मेरे घर आना जिंदगी / भाग 19 / संतोष श्रीवास्तव्
इन दिनों कविता के प्रति रुझान तेजी से हो रहा था। कहानी दिमाग में आती ही नहीं थी। सुबह घूमने जाती तो कोई न कोई कविता दिमाग में पकती रहती। सुबह से शाम, रात कई-कई दिन वह कविता खुद को लिखवा लेने की जिद करती। एक कविता के 5, 6 ड्राफ्ट तो बन जाते। मैंने अन्य कवियों के संग्रह को भी पढ़ना आरंभ किया। अब कविता लिखने में इतना आनंद आने लगा कि मेरे अंदर का कथाकार संन्यास लेने की सोचने लगा। अक्सर ऐसा ही होता है। लेखक कथा से कविता या कविता से कथा की ओर धीरे-धीरे मुड़ने लगता है। मैं बाकायदा मुक्त छंद की कविताएँ लिखने लगी। मैंने उसे आत्मप्रसिद्धी का साधन कभी नहीं माना।
मुझे लगता है कवि का अंतर्मन उससे लिखवाता है। वह सहन नहीं कर पाता उस तंत्र को जिसका वह हिस्सा है। बोलने की आजादी उसे कविता देती है।
सुबह जब मैं घूमने के लिए कॉलोनी पार कर रही थी पटना से सतीशराज पुष्करणा दादा का फोन आया। " मिथिलेश जी नहीं रहीं। मैं सन्न रह गई। आम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई। भूटान में जब लघुकथा अधिवेशन मैंने किया था तब काफी कमजोर दिख रही थीं वे। उनकी देखभाल संजू शरण कर रही थी। वे हिन्दी संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखती थीं और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की निदेशक थीं। गउडवहो का प्राकृत से हिन्दी अनुवाद करने वाली वह पहली रचनाकार हैं जो लखनऊ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में हैं। डॉ मिथिलेश मिश्र का जाना हिन्दी और संस्कृत साहित्य में एक बड़ा शून्य का हो जाना है। अब और मुझसे घूमा न गया। उठी तो देखा कपड़ों पर लाल चीटे चल रहे थे। काट लें तो ददौरा उठ आता है और खूब खुजलाता है।
उस दिन रात तक मैं किसी काम की नहीं रही। उस दिन क्या बल्कि चार-पांच दिन तक मिथलेश दीदी का चेहरा सामने आता रहा। वह मुझे बहुत प्यार करती थीं और लघुकथा की उच्चतम लेखिका मानती थीं। कैसे बिछड़ जाते हैं लोग और फिर कभी नहीं मिलते।
मेरे मन को संभाला मंजुला श्रीवास्तव ने। उन्होंने विश्व मैत्री मंच की छत्तीसगढ़ इकाई द्वारा वार्षिक अधिवेशन की घोषणा की। मुझे अगले हफ्ते रायपुर पहुँच जाना था।
अप्रैल का महीना गर्म तो हो ही जाता है। लेकिन रायपुर में सभी का उत्साह देखने लायक होता है। मैं नीता के घर रुकती हूँ जो छोटे चाचा की बहू है। दो रिश्ते हैं नीता से मगर दोनों में वह भाभी है मेरी। निसंतान शांति बुआ ने छोटे चाचा के बेटे तरुण को गोद ले लिया था। सो वह बुआ की भी बहू हुई। उस घर में मुझे बहुत मान-सम्मान लाड़ दुलार मिलता है। तरुण इंतजार करते हैं कि संतोष दीदी आएँ तो एग करी बने। मगर इस बार उदास हो गए क्योंकि मैंने अंडा खाना छोड़ दिया है।
कार्यक्रम वृंदावन भवन में डॉ मंजुला श्रीवास्तव, रूपेंद्र राज तिवारी, नीता श्रीवास्तव के कठिन परिश्रम से संपन्न हुआ। नगर के प्रमुख साहित्यकारों की उपस्थिति में मुझे, डॉ सुधीर शर्मा, गिरीश पंकज को शॉल स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया गया। नीता के घर तीन दिन रुकी। हर दिन ही नगर के साहित्यकारों में से कोई न कोई मिलने आता रहा।
मधु के बेटे ने आउट ऑफ सिटी बंगला खरीदा है। मधु दिखाने ले गई। वहाँ निर्माण कार्य चालू था। इलाका अच्छा हरा भरा था।
प्रतिलिपि पर लौट आओ दीपशिखा, नॉट नाल पर टेम्स की सरगम दोनों ही अमेजॉन पर भी उपलब्ध थीं। कुछ किताबें मेरे पास आई। सुशील सिद्धार्थ ने अपना व्यंग्य संग्रह हाशिए का रंग भेजा और फोन पर बताया कि उस पर कुछ लिखेंगी, कहेंगी तो खुशी होगी। गीताश्री ने डाउनलोड होते हैं सपने कथा संग्रह भेजा। कितना कुछ होता रहा।
मालवगढ़ की मालविका भी गाथा ऑनलाइन पर आ गई। गाथा वालों का नियम था कि अगर कोई किताब मंगवाता था तो उसका पेपर बैक छाप कर भेजते। मुझे भी मालवगढ़ की मालविका के पेपर बैक संस्करण की छै प्रतियाँ मिलीं। अच्छी छपी थी किताब।
पिट्सबर्ग अमेरिका से निकलने वाली मासिक पत्रिका सेतु में अनुराग शर्मा ने श्रीलंका का मेरा यात्रा संस्मरण "जहाँ रावण मुखौटो में जिंदा है" प्रकाशित किया तो देश विदेश से फोन, मेल आए। संस्मरण वैश्विक स्तर पर खूब चर्चित हुआ।
उन्हीं दिनों छपी भी खूब। कथाबिम्ब में कहानी "रात भर बर्फ" छपी, मातृभारती में हमारा संयुक्त उपन्यास "ख्वाबों के पैरहन" धारावाहिक छपने लगा। मुजफ्फरनगर से निकलने वाली पत्रिका आंच में मेरा इटली का संस्मरण छपा। डॉ भावना संपादक है आंच की। रायपुर से डॉ सुधीर शर्मा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका छत्तीसगढ़ मित्र में यात्रा संस्मरण रेगिस्तान में हरियाली का द्वीप दुबई"छपा। रायपुर से ही गिरीश पंकज के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सद्भावना दर्पण में ऑस्ट्रेलिया का संस्मरण" मौरियों का देश "छपा। यह संस्मरण मातृभारती ने भी प्रकाशित किया। लंदन से निकलने वाली पत्रिका पुरवाई संपादक तेजेंद्र शर्मा ने न्यूजीलैंड का संस्मरण छापा। हिन्दी समय में मनोज पांडे ने" अब वे कैसे कहेंगे पथिक फिर आना "प्रकाशित किया और अंतरराष्ट्रीय पत्रिका विभोम स्वर में अंडमान निकोबार का यात्रा संस्मरण" जो खौफ आंधी से खाते तो" छापा। संपादक सुधा ओम ढींगरा ने कनाडा से फोन करके इस लेख से सम्बंधित तस्वीरें मंगवाई। और इतनी सारी पत्रिकाओं में मेरे यात्रा संस्मरण एक साथ प्रकाशित होना एक ऐसी बात हो गई कि मुझे यात्रा संस्मरणों का एक्सपर्ट माना जाने लगा। रजनी मोरवाल ने तो यहाँ तक कहा कि यात्रा संस्मरण का पेटेंट आपके नाम होना चाहिए।
23 मई हेमंत का जन्मदिन हर साल एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। पूरे मुंबई में उत्सव का माहौल रहता है। यह बात हिन्दी मीडिया के चंद्रकांत जोशी ने जब फोन पर मुझसे कही तो मुझे लगा मैंने भले मुम्बई छोड़ दिया है पर मुम्बई ने हेमंत को नहीं छोड़ा। हर साहित्यकार की यादों में वह जिंदा है। तय हुआ कि जन्मदिन मुंबई में ही मनाया जाएगा। जेजेटी विश्वविद्यालय का लगभग 100 की कैपेसिटी वाला हॉल संदीप ने बैनर आदि टांग कर सुंदर ढंग से सजा दिया था लेकिन लोग आए करीब सवा सौ। हेमंत के संस्मरण सुनाते हुए ललिता अस्थाना, सूरज प्रकाश, अमर त्रिपाठी, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, राजेंद्र गुप्ता (अभिनेता) , डॉ नंदलाल पाठक बहुत इमोशनल हो गए थे। ललिता अस्थाना के संस्मरण ने सभी को रुला दिया था। ग्वालियर से डॉ राकेश पाठक आए थे। मैं अभिभूत थी। कहाँ हूँ अकेली मैं। इतना बड़ा साहित्यिक खानदान मेरे साथ है। वह शाम बल्कि रात जैसे नितांत मेरी थी और मैं उस के सदके।
उस रात हेमंत ने मुझे सोने न दिया। होटल लौट कर भी मैं, राकेश और मधु देर तक हेमंत की बातों में खोए रहे। राकेश ने भी 2 साल पहले हुई पत्नी प्रतिमा की मृत्यु का जिक्र छेड़ दिया। यूँ रात आँखों में ही गुजरी।
विकेश निझावन जी का आग्रह रहता है कि मैं अधिक से अधिक रचनाएँ पुष्पगंधा के लिए भेजूं। अंबाला में मेरे फैन बहुत हैं और जब मेरी रचना छपती है तो पुष्पगंधा का सरकुलेशन बढ़ जाता है। उन्होंने मेरी कहानी "अमलतास तुम फूले क्यों" नया ज्ञानोदय से लिफ्ट कर प्रकाशित की और तुरंत सूचना दी। "लौट आओ दीपशिखा" उपन्यास की समीक्षा निरंतर अखबारों पत्रिकाओं में छप रही थी। सृजन blogspot. com पर "लिव इन की विसंगतियों से जूझता महत्त्वपूर्ण उपन्यास" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। ई कल्पना को भी समीक्षा भेजी थी पर उन्होंने पहले गूंगी कहानी प्रकाशित की। फिर भी लौट आओ दीपशिखा को पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला।
मेरी पिछली भोपाल विजिट में सभी का आग्रह था कि मैं भोपाल शिफ्ट हो जाऊँ। इस बीच हुआ यूँ कि मेरी फैन नीलिमा शर्मा का ग्वालियर से फोन आया कि उन्होंने भोपाल में घर खरीदा है अगर मैं चाहूँ तो उस घर में रह सकती हूँ। नीलिमा जी के पति की मृत्यु हो चुकी थी और उन्होंने अकेले दम पर अपनी 4 साल की बेटी और 6 साल के बेटे का पालन पोषण किया। बेटा शिकागो में गूगल में एम्प्लॉई है। बेटी टीवी धारावाहिकों में काम करती है। मुंबई में रहती है। बेटी की शादी कर नीलिमा जी भी उसी घर में साथ में रहेंगी। मुझे यह प्रस्ताव अच्छा लगा। औरंगाबाद की परिस्थितियाँ भी मजबूर कर रही थीं कि मैं स्वतंत्र रहूँ।
मैं जब घर देखने भोपाल पहुँची तो बेंजामिन आईवी भी बेंगलुरु से आ गए। सचखंड एक्सप्रेस ने रात 1: 30 बजे हबीबगंज उतारा। जया का बेटा यश लेने आया। मैं जया के घर ही रुकी। बेंजामिन आईवी होटल में रुके। दूसरे दिन मैं जया के पति शर्मा जी के साथ बावडियाँ कलां आई जहाँ मल्टी स्टोरी बिल्डिंग सुरेंद्र रेजिडेंसी में पांचवीं मंजिल पर नीलिमा जी का घर था। दरवाजा खोलते ही उन्होंने मुझे गले लगा लिया। बेहद हँ समुख महिला। पहली नजर में अपनत्व का बोध हुआ। विजयकांत वर्मा जीजाजी पहले से ही आकर बैठे थे। वे मेरी सगी बुआ के दामाद हैं। गीता जीजी की मृत्यु 2 साल पहले हो गई थी। बच्चे हुए नहीं। वे बाग मुगलिया के अपने डुप्लेक्स बंगले में अकेले रहते हैं। बेंजामिन आईवी भी आ गए। घर बहुत पसंद आया। तीन बड़े-बड़े बेडरूम, हॉल, किचन, पूर्व पश्चिम की बालकनी और खूब हरा-भरा परिसर। यह जगह प्रधान एनक्लेव कहलाती है। कई एकड़ में फैला प्रधान एनक्लेव मेरी मौसेरी बहन कुक्की का है। कुक्की के पति की मृत्यु के बाद ससुराल से उसे फूटी कौड़ी भी नहीं मिली और घर से निकाल दिया गया। बाद में सुनने में आया उनकी प्रॉपर्टी के चक्कर में हत्या कर दी गई थी। कुक्की न्यूयार्क में डॉक्टर है।
बेंजामिन ने फ्लैट का 11 महीने का एग्रीमेंट 6000 हर महीने किराए के हिसाब से तय कर लिया। 11 महीने बाद 10 परसेंट किराया बढ़ाने की परंपरा यहाँ भी निभाई जाएगी। मात्र छह हजार डिपॉजिट ...और मैं इस घर की किराएदार हो गई। एक बेडरूम नीलिमा जी ने अपने लिए रखा।
मेरी वापसी की फ्लाइट 4 दिन बाद थी और कई लोगों से मिलना था। आईवी को भोपाल घूमना भी था। इसलिए हम बावड़ियाँ कलाँ से सैर सपाटा और सांची घूमते हुए जया के घर पहुँचे। बेंजामिन आईवी होटल लौट गए। उन्हें फिल्मेपिया के काम में बिजी रहना है। मैंने संतोष चौबे जी से मिलने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने हरि भटनागर के संग आईसेक्ट यूनिवर्सिटी बुलाया। यूनिवर्सिटी भोजपुर में है। शहर से बहुत दूर। हरि भटनागर वक्त पर लेने आ गए। जया के साथ हमने पहले बापू की कुटिया में लंच लिया। हरि भटनागर के घर से फोन था कि कढ़ी चावल बनाए हैं। संतोष को लेकर घर आ जाओ लेकिन समय नहीं था क्योंकि हरि भटनागर को समय पर यूनिवर्सिटी पहुँचना था। तब वहाँ वे एम्पलाई थे।
संतोष चौबे शहर के रईसों में से एक हैं यूनिवर्सिटी भी बहुत बड़े परिसर में है। अब उसका नाम रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय हो गया है। विजय कांत वर्मा जीजाजी यहीं उपकुलपति और निदेशक हैं। और यह बात संतोष चौबे जी को नहीं मालूम थी कि मैं उनकी साली हूँ।
मैंने उन्हें अपनी किताबों का सेट लाइब्रेरी के लिए भेंट किया। शुरू में वह इस भ्रम में थे कि मैं भोपाल शिफ्ट हो रही हूँ इसलिए यूनिवर्सिटी में उनसे काम मांगने आई हूँ। बाद में स्थितियाँ स्पष्ट हुई।
जया को टीकमगढ़ जाना था। इसलिए मैं विनीता राहुरीकर के घर चली गई। खूबसूरत डुप्लेक्स बंगले में उसके दो कुत्ते भी हैं जो जाली में से भौक रहे थे। विनीता के घर वह शाम और रात बेहद शानदार गुजरी जब हमने एक दूसरे के साथ, एक दूसरे के सामने मन की परते खोली। उस रात मैंने विनीता को निकट से जाना। उसकी बेटी की मृत्यु के बाद से वह अपने में सिमट गई है। दुख कितने हैं। सबके अपने-अपने भाग्य के अलग-अलग।
सुबह जया लौट आई थी और मेरे सम्मान में अपने घर कवि गोष्ठी आयोजित की थी। मैं विनीता के साथ 3 बजे उसके घर पहुँच गई। गोष्ठी में विश्व मैत्री मंच की 15 लेखिकाओं के बीच अकेले लेखक हरि भटनागर। उन्होंने अपना उपन्यास "एक थी मैना एक था कुम्हार" मुझे भेंट किया और इसी उपन्यास के कुछ अंशों का पाठ भी किया। रिमझिम बारिश से मौसम खुशगवार हो गया था। यश के मोबाइल रेस्तरां के इडली वड़ा सांभर और गर्मागर्म चाय ने मौसम की खुशगवारी में स्वाद का भी इजाफा कर दिया।
सुबह यश ने मुझे एयरपोर्ट पहुँचाया तो एकदम अपना-सा लगने लगा यह शहर।
देख रही हूँ दूर पूरब में उगते सूरज को। वह दूर है पर कितना नजदीक निकलता है। एक मिनट का भी आराम नहीं उसे। पूरब से पश्चिम तक की दूरी उसे दिनभर में तय कर लेनी है और वह अपनी निर्धारित डगर से जरा भी नहीं चूकता। यही प्रवृत्ति मैंने पाई है। नित चलते रहना ...चलते रहना... और मैं अपनी इस प्रवृत्ति को बहुत मूल्यवान मानती हूँ। मेरा अपना घुमक्कड़ी शास्त्र है। इस जीवनशैली में उम्र कहीं बाधा नहीं। परिवार मैंने जिया नहीं तो अपनी टुकड़ा होती जिंदगी को समेटकर कुछ इस तरह का रूप दे दिया है। आखिर कोई तो बहाना चाहिए जीने को। इस बार विश्व मैत्री मंच का अंतरराष्ट्रीय सेमिनार रूस के मास्को शहर में कर रही हूँ। अगस्त 2017 में। मॉस्को के साथ सेंट पीटर्सबर्ग, क्रेमलिन भी। मैंने अनिल जन विजय से संपर्क किया। लेकिन बाद में हमारे सम्बंधों में खटास आ गई और मैंने उन्हें सम्मेलन में बुलाने की योजना मुल्तवी कर दी। मॉस्को में हमारे विशिष्ट अतिथि थे दिशा फाउंडेशन मॉस्को के अध्यक्ष डॉ रामेश्वर सिंह, डॉ सुशील आज़ाद एवं डॉ विनायक जिनके कर कमलों द्वारा सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। इस सत्र की मुख्य अतिथि डॉ माधुरी छेड़ा, अध्यक्ष आचार्य भगवत दुबे एवं विशिष्ट अतिथियों द्वारा डॉ विद्या चिटको, डॉ रोचना भारती, डॉ प्रमिला वर्मा, संतोष श्रीवास्तव एवं कमलेश बख्शी की पुस्तकों का विमोचन हुआ।
अनुपमा यादव के कुशल अभिनय की एकल नाट्य प्रस्तुति तथा विनायक जी के द्वारा गाई अहमद फराज की गजल ने समा बाँध दिया।
यह सम्मेलन भारत मॉस्को वैश्विक साहित्य की दिशा में एक नई पहल के रूप में दर्ज किया गया।
मॉस्को, सेंट पीटर्सबर्ग, क्रेमलिन...यहाँ गुजरा पूरा सप्ताह स्मृतियों में कैद है। तमाम फोकस की गई वस्तुएँ, स्थल, रशियन लोग, प्यारी लरीसा हमारी गाइड। हम भारत के लिए उड़ान लेने पुलकोवो एयरपोर्ट पर हैं। पीछे छूट रहे हैं गोर्की, चेखव, टॉलस्टॉय, पुशकिन, फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की, रसूल हमजातोव और कितने ही कलम के सिपाही। 1902 में गोर्की के घर के सामने ज़ार ने पहरा लगाया था। गोर्की श्रमिकों का चहेता कलमकार था। उस पर बरसाई गई गोलियों को मजदूरों ने झेला था। वह मजदूरों की पीड़ा का लेखक था। जब ज़ार की गोलियाँ मजदूरों की शांतिमयी हड़ताल पर बरसी थीं गोर्की के विद्रोह और दर्द से भरे तेवरों वाले लेख की वजह से ज़ार ने उसे जेल में डाल दिया था। गोर्की की यादों को सहेजा है रूस ने। लेखकों की कद्र रूसी जानते हैं तभी तो यहाँ की फिजाओं में शब्द लिखे हैं। जिन्हें समेटे हवा मेरे हवाई जहाज के संग-संग उड़ रही है।
वादा, अपने देश पहुँचकर तुम्हें लिखूंगी रूस!