कार्यक्रम होते हैं। मन लगा रहेगा। मुझे भी भोपाल आकर्षित कर रहा था।
दूसरे दिन भीमबेटका जाने का कार्यक्रम बना। मधु सक्सेना, प्रमिला, विनीता राहुरीकर के साथ। भोपाल से 40 किलोमीटर दूर विंध्याचल पर्वत की गोद में बसा रातापानी अभयारण्य में ही भीमबेटका आदिकाल में मानव का निवास स्थल रहा है। जुलाई 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। रातापानी अभयारण्य के खूबसूरत जंगल, पगडंडियाँ, ऊंचे नीचे रास्ते। भीमबेटका के इस अनछुए से प्राकृतिक परिवेश में 8 किलोमीटर तक फैली गुफाओं के 15 शैलाश्रयों को देखना बड़ा रोमांचक था।
राज्य संग्रहालय में भी कहानी पाठ रखा गया था। चित्रा मुद्गल ने देखते ही गले लगा लिया। इतनी स्नेहिल मिलनसार हैं वे कि लगता है जैसे हमारे ही लिए दुनिया में आई हैं।
रात को विनीता मुझे और राकेश पाठक को अपने घर डिनर पर ले गई।
तीसरे दिन वापसी... रास्ते भर मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक कैलाश चंद्र पंत दादा के शब्द कानों में गूंजते रहे "भोपाल आ जाओ संतोष कहीं ना कहीं रहने का ठिकाना हो ही जाएगा।"
यही सब सोचते हुए मन थोड़ा विचलित हो रहा था कि रात को लखनऊ से विजय राय जी का फोन आया कि जनवरी-मार्च की लमही में आपका यात्रा वृत्तांत रोमा रोला का फ्रांस प्रकाशित हो गया है।
दूसरे दिन से पाठकों के भी फोन इस और s.m.s. इस सिलसिले में आने शुरू हो गए। यात्रा संस्मरण को पाठकों से भरपूर प्रतिसाद मिला।
विश्व मैत्री मंच के राष्ट्रीय सेमिनार के लिए अहमदाबाद गुजरात विश्वविद्यालय की हिन्दी विभाग प्रमुख डॉ रंजना अरगड़े से बात हो चुकी है वे विश्वविद्यालय का हाल उपलब्ध करवा रही हैं बाकी की जिम्मेवारी डॉ अंजना संधीर ने ली लंच फोटोग्राफर आदि की। गुजरात के प्रसिद्ध लेखक डॉ चीनू मोदी इरशाद मुख्य अतिथि थे। अब वे इस दुनिया में नहीं है और इसीलिए मेरी किताब टेम्स की सरगम पढ़कर प्रतिक्रिया देने का वादा भी वे निभा न सके। मातृभारती के महेंद्र शर्मा भी आए थे। मराठी रंगकर्मी अनुया दलवी ने मोहन राकेश के नाटक आधे अधूरे तथा नटसम्राट का मंचन कर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लिया। सम्मेलन दिन भर चला। जिसे दूरदर्शन ने कवरेज दी। दूसरे दिन सभी अखबारों में खबर थी। फिर मैं अपने दल सहित कच्छ और भुज की यात्रा पर निकल गई। यात्रा वर्णन मेरी संस्मरणों की किताब के लिए रहने देती हूँ। इतना जरूर कहूंगी कि विविधताओं से भरे भारत में क्या नहीं है। प्रकृति ने मुक्त हस्त अपना वैभव लुटाया है यहाँ।
इस बीच लौट आओ दीपशिखा की समीक्षा कई जगह छप गई थी। सद्भावना दर्पण के संपादक व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने समीक्षा लिखी "स्त्री मन का संवेदनशील चित्रण।" जो पंजाब के प्रतिष्ठित अखबार दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित हुई। उन्होंने फोन करके बताया कि
"संतोष, विश्व पुस्तक मेले से लौटते हुए यात्रा के दौरान मैंने तुम्हारी किताब पढ़ ली। रायपुर लौटते ही समीक्षा भी लिख डाली।"
"यानी कि आप कर्ज मुक्त हुए।"
"नहीं होना है कर्ज मुक्त और किताबें लिखो समीक्षा के लिए।" फेसबुक के पुस्तक मिली पेज पर मधु सक्सेना ने लिखी समीक्षा।
वागर्थ में "परवाज़ हम" कहानी एकांत श्रीवास्तव ने छापी। जिसका उड़िया भाषा में अनुवाद श्री सुरेश कुमार पंडा ने किया जो ओड़िया पत्रिका तरंग में छपी। उसी महीने शिवना साहित्यिकी में जो सीहोर से निकलती है अंडमान निकोबार का यात्रा संस्मरण "नीले सागर में मरकत की तरह बिखरे हैं अंडमान निकोबार द्वीपसमूह" प्रकाशित किया। कंप्यूटर खोला तो प्रतिलिपि से मेल था।
"आपकी पुस्तक मुझे जन्म दो माँ चर्चा में है।"
स्वाति नाम की पाठक ने अपने फरगुदिया ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम पर इसी पुस्तक की चर्चा करते हुए लिखा "चलो, चलो कि वह मंजिल अभी नहीं आई।"
यह मेरी किताब की संपूर्णता का वाक्य था। मुझे भी तो औरत से यही कहना था। कहना था कि अनवरत चलते रहना है तब जाकर सदियों पुरानी बेड़ियाँ कटेंगी। पिघलेंगी, पिघल कर स्वयं ही पैरों को छोड़ देंगी।
सुबह नाश्ते के बाद 2 घंटे कंप्यूटर पर मेल आदि चेक करती हूँ। शिवशंकर अवस्थी जी का मेल था। ऑथर्स गिल्ड के कार्यक्रम के बारे में।
ऑथर्स गिल्ड संस्था की स्थापना राजेंद्र अवस्थी जी ने दिल्ली में की थी। अब इस संस्था को उनके पुत्र शिवशंकर अवस्थी जी आगे बढ़ा रहे हैं। इस संस्था की मैं आजीवन सदस्य हूँ और प्रतिवर्ष होने वाले ऑथर्स गिल्ड के कार्यक्रम में सम्मिलित होने की कोशिश करती हूँ। शिवशंकर अवस्थी जी ने मेल पर सूचना दी कि ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का राष्ट्रीय सेमिनार आगरा में होगा। विषय होगा "मैं और मेरी किताब" और मुझे वक्तव्य देना है। विषय बढ़िया था। इस पर तो कितना कुछ बोला जा सकता है।
समस्या यह थी कि औरंगाबाद से सीधी आगरा के लिए एक ही ट्रेन है और जिसमें रिजर्वेशन मिलना मुश्किल है। लिहाजा मनमाड से ट्रेन बदलकर मैं आगरा पहुँची। राजा मंडी के नजदीक होटल वैभव पैलेस में हमारे रुकने की व्यवस्था थी। मेरे साथ लता तेजेश्वर रुकी थी। बाजू के कमरे में अहल्या मिश्र और मधु धवन। मधु धवन अब इस दुनिया में नहीं हैं। बेहद कर्मठ और तेजतर्रार महिला थीं वे। उसी फ्लोर पर मेरी मित्र अंजना छलोत्रे, पूर्णिमा ढिल्लन और आशा शैली भी ठहरी थीं।
कार्यक्रम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के जयप्रकाश नारायण सभागार में था। दो दिवसीय सम्मेलन में विभिन्न प्रांतों से आए बहुभाषी लेखकों की गौरवमयी उपस्थिति थी। मेरे वक्तव्य के बाद अहल्या मिश्रा ने मुझे गले लगा लिया।
"बेहद शानदार स्तरीय वक्तव्य था तुम्हारा।"
"मुझे तो इसलिए और अपील कर गया कि आपके हाथ में एक भी पेपर न था एक्सटेंपोर बोला आपने।" मधु धवन की प्रशंसा अच्छी लगी। तमाम साहित्यिक उपलब्धियों के बावजूद मैं हमेशा जमीन से जुड़ी रही और चाहे छोटा हो या बड़ा सभी लेखकों को मैंने भरपूर मान-सम्मान दिया। शायद यही वजह है कि सभी मुझे पसंद करते हैं। मेरा सम्मान करते हैं।
द्वितीय सत्र के लिए बिना मुझे बताए शिवशंकर अवस्थी जी ने घोषणा की कि संचालन संतोष जी करेंगी। मैंने उनकी बात रखी और बेहद आत्मविश्वास से कुशल संचालन किया। सभी ने तारीफ की संचालन की। आगरा की संस्कृति और वृंदावन की राधा कृष्ण की फूलों भरी होली नृत्य नाटिका से वह शाम यादगार बन गई।
दूसरे दिन डॉक्टर सुषमा सिंह ने मेरे सम्मान में साहित्य साधिका समिति की ओर से होली मिलन समारोह आयोजित कर लिया। खूब फाग गाए गए और फूलों से होली खेल स्वादिष्ट गुझिया पपड़ी का आनंद लिया।
उन दिनों आगरा में ताज महोत्सव चल रहा था। हम सब ताज महोत्सव के लंबे चौड़े प्रांगण में लगे स्टालों पर घूमते रहे। ताजमहल भी गए। अब तो तांगे पर बैठाकर हरी-भरी वादियों की सैर कराते हुए ताज महल की टिकट खिड़की पर ला छोड़ते हैं। ताजमहल जब भी देखती हूँ प्रेम से अधिक अत्याचार के अहसास से भर उठती हूँ। ताजमहल बनाने वाले मजदूरों के कटे हाथ मानो जवाब मांगते हैं।
हमारा कसूर क्या था? कसूर था न शाहजहाँ की दीवानगी को अंजाम देने का। कसूर था न कच्ची उम्र में 14 बच्चे पैदा करने वाली मुमताज महल के नाम एक ताबीर खड़ी करना। लेकिन फिर भी ढलते सूरज की सुनहरी आभा में ताजमहल के अप्रतिम सौंदर्य ने मन मोह लिया।
मैं होटल से सुषमा सिंह के घर आ गई। दूसरे दिन स्वामीबाग और दयालबाग हम घूमने गए और तीसरे दिन वृंदावन। दयालबाग के फाटक पर आकर मैं पल भर को ठिठकी। अम्मा बेतहाशा याद आई। कितनी सारी यादों के झरने फूट पड़े। फिर अधिक देर खड़ा नहीं रहा गया। आगे बढ़ गई स्वामीबाग की ओर। स्वामीबाग बनता है और टूटता है और यह सिलसिला मैं अपने बचपन से देख रही हूँ।
आशा शैली, अंजना छलोत्रे, पूर्णिमा ढिल्लन, रमा वर्मा, मैं और सुषमा हमने तवेरा गाड़ी हायर कर ली थी। कान्हा मेरे आराध्य ... मन दुगनी खुशी महसूस कर रहा था। बांके बिहारी मंदिर की भारी भीड़ में मैं सुषमा जी का हाथ पकड़े दीवार से चिपकी खड़ी रही। वृंदावन इतना बड़ा पर्यटन केंद्र पर कोई व्यवस्था नहीं। सब एक दूसरे को ढकेल कर आगे बढ़ रहे थे। पंडितों की हर जगह लूट मची थी। लौटते में हम दोनों अकेले रह गए और भटक गए। फिर रिक्शा किया पार्किंग तक आने के लिए।
मुझे मधुबन देखने की बेहद इच्छा थी। छोटी तंग गलियों से हम मधुबन पहुँचे। पूरा मधुबन एक जैसे पेड़ों लताओं से आच्छादित है। वहाँ कृष्ण जी ने रासलीला की थी और सारी गोपियाँ पेड़, लता बन गई थीं। मधुबन में छोटे-छोटे मंदिर भी हैं। गाइड हमें सारी जानकारी देते हुए घुमा रहा था। मान्यता है कि आधी रात को राधा कृष्ण और गोपियाँ मधुबन में विचरण करते हैं। अगर कोई देखने की कोशिश करता है तो अंधा हो जाता है।
अजीब दास्तां है ये।
पूरे वृंदावन में बंदरों का बोलबाला। चेहरे पर से चश्मा उतार ले जाते हैं। हाथ में पकड़ी खाने-पीने की चीजें छीन लेते हैं। कभी-कभी तो चांटा भी जड़ देते हैं। मैं रसखान को याद करती हुई तेज धूप में बिना धूप के चश्मे के चल रही थी...
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहाँ बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
रात को हम घर पहुँचे। सुबह वापसी की ट्रेन थी। सुषमा जी स्टेशन पहुँचाने आई। विश्व मैत्री मंच सुषमा जी के निर्देशन में आगरा में अपनी जड़ें जमा चुका था। मैं सुखद स्मृतियाँ लिए औरंगाबाद लौटी।