मेरे घर आना जिंदगी / भाग 21 / संतोष श्रीवास्तव्
केरल जाने के लिए मुम्बई से फ्लाइट लेनी थी। मुंबई पहुँचते ही न जाने क्या हो जाता है मुझे। मुंबई की हवाओं में जाने क्या जादू है कि जो एक बार मुंबई में रह लिया वह दूर रहकर भी भूल नहीं पाता मुंबई को। मैं भी नॉस्टैल्जिया से गुजर रही थी। रात 3 बजे एयरपोर्ट पहुँचकर देर तक लंबे चौड़े एयरपोर्ट पर चहलकदमी करती रही। ऐसा लग रहा था कि किसी को कहूँ कि पहुँच गई एयरपोर्ट। समय पर पहुँचा दिया टैक्सी ने। पर किसे? मैने ही तो सारे बंधन तोड़ डाले। मैंने ही तो मुंबई को पराया कर दिया।
केरल के अलेप्पी में जिसे पूर्व का वेनिस कहते हैं हाउसबोट में हम 24 घंटे रुके थे और हाउसबोट पर ही मेरा जन्मदिन खूब धूमधाम से सबने मनाया। नाच गाने हुए। स्किट भी एक्ट की गई।
कमलेश बक्शी और मेरे हाथों आभा दवे के कविता संग्रह अलौकिक का लोकार्पण हुआ। हम सब डेक पर आ गए। शाम झील पर उसके आसपास के खेतों बगीचों की हरियाली पर उतर आई थी। आसमान में पूरा चाँद था और वेम्बन्दा झील का पानी नन्ही-नन्ही उर्मियों संग हाउसबोट को मंथर गति से ले जा रहा था। यह लेक कई केनालों और बैक वाटर के मिलन से बनी है। मैं मुग्ध हो कर झील पर चाँद का अक्स निहार रही थी। राजश्री रावत ने मेरी बहुत सारी तस्वीरें खींची। उसी में से एक तस्वीर जो स्पेशल मूंगिया कलर की थी मैंने फेसबुक प्रोफाइल पर लगा दी। तस्वीर बहुत खूबसूरत बल्कि क्लासिक थी। सोनू ने तस्वीर देखकर अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा
बेजार-सी जिंदगी में / हंसने की वजह मांगी थी / तेरी खुशी का पैगाम दिया रब ने / मजा आ गया / पा लेता तुझे / तो शायद कदर न होती / खोकर जो एहसास पाया / मजा आ गया / बे मकसद जिंदगी भी / मजे से कट रही थी / थोड़ी और बेमकसद हो गई / मजा आ गया।
मैं कमेंट देना चाहती थी तुम्हें खोकर भी खो न सकी, मजा आ गया। सोनू मेरे दिल के करीब है लेकिन एक बार जो बिछड़े तो अब तक दोबारा कभी न मिले।
चाँद अब आसमान के बीचो-बीच था। क्या पता था कि केरल दो दिन बाद ही भयंकर समुद्री तूफान की चपेट में आ जाएगा और हम कोवलम के समुद्री किनारे से लगे होटल में तूफान थमने तक रुके रहेंगे और हमारा कन्याकुमारी जाना कैंसिल हो जाएगा। प्रकृति ने क्या दुश्मनी निभाई कि बस कन्याकुमारी तक आकर हमारा प्रवेश वर्जित कर दिया। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है। मुझ तक आते-आते सुख रास्ता भटक जाते हैं और मैं इंतजार करती रह जाती हूँ।
लौटने का प्लेन मुझे कोच्चि से वाया चेन्नई इंदौर का मिला। इंदौर में समकालीन महिला लघुकथा लेखन पर क्षितिज संस्था ने लघुकथा संगोष्ठी का आयोजन किया था। संस्था के अध्यक्ष सतीश राठी जी ने मुझे बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया था। अंतरा करवड़े और अशोक शर्मा भारती ने मेरे नाम का अनुमोदन किया था।
मेरा रुकना अमिता के घर निश्चित था। दूसरे दिन जितेंद्र गुप्ता मुझे आयोजन स्थल के लिए लेने आए। आयोजन में इंदौर शहर के तमाम लघुकथाकारों से मुलाकात हुई। अगली शाम स्वाति तिवारी की संस्था इंदौर लेखिका संघ से बुलावा था। मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रण और मेरी कहानी "कठघरे के बाहर" पर चर्चा विमर्श रखा गया। सुबह वरिष्ठ लेखिका कृष्णा अग्निहोत्री के घर लंच का आमंत्रण था। मुझे बहुत मानती हैं वे और खूब मान-सम्मान भी देती हैं। मेरा फोन नहीं आने पर डांट भी देती हैं।
"बड़े भाव बढ़ गए हैं तुम्हारे। एक फोन नहीं कर सकती अपनी दीदी को?"
मैं हँस देती। कोई बहाना भी तो नहीं रहता नहीं करने का। लंच लेकर ही चुके थे कि नई दुनिया के रिपोर्टर का फोन "मैडम, वैसे तो आपका इंटरव्यू और बाइट लेने मैं कार्यक्रम में आता पर कुछ व्यस्तता बढ़ गई है। इंटरव्यू फोन पर ही दे दीजिए।"
मैं ड्राइंग रूम से बाहर बगीचे में चली गई। गुलाबी ठंड में पेड़ों से छन कर आती हल्की-हल्की धूप बड़ी भली लग रही थी। आधे घंटे तक इंटरव्यू चला। कमरे में लौटी तो कृष्णा दीदी ने फिर फटकार लगाई "ये देखो रानी साहिबा को। समय नहीं था तो आई क्यों?"
मैं उनके गले लग गई "प्यारी दीदी"
सुधा चौहान लेने आई। चूंकि कार्यक्रम मुझ पर ही केंद्रित था, सभागार में मेरी कहानी पर चर्चा, प्रश्न, जिज्ञासा का आलम दो घंटे रहा। 9 बजे तक मिलना मिलाना... सौहार्द भरा वक्त पता ही नहीं चला।
काफी सारे साहित्यकारों ने विश्व मैत्री मंच की सदस्यता ली। विश्व मैत्री मंच अंतर्राष्ट्रीय रूप में मान्यता प्राप्त है। मेरी बरसों की मेहनत, बरसों का ख्वाब सच हो रहा था। मैं न जाने-किस नशे में थी। तुरंत मॉल जाकर अमिता, जेनी और श्याम के लिए कपड़े खरीदे जो उनकी पसंद के थे। दाम तक न देखे उनके। जैसे किसी ने सम्मोहित कर लिया था। जबकि जानती थी जीजी के बच्चे मेरे लिए भ्रम हैं। जीजी के साथ ही वह लगाव, अपनत्व खत्म हो चुका है। भावनाएँ शेष रही नहीं। फिर तो नहीं रुकना था अमिता के घर पर न जाने क्यों रुकी और यह गलती मुझे आज तक सालती है।
अमिता और श्याम ने मुझे ऐसे सम्मोहन के जाल में खींचा कि आज तक पछतावा है कि कैसे हुआ यह मेरे साथ! भोपाल पहुँचते ही अमिता ने घर खरीदने के लिए मदद मांगी और मैंने ₹ पचास हज़ार उसके इस वादे पर भेज दिए कि वह हर महीने मुझे 10 हजार लौटाएगी। मैंने कहा न मेरी जिंदगी एक लंबी गलती है। और मैं गलती पर गलती किए जाती हूँ। सब कुछ जानते बूझते हुए मैंने अमिता और श्याम पर विश्वास किया और 50 हजार गंवा बैठी। मेरा बजट गड़बड़ा गया। जिसका खामियाजा आज तक भुगत रही हूँ।
जब मैं भोपाल शिफ्ट हो रही थी तो कांता का फोन आया कि आइए भोपाल आपको जाल में फंसाते हैं और वह जाल था मालती बसन्त के सौजन्य से लघुकथा शोध केंद्र की स्थापना। जिसका उद्देश्य था अंतरराष्ट्रीय अखिल भारतीय व प्रादेशिक स्तर पर लघुकथा विधा में हुए कार्यों को संकलित कर सुरक्षित करना और देश भर में संचालित सम्मेलनों और गोष्ठियों का लेखा-जोखा तैयार करना। लघुकथा शोध केंद्र मालती वसंत की संस्था परमार्थ न्यास द्वारा संचालित था।
लघुकथा शोध केंद्र की प्रथम गोष्ठी भोपाल के सुदूर क्षेत्र इंद्रपुरी में हुई। जहाँ मैं मुख्य अतिथि थी। मालती बसन्त जी के फ्लैट का छोटा-सा कमरा 15, 20 लघुकथाकार। मन जोश से भरा। दिल्ली से शोभा रस्तोगी आई आते ही तपाक से बोली "संतोष जी, कितनी मिलने की इच्छा थी आपसे। आज मिलना हुआ।"
लघुकथाओं पर विमर्श के बाद जब हम घर लौटने लगे तो मैंने सभी को अपने घर निमंत्रित किया। भोपाल में विश्व मैत्री मंच की पहली गोष्ठी के लिए हफ्ते भर बाद का दिन तय हुआ।
मैं तैयारियों में जुट गई। जया ने बैनर बनवाया। चाय नाश्ते आदि की योजना बनी और देखते ही देखते सप्ताह बीत गया।
इसी बीच हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कारों की घोषणा भी मैंने कर दी। विजय वर्मा कथा सम्मान अशोक मिश्र को "दीनानाथ की चक्की" के लिए और हेमंत स्मृति कविता सम्मान डॉ राकेश पाठक को"बसन्त से एक दिन पहले" के लिए। भोपाल से मुंबई में पुरस्कार समारोह का आयोजन टेढ़ी खीर थी पर राजस्थानी सेवा संघ का सहयोग ईश्वर प्रदत्त था।
विश्व मैत्री मंच की गोष्ठी घर में सफलतम थी। किसी से परिचय न होने के बावजूद 20 साहित्यकार पधारे। विदिशा से रेखा दुबेऔर सीहोर से मुकेश दुबे भी आए। दैनिक अखबार लोकजंग के संपादक सैफुद्दीन सैफी भी आए। जब मैं मुंबई में थी तो सैफी जी ने लोकजंग में मुझे बहुत छापा।
स्वाति तिवारी ने कहा भी कि हम 10 साल में अपने घर की गोष्ठी में 10 लोग नहीं जुटा पाए और संतोष ने आते ही...
जानती हूँ जिंदगी को लेकर मेरी लड़ाई, भटकन, राह का चयन ...चौराहों पर भी मुझे कभी दिशाहारा नहीं बनाते ...फिर यह तो मेरी जिंदगी का बस एक बदलाव भर था। मैं अपने हर बदलाव में सपनों और उनके मायाजाल से दूर रही। अतीत ने मुझसे बड़ी महंगी कीमत ली है इस सबकी। तो बस आज जो है उसको जीना है।
हिंदी लेखिका संघ ने अपने वार्षिक सम्मेलन में मुझे मुंबई से बतौर मुख्य अतिथि 14 फरवरी 2016 को आमंत्रित किया था। मेरे वक्तव्य के बाद सभागार में उपस्थित श्रोताओं में से कुछ मंच पर आ गई थीं मेरा ऑटोग्राफ लेने, मेरे साथ फोटो खिंचवाने। मैंने अपने गले की फूलों की माला संचालक को पहना दी थी। उसी हिन्दी लेखिका संघ द्वारा आयोजित बाल साहित्य गोष्ठी में इस बार मैं भोपाल वासी होकर मौजूद थी। विशिष्ट अतिथि के रूप में माला पहनाई गई। यूट्यूब 24 एमपी न्यूज़ चैनल ने कवरेज दिया। मैंने अपनी कविता "इतवार मिला" सुनाई।
भोपाल में इस कदर कार्यक्रम होते हैं कि हरएक में भागीदारी करना संभव नहीं। फिर भी जहाँ मंचों पर बुलाते हैं जाना ही पड़ता है। इस बार लघुकथा शोध केंद्र की गोष्ठी हिन्दी भवन में हुई। जिसमें बतौर विशिष्ट अतिथि मैंने प्रतिभागियों की लघुकथा की समीक्षा की।
भोपाल में लघुकथा के लिए कांता राय काफी काम कर रही है। किसी भी काम को करने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है और यही वजह है कि धन के लिए साहित्यकार विरोध होने के बावजूद पूंजीतियों का मुँह जोहते हैं। जिसका लाभ पूंजीपति मनमाना उठाते हैं। पहले खुद को विज्ञापित करते हैं। खुद के बारे में ऐसा खाका खिंचवाते हैं जैसे परमार्थ के लिए केवल वे ही दुनिया में आए हैं। साहित्यकार, पत्रकार भी उनकी जी हुजूरी करने में पीछे नहीं हटते। लेकिन मालती बसन्त अपने परमार्थ न्यास से लघुकथा शोध केंद्र के लिए अनुदान तो दे ही रही हैं पर खुद को पर्दे के पीछे रखकर। अब तो कांता राय मासिक अखबार लघुकथा वृत्त भी निकाल रही है जो लघुकथा को लेकर भोपाल से निकलने वाला अपने आप में अनूठा अखबार है। पुस्तक प्रकाशन में भी परमार्थ न्यास की अहम भूमिका है।
एक दिन राजेश श्रीवास्तव से मेरी मुलाकात मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के ऑफिस में हुई। साहित्य अकादमी के निदेशक उमेश सिंह भोपाल में संपादकों का विमर्श विषय पर दो दिवसीय सम्मेलन कर रहे थे। कुछ संपादकों के पते ठिकाने मैंने भी दिए। राजेश श्रीवास्तव पूर्व परिचित है। पचमढ़ी सम्मेलन और मुंबई में केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा आयोजित उपन्यास लेखन की कार्यशाला में हमारी मुलाकात हो चुकी थी। वे मेरे पैर छूते हैं और मैं उनके इस मान सम्मान से अभिभूत हूँ। उन्होंने बताया कि उनकी संस्था उर्वशी शॉर्ट मूवीस फेस्ट का यहाँ आयोजन कर रही है जिसमें मुझे मुख्य अतिथि के तौर पर आना है। अध्यक्षता डॉ उमेश सिंह करेंगे। मैंने सहर्ष मंजूरी दे दी।
जाड़ों का मौसम शुरू हो चुका था स्वेटर पहनने की जरूरत महसूस होने लगी थी। मुंबई में तो ठंड पड़ती ही नहीं। 40 वर्ष गुजारे वहाँ। शरीर को मुंबई की आदत पड़ गई। मुझे वैसे भी ठंड ज्यादा लगती है। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में कई संपादक मित्रो से मुलाकात हुई। हरी जोशी, हरीश नवल, आशीष कांधवी, सुधीर शर्मा, गिरीश पंकज और भी कई संपादक। सभी जाने पहचाने। सुधीर शर्मा और गिरीश पंकज जी तो मेरे घर भी आए। हम अंजना छलोत्रे की गाड़ी में आए थे। अंजना का घर पास ही है। आसपास और भी साहित्यकार हैं। मुझे तो पूरा भोपाल ही साहित्यकार निवास लगता है।
उर्वशी संस्था द्वारा शॉर्ट मूवी फेस्ट का अनूठा आयोजन किया गया था। मेरे साथ मंच पर डॉ उमेश सिंह, मशहूर पत्रकार पुष्पेंद्र पाल, गीतकार ऋषि श्रृंगारी थे। कानपुर से अपनी टीम सहित यशभानजी आए थे। जो शॉर्ट मूवी मेकर थे। उन्हीं के द्वारा निर्मित, निर्देशित दो लघु फिल्में निषिद्ध और आसमान में सुराख हमें दिखाई गई। असरदार कथानक और कलाकारों का अभिनय भी बेजोड़। यशभान जी द्वारा ही भोपाल के 45 कवियों की कविताओं के वीडियो भी शूट हुए। मेरी भी 10 कविताओं की रिकॉर्डिंग की शूटिंग हुई। यशवंत जी के इस यूट्यूब चैनल का नाम है साहित्य धारा काव्य गंगा और इस सारी तामझाम मेहनत का श्रेय राजेंद्र श्रीवास्तव को जाता है।
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक कैलाश चंद्र पंत जी से मिलना मानो उम्र को हाशिए पर खदेड़ कर्म को देखना है। 85 की उम्र और जज्बा युवाओं को भी मात देता है। अपने ऑफिस में उन्होंने मुझे अपने सामने बिठाया "आ गई भोपाल। जिंदगी की भागमभाग से तुमने शांति की ओर कदम बढ़ाए। अच्छा किया पर यह शांति सृजनात्मक होनी चाहिए।" फिर सरोते से सुपारी काटकर खिलाई।
अक्षरा जो पंत जी के प्रधान संपादन में निकलती है अब द्वैमासिक से मासिक होने जा रही है जनवरी से।
"तुम्हारा श्रीलंका का यात्रा संस्मरण धारावाहिक प्रकाशित हो चुका है। यानी तुम्हारे संस्मरण से द्वैमासिक पत्रिका अंतिम निकलेगी और फिर मासिक। काफी भव्य आयोजन होने वाला है अक्षरा के मासिक होने का।" अच्छा लगा पंत दादा से मिलकर। यूँ पहचान पुरानी है। जिसकी शुरुआत मुंबई से हुई थी ...अब भटकते-भटकते भोपाल आ पहुँची हूँ। सोचती हूँ अब तक की उम्र भटकी बहुत हूँ। रहे होंगे बीहड़, जंगल, पर्वत कभी साधु-संतों, डाकुओं का ठिकाना। पर मैं तो अपनी नियति के बीहड़ों में भटकती ही रही। पूछती रही कौन है मेरा इस दुनिया में? आवाज घूम फिर कर मेरे ही पास वापस आती है। लेकिन अपनी इस भटकन में कभी ईश्वर को बीच में नहीं लाई। न नास्तिक नहीं हूँ मैं। लेकिन पूजा-पाठ कर्मकांड से गुरेज है और ईश्वर को क्या बीच में लाना। वह तो सदा साथ है, नजदीक है, मुझ में समाया है, डूब गया है न मुझ में, होश कहाँ है उसे।
कोहरे की चादर सुबह-सुबह तन जाती है। बालकनी से दिखती है धुंधली हरियाली। उगता सूरज लालटेन-सा नजर आता है। छोड़ आई हूँ मुंबई की नमकीन हवाएँ। समंदर की उफनती लहरें। नर्मदा नदी का साथ और समंदर की नाराजी। जानती हूँ वह मेरे बिना उदास होगा। आखिर बरसों का साथ जो ठहरा। पर समय कहाँ सदा एक-सा रहता है।
इसी बीच नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा संपादित पुस्तक "धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत" भाग 2 शिल्पायन से ललित शर्मा जी ने भेजी। पहला भाग "धर्म के आरपार औरत" में नीलम जी ने वरिष्ठ लेखकों की कहानियाँ, लघुकथाएँ, एकांकी नाटक, लेख और कविताएँ प्रकाशित कीं। मेरा लेख लिया "धार्मिक परंपराएँ जिंदा रहीं, औरत मरती रही।"
"धर्म के आर-पार औरत" पुस्तक पर भोपाल की प्रसिद्ध शिल्पी संस्था ने चर्चा रखी थी। अब शिल्पायन से यह दूसरा भाग "धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत" में मेरा लेख "ओघवती ...अन्य ...और विषकन्याएँ छपा है। इसी में हेमंत की कविता" क्यों नहीं चेतती माँएँ "भी छपी है। नीलम ने अपनी भूमिका में लिखा है कि हेमंत की कविता जेएनयू दिल्ली की शुभमश्री जैसी लड़कियों के लिए एक संदेश है जो विवाह के लिए व्रत रखती हैं। नीलम इस दृष्टि से बहुत बोल्ड है। जो धर्म की मार्केटिंग क्यों जरूरी है जैसे लेख लिख रही हैं और इसी आशय के लेख संग्रह की किताबें संपादित कर रही हैं। एक और संकलन है नीलम द्वारा संपादित कहानियों का" रिले रेस "। जिसमें मेरी कहानी" गूंगी " ली है नीलम ने। इस संकलन का उद्देश्य इस भ्रम को तोड़ना है कि हर फसाद की जड़ औरत होती है।
जनवरी में मेरे और प्रमिला के संयुक्त उपन्यास "ख्वाबों के पैरहन" का विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण था। उपन्यास किताब वाले पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया था और लोकार्पण ममता कालिया के हाथों लेखक मंच से होना था।
जनवरी में ही हेमंत फाउंडेशन का पुरस्कार समारोह मुंबई से होना था और विश्व पुस्तक मेले की तारीखों के दौरान मुझे डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा द्वारा आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में डॉ प्रदीप श्रीधर ने आमंत्रित किया था। सूचना तो जब मैं औरंगाबाद में थी तभी मिल गई थी क्योंकि वह प्रवासी साहित्य पर एक किताब भी प्रकाशित कर रहे थे जिसमें मुझसे भी लेख मांगा था। लेख मैंने भेज दिया था लेकिन अनुमान नहीं था कि इतनी मोटी किताब छपेगी।
बहरहाल जनवरी के भारी भरकम तीन इवेंट ...कोहरे की ज़िद कि छाया रहूंगा... दोपहर तक ट्रेनें लेट... और लेखकों की ज़िद की दिल्ली पहुँचकर रहेंगे।
मेरी ट्रेन 5 घंटे लेट थी। दिल्ली पहुँचते ही भारत भारद्वाज से मिलना था। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी और पिछले साल का प्रियदर्शन के नाम घोषित पुरस्कार भी देना था। भारत जी के घर पहुँचने से पहले मैंने प्रियदर्शन को फोन किया कि "आपका सम्मान मेरे पास है। आइए मिलते हैं। भारत जी के घर।"
बस फिर क्या था प्रियदर्शन जैसे घमंडी, बदमिजाज आदमी ने फेसबुक पर खबर डाल दी कि संतोष श्रीवास्तव सम्मान को सामान कह रही हैं। प्रियदर्शन समाचार चैनल में काम करता है इसलिए सोशल मीडिया में भी खबर उछली। मुंबई के जिन लेखकों को मैं अपना समझती थी उन सबने इस पोस्ट पर मेरी जमकर लानत मलामत की। बरसों से कठिन संघर्ष के बाद स्थापित हुए पुरस्कार को प्रियदर्शन जैसे बददिमाग पत्रकार ने धराशायी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। धराशायी तो वह फरवरी 2017 से ही करने की कोशिश में था। जब उसके नाम भारत जी ने विजय वर्मा कथा सम्मान घोषित किया था और जब उसने समारोह में आने से इंकार किया था क्योंकि उसे हवाई जहाज का किराया चाहिए था और होटल में स्वतंत्र कमरा जबकि हमने उसके रहने का प्रबंध विजय राय के साथ किया था। तब उसने यह भी कहा था कि आपने पुरस्कार के लिए मुझ जैसे गलत आदमी को चुना है और वह गलत था यह उसने सिद्ध कर दिया। इस घटना से ममता कालिया लोकार्पण करने से मुकर गई। वैसे भी उन्हें हमारा साथ देकर क्या मिलता। जबकि मीडिया में रहने की वजह से प्रियदर्शन ज्यादा फायदेमंद लगा उन्हें। लेकिन मैंने कभी ऐसी बातों की परवाह नहीं की क्योंकि मुझे पता है मैं ईमानदारी और सच्चाई से अपना काम डूबकर करती हूँ। समर्पित होकर करती हूँ। सफलता मिलेगी यह मानकर चलती हूँ।
विश्व पुस्तक मेले में वरिष्ठ लेखक दिविक रमेश और डॉ गंगा प्रसाद विमल जी के हाथों हमारे संयुक्त उपन्यास ख्वाबों के पैरहन का लेखक मंच से भव्य लोकार्पण हुआ। पूरा हॉल खचाखच भरा था। ऑडियो वीडियो शूट भी हुआ। प्राइवेट टीवी और यूट्यूब चैनलों ने कवरेज भी दी।
दूसरे दिन मुझे अयन प्रकाशन से प्रकाशित देवी नागरानी जी के ग़ज़ल संग्रह "सहन ए दिल" का लोकार्पण उनकी अनुपस्थिति में करना था। न्यूजर्सी से देवी दीदी ने फोन पर आग्रह किया था। लोकार्पण के बाद हम मेला घूमते रहे। किताबें खरीदते रहे और लेखकों से मिलते रहे। किसी ने न तो प्रियदर्शन के बारे में पूछा न हमसे कोई सफाई मांगी।
तीसरे दिन मैं आगरा चली गई। मेरे आगरा पहुँचते ही मेरी सखियाँ मुझसे मिलने गेस्ट हाउस आईं। मिठाइयाँ, गिफ्ट आदि से लदी फदी... इनके इसी प्रेम के हाथों तो मैं बिक चुकी हूँ। सुषमा सिंह इंडोनेशिया गई थीं लेकिन मेरे सम्मान में जनवादी लेखक संघ में एक गोष्ठी का कार्यक्रम तय कर गई थीं जिसके संचालक अध्यक्ष थे रमेश पंडित। रमा वर्मा जी के संग मैं गोष्ठी में आई। छोटी-सी महफिल। लेकिन सभी प्रबुद्धजन। स्वागत सत्कार के बाद मेरा कहानी पाठ हुआ। मैंने "अजुध्या की लपटें" कहानी पढ़कर सुनाई और उस पर लगभग 2 घंटे जमकर विमर्श हुआ। कहानी सभी को बहुत पसंद आई। बाद में रमेश पंडित ने वह कहानी अपने जनवादी समूह में लगाने के लिए मांगी।
सम्मेलन के पहले दिन द्वितीय सत्र में मेरी मुख्य भूमिका थी। हालांकि प्रदीप श्रीधर जी का सम्मेलन के दूसरे दिन भी रुकने का आग्रह था पर मेरे पास वक्त नहीं था। मुझे पुरस्कार समारोह की तैयारी भी तो करनी थी। जो जनवरी में मुंबई में होना था। इस दो दिवसीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन के दौरान मेरी मुलाकात नीदरलैंड से आई पुष्पिता अवस्थी से हुई। उनकी पुस्तक नीदरलैंड की डायरी का लोकार्पण भी प्रवासी साहित्य पुस्तक के साथ हुआ जिसमें मेरा लेख था।
सम्मेलन से गेस्ट हाउस लौटकर मैं भोपाल वापसी की तैयारी कर रही थी कि डोर बेल बजी। सामने तेजेंद्र शर्मा। हम दोनों चकित। उसी फ्लोर पर तेजेंद्र को भी रूम अलॉट हुआ था। मात्र 3 घंटे थे मेरे पास और ढेरों बातें।
"यार तुम्हारा जलवा काबिले तारीफ है। राजेश श्रीवास्तव ने उर्वशी संस्था द्वारा भोपाल में प्रवासी लेखक जकिया जुबेरी को दिया जाने वाला सम्मान समारोह तुम्हारे कारण स्थगित कर दिया।"
तेजेंद्र चमकती आँखों से मेरी ओर देख रहे थे।
"अरे मुझे तो जानकारी ही नहीं इस बात की। इतना भर पता है कि हमारे कार्यक्रमों की तारीखें क्लेश हो रही थीं।"
इतने में प्रदीप श्रीधर आ गए। तेजेंद्र उनसे भी मेरी तारीफ करने लगे।
"अंतरराष्ट्रीय लेखिका है जी।"
"मैडम दूसरी बार आई हैं हमारे सम्मेलन में। आज इन्हें जाना है। आप लोग डिनर ले लो वरना मैडम को लेट हो जाएगा।"
डिनर के लिए निकलते-निकलते एक घंटा और लग गया। तेजेंद्र कितना कुछ बताए जा रहे थे मुझे और मेरा ध्यान घड़ी के कांटों की ओर था। होटल पहुँचने में 15 मिनट लग गए। मैंने अपने लिए सूप, सलाद और फिंगर चिप्स का ऑर्डर दिया क्योंकि यही चीजें जल्दी उपलब्ध हो सकती थीं। गेस्ट हाउस लौटी तो आगरा शहर के जाने-माने लेखक राजगोपाल वर्मा को इंतजार करते पाया। सामान पैक ही था मेरा। उन्होंने ही मुझे आगरा कैंट पहुँचा दिया।
खुद को मुसाफिरी में ढाल लिया है मैंने इसलिए हड़बड़ी नहीं रहती। बरसों बरस स्टेशन, एयरपोर्ट अकेले जाना, अकेले लौटना मेरी आदत में रच बस गया है। मैंने इस अकेलेपन को कुछ में खोजा है और मेरा खुद ही मेरा आख्यान है।
भोपाल लौटने के हफ्ते भर बाद मुंबई रवाना। यह पहला पुरस्कार समारोह था जो मैंने फोन पर ही प्लान किया था, चॉक आउट किया था। अंधाधुंध काम, बैनर और मोमेंटो टाइप करके भेजना, फिर प्रूफ पढ़ना, ई कार्ड बनाना। मुंबई के साहित्यकारों को निमंत्रित करना। इसमें प्रमिला भी हाथ बंटाती, कार्यक्रम के बाद की न्यूज़ बनाना भी उसी का काम था। कार्यक्रम के दिन के डिनर का मीनू हम डिसाइड करते। हर एक काम की प्रारंभिक जवाबदेही मेरी। कुछ कोर कसर न रहे यही कोशिश।
हम सब मुंबई में अंधेरी के गेस्ट हाउस में रुके। प्रमिला, अशोक मिश्र वर्धा से, भोपाल से विजय कांत वर्मा और ग्वालियर से राकेश पाठक। कार्यक्रमों में साहित्यकारों की कम उपस्थिति की आशंका थी। एक तो मुंबई में मेरा लंबे अरसे से नहीं होना दूसरे फेसबुक पर प्रियदर्शन कांड। फिर भी उपस्थिति तो थी मगर हर बार की तरह नहीं। देवमणि पांडे जल्दी-जल्दी अधूरे संचालन से ही चल दिए। बाद में मुझे ही संभालना पड़ा। आलोक भट्टाचार्य को बहुत मिस किया।
लेकिन जनवरी से बुरे ग्रह पीछे लग गए थे। विनोद टीबड़ेवाला ने अपने वक्तव्य में मुसलमानों के खिलाफ कुछ कह दिया। नतीजा फिरोज खान, सूरज प्रकाश और सुधा अरोड़ा ने सारा मामला हमारे सिर मढ़ कर फेसबुक पर भी लिख दिया। दो-तीन दिन इसी की चर्चा फेसबुक पर रही। फिरोज खान और सूरज प्रकाश समारोह में उपस्थित थे पर सुधा अरोड़ा! बाद में पता चला कि समारोह के बाद ये सब सुधा अरोड़ा के पास गए और सुधा अरोड़ा ने ही उन्हें फेसबुक पर लिखने को उकसाया। मगर इससे मुझे क्या फर्क पड़ा। सुधा अरोड़ा ने मेरे जैसी उन्हें प्यार करने, मान सम्मान देने वाली दोस्त को खो दिया और मेरे दिल से अपनी छवि धूमिल कर ली। मुझे शिकायत है तो फिरोज खान और सूरज प्रकाश से। क्यों नहीं उसी समय इस बात का विरोध किया। क्या हिम्मत नहीं पड़ी? या? बाद में फिरोज़ खान ने फेसबुक से अपनी पोस्ट डीलिट करते हुए माफी माँगी पर ... सच है वक्त का पता नहीं चलता अपनों के साथ लेकिन अपनों का पता लग जाता है वक्त के साथ...
ख्वाबों के पैरहन मातृभारती डॉट कॉम अहमदाबाद ने पहले धारावाहिक छापा था और विश्व पुस्तक मेले में किताब रूप में आते ही उसकी ई बुक भी छाप दी। खूब लोकप्रिय हो रहा है यह उपन्यास। क्योंकि एक इंच मुस्कान के बाद लेखक द्वय प्रयोग का यह दूसरा उपन्यास है। यूँ संयुक्त उपन्यास काफी छपे हैं। पर दो लेखकों द्वारा केवल राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी के बाद हमारा (मेरा, प्रमिला वर्मा) यह उपन्यास।
समीक्षा की मैंने कभी परवाह नहीं की। मेरे समीक्षक मेरे पाठक हैं। उन्हीं का प्रतिसाद मेरी धरोहर है। एक बार मैंने अपने प्रकाशक से पूछा था कि क्या समीक्षा छपने से बिक्री में फर्क पड़ता है तो उन्होंने खिसियाकर कहा था
"कुछ खास नहीं, इसीलिए हमारी मंशा पुस्तकालयों में पुस्तकें पहुँचाने की रहती है।"