मेरे घर आना जिंदगी / भाग 1 / संतोष श्रीवास्तव्

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो घर फूँके आपनो

कबीर मेरे जीवन में रचे बसे थे। खाली वक्त कभी रहा नहीं। रहा भी तो कबीर के दोहे गुनगुनाती रहती।

कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ

घर फूंकने में मुझे गुरेज नहीं। मुंबई में 22 बार घर बदला। दो बार शहर बदले। खूंटे से छूटी गाय की तरह दोनों बार मुम्बई वापस। मोह वश नहीं, मोह तो मेरा हर चीज से हेमंत के साथ ही खत्म हो गया। कीचड़ में सनकर भी कमलपात-सी निर्लिप्त रही। मेरे जीवन के हादसों ने न मुझे दुनिया में रहने दिया, न दुनिया छोड़ने दी।

हेमंत सदा के लिए चला गया। असीम में समा गया। मात्र 23 साल मेरा साथ देकर और मैं हिमखंड-सी जम गई। अपनी वेदना, पीड़ा, शोक, अवसाद, असफल जिंदगी को लेकर प्रश्न, ईश्वर के प्रति आहत विश्वास और श्रद्धा को किसी के साथ बांट लेने को तड़प उठी। चाहती हूँ मेरे अंदर का हिमकुंड पिघले...बहे। उसे किसी के एहसासों की, गर्मी की जरूरत है पर इस वीराने में मेरी निगाहें भटक कर लौट आती हैं। कहीं कोई भी तो नहीं जिससे तनहाइयाँ बांट सकूँ। लिल्लाह... यह कैसा वीरानापन, यह कैसा वनवास कि जिसकी अवधि ही मुकर्रर नहीं। गमों के बेइंतहा साथ ने मेरे मन को पंखुड़ी-सा कोमल कर दिया था। मैं ठहर गई थी उस वनवास में अपनी तमाम कठोरता को मोम बनाकर और चकित थी ईश्वरीय फैसले पर।

तेरा दरबार सच्चा... तेरा फैसला सही...मैं ही न्याय के लायक न थी। टूट जाना चाहिए था। किर्च-किर्च बिखर जाना चाहिए था पर आँसू बहा कर गम गलत करना मेरी फितरत नहीं। मैं अलग ही किस्म की हूँ। मुझे आम जिंदगी कभी रास नहीं आई। फिर चाहे खास उबड़ खाबड़ पथरीली कांटो भरी क्यों न हो, मैं उस पर अब चल लेती हूँ। न तलवों के छाले सहलाती न कांटों को खींचती। राह की यह खासियत कहाँ से शुरू हुई समझना मुश्किल है।


मंडला मध्य प्रदेश में बाबूजी डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट थे। खूब बड़ा बंगला नौकर चाकर। मैं उसी बंगले में 23 नवंबर को मैं पैदा हुई। मैं अभागिन, अम्मा को भी बहुत पीड़ा हुई मुझे जन्म देते हुए। बाबूजी ने जबलपुर से स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भीड़ इकट्ठी कर ली। मेरे जन्म लेते ही बंगले के अहाते में पुलिस दल ने तीस बंदूकों की सलामी दी थी। दुनिया में पदार्पण का मेरा शोर और पीड़ा भरा वह खास अंदाज उम्र भर के लिए मेरी जिंदगी में रच बस गया था।

घर में मेरे लिए अलग नौकरानी थी। बंगले के पीछे दो गायों की गौशाला थी। एक सफेद एक भूरी। भूरी गाय का बछड़ा भी भूरा। मैंने बछड़े का नाम मटरू रखा था। मटरू अहाते में मेरे संग उछलता कूदता था। मैं उसे छोटी-सी लुटिया में पीने को पानी देती थी। लुटिया में उसका मुंह कैसे जाए, मैं बुक्का फाड़ कर रोती कि"मेरा मटरू प्यासा है।"

एक दिन अम्मा का लाल बटुआ उठाकर गेट पर खड़ी हो गई और उसमें रखे चांदी के सिक्के राह से गुजरते हर राहगीर को देने लगी। सिक्का लेते ही राहगीर सलाम ठोकते। मैं खिलखिलाती... मैजिस्ट्रेट की बेटी सिक्का बाँट रही है। सिक्का पीछे खड़ी नौकरानी के पास लौट आता। यह कबीराना हरकत भी मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गई।

मंडला में संत धनीराम बाबा थे। जिन्हें लगभग पूरा मंडला पूजता था। रपटा पुल के पास उनकी छोटी-सी कुटिया थी और कुटिया के सामने विशाल मैदान जिसमें रोज ही सैकड़ों की संख्या में भक्तगण बैठे रहते। आश्रम से लगा नर्मदा नदी का रपटा घाट था। धनीराम बाबा सब की समस्याएँ सुलझाते। उनसे उबरने के उपाय बताते। भक्तों के द्वारा पूड़ी, लड्डू खीर का जो प्रसाद उन्हें चढ़ाया जाता वे स्वयं अपने हाथों से उसे भक्तों में बांट देते। न कभी प्रसाद कम पड़ा और न कोई उनके आश्रम से भूखा गया। एक बार अम्मा मुझे, प्रमिला और जीजी को लेकर उनके आश्रम गईं। काफी देर बैठने के बाद जीजी अपनी सहेली नीलू के साथ मुझे और प्रमिला को लेकर रपटा घाट आ गई। हम दोनों को किनारे पर बैठाकर वे दोनों तैरने लगीं। कभी पानी में छुप जाती तो मिनटों गायब रहतीं। कभी पानी के ऊपर लेटे हुए बिना हाथ-पैर चलाए तैरतीं। मुझे भी मन हुआ पानी में जाने का। घाट के पास से ही नदी गहरी थी। मैं डूबने लगी। लहरों के संग रपटा पुल के नीचे तक बहती चली गई। जब प्रमिला चीख-चीख कर रोने लगी तब जीजी और नलू का ध्यान गया। मेरा सिर भर दिख रहा था। जीजी ने मेरे बाल पकड़कर अपनी ओर मुझे खींचा। मैं ढेर सारा पानी पी गई थी। लेकिन बेहोश नहीं हुई। अम्मा हमें खोजते हुए घाट तक आ गई थीं। उन्हीं ने बताया कि जब मैं रपटा पुल के नीचे थी तो धनीराम बाबा पुल के ऊपर खड़े लौट जाने का इशारा कर रहे थे। वे दोनों हाथ तेजी से हिला रहे थे जबकि पुल के नीचे नदी का बहाव पश्चिम दिशा में था और घाट पूर्व दिशा में। विपरीत दिशा में मैं कैसे मुड़ी, ताज्जुब होता है।

बचपन की इस घटना ने नदी के प्रति मेरे मन में खौफ पैदा कर दिया। यही वजह थी कि घर में सब तैराक थे पर मैंने कभी तैरना नहीं सीखा। कभी-कभी मुझे सपना आता कि नर्मदा नदी के बीचों-बीच एक स्त्री का मुख और बाहें हैं। बाहें मुझे दबोच लेने को आतुर हैं। बार-बार देखे इस स्वप्न की दार्शनिकता मैं आज तक नहीं समझ पाई।

बचपन के यानी नौ दस वर्ष की उम्र के वे साल बहुत तेजी से घटी दुर्घटनाओं के साक्षी बन मेरी जिंदगी में गहरे धंसे हैं। आज भी उनसे उबर नहीं पाती हूँ जैसे एक सघन अँधेरा मेरी ओर बढ़ता है। जैसे युग-युग की रातें इकट्ठी हो गई हों एक साथ। जैसे सदियों की आंधियाँ गुजर रही हों मेरे भीतर। बहुत स्पष्ट याद है वह रोमांचक घटना जब बाबूजी कत्ल के केस की सुनवाई कर रहे थे। सभी पेशियों की गवाहियाँ खूनी को निर्दोष साबित कर रही थीं। विपक्ष मालदार भी था और ताकतवर भी। धमकियाँ आनी शुरू हो गईं। बाबू जी ने सरकारी सुरक्षा मांगी।

दो पुलिस कॉन्स्टेबल बदल-बदल कर घर की ड्यूटी पर तैनात किए गए। रमेश भाई छाया की तरह बाबूजी के साथ रहते। रात को टॉयलेट भी रमेश भाई की सुरक्षा में जाते। लेकिन इतनी सुरक्षा के बावजूद बाबूजी पर हमला करने की कोशिश की गई।

रात के 9 बजे होंगे। खाना खाकर बाबूजी ऊपर के कमरे में बैठकर कानून की और दर्शन की किताबें पढ़ते थे। उस दिन प्रमिला भी उनके साथ थी। जैसे ही वे ऊपर पहुँचे और किताब निकालने को अलमारी खोली कि अलमारी के पल्ले की ओर से चमचमाता छुरा उनकी ओर लपका। जाने किस अदृश्य शक्ति के जरिए वे भागे और तेजी से सीढ़ियों पर लुढ़कते चले गए। प्रमिला कैसे नीचे आई मुझे याद नहीं, पर वह जोर-जोर से रो रही थी। बाबूजी ने काले साए को कमरे की खिड़की से खेतों की ओर कूदते देखा था। बाबूजी गीता के उपासक, कभी किसी बात से विचलित नहीं होते थे। उन्होंने तेज आवाज में कहा—"कोई घर के बाहर नहीं जाएगा, हमला हुआ है मुझ पर।"

फाटक पर तैनात पुलिस कॉन्स्टेबल बस 10 मिनट को ड्यूटी से हटा था कि ताक लगाए बैठे हमलावर को मौका मिल गया अंदर घुसने का। बंगले की खिड़कियों में ग्रिल नहीं थी। बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ ...कोई भी आसानी से अंदर बाहर जा सकता था। बाद में बाबूजी ने बताया कि प्रमिला ने ही भूत-भूत कहकर उनका ध्यान हमलावर की ओर दिलाया था। पुलिस तहकीकात तो होनी ही थी। खेतों पर खिड़की से कूदने के निशान मिले। ऐन खिड़की के नीचे की फसल दबी, धंसी मिली। फिर तो आए दिन की धमकियाँ

"केस वापस लो, पूरा परिवार मिटा डालेंगे, जीना दूभर कर देंगे।" बाबूजी की सुरक्षा और कड़ी कर दी गई। घर दहशत में गिरफ्त रहता। सरेशाम से ही दरवाजे बंद कर दिए जाते और बंद करने के पहले पूरा घर तलाशा जाता। कोई छुपा तो नहीं बैठा है। बहरहाल लंबे चले केस का फैसला बाबूजी के सही न्याय से हुआ।

केस खत्म हो जाने के बाद भी हम बच्चों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी रहतीं। नींद में भी हम चौंक-चौंक जाते। अम्मा बाबूजी ने हमारा यह डर दूर करने के लिहाज से हमें चेंज देने की योजना बनाई। हनुमान जयंती भी आने वाली थी। लिहाजा हम सब सूरजकुंड गए। जहाँ पुरवा ग्राम के नजदीक हनुमान जी का प्राचीन मंदिर है। मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमान जी की उस दुर्लभ मूर्ति की खासियत यह है कि वह 24 घंटे में प्राकृतिक रूप से (पंडित नहीं बदलते) तीन बार अपना रूप बदलती है। सुबह 4 से 10 बजे तक मूर्ति बालक जैसी दिखती है। 10 से शाम 6 बजे तक युवा और छह से पूरी रात मूर्ति वृद्ध दिखती है। बाबूजी को ये तीनों रूप देखने थे इसलिए हम सब जीप में सूरजकुंड सुबह-सुबह ही पहुँच गए।

अम्मा ने हम दोनों बहनों को नेहरू जी जैसी शेरवानी, काली बंडी और चूड़ीदार पहनाया था। साथ में ढेर सारे नाश्ते से भरी डलिया, दूध चाय के थरमस हमारी तो पिकनिक जैसी ही थी। क्योंकि हनुमान जयंती थी इसलिए ढेर सारे रंगारंग कार्यक्रम भी मंदिर परिसर में रखे गए। अखंड रामायण, भजन, भजनों पर नाचते भक्तगण और विशाल भंडारे में स्वादिष्ट भोजन।

शाम होते ही हम नौका विहार के लिए मचलने लगे। बाबूजी ने रमेश भाई के साथ मुझे और प्रमिला को नौका विहार के लिए भेज दिया। सूरजकुंड में नदी का प्रवाह अक्सर शांत रहता है। दोनों किनारों पर गझिन हरियाली और बहाव का कोई छोर नहीं। जब नाव में बैठे तो सूरज अस्त होने को ही था। नदी भी मानो हनुमान जी के रंग में रंग गई थी। खूब दूर तक नौका चलती चली गई, चलती चली गई। अचानक काले डरावने बादल आसमान पर मंडराने लगे। तेज हवाएँ चलने लगीं। हवाओं की गति देख मल्लाह ने नौका तट की दिशा में मोड़नी चाही पर नौका तो बिना पतवार के बही चली जा रही थी। चारों ओर जलराशि ही जलराशि। किनारा सूझता नहीं था। थोड़ी ही देर में घनघोर बारिश शुरू हो गई और बिजली कड़कने लगी। हम रमेश भाई से लिपटे रोए जा रहे थे। कभी नौका बाएँ झुक जाती, कभी दाएँ। कभी लहरों पर उछलने लगती। लगता अब गए पानी में। अचानक इतनी जोर की बिजली कड़की कि लगा हमारी नौका पर ही गिरी है। बिजली की चमक में हमने एक दूसरी नाव अपनी ओर आते देखी। नाव पर अम्मा बाबूजी टॉर्च की रोशनी डालते हुए हमारा नाम पुकार रहे थे। बाबूजी नाव पर बिना किसी सहारे के मजबूत स्तंभ से खड़े थे। उनकी नौका के मल्लाह ने हमारी नौका भी अपनी नौका से बाँध दी। अब दो नौकाएँ, दो मल्लाह और जिंदगी की आस छोड़ चुके हम सब। नौका रुकी। घुटने-घुटने पानी से होकर हम जहाँ पहुँचे वह किसी किसान का झोपड़ा था। जब हम सबका रोना थमा तब उसने गुड़ डालकर औटाया हुआ गर्म दूध हमें पिलाया। उसके पास खाने को कुछ न था। वह अपनी बगिया से पके हुए पपीते तोड़ लाया।

न जाने किस दैविक शक्ति से हमारा बाल भी बांका नहीं हुआ। किसान के झोपड़े में रात गुजार कर जब हम घर लौटने के लिए रवाना हुए तो पुरवा गाँव में कोहराम मचा था। दो नौकाएँ रात के तूफान में लापता थीं। जिनमें करीब तीस लोग सवार थे।

बाबूजी ने रिटायरमेंट के पहले ही अपने उसूलों के कारण नौकरी छोड़ दी और हम जबलपुर आ गए। जहाँ वे ताउम्र वकालत करते रहे। उन्होंने अपनी वकालत के काल में कत्ल के 40 मुकदमे लड़े और प्रत्येक मुकदमे में उनकी जीत हुई।

जबलपुर जाबालि ऋषि की तपस्थली, उन्हीं के नाम पर इस शहर का नाम जबलपुर पड़ा। पर मैं हमेशा सोचती थी कि इसका नाम जलपुर होना चाहिए था। जहाँ देखो ताल ही ताल। जबलपुर के पूर्व में गौर नदी है। अर्धचंद्र बनाकर दक्षिण और पश्चिम दो दिशाओं में नर्मदा नदी बहती है। उत्तर में छोटी-सी परियट नदी। जब इन नदियों में बाढ़ आती है तो जबलपुर के आसपास के इलाके टापू बन जाते हैं। जब नदियाँ शांत बहती हैं इनके किनारे उत्सवमय हो जाते हैं। नर्मदा नदी के किनारे ग्वारीघाट, तिलवारा घाट, भेड़ाघाट विभिन्न त्योहारों में लगे मेलों से सज जाते हैं। शहर के भीतर ढेरों तालाब। हनुमानताल मेरे परदादा का बनवाया हुआ था। रानीताल, चेरीताल, अधारताल का निर्माण रानी दुर्गावती के समय हुआ। फूटाताल, मढाताल, तिलक भूमि की तलैया, श्रीनाथ की तलैया, भंवरताल, गंगासागर, महानद्दा। कितने गिनाऊँ...ताल ही ताल। तालों के जलवक्ष पर कुमुदिनी की बेल बिछी रहती। जिसके बेंजनी फूल शाम होते ही खिल जाते और सुबह मुरझा जाते। सुबह बीच-बीच में लगे सफेद गुलाबी लाल कमल खिल जाते। कुमुदनी चाँद की दीवानी, कमल सूरज का। मेरा घर का नाम कमला था। मेरे दोनों बड़े भाई मुझे कमल कहते थे। इस फूल के प्रतिरूप ही मेरा स्वभाव। सुबह से दोपहर तक खुश रहती हूँ। दोपहर ढलते ही जाने कौन-सी वेदना मुझे निढाल करने लगती है। जो आज तक जस की तस है। चाहे कितनी रात गए सोऊँ पर उठ जाती हूँ भोर होते ही 5 बजे। मैंने कभी अपनी अधूरी नींद की पूर्ति सुबह देर तक सो कर नहीं की।

नामों की भी मेरे जीवन में खूब घुसपैठ रही। जयशंकर प्रसाद की कामायनी पढ़कर मेरे भाई बहन मुझे कामायनी फिर किमी नाम से पुकारने लगे। यूँ स्कूल में नाम लिखाने से पहले मेरा नाम शेफाली भी रखा गया। फिर बड़े चाचा जब स्कूल में मुझे भर्ती करने ले गए तो जाने क्या सूझा उन्हें संतोष नाम लिखा दिया। संतोष मामा जी का नाम था। जब बाबूजी ने संतोष नाम पर एतराज किया तो चाचा जी बोले " राजसी ठाट रहेंगे इसके, जैसे जॉर्ज चतुर्थ, जॉर्ज पंचम।

नाम की महिमा अब भी लोगों को भ्रम में रखती है कि मैं लड़की हूँ कि लड़का।

रात्रि भोज के दौरान सब एक साथ बैठकर खाते थे और बौद्धिक चर्चाएँ होती थी। बाबूजी ने चर्चा के दौरान बताया था कि सन 1956 में जबलपुर मध्य प्रदेश की राजधानी होते-होते रह गया था। जबकि आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इन सभी दृष्टियों से जबलपुर मालामाल था और लोकतांत्रिक चेतना का सबसे प्रमुख केंद्र था लेकिन उस जमाने में सेठ गोविंद दास का कट्टरपंथी रवैया कांग्रेस को पसंद न था और चूंकि वे संसद सदस्य थे अतः कांग्रेस की इस ना पसंदगी ने जबलपुर के शीश पर राजधानी का मुकुट चढ़ने ही नहीं दिया। राजधानी के गौरव से वंचित जबलपुर को विनोबा भावे ने संस्कारधानी की उपाधि दी।

यह तो बहुत बाद में जब मैं स्कूल (महारानी लक्ष्मीबाई कन्या विद्यालय) में पढ़ती थी और जब जबलपुर सांप्रदायिक दंगों की भयानक चपेट से गुजर रहा था तब पता चला था कि जबलपुर को संस्कारधानी का विशेषण गौरव गान करने के लिए नहीं बल्कि सांप्रदायिकता की आग में झुलसे शहर के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए दिया था। जिस शहर में एक तरफ साहित्य और राजनीति के बीच और दूसरी तरफ साहित्य व समाज के बीच इतना जीवंत संपर्क रहा वहाँ क्यों कर सांप्रदायिकता की विषबेल पनप सकी। सोच-सोच कर हैरान, परेशान रही मैं ...हफ्तों, महीनों बार-बार आंखों के सामने वह खूनी मंजर, वह दिल दहला देने वाला नजारा आता रहा।

उषा भार्गव कांड सुर्खियों में था। उषा भार्गव का मुस्लिम लड़के से प्रेम वजह बना दंगों की, जब किन्ही अज्ञात व्यक्तियों ने उषा भार्गव का कत्ल कर दिया। आम राय थी कि यह कत्ल मुस्लिम संप्रदाय के हाथों हुआ है। मैं एनसीसी में थी और उस दिन हमारी परेड का अभ्यास स्कूल में चल रहा था। अचानक दंगे भड़कने की खबर मिली थी और हमें पुलिस की सुरक्षा में पुलिस जीप में हमारे घरों तक पहुँचाया गया था। मेरा चूँकि सिविल लाइंस में घर था सो सबसे आखरी में मैं घर पहुँची। मैंने डबडबाई आंखों से शहर की तबाही देखी थी। जली अधजली धुंए से भरी मढाताल, घमापुर, बड़े फुहारे की दुकानें। कमानिया गेट की चहल-पहल भरी सड़क पर खून मांस के लोथड़े, बिखरा टूटा फूटा सामान, जले हुए टायर, लोगों का वहशी हुजूम..."मारो मारो" की दानवी आवाज। यह आवाज हिंदू की थी या मुसलमान की कोई सिक्स्थ सेंस वाला भी नहीं बता सकता था। मैं रोने लगी थी और मेरा हृदय मरोड़े लेने लगा था। घर लौटने के बाद शाम मुझसे खाना नहीं खाया गया और मैं सोते हुए भी चौंक-चौंक पड़ी थी। अगली दो रातें गजब का खून बरसाती रहीं। चीखों की समवेत लय कानों में गुपचुप प्रवेश कर मुझे सर्वांग पीड़ा से भरती रही। नहीं जानती वह कैसी छाप थी जिसने मेरे मासूम, संस्कारी और संवेदनाशील ह्रदय को चप्पा-चप्पा बींध डाला था। मन में सवाल उठा था आखिर किसने हक दिया ईश्वर की बनाई रचना को खत्म करने का? क्यों संप्रदायों में बंटा है समाज और क्यों एकता से नहीं रह सकता यह वर्ग? कहाँ की दुश्मनी है जो ये दोनों संप्रदाय कौरव पांडव बने अपने ही हस्तिनापुर को मिटाने पर तुले हैं। इस घटना ने कई बरसों बाद मुझसे लिखवाई "अजुध्या की लपटें" कहानी जिसमें मैंने बाबरी मस्जिद ढहाने को प्रसंग बना उषा भार्गव कांड ही लिखा था। "अजुध्या की लपटें" एकांत श्रीवास्तव के संपादन में कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ में छपी और बेहद चर्चित हुई।

बचपन की यादों में कुछ यादें अभी भी रड़कती हैं। जबलपुर का एसिड कांड तो ताजे घाव-सा है। ईश्वर मेरे जैसा भावुक संवेदनशील और नरम दिल किसी को न दे। ऐसे दिल वालों के लिए दुनिया नंदनवन होनी चाहिए। जहाँ प्यार ही प्यार हो, संगीत हो और फूलों से पटी धरती। पर जिंदगी ऐसी नहीं होती। यहाँ प्यार करने का दावा करने वाले दिल निर्मम भी होते हैं। जबलपुर में खमरिया स्थित रॉबर्टसन कॉलेज में जीजाजी बॉटनी के लेक्चरर थे। कॉलेज का वार्षिकोत्सव था जिसमें मैं जीजी के हाथ की सिली गुलाबी साटन की फुग्गेदार बाहों वाली खूबसूरत फ्रॉक पहने, गुलाबी रिबन की दो चोटियाँ करे जीजी और प्रमिला के साथ गई थी। जीजाजी ने हमें सबसे आगे की सीट पर बैठा दिया था। कॉलेज की लड़कियों के नृत्य और नाटक मन मोह रहे थे कि तभी अचानक सांप-सांप के शोर सहित भगदड़ मच गई। मैं दौड़कर टेबल के नीचे छिप गई। पता चला सांप नहीं वह एसिड के बल्ब थे जो किसी ने हॉल में फेंके थे। मांस के जलने की बू, चीख-पुकार, रोना कलपना और हमारी खोज के संग-संग घायलों को प्राथमिक चिकित्सा के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला में ले जाया गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गई। बहुत भयानक दिल दहला देने वाला था वह कांड। पता चला इश्क का मामला था। लड़की किसी और से प्रेम करती थी और इसी खुन्नस में जुनूनी आशिक ने अपने साथियों के साथ इस काम को अंजाम दिया। लड़की तो बच गई ...निर्दोष दर्शक इसका शिकार हो गए। यौवन के द्वार पर पहुँची खूबसूरत लड़कियों के चेहरे वीभत्स हो गए। कंधे, पीठ, कमर ...एसिड जहां-जहाँ गिरा अपने खूंखार निशान बनाता गया। मुझे जीजी ने टेबल के नीचे से खोज निकाला। डरी सहमी मैं सुबक रही थी। हम सब प्रयोगशाला के कोने में तब तक बैठे रहे जब तक सारे घायल अस्पताल नहीं पहुँच गए। वह तड़प, वह रोना कलपना, दर्द भरी चीखें आज भी मेरा कलेजा दहला देती हैं। प्रेम का यह कैसा रूप कि मानवता भी रो पड़े।

इन घटनाओं ने शहर को लेकर जहाँ मुझे शर्मिंदा किया है वहीं गर्व भी है मुझे जबलपुर पर। यहाँ हितकारिणी सभा है। शुभचिंतक प्रेस भी और लोक चेतना प्रकाशन भी। शुभचिंतक प्रेस से बाबूजी (गणेश प्रसाद वर्मा) की दर्शन शास्त्र की किताब "सरस्वती पूजन द्वारा विश्व शांति" प्रकाशित हुई थी। जिसकी ढेरों प्रतियाँ बाबूजी के ऑफिस की अलमारी में बरसों पड़ी रही थीं। वह किताब अनूठी थी पर उसकी बिक्री कम हुई।

सातवें-आठवें दशक में जबलपुर संस्कारधानी ही था। वह मेरे स्कूल के शुरुआती दिन थे। मेरे बड़े भाई विजय वर्मा के कारण घर का माहौल बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों की मौजूदगी से चर्चामय था। शिक्षा साहित्य और कला तब शीर्ष पर थी। श्रद्धेय मायाराम सुरजन का जबलपुर की पत्रकारिता और साहित्यिक परिवेश में बहुत बड़ा योगदान है। आज भी सुरजन परिवार नींव का पत्थर बने मायाराम सुरजन के साहित्यिक कार्यों को पूरी आन बान शान से संभाले हुए हैं। सन 1945 में मायाराम सुरजन ने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स जबलपुर से प्रकाशित करना आरंभ किया जो 1958 तक अनवरत चला। नवभारत 1950 से, नईदुनिया 1959 से मायाराम सुरजन ने ही प्रकाशित करना आरंभ किया था। बाद में नई दुनिया नवीन दुनिया नाम से परमानंद पटेल के हाथ में चला गया क्योंकि उसके फाइनेंसर वही थे। सांध्य दैनिक जबलपुर समाचार भी जबलपुर से ही मायाराम सुरजन ने प्रकाशित करना आरंभ किया था। जबलपुर समाचार रायपुर चला गया और देशबंधु नाम से प्रकाशित होने लगा। जिसने हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों में न केवल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ बल्कि दिल्ली में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। देशबंधु प्रकाशन से ही साहित्यिक पत्रिका अक्षर पर्व निकलती थी जिसकी संपादक सर्वमित्रा सुरजन थीं जो ललित सुरजन की पुत्री हैं। ललित सुरजन विजय भाई के दोस्त थे। वे आज भी मुझसे अपनी छोटी बहन-सा स्नेह करते हैं और सर्वमित्रा मुझे बुआ कहती हैं।

कर्मवीर की शुरुआत भी जबलपुर से हुई। पंडित माधवराव सप्रे ने कर्मवीर का संपादन किया था जिसमें सुंदरलाल और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार उनके सहायक थे। पंडित सुंदरलाल काफी लंबे समय तक जबलपुर के बाशिंदे रहे। पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र उन दिनों अपने पत्रों श्री शारदा और सारथी का प्रकाशन करते थे। उनके छोटे भाई सत्येंद्र मिश्रा अम्मा के सहयोगी थे। हमारे घर उनका आना-जाना था। लेकिन अम्मा की मित्रता उनकी वहीदा रहमान जैसी दिखती पत्नी से ज्यादा थी जिन्हें हम मौसी कहते थे। अपने कॉलेज के दिनों में अक्सर लांग रिसेस में मैं मौसी के घर चली जाती और रसोईघर के तमाम कटोरदान खोल-खोल कर मठरी, लड्डू, खुरमे, सलोनी से अपनी प्लेट भर लेती। मौसी को बड़ा आनंद आता था। वे खुद मेरे लिए भंडारघर से अचार लातीं। "ले खा और सुना अपनी कविता" गद्य लेखन से काव्य की ओर मेरे रुझान का श्रेय मौसी को ही जाता है। मैं चार-पांच लाइन की कविता लिखकर ही उनके घर जाती थी और शाबाशी भी खूब पाती थी।

मेरे कॉलेज से मौसी के घर पहुँचने में मुश्किल से 5 मिनट लगते थे। आज भी याद है लकड़ी की जाफरी लगा वह खुशनुमा घर। फाटक पर जूही की बेल और पारिजात का पेड़।

मेरे कॉलेज का नाम मोहनलाल हरगोविंद दास आर्ट्स एंड साइंस गर्ल्स कॉलेज था। सब उसे होम साइंस कॉलेज कहते थे। जबकि वहाँ विज्ञान की पढ़ाई भी होती थी। कॉलेज के विशाल कैंपस में गर्ल्स हॉस्टल था।

और वहीं प्राचार्य निवास भी। प्राचार्या कुसुम मेहता थीं जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में बाबूजी की सहपाठी थीं। हॉस्टल की वार्डन विमला चतुर्वेदी थीं जो कॉलेज में हिन्दी पढ़ाती थीं। वे अविवाहित थीं और उम्र भी 45 के आसपास होगी। बेहद स्ट्रिक्ट, चेहरे पर हँसी का नाम नहीं। अपनी छोटी-छोटी आंखों से वे हरेक का जायजा ले लेती थीं। लेकिन वह मुझे बहुत पसंद करती थीं क्योंकि मैं उनका होमवर्क जरूर करके लाती थी। कक्षा में उनके प्रश्नों के जवाब भी देती थी।

मेरा कॉलेज बड़े-बड़े लॉन, फूलों की क्यारियों और ऊंचे-ऊंचे दरख्तों से घिरा शानदार स्थापत्य वाला था। इसके मालिक मोहनलाल हरगोविंद दास बीड़ी वाले सेठ कहलाते थे। जिनका बीड़ी का व्यापार दूर-दूर तक फैला था। तेंदूपत्ता में तमाखू भरकर लपेटने और पैक करने के काम में कई बेरोजगार श्रमिकों को उन्होंने रोजगार मुहैया कराया था। वे दानवीर कहलाते थे और लड़कियों को शिक्षित करने की दिशा में प्रतिबद्ध थे। बाद के दिनों में जब विजय भाई कमर्शियल आर्ट की ओर झुके तो बीड़ी का रैपर उन्हीं ने डिजाइन किया था जो बरसों बरस ऐसा ही चलता रहा। जंगल से तेंदूपत्ता तोड़ने से लेकर बीड़ी का कट्टा तैयार होने तक की पूरी कहानी रेखाचित्र द्वारा विजय भाई से उन्होंने तैयार कराकर उसकी प्रदर्शनी जबलपुर और भोपाल में लगवाई थी।

कॉलेज से में पैदल ही अपनी सखी सहेलियों के साथ मदन महल स्थित अपने घर जाती थी। घर तक का रास्ता आधे घंटे का था। बीच में मदन महल रेलवे स्टेशन का पुल भी चढ़ना पड़ता था। पुल से उतरते ही मेरी अंतरंग सखी शशि तिवारी का घर था। शशि और मैं स्कूल से कॉलेज तक साथ ही पढ़े थे। हमारी दोस्ती मशहूर थी। हमें दो हंसों का जोड़ा कहा जाता था। बीए का रिजल्ट भी नहीं आया था कि शशि की शादी नरसिंहपुर में हो गई तब से आज तक हम कभी नहीं मिले। शुरू में खतो किताबत होते रहे फिर दुनिया की भीड़ में हम दोनों एक दूसरे के लिए गुम हो गए। मदन महल स्टेशन रोड पर ही हरिशंकर परसाई जी का घर था। हिन्दी के महान व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी मॉडल हाई स्कूल में विजय भाई को पढ़ाते थे। बाद में एक ही विधा में होने की वजह से गुरु शिष्य का रिश्ता मित्रता में बदल गया। हालांकि परसाई जी व्यंग्य लेखक थे, विजय भाई नाटक, कहानी, कविता हर विधा में लिखते थे। अक्सर मैं शशि के साथ उनके घर चली जाती।

अपनी रचनाएँ उन्हें पढ़कर सुनाती। न वे तारीफ करते न खामियाँ निकालते। मैं असंतुष्टि का भाव लिए घर लौटती।

एक दिन विजय भाई मुझे रोटरी क्लब ले गए। साहित्यिक कार्यक्रम था और परसाई जी मुख्य अतिथि थे। अधिकतर लोग अंग्रेजी ही बोल रहे थे। शायद रोटरी नाम की गुणवत्ता से प्रभावित होकर। सभी परसाई जी से हाथ मिला रहे थे। डिनर के दौरान सलाद की प्लेट लिए एक सज्जन परसाई जी के करीब आए"सर आप क्या महसूस करते हैं? यह देश विनाश की ओर जा रहा है और हम सब पतित पथभ्रष्ट इसे रसातल पहुँचाकर ही दम लेंगे।" परसाई जी तपाक से बोले' "मुझे नहीं मालूम था कि सलाद के साथ देश की दुर्दशा इतनी स्वादिष्ट लगती है।" यह सुनकर काले कोट और नीली टाई वाले सज्जन इतनी जोर से ठहाका मारकर हंसे कि उनके कप का सूप छलक पड़ा।

परसाई जी हमें टैक्सी से घर तक छोड़ने आए। रास्ते में विजय भाई ने मेरी रचनाओं पर चर्चा छेड़ी। उन्होंने कहा-"संतोष के अंदर छुपा लेखन का बीज अंकुरित हो चुका है। तुम्हें अपनी हर एक रचना के कई-कई ड्राफ्ट बनाने होंगे संतोष, फिर देखना निखार।"

उस दिन मैंने उन्हें पहली बार निकटता से जाना। उनकी सादगी से मैं अभिभूत थी। एक दिन अपनी कहानी"शंख और सीपियाँ" उन्हें सुनाने ले गई। अपने तईं मैंने इस कहानी पर खूब मेहनत की थी। वे अपने घर पलंग पर आराम से बैठे मेरी कहानी सुन रहे थे कि तभी खटर-पटर की आवाज सुन उन्होंने मुझे पढ़ने से रोका। अंदर गए और कटोरदान में रखी रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखेर दिए। तभी एक चूहा अलमारी के नीचे से निकला और सारे टुकड़े एक-एक कर उठा ले गया। "यह भी तो घर का सदस्य है। रोटी खाकर शांत हो जाएगा वरना तुम्हें कहानी नहीं सुनाने देगा।"

सच में थोड़ी देर में शांति थी। मैं कहानी पढ़ने लगी। मेरी कहानी जब पूरी हुई तो वे बोले "अब वक्त आ गया है छपने का।"

मेरी खुशी की इंतिहा न थी। दो महीने बाद धर्मयुग से डॉक्टर धर्मवीर भारती जी ने स्वयं मुझे पत्र लिखा—"आपकी कहानी" शंख और सीपियाँ "धर्मयुग में प्रकाशनार्थ स्वीकृत है।"

मैंने उसी दिन परसाई जी के घर जाकर भारती जी का स्वीकृति पत्र दिखाया।

"जाओ बिस्कुट खरीद लाओ। चूहे को खिलाना है। आखिर वह भी तो तुम्हारी कहानी सुनने में भागीदार था।"

अब परसाई जी नहीं रहे। उन्होंने जीवन की अनंत पीड़ा सही। उनका जीवन घोर दुखों से गुजरा। उस दुख ने उन्हें लेखनी थमा दी और खंगालने वाली वह दृष्टि प्रदान की जो आज व्यंग्य साहित्य की धरोहर है। वे कहते थे "जो चेतनावान होता है वह दुनिया की हालत पर रोता है।"

सुखिया सब संसार है खावे और सोवे दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे"

मुंबई से निकलने वाली मासिक पत्रिका नवनीत में जब विश्वनाथ सचदेव जी ने मेरी कहानी "शंख और सीपियां" मेरी पहली कहानी नामक स्तंभ में प्रकाशित की तो लगा परसाई जी मेरे आस-पास है। "

जहाँ परसाई जी रहते थे वहीं विजय भाई के अभिन्न दोस्त छोटे मुन्ना का घर था। उनका नाम तो न तब पता था न अब। हम सब उन्हें छोटे मुन्ना ही कहते थे। पर जाने कैसे उनका मुझ पर दिल आ गया। कभी दिल की बात मुझसे प्रकट नहीं की लेकिन जब उनकी शादी तय हुई तो बोले"विजय मैं संतोष को चाहता हूँ। कहो तो बारात लेकर तुम्हारे दरवाजे आ जाऊँ।"

यह बात उनकी शादी हो जाने के बाद विजय भाई ने घर में बताई। अम्मा को बहुत अफसोस हुआ।

"बताना था न पहले। इतना अच्छा लड़का है वह तो।"

बात आई गई हो गई थी। पर उसके बाद मैं कभी उनका सामना नहीं कर पाई। लेकिन कभी-कभी मन में कचोट-सी उठती है। मुझे चाहने वाला मुझे पा न सका। क्या पता मेरी वीरानियों का सबब उनका टूटा दिल ही हो।

विजय भाई के दोस्तों में एक अशोक चौहान थे, सुभद्रा कुमारी चौहान के सबसे छोटे पुत्र। उनका घर मेरे स्कूल से कुछ ही दूर बेहतरीन हरे-भरे लॉन और बाग बगीचे से घिरा था। अजय चौहान (बड़े भैया) विजय चौहान (छोटे भैया) तीनों भाइयों के बीच दो बहने। सुधा जीजी अमृतराय को ब्याही थीं। ममता जीजी चंचल बाई हाई स्कूल में पढ़ाती थीं। बाद में शादी के बाद वे अमेरिका चली गईं। विजय चौहान भी अमेरिका चले गए। अजय चौहान यूनिवर्सिटी में डीन थे। घर के पास ही उनकी किताबों की दुकान थी। जिसे लंच के बाद उनकी पत्नी संभालती थी।

गर्मी के दिनों में उनका घर चहल पहल से भरा रहता। जिसमें हमारे घर की भी मौजूदगी होती। न जाने कैसा जुड़ाव था कि अमृतराय और सुधा जीजी की संगत में बैठना अच्छा लगता था। खुद को प्रेमचंद्र और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे साहित्य में मील का पत्थर माने जाने वाले लेखकों के घरानों से जुड़ा पाती। वैसे विजय भाई की दोस्ती के अलावा उनका घर अम्मा की वजह से भी हमारा अपना था। क्योंकि अम्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान में मित्रता थी।

याद करती हूँ तो लगता है कि विजय भाई के दोस्त में कई यादव थे। जिनमें अपनी 6 साल की उम्र में मैंने उनके नजदीकी दोस्तों में पहला नाम पाया वह थे शशिकांत यादव। जिन्हें सब शशिन कहते थे। वे चित्रकार, छायाकार थे और विजय भाई के स्कूल के दिनों के सहपाठी थे और यह दोस्ती उन्होंने मृत्युपर्यंत निभाई। 6 साल की मेरी उम्र में मुझे साड़ी और पफ़ वाली बाहों का ब्लाउज पहना कर उन्होंने जो तस्वीर खींची थी वैजयंती माला वाली स्टाइल की वह आज भी मेरे एल्बम में मौजूद है। उनके कई छायाचित्र, ट्रांसपेरेंसी धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी। जिनमें नदी, सागर, जंगल के दृश्यों में विजय भाई का चेहरा होता। विजय भाई भी बेहतरीन चित्रकार, छायाकार थे। शशिन भाई के स्टूडियो में ही वे दोनों अनवरत चित्रों को बनाने में लगे रहते थे। जिसकी शानदार प्रदर्शनी शहीद स्मारक भवन में लगने वाली थी। बाद में विजय भाई के चित्रों की एकल प्रदर्शनी भोपाल में भी लगी। शशिकांत यादव जी की मृत्यु के बाद उनके नाम से चित्रकला का एक पुरस्कार जबलपुर से दिया जाता है।