मेरे घर आना जिंदगी / भाग 22 / संतोष श्रीवास्तव्

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अब यूं है कि हमारे सन्नाटे में नरगिस चटखती है। उसके फूलों का शबाब चैन नहीं लेने देता। सो जुट गए विश्व मैत्री मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन की तैयारी में और इस बार भोपाल से ही 23 से 25 मार्च तक इस सम्मेलन की योजना बना डाली। तय हुआ कि हेमंत स्मृति विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान भी इस वर्ष से शुरू करेंगे... चर्चा का विषय "पत्र-पत्रिकाओं में संपादक की भूमिका।" विश्व मैत्री मंच के भारत भर के सदस्यों को सूचना दे दी गई। आगरा, ग्वालियर, झांसी, नासिक, रायपुर, जांजगीर और विदिशा से 28 सदस्यों ने सम्मिलित होने की सूचना दी। सबके रहने की व्यवस्था भी करनी थी। अंजना छलोत्रे और पूर्णिमा ढिल्लन के साथ 6, 7 होटल देखने के बाद होटल पलाश पसंद आया। 14 कमरे बुक कराने थे। होटल सरकारी था। सो मेल से रिक्वेस्ट लेटर भेजना पड़ा। हम तो सम्मेलन की तैयारी में आकंठ निमग्न। होश कहाँ और होश रहे भी क्यों, यही बेहोशी तो चाही है हमने। जिंदगी हमने इस बेहोशी को समर्पित कर दी है।

मुंबई में 38 साल तक हर तीसरे चौथे महीने आकाशवाणी विविध भारती पर चर्चा कहानी कविता के लिए बुलाई जाती। सो ये रूटीन आदत में शुमार हो गया था। यहाँ वह सब मिस कर रही थी कि आकाशवाणी भोपाल से शुभम जी का फोन आया कि महिला दिवस के लिए आपका लेख चाहिए। लेख मेरे पास पहले से तैयार था तो पहुँच गई रिकॉर्डिंग के लिए। शुभम अपनी ड्यूटी निभाते रहे। यानी की रिकॉर्डिंग के समय की एहतियात को अमल में लाएँ। रिकॉर्डिंग के बाद शुभम ने कहा "कमाल है संतोष जी, ऐसी दोष रहित रिकॉर्डिंग तो मैंने पहले कभी नहीं की। आपको तो जल्दी-जल्दी बुलाएंगे हम।"

अब मैं क्या कहती 38 साल का तजुर्बा जो था।

रिकॉर्डिंग के बाद मैं आकाशवाणी से पैदल ही हिन्दी भवन की ओर निकल गई। अक्षरा ऑफिस पहुँचते-पहुँचते मुंबई से सुशीला गुप्ता जी का फोन आ गया।

"कहाँ हो संतोष।"

"भोपाल में हूँ दीदी। बताएँ।"

"एक लेख चाहिए तुमसे" पुस्तक संस्कृति पर गहराता संकट "इस विषय पर किताब संपादित कर रही हूँ जो तुम्हारे लेख के बिना अधूरी होगी। 10 दिन में लिखकर भेजो और तुम्हारा समय शुरु होता है अब।"

मैं जी कहती उसके पहले ही फोन कट गया। सुशीला जी मुझे बहुत चाहती हैं और शायद इसी का नतीजा है कि वह मुझसे पूछे बिना मेरा नाम हर जगह लिस्टेड कर लेती हैं और यह तो तय है कि मैं उनका यह अधिकार उनसे कभी नहीं छीन सकती।

तभी सूचना मिली सुशील सिद्धार्थ नहीं रहे। दिल धक से रह गया। अभी तो मिली थी उनसे विश्व पुस्तक मेले में। फिर अक्षरा के मासिक संस्करण के लोकार्पण समारोह भोपाल में हिन्दी भवन में मुलाकात हुई थी। वह मेरे बाजू वाली सीट पर बैठे थे। हमेशा उनके चेहरे पर छाई रहने वाली हँसी तब भी बरकरार थी। क्या पता था डेढ़ महीने बाद यह हँसी हमसे बिछड़ जाएगी। मैंने उनसे आग्रह किया था।

"भोपाल शिफ्ट हो गई हूँ। घर नहीं चलेंगे मेरे।"

"इस बार माफ़ी। सुबह ही लौटना है दिल्ली। अगली बार जरूर आऊंगा।"

वादा निभा नहीं पाए सुशील सिद्धार्थ। चेहरे की हँसी दिल का दर्द छुपाए थी। दिल भी कितना सहता। दे गया दगा और हम से बिछड़ गए व्यंग्यकार सुशील जी। अपनी व्यंग्य की किताब "हाशिए का राग" मुझे पोस्ट से भेज कर उन्होंने कहा था।

"जब तक यह किताब आपकी नजरों से नहीं गुजरेगी मेरा लेखन अधूरा माना जाएगा।"

मैंने समीक्षा की थी किताब की। जब उन्होंने "अपने अपने शरद" किताब जो व्यंग्य श्रृषि शरद जोशी पर आलोचनात्मक पुस्तक संपादित की थी तो मुझे फोन पर बताया कि "पुस्तक का शीर्षक नेहा शरद ने दिया है (शरद जोशी की बेटी)"

मैंने कहा था "बहुत प्रतीकात्मक शीर्षक है।"

तब मैं रूस जाने की तैयारी में थी। मैंने कहा "सुशील जी आप हर बार कहते हैं चलेंगे। इस बार चलिए न।"

"ढेर सारा काम है। आप हाशिए का राग का लोकार्पण मॉस्को में करा देना।"

अब आपकी हंसी कहाँ पाऊँ सुशील जी!

और फिर केदारनाथ सिंह! एक के बाद एक जैसे तांता-सा लग गया। याद आ रही है उनकी कविता दो मिनट का मौन

भाइयों और बहनों / यह दिन डूब रहा है / इस डूबते हुए दिन पर / दो मिनट का मौन / रुके हुए जल पर / गिरती हुई रात पर / दो मिनट का मौन।

केदारनाथ सिंह की इसी कविता से उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैंने 23 मार्च के राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत की थी। हिन्दी भवन का महादेवी वर्मा कक्ष, लोगों के बैठने की कैपेसिटी सौ की। हाल खचाखच भरा। बाहर भी लोग खड़े थे। मेरे लिए नया शहर, जान पहचान भी उतनी नहीं पर न जाने कैसे भीड़ उमड़ी। शहर के दिग्गजों डॉ देवेंद्र दीपक, डॉ उमेश सिंह, कैलाश चंद्र पंत और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के संजय द्विवेदी, उर्वशी अकादमी के डॉ राजेश श्रीवास्तव से मंच जगमगा रहा था।

संजय द्विवेदी को जब फोन पर आमंत्रित किया तो उन्होंने कहा

"प्रणाम संतोष जी, हम भिलाई में मिल चुके हैं और आपको वहाँ जो प्रमोद वर्मा स्मृति साहित्य सम्मान मिला था उस कार्यक्रम का संचालन मैंने ही किया था और मैं आपको होटल तक पहुँचाने भी आया था।"

"हाँ मुझे याद है संजय जी"

संजय समारोह में आए। हमेशा की तरह मेरे पैर छुए।

अनजान शहर भोपाल। लेकिन हमारी फितरत अलग ही किस्म की। हमको पता ही नहीं चलता कब हम शहर के हो गए। कब शहर हमारा हो गया। कार्यक्रम हिट लिस्ट में शुमार हो गया।

दूसरे और तीसरे दिन बाहर से आए लोगों को पर्यटन कराना था। हलाली डैम, सांची, उदयगिरि गुफ़ाएँ, बिरला मंदिर, शौर्य स्मारक, भोजशाला, भीमबेटका, भोजपुरी स्थित शिव मंदिर, भोज तालाब में बोटिंग, डूबते सूरज की विदा होती किरनों ने झील को सुनहला कर दिया था।


इन दिनों यूट्यूब चैनलों की बाढ़-सी आ गई है दिल्ली के ललित कुमार मिश्र का यूट्यूब चैनल वर्जिन स्टूडियो नाम से है। उन्होंने मेरी कविताएँ लघुकथाएँ और कहानियाँ मांगी। सत्तर परसेंट रॉयल्टी की बात भी की। रचनाएँ अमेजॉन और किंडल में भी उपलब्ध रहेंगी। उन्होंने मेरा अकाउंट खोला और "गौतम से राम तक" कविता मेरी ही आवाज में शूट कर वीडियो बनाया। फिर डिजिटल वॉयस वर्ल्ड यूट्यूब चैनल जयपुर के हरिशंकर व्यास और सुनीता राजपाल ने मेरी 8 कविताओं के अलग-अलग वीडियो बनाकर मेरी कलम और आवाज को विश्व स्तर पर पहुँचा दिया। सत्यनारायण पटेल ने भी अपने बिजूका ब्लॉग के लिए मेरी कविताएँ लीं। धीरे-धीरे कविताओं की ओर मेरा रुझान बढ़ता गया और मैंने पाया कि कविताएँ मेरी ऊर्जा हैं। जिनकी नसैनी पर चढ़कर मैं गद्य का फलक तैयार करती हूँ। शायद यही वजह है कि मैं सम्मेलनों में कविताएँ गजलें कम ही पढ़ पाती हूँ। मुझे लगता है अगर मैंने ऐसा किया तो श्रोताओं द्वारा उनकी पसंद की गई कुछ ही कविताओं तक सिमटकर रह जाऊंगी। जबकि गद्य के साथ ऐसा नहीं है। हमारी रचनाएँ श्रोताओं द्वारा पसंद की जाती हैं। तो विस्तार भी पाती हैं। गद्य में मेरे नाम को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उर्मिला शिरीष ने मुझे स्पंदन में कहानी पाठ के लिए आमंत्रित किया। ललित कलाओं के लिए समर्पित यह संस्था विभिन्न विधाओं पर ढेर सारे पुरस्कार भी देती है। इस बार का विषय था "स्त्री सृजनात्मकता एक यात्रा" इसी कार्यक्रम में बरसों बाद मेरी निर्मला भुराड़िया से मुलाकात हुई। इंदौर में दैनिक अखबार नई दुनिया में वे फीचर एडिटर हैं और जब मैं मुंबई में थी उन्होंने मुझे खूब छापा था। इसी कार्यक्रम में शरद सिंह और इंदिरा दांगी भी आई। मेरी कहानी "अजुध्या की लपटें" को श्रोताओं का अच्छा प्रतिसाद मिला। एक तो कहानी सांप्रदायिक दंगों के बीच उभरती प्रेम कथा पर थी। दूसरे छोटी थी तो कम समय में खत्म हो गई।

1 अप्रैल को विदिशा में बालकवि पुष्प की पुण्यतिथि पर सम्मेलन था। भोपाल से हम चार मित्रो ने मिलकर टैक्सी ली और सुबह 7: 00 बजे विदिशा के लिए रवाना हो गए। सम्मेलन दिन भर चला। 6 बजे भोपाल वापसी। 9 बजे घर पहुँचे। एग्जरशन इतना अधिक हो गया कि दूसरे ही दिन से मसल्स पेन ने धर दबोचा। लगा जैसे कोई आरी से अंदर ही अंदर मेरी दाहिनी जांघ और कूल्हे को काट रहा है। जल बिन मछली जैसी तड़पती रही।

पदमा शर्मा को विदिशा में वचन दे आई थी कि शिवपुरी में मध्य प्रदेश साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कहानी पाठ के लिए जरूर आऊंगी। दर्द और तड़प में भी कि एक-दो दिन में दर्द चला जाएगा मैंने बेंजामिन से कहकर बस से रिजर्वेशन भी करा लिया था। पर नियति को कुछ और मंजूर था। डेढ़ महीने बिस्तर तक ही कैद होकर रह गई। होम्योपैथी, आयुर्वेदिक दवाएँ और दर्द... असहनीय दर्द ...प्रकृति के पास भी पूरा हिसाब रहता है। मैं अपनी उम्र को भूलकर काम में जुटी रहती थी। साहित्यिक समारोहों के आयोजन लेखन और अध्ययन... अब क्या उम्र रही थी कि इतनी मेहनत कर पाऊँ बिना आराम किए? सो दर्द देकर आराम करा दिया प्रकृति ने। जब किसी भी तरह दवाओं से आराम नहीं मिला तब नवोदित कवयित्री मधुलिका सक्सेना जो विश्व मैत्री मंच की सदस्य है ने फिजियोथैरेपी की सलाह दी। इलाज बहुत महंगा था। फिजियोथैरेपिस्ट डॉ माहेश्वरी ने मधुलिका के दोनों घुटने जिनके लिए ऑपरेशन की सलाह दी गई थी ठीक कर दिए थे सो भरोसा बढ़ा। ₹600 प्रतिदिन की फीस देनी होगी। डॉ मशीनें लेकर घर आने लगे एक बड़ी मशीन तो घर में ही परमानेंट रख दी। 23 दिन इलाज चला।

शिवपुरी में मेरी तस्वीर के बैनर भी बन गए। जाना नामुमकिन। पदमा शर्मा जी ने उदास होकर कहा "क्या पता अगले साल मैं शिवपुरी न रहूँ।"

मेरी आवाज भी नम थी।

"आना तो चाहा था पदमा जी पर..."

और इस "पर" को ललित लालित्य द्वारा ग्वालियर में हो रहे पुस्तक मेले के दौरान दो दिवसीय सम्मेलन में मुझे कहानी पाठ के लिए मिले आमंत्रण के लिए ललित लालित्य से फोन पर असमर्थता के दौरान दोहराना पड़ा। कहानी पाठ मेरे अतिरिक्त ममता कालिया, चित्रा मुद्गल और उर्मिला शिरीष का भी था।

यूं ही कभी-कभी जिंदगी से मौके मुट्ठी में बंद रेत से फिसल जाते हैं। जून में जाना था विद्या सिंह के पास देहरादून, आशा शैली के पास लालकुआं, मई में वृंदावन में मेरे नाम सजलरथी साहित्य सम्मान भी घोषित किया गया पर अटेंड कहाँ कर पाई।

सच है वक्त अपनों की पहचान करा देता है। मेरी बीमारी पर कोई भी मेरा रिश्तेदार मुझे देखने नहीं आया। सबके पास नौकरी से छुट्टी न मिलने का बहाना था। यह बात मेरी समझ से परे थी। कब किसकी जिंदगी सहज प्रवाह में चलती हैं। परेशानियाँ भागदौड़ हर एक के साथ हर वक्त चस्पां रहती हैं। पर उसी में से अपनों के लिए वक्त निकालना पड़ता है। पर नहीं निकाला वक्त उन लोगों ने और वह वक्त मेरे अंतस में घाव करके चला गया। शायद में वैसी तकदीर लेकर नहीं आई इसलिए दिल के घाव को बिना मलहम के उघाडे ही रखे हूँ। यही कसक तो मुझे हौसला देगी। अब तो बाढ़ तो दूर, भीतर की चटक की आहट से भी सचेत हो जाती हूँ।

हो चुकी ग़ालिब बलाएँ सब तमाम एक मर्गे नागहानि (मृत्यु बाकी) और है।

लेकिन भोपाल कि मेरी मित्रो ने इस बीमारी में मेरा बहुत ज्यादा साथ दिया। कोई न कोई मुझे रोज देखने आता था और फल सब्जी आदि अपने साथ लाता था। दवाइयों के लिए पूछ लेता था। मेरे घर का दरवाजा दिन भर खुला रहता था। रात को मैं किसी तरह दीवार पकड़कर दरवाजे तक जाती थी और उसे बंद कर देती थी और सुबह खोल देती थी। जबलपुर से केशव मुझे देखने आए। केशव ने पूछा "दीदी घर का नंबर बता दें।"

मैंने कहा "उस बिल्डिंग में जो दरवाजा खुला मिलेगा वह तुम्हारी दीदी का घर है अब देखते हैं कैसे पहुँचते हो मुझ तक?"

और केशव सचमुच खुले दरवाजे से अंदर आए और बोले "लो दीदी मैं आ गया"

यही मित्र मेरे लिए संजीवनी का काम करते हैं और इन्हीं के सहारे में रफ्ता-रफ्ता ज़िन्दगी की राह पर हूँ।

मेरी बीमारी के दौरान भोपाल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने मुंबई से सुलभा कोरे आई, हरीश पाठक आए, पटना से सतीश राज पुष्करणा आए, सूर्यबालाजी मुंबई से आई और यह सभी मुझसे मिलने मेरे घर आए।

सुलभा ने मुझे अपना कविता संग्रह "तासीर" भेंट किया जिसकी भूमिका पुष्पिता अवस्थी ने लिखी थी। सुलभा के संग वक्त का पता ही नहीं चला। उस दौरान दर्द भी कम महसूस हुआ। ढेरों बातें, मुंबई का साथ गुजरा अतीत ...मेरी छोटी-छोटी खुशियाँ इन्हीं के संग तो जुड़ी हैं।

हरीश पाठक ने बताया कि लखनऊ में कार्यक्रम के बाद गेट टूगेदर में प्रियदर्शन ने खूब नमक मिर्च लगाकर वह सामान और सम्मान की गाथा बयान की। सच है दूसरों का दर्द बयाँ करने वाले लेखक भी वक्त आने पर कैसे अपनी पर उतर आते हैं। मगर हम तो हर फिक्र को धुएँ में उड़ा देने का जज्बा रखते हैं तो मुस्कुरा कर कह दिया "चलिए इस बहाने चर्चा तो हुई हमारी।"

डॉ सतीश राज पुष्करणा जिन्हें मैं दादा कहती हूँ कल्पना के संग आए। कल्पना भट्ट को वे बेटी मानते हैं। वह उन्हें बाबा कहती है। पुष्करणा दादा ने कल्पना से कहा "संतोष मेरी बहन है तुम इसे बुआ कहा करो कल्पना।"

तब से मैं कल्पना की बुआ हो गई। लंच हमने साथ लिया। उन्हें इंदौर लघुकथा सम्मेलन में जाना था। वही से वे पटना के लिए निकल गए। बता रही थी कल्पना कि रास्ते भर वे मेरे ही लिए चिंतित दिखे। कैसे रहती हैं अकेली संतोष। कठिन है उनका जीवन। भोपाल में कोई रिश्तेदार नहीं उनका। तुम उनसे बीच-बीच में फोन करके हालचाल पूछती रहना। वैसे भी सेल्फमेड है, जुझारू, आयरन लेडी। "और यही बात सूर्यबालाजी ने कही कि" तुम्हारी हिम्मत की दाद देती हूँ संतोष। "

बस यही वाक्य तो मेरा हौसला बढ़ाते हैं। इसी हौसले की वजह से न चल फिर सकने की स्थिति में भी लगभग 35 लोगों की घर में ही मौजूदगी में हेमंत जयंती का आयोजन कर डाला। अजय श्रीवास्तव बड़ा-सा फूलों का बुके लेकर आए। हेमंत की पसंद के लाल गुलाब। उन्होंने मेरे द्वारा आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के लिए हबीबगंज स्टेशन के सामने नर्मदा क्लब में जगह ऑफर की। अजय जी कवि हैं और बांसुरी भी बजाते हैं।

जया और नेहा किचन में। 3 किलो भजिए और 3 किलो जलेबीयाँ मंगवाई थीं। वे प्लेटों में सबके लिए परोस रही थीं। उसके पहले 23 मई को जीजाजी बड़ा-सा केक लेकर आए थे। जिस पर हेमंत लिखा था। मधुलिका बेसन के लड्डू। न जाने कैसे सब हेमंत की पसंद की चीजें अपने आप जुटती जाती हैं। लोग भी जुड़ जाते हैं... महफिल में सब के द्वारा उसकी कविताएँ पढ़ना, उसे स्मरण करना, लगता है जैसे कोई अद्वितीय शै है या दैवी वरदान। नहीं रह कर भी हर वक्त मेरे साथ है।

हॉल खचाखच भर गया। कुर्सियाँ कम पड़ गईं तो चादर बिछ गई। दूसरे ही दिन दैनिक भास्कर, हरी भूमि, नव दुनिया, पत्रिका आदि अखबारों में समाचार छपा। मुंबई से मित्रो के फोन आए। कैसा रहा समारोह? क्या किया? बताओ ...

बताऊँ कि हेमंत तो पूरी दुनिया का हो गया। पूरी दुनिया उसकी हो गई। अब बताने को रह ही क्या गया।


मॉरीशस से रामदेव धुरंधर श्रीलाल शुक्ल सम्मान लेने भारत आए थे। वे भोपाल आ रहे थे। उर्वशी के संस्थापक निदेशक और मेरे मित्र राजेश श्रीवास्तव उनके सम्मान में मेरे साथ मिलकर यानी विश्व मैत्री मंच के बैनर तले एक गोष्ठी रखना चाहते थे। मैं भी खुश हो गई। 7 फरवरी मेरे ही निवास स्थान पर गोष्ठी का दिन तय हुआ।

गोष्ठी की बात जब राजुरकर राज जी को मिली तो उन्होंने मुझे फोन करके कहा कि"यह कोई घर में रखने वाली गोष्ठी है क्या? मॉरीशस से बड़ा साहित्यकार आया है। दुष्यंत संग्रहालय में मैंने उसी तारीख को गोष्ठी रखी है आप भी उसमें शामिल हो जाओ।"

मुझे बुरा लगना चाहिए था नहीं लगा। मैं कभी किसी की बात का बुरा नहीं मानती। बस अपनी कोशिश करती रहती हूँ।

यह 6 फरवरी की बात है। शाम को धुरंधर जी का फोन आया "संतोष जी, गोष्ठी आपके घर पक्की है न।"

"जी आपको होटल से राजेश श्रीवास्तव जी पिकअप कर लेंगे।" बहरहाल आशातीत सफलता यानी की खूबसूरत शाम धुरंधर जी के साथ मेरे घर पर गुजरी। करीब 20 साहित्यकार शामिल हुए। किताबों का आदान-प्रदान, मॉरीशस के किस्से, ढेर सारे अनुभव हमने शेयर किए। समोसे बाहर से मंगवा लिए थे। गुलाबजामुन मेंने खुद बनाए थे।

धुरंधर जी के संग मॉरीशस के कृष्णानंद सेवा आश्रम को भी हमने याद किया। जब मैं अक्टूबर 2004 में 24 वें समकालीन साहित्य सम्मेलन में मॉरीशस गई थी तो कृष्णानंद सेवा आश्रम में आयोजित साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में मेरी मुलाकात रामदेव धुरंधर जी से हुई थी। एक-एक कर जाने कितनी बातें याद आ गई। कृष्णानंद सेवा आश्रम हैंडीकैप्ड रिटायर्ड लोगों और अनाथ बच्चों का आश्रम है जो पूरी तरह डोनेशन पर चलता है लेकिन भारत से गए हम 35 साहित्यकारों का भव्य स्वागत हुआ। वहाँ ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट की ओर से हारमोनियम पर कृष्ण के भजन गाये गए "बाजे रे मुरलिया हरे-हरे बांस से बनी रे मुरलिया"

लंच में गोभी मटर की सब्जी, ककड़ी का रायता, करारी पूरियाँ और भी बहुत कुछ। खाया नहीं गया। आँखें भर आई थी। मुझे लगा जैसे मैं असहाय लोगों का हिस्सा खा रही हूँ। तब धुरंधर जी ने ही मुझसे खाने का आग्रह किया था।

"खा लीजिए कृष्ण प्रसाद मानकर।" धुरंधर जी के मेरे घर से जाने के बाद भी मैं 2 दिन तक मॉरीशस की यादों में खोई रही। प्रवासी साहित्य पत्रिका के संपादक राकेश पांडे ने मॉरीशस के हमारे संस्मरण की किताब भी प्रकाशित की थी जिसे पाठकों का काफी अच्छा प्रतिसाद मिला था।