मेरे घर आना जिंदगी / भाग 23 / संतोष श्रीवास्तव्
साहित्य अकादमी ने अनुदान देने के लिए 40 पांडुलिपियाँ चयन की थीं। जया केतकी, रेखा दुबे की किताब की भूमिका मुझे लिखनी थी। इसी समय आगरे से पूजा आहूजा कालरा और पूनम जाकिर भार्गव तथा अलका अग्रवाल की किताबों के लिए भी और अर्चना अनुपम, काँता रॉय, जया केतकी, अर्चना नायडू की किताबों के लिए भी मुझसे भूमिकाओं का आग्रह किया गया।
अभी मैं पूरी तरह से मसल्स पेन से छुटकारा नहीं पा सकी थी लेकिन फिर भी मैं व्यस्त थी।
विदिशा से रेखा दुबे अपनी पाण्डुलिपि और अपनी अमराई के आंधी में टूटे आम लेकर घर आई। उसकी कविताओं का करेक्शन, चयन आदि मैं दिन भर उसके साथ बैठी निपटाती रही। कविताएँ मामूली थीं पर रेखा का जोश देखने लायक था। उसका पहला कहानी संग्रह था। कहने लगी "संतोष दीदी प्रकाशक भी आप ही बता दीजिए न जो 1 महीने के अंदर किताब छाप दें।"
मैंने माया मृग जी से बात की तो वे सहर्ष तैयार हो गए। मायामृग का बोधी प्रकाशन है और वे प्रकाशन के काम में बेहद ईमानदार और दिए हुए समय में काम निपटाने वाले प्रकाशक हैं।
सोचती हूँ दर्द में भी और शरीर की अशक्तता में भी मैं लेखन से कभी पीछे क्यों नहीं हटती। मुझे लगता है यह संसार बल्कि पूरा ब्रह्मांड मुझ में न जाने कहाँ तक फैला है। इसी फैलाव में खुद को खोजती रहती हूँ। लगता है सारे मौसम अपनी खुशबू और हवाओं के संग मुझ से होकर गुजर रहे हैं। ओले, बारिश, लू, ठिठुराती, झुलसाती, भिगोती मुझ में बार-बार बरस जाती है। ऋतुएँ मौसम के उपहारों के रस, रंग गंध में हर क्षण महसूस करती हूँ। मुझ में विस्तार पाते हुए जिंदगी कभी रुकी रुकी-सी लगती है। कभी लुढ़कते पहियों पर सवार।
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के पावस व्याख्यानमाला का रजत जयंती समारोह 27, 28 और 29 जुलाई को आयोजित किया जा रहा है। बड़ी भूमिका मिली है मुझे। 28 जुलाई के प्रथम सत्र का संचालन। विषय मानववाद या चराचर वाद। मंच पर होंगे रमेश चंद्र शाह, अंबिका दत्त शर्मा और केएन गोविंदाचार्य। भोपाल के सबसे बड़े साहित्यिक समारोह में मैं अपनी भूमिका को लेकर बहुत खुश थी। मध्य प्रदेश राष्ट्रीय प्रचार समिति के मंत्री संचालक हमारे दादा यानी वयोवृद्ध कैलाश चंद्र पंत जी के मुझ पर भरोसे को मुझे सर्वश्रेष्ठ साबित करना था। मैं उमंग और उत्साह में थी। तभी पंत दादा ने बताया कि 29 जुलाई को बंगाल के राज्यपाल महामना श्री केशरीनाथ त्रिपाठी तुम्हें सम्मानित भी करेंगे।
जिस जिस ने सुना बधाई दी। बधाईयों का तांता लग गया। समारोह सम्बंधी मीटिंग में मुझे भी शामिल किया गया। अक्सर ऐसा होता है। बहुत सारी खुशियाँ एक साथ मिल जाती हैं या बहुत सारे दुख।
दुख इस बात का कि अभी 28 जुलाई का दिन आया भी नहीं और 20 जुलाई 2018 को मेरे प्रिय गीतकार गोपालदास नीरज का निधन हो गया।
वहीं पर ढूँढना नीरज को तुम जहाँ वालों
जहाँ भी दर्द की बस्ती कोई नजर आये।
बेहद शॉकिंग न्यूज़ थी। जो खुद में कारवां था वह गुजर गया। याद आई मुंबई। मुंबई का पाटकर हॉल जहाँ मुंबई की साहित्यिक संस्था परिवार द्वारा उन्हें पुरस्कार दिया जा रहा था। हमेशा की तरह रात 9: 00 बजे कार्यक्रम शुरू हुआ। लेकिन हमेशा की तरह 12: 00 बजे खत्म नहीं हुआ बल्कि रात 2: 00 बजे तक चलता रहा। सभी श्रोता जोर-जोर से आवाज लगा रहे थे।
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे। नीरज जी ने श्रोताओं की फरमाइश पर कई गीत सुनाए। कार्यक्रम की समाप्ति पर मैंने उनके नजदीक जाकर कहा कि "अब मैं भी जबलपुर से मुंबई शिफ्ट हो गई हूँ।" वे बहुत खुश हुए। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा
"अब हम कवि सम्मेलनों में मिलते रहेंगे।" लेकिन नीरज जी जैसे ही बीमार पड़े लगने लगा जैसे देश से कवि सम्मेलन ही खत्म हो गए। नीरज जी के देहावसान ने कहाँ के कहाँ पहुँचा दिया। कई बार अतीत सुंदर यादों को दोहराता है या फिर बेजा घटनाएँ दिमाग पर हावी हो जाती हैं।
बहरहाल अब खबर प्यारी-सी थी। स्वाति तिवारी ने मीडिया वाला पोर्टल शुरू किया जो सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित कर ऑनलाइन पाठकों तक पहुँचाता है। मेरा यात्रा संस्मरण भी मीडिया वाला कॉलम में प्रकाशित हुआ। लिंक खोलकर देखा तो मुग्ध हो गई। बहुत खूबसूरत तरीके से प्रकाशित हुआ था संस्मरण। फेसबुक पर भी स्वाति तिवारी ने शेयर किया था। ढेरों लाइक्स और कमेंट्स मिले थे।
पावस व्याख्यानमाला भोपाल के लिए एक उत्सव जैसा है। मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से सभी भोपाल वासी साहित्यकारों से आर्थिक मदद लेकर यह तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। मेरे पास कई मित्रो के फोन आए हम भी आ रहे हैं। सम्मेलन के बाद आपके घर कुछ समय बिताना चाहते है। चित्रा मुद्गल दी ने फोन पर न आने की असमर्थता प्रगट की
"नहीं आ पाऊंगी संतोष, स्लिप डिस्क का जानलेवा दर्द है। पर तुम तीनों दिन अटेंड करना। पंत जी सुबह नाश्ते में इसरार कर करके सबको गरम जलेबी पोहे खिलाते हैं।"
बहुत शानदार आयोजन था। 28 जुलाई का मेरा संचालन भी सभी को बहुत पसंद आया। सुखद अनुभूति थी मेरे लिए। मंच पर मेरी बाजू वाली कुर्सी पर बैठे केएन गोविंदाचार्य जी बोले
"भोपाल के लेखक न केवल ध्यान से सुनते हैं बल्कि लिखते भी जाते हैं।" भोपाल की साहित्यिक गंभीरता ने मुझे भी प्रभावित किया था।
29 जुलाई बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी द्वारा मुझे सम्मानित किया गया। प्रतीक चिह्न शॉल और पुष्प गुच्छ से। इससे पहले महाराष्ट्र के गवर्नर, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड के गवर्नर भी मुझे सम्मानित कर चुके थे।
मसल्स पेन रह-रहकर उठता रहता है। कभी इतना की पेन किलर भी असर नहीं करती है। हालांकि मैंने अपने एकाकीपन से समझौता कर लिया है पर हेमंत का जाना... बड़ी निर्दयता से एकाकीपन के अंधेरे ने मुझे दबोचा है। वह मेरे जीवन पथ पर दीप की तरह जगमगा रहा था। सब तरफ हलचल ही हलचल थी। अब एकांत की पीड़ा है। यही तो मेरी त्रासदी है... बस, अपनी मन की सत्ता में सिमट जाना। आज ही तो है 5 अगस्त, हेमंत की पुण्यतिथि। आज ही के दिन तो हुआ था हादसा। जब दोनों शाम मिलने के सुरमई, सुनहले रंग रो पड़े थे। रो पड़ा था थमा हुआ वक्त। मेरा जीवन अंधेरों में तब्दील हो चुका था। 17 साल पहले अपनी 23 की उम्र की हकीकत लिख हेमंत 23 वर्ष की उम्र में अनंत में समा गया था।
आज भी वह दिन किर्चों-सा चुभा है मेरे अंतस में।
उसने लिखा था
बहुत खतरनाक है / 23 साल का होना / तमाम लपटों की / संजीदा रोशनी / लपेट लेती है / इस उम्र की तल्ख हकीकत / और चढ़ा दी जाती है / फांसी पर / डर कर उसकी आंच से।
हेमंत की यह कविता मानो उसके इस उम्र में चले जाने की दस्तक थी।
औरंगाबाद से हफ्ते भर के लिए प्रमिला आ गई थी। हम दोनों बहनों के बीच एक ही पुत्र हेमंत। हम डबडबाई आंखों से उसे याद करते रहे। बेंगलुरु, मुंबई, दिल्ली से ढेरों फोन...
फेसबुक पर हेमंत की पुण्यतिथि वाली पोस्ट पर ढेरों कमेंट्स, लाइक... जानती हूँ किसी के भी लिए हेमंत को भुला पाना कठिन है। वह शख्सियत ही ऐसी थी।
जब तक प्रमिला भोपाल में रही हम खूब बिजी रहे। लघुकथा शोध केंद्र में उसके लिए विशेष गोष्ठी का आयोजन किया गया। संचालन मेरा।
कहते हैं भोपाल में 90% साहित्यकार हैं बाकी 10% अन्य। आए दिन गोष्ठियाँ, लोकार्पण, नाटक, चित्र प्रदर्शनी, संगीत, नृत्य, साहित्य से जुड़े कितने आयाम। अब धीरे-धीरे भोपाल मुझे पसंद करने लगा है।
वर्जिन साहित्यपीठ के ललित कुमार मिश्र जी ने साझा काव्य संकलन संपादित करने के लिए मुझ से अनुरोध किया। मेरी शर्त थी कि कवियों और कविताओं का चयन मेरा होगा। मैं सिर्फ अपने नाम पर संपादक का ठप्पा नहीं चाहती थी। उन्हें मंजूर था। मैंने चुनकर 16 कवियों से उनकी दस, दस कविताएँ मंगवाई। जो नहीं पसंद आई उनकी जगह दूसरी मंगवाई। पूरी किताब मैंने खुद कंपोज करके प्रूफ पढ़कर कवर डिजाइन डिसाइड करके उन्हें भेजी। किताब का नाम चिंगारी रखा। एक महीने बाद किताब ऐमेज़ॉन, गूगल, किंडल पर थी। अच्छे प्लेटफॉर्म मिले थे किताब को। ऐमेज़ॉन में इसकी कीमत ₹199 थी। जबकि पेपरबैक संस्करण ₹499 का। यही मेरा मतभेद हुआ उनसे। बहुत ज्यादा है कीमत। शिपिंग चार्जेस मिलाकर तो 600 तक की पड़ेगी। मिश्र जी का कहना था कि आप पेज भी तो देखिए, 380 पेज की है किताब। बहरहाल पोथी प्रकाशन ने पेपर बैक छापा। मेरी 30% रॉयल्टी तय हुई। किताब में प्रकाशित कवियों को भी 15% रायल्टी मिलेगी। किताब बहुत चर्चित हुई। अब मेरे हाथ में संपादन के लिए संस्मरण का साझा संकलन है।
हिन्दी भवन में वर्षा ऋतु को समर्पित वर्षा मंगल कार्यक्रम में मेरा कविता पाठ हुआ। कविता सुनाकर जब मैं मंच से उतर रही थी तो जहीर कुरैशी जी ने कहा "गजब कविताएँ आप तो गद्य लेखन छोड़कर सारा समय बस कविता को दो। बेहतरीन कविताएँ हैं आपकी।"
जहीर कुरैशी भी ग्वालियर छोड़कर अब भोपाल शिफ्ट हो गए हैं। हमारी जान पहचान मित्रता ग्वालियर से है। जहीर कुरैशी जी की बात पर मैं कई दिन मंथन करती रही। वे वरिष्ठ शायर हैं। तो क्या मैं सच में कविता में उतर जाऊँ। कविताएँ तो बचपन से ही छिटपुट लिखती रही हूँ। पर छपने के लिए कभी वैसा प्रयास नहीं किया। जैसा करना चाहिए। इक्का-दुक्का छपती रही। नहीं जानती थी कि मुझ में मेरे ही संस्करण छिपे थे। अब वे उजागर हो रहे हैं। दिखने लगे हैं। दीखते हैं तो मुझी पर फिसल गए वक्त का आरोप लगा देते हैं।
और जब मैं इन संस्करणों को, मूल्यवान संभावनाओं को पुन: तलाशती हूँ तो खुद को अपने नजदीक पाती हूँ और ऐसा अक्सर होता है।
तो मैं अपनी कविताओं को इकट्ठा करने में जुट गई। सिलसिलेवार कभी लिखा नहीं। कभी डायरी में लिख लेती, कभी पन्नों में। जिन्हें मैं तहा कर इधर-उधर दबा देती और आजकल तो मोबाइल के नोटपैड पर भी लिखने लगी हूँ। इकट्ठी की तो देखा करीब डेढ़ सौ कविताएँ हैं। इनमें से कुछ बेकार लगीं। कुछ को री राइट किया, काट छांट, अपनी समझ से सुधार भी। एक सौ पांच कविताएँ ठीक लगीं। सोचा इन कविताओं पर किसी कवि से ब्लर्ब न लिखा कर कथाकार, पत्रकार से लिखवाया जाए। हरीश पाठक इस काम के लिए सहर्ष मान गए। मैंने उन्हें कुछ कविताएँ भेज दीं। किताबवाले पब्लीकेशन को पाण्डुलिपि भेज दी। किताब "तुमसे मिलकर" नाम से प्रकाशित होगी और वर्ष 2019 के विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में इसका लोकार्पण होगा। हरीश जी ने भी ब्लर्ब भेज दिया।
आत्मविश्वास के पद चिन्ह
संतोष श्रीवास्तव की रचनाधर्मिता के कई आयाम है। वे एक समर्थ कथाकार, संवेदनशील कवयित्री, जागते मन और अपलक निहारती नजरों वाली संस्मरण लेखिका, न भूलनेवाले लेखे-जोखे के संग देर औऱ दिनों तक याद रखनेवाले यात्रा वृत्तांत लिखनेवाली ऐसी रचनाकार है जो हर विधा में माहिर है। उनका लेखन स्तब्ध भी करता है और आंदोलित भी।
उनके कविता संग्रह 'तुमसे मिलकर' की कविताओं से गुजरते हुए यह अहसास होता है कि उनकी दृष्टि दूर तक जा कर न तो ओझल होती है, न भोथरी। वह पाठक को चेतना के उस महाद्वार पर खड़ा कर देती है जहाँ जीवन के सरोकार भी है, उसका स्पंदन भी। उसकी विविधता भी है, विराटता भी। वहाँ प्रेम भी है, वियोग भी। कविता की, शब्द की सम्भावना ओर सीमा को स्पष्टता औऱ निर्भीकता से वे उभारती हैं। यही इन कविताओं की ताकत भी है, खूबसूरती भी।
वे लिखती हैं
' ठाट बाट चाहिए
तो काठ होना पड़ेगा,
और उन्हें, काठ होने से इनकार है। '
'भुगतान' कविता में वे लिखती है
' वह दरकी हुई जमीन में
बोता है बीज,
सम्भवनाओं के, अरमानों के। '
उनकी कविताओं में बसा अदम्य जीवनोल्लास और उतना ही उनके अंतर में बसा अवसाद पाठकों को झकझोरता भी है ओर रिझाता भी है।
इस संग्रह की 'घायल अतीत' , 'जिल्द' , 'आषाढ़ की बूंदे' औऱ'चिलकते सहरा में' जैसी कविताएँ अपनी लगभग अकेली ओर अद्वितीय राह नहीँ छोड़ती। यहाँ लेखिका का आत्मविश्वास से चलना और अप्रत्याशित दृश्य उकेरना मन को भिगो जाता है।
इन कविताओं में हमारे समय में अन्तःकरण की विफलता भी है औऱ हताश प्रार्थनाएँ भी। उम्मीदों के फिसलन भरे गलियारे में ये कविताएँ लकदक विश्वास का बीज मंत्र है।
कुल जमा यह संग्रह एक मुकम्मल लेखिका का भरोसेमन्द मुकाम है।
सुंदर कवर और खूबसूरत छपाई वाली इस पुस्तक का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेले में होना था। किताबवाले प्रकाशक प्रशांत जैन और उनके सहयोगी सुकून भाटिया किताबों के प्रकाशन से लेकर लोकार्पण तक बहुत उत्साह में रहते हैं। उन्होंने दोनों किताबों के लोकार्पण की तारीख 10 जनवरी रखी।
8 जनवरी की सुबह जमा देने वाली ठंड और कोहरे की घनी चादर में दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर उतरी तो देखा मेरे प्रकाशक मित्र नितिन गर्ग मुझे लेने आए हैं। 8 से 11 जनवरी तक मुझे फिरोज शाह कोटला स्टेडियम स्थित विक्रम नगर में उनके घर रुकना था। उनकी पत्नी मीनू ने जिस अपनत्व से भरकर चार दिनों में मेरा स्वागत किया वह मेरे दिल में बस गया। इतना स्नेहिल परिवार, नितिन जी की दोनों बेटियाँ, बेटा लगा ही नहीं कि पहली बार इस घर में आई हूँ।
नाश्ते के बाद नितिन जी मुझे अपने ऑफिस ले गए। मुझे हंस के ऑफिस भी जाना था जो हर बार दिल्ली आने पर मेरा आवश्यक शगल रहता है। बीना उनियाल पूर्व परिचित ...हंस का ऑफिस सूना सन्नाटे से घिरा... राजेंद्र यादव जिस कमरे में बैठते थे, जिस कुर्सी पर, पल भर तो मेरे कदम दरवाजे पर ही थम गए। कुर्सी पर राजेंद्र यादव की कमर से सिर तक की प्रतिमा। जैसे बैठे हों कुर्सी पर। हमेशा की तरह काला चश्मा आंखों पर। किसी लेखक को इस तरह जीवंत रखना राजेंद्र यादव की लोकप्रियता ही है। हंस ने उनकी प्रतिमा स्थापित कर मानो उन्हें अपनी कर्तव्यनिष्ठ श्रद्धांजलि दी। यह कमरा गुलजार रहता था जब वे जीवित थे। भारी मन से मैं नमन प्रकाशन नितिन जी के पास लौटी तब तक मीनू भी लंच लेकर आ गई थी। हमने साथ में खाना खाया। शाम 4: 00 बजे मैं मीनू के साथ साहित्य अमृत के ऑफिस गई। बाबूजी श्यामसुंदर बेहद अशक्त, दुर्बल लगे। मुझे क्या मालूम था कि उनसे मेरी यह आखरी मुलाकात होगी। इस मुलाकात के लगभग साल भर बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनके विषय में जब भी सोचती हूँ तो उनका
आशीर्वाद भरा स्नेहिल वाक्य याद आ जाता है कि बेटी घर आई है तो खाली हाथ थोड़ी विदा करेंगे और उन्होंने मुझे साहित्य अमृत का जिंदगी भर का मानद सदस्य बना दिया। मेरे इतनी बार घर बदलने, शहर बदलने के बावजूद भी साहित्य अमृत मुझे आज भी मिल रही है और उनके बेटों पवन, प्रभात व पीयूष से भी वैसे ही सम्बन्ध बने हुए है। श्याम सुंदर बाबूजी ने पंडित विद्यानिवास मिश्र, डा लक्ष्मीमल सिंघवी, डा त्रिलोकीनाथ को जोड़कर साहित्य अमृत शुरू की थी। मगर उन्होंने उसमें कभी अपनी किसी पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित नहीं की। वे एक साहित्यिक प्रकाशक नहीं थे बल्कि उन्होंने साहित्य को जिया भी था।
साहित्य अमृत के ऑफिस से मीनू मुझे चांदनी चौक बाज़ार ले आई। गर्म कपड़ों की दुकानें ही दुकानें। दिल्ली का पारा पहाड़ों में बर्फबारी के कारण लुढ़कता ही जा रहा था। 5: 00 बजे शाम से ही स्वेटर जर्सी के बावजूद मेरे बदन में कपकपी शुरू हो गई। बहरहाल एक ऊनी कोट और नाइन प्लाई का गरम स्वेटर खरीदकर हमने चाट कचोरी खाई और अँधेरा होते-होते घर लौट आए।
कल और परसों मुझे मेले में ही दिन बिताना है। इतने लेखकों से मिलना जुलना, विभिन्न स्टालों पर हो रही चर्चा, विमर्श, लोकार्पण... साहित्यिक उत्सव के क्या कहने।
10 जनवरी दोपहर 3: 00 बजे किताब वाले प्रकाशन के भव्य स्टॉल पर मेरी किताबों का लोकार्पण हुआ। सहयोग दिया हरीश पाठक, महेश दर्पण, गिरीश पंकज ने। साथ में गिरीश पंकज, प्रमिला वर्मा और राजकुमार कुंभज की किताबों का लोकार्पण मेरे हाथों हुआ। इस सत्र का संचालन भी मैंने किया। लोकार्पण में करीब 60 लेखकों की उपस्थिति रही। मेरे सभी लेखक मित्र आए। यहीं पहली बार सविता चड्डा से मुलाकात हुई। अब वे विश्व मैत्री मंच की दिल्ली शाखा की अध्यक्ष है।
दूसरे दिन मेरी भोपाल वापसी थी। इसलिए बाहर डिनर लेने का प्लान बना। मेले से हम डिनर के लिए डॉल म्यूजियम स्थित होटल में आए। नितिन जी के बेटे बेटियाँ डायरेक्ट होटल पहुँच गए थे। उस रात के डिनर का वह आनंददाई वक्त मेरी यादों में अक्स हो गया और भी इसलिए कि हमने सन्नाटे भरी सड़क के फुटपाथ पर जमा देने वाली ठंड में रात 11: 00 बजे आइसक्रीम खाई। मैंने मीनू से कहा "मेरी आइसक्रीम खाते हुए एक फोटो खींच दीजिए धीरेंद्र अस्थाना जी को भेजूंगी। विश्व पुस्तक मेले में ठंड की वजह से वे नहीं आते।"