मेरे घर आना जिंदगी / भाग 3 / संतोष श्रीवास्तव्
जिन खोजा तिन पाईयाँ
सिविल लाइंस के विशाल बंगले को हमें शीघ्र ही छोड़ना पड़ा क्योंकि वहाँ हाईकोर्ट की इमारत बन रही थी। हम लोग रतन नगर कॉलोनी रहने आ गए। रतन नगर कॉलोनी नई बसी कॉलोनी थी। जो शहर से काफी दूर मेडिकल कॉलेज रोड पर थी। हमारा घर सड़क से ऊंचाई पर चट्टानों पर स्थित था। घर सिविल लाइंस के घर के बनिस्बत छोटा था लेकिन बहुत खूबसूरत और खुशनुमा था। घर के पिछवाड़े की बड़ी-बड़ी चट्टानों को उखड़वा कर रमेश भाई ने किचन गार्डन भी लगा लिया था।
जिंदगी कभी एक-सी नहीं रही। बेहद अमीरी के दिन भी देखे और बेहद गरीबी के भी। रतन नगर का घर हमारे संघर्ष के दिनों का गवाह था। तमाम महरूमियों के बावजूद हम मस्तमौला... मानो फकीरी हमारी फितरत में। यहीं से रमेश भाई की शादी हुई लेकिन आर्थिक संकट ज्यों का त्यों।
हमारे घर के आस-पास के पर्वतों की तराई में जो तालाब थे उनमें सिंघाड़े बोए जाते। मैं अपनी सखी सहेलियों और प्रमिला के संग तालाब के किनारे जाकर छोटी-सी नौका में बैठे सिंघाड़े वाले से सिंघाड़े तुड़वा कर लाती थी। एक रुपए के 100 सिंघाड़े। यहाँ मुंबई में ₹100 किलो सिंघाड़े मिलते हैं। वहाँ अमरूदों का खूब बड़ा बाग था। बेर का बाग भी था। पान का बरेजा भी। चट्टानी पर्वतों पर सीताफल के झाड़ फलों से लदे रहते। बंदरों का झुंड हमें सीताफल तोड़ कर देता। हम दो-चार कच्चे सीताफल नीचे झुकी डालियों से तोड़कर उनकी और उछालते। वे नकल उतारते हुए ऊंची-ऊंची डालियों से सीताफल तोड़कर हमारी ओर फेकते जिन्हें हम बीच में ही लपक लेते। यही हाल बेर का था। बेर वाला बडा-सा बाँस लेकर डालियाँ हिलाता। पके-पके बेर टपक पड़ते। जिन्हें हमें बटोरकर टोकरी में रखते जाना था। हम दो बेर टोकरी में डालते एक मुंह में। बेर वाला चिल्लाता "—मौडियों सबरी बेर काय मुंह में ठूंसे जा रई हो?"
जब टोकरी भर जाती संग-संग हमारा पेट भी बेरों से भर जाता तब बेर वाला बेर तौलकर पैसा लेता। शायद पचास पैसे।
एक तरफ फकीरी मस्तमौलापन... संघर्ष का लंबा सिलसिला। दूसरी ओर कॉलेज का पहला साल। पढ़ना है। एम ए पीएचडी। बाबूजी चाहते एलएलबी करूं। वकील बनूं। अम्मा चाहती अच्छा लड़का मिले तो जल्दी से हाथ पीले करके कन्यादान का सुख पाएँ और इन सब के रहते मेरी अपनी सोच। बड़ी कोफ्त होती जब नर्मदा प्रसाद खरे का बेटा मेरे कॉलेज से घर तक के रास्ते में मेरे संग-संग कार चलाता। मेरी चाल की गति से अपनी कार की गति मिलाते हुए। कभी-कभी उसके हाथ में लाल गुलाब होता जो वह मेरी ओर बढ़ाते हुए कहता—"आपके लिए"
क्योंकि नर्मदा प्रसाद खरे जबलपुर के प्रतिष्ठित कवि थे। मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री के पद पर कार्यरत थे। प्रेमा, कथायुग, आरंभ जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक मंडल में थे तो एक औपचारिकता तो बरतनी ही थी। लेकिन मैं तो बला की शर्मीली। जबान तालू से चिपक जाती।
"आप मुमताज जैसी दिखती हैं। उतनी ही खूबसूरत।"
आरक्त गालों सहित जब मैं घर लौटी तो अम्मा देर तक चेहरा देखती रहीं-"क्या हुआ तुझे?"
अब कैसे उन्हें बताती कि मैं घर पैदल आती जाती हूँ और बाबूजी के दिए रिक्शे के पैसों से हिंद पॉकेट बुक्स से किताबें मंगवाती हूँ। बल्कि अब तो हिंद पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना की सदस्य भी बन गई हूँ।
उस रात मैंने फैसला किया मुझे पढ़ना है। दूर तलक जाना है। नहीं पड़ना इन सब बातों में। रास्ता बदल लिया मैंने। गलियों-गलियों होती हुई कॉलेज जाती। गलियों में कार चलाना मुश्किल था। कुछ दिनों के बाद कॉलेज के सामने न कार दिखाई दी, न खरे पुत्र। बरसाती बादल बरस चुके थे आसमान साफ था।
मेरी यादों में वक्त का कुछ हिस्सा बेतरतीब टुकड़ों में फ्रीज होकर रह गया है। इन खट्टी मीठी यादों को चाह कर भी नहीं भुला पाती। मैंने बीए की परीक्षा दी ही थी कि भारी कर्ज से लदे हम एक बार फिर मंडला शिफ्ट हो गए थे। बाबूजी का ख्याल था कि वहाँ वकालत की प्रैक्टिस अच्छी चलेगी और हम जल्द ही कर्ज से मुक्त हो जाएंगे। नर्मदा नदी के उस पार महाराजपुर में बूढ़ी माई वार्ड में हमें किराए का घर मिला। एक कमरे और चौके का खपरैल की छानीवाला कच्चा घर। जिसके फर्श को गोबर से लीपना पड़ता था। बड़ा-सा आंगन था जिसकी लकड़ी की फैंसिंग में बेशरम नामक पौधे थे जिन पर बारहों महीने जामुनी रंग के फूल खिले रहते। घर से कुछ ही दूरी पर नर्मदा नदी बहती थी। जहाँ तक पहुँचने के लिए छींद (खजूर की प्रजाति) आम, नीम, कटहल आदि के छतनारे दरख़्तों से होकर जाना पड़ता था। हम नदी नहाने रोज जाते। उन दिनों घाट में भीड़ नहीं के बराबर होती थी। सो मैं प्रमिला और हमारी पड़ोसी सखी कृष्णा हम तीनों देर तक नदी की धाराओं में नहाते। प्रमिला, कृष्णा तैरतीं। मुझे तैरना नहीं आता था। लौटते हुए हम छींद के पके फल भी तोड़ लाते। पता नहीं कब कैसे हमारे नर्मदा नहाने के नियम की जानकारी महाराजपुर के जमींदार के बेटे मन्मथ तक पहुँची। जमींदार की हवेली लड़कियों को गायब करने और उनकी हत्या के किस्सों से बदनाम थी। जमींदारी प्रथा को समाप्त हुए बरसों गुजर चुके थे पर महाराजपुर में उनका दबदबा ज्यों का त्यों था। मन्मथ के पास भी आवारा लड़कों का गैंग था। वह उन्हें लेकर घाट पर आने लगा। फिल्मी गाने गाना, सीटी बजाना और भद्दे मजाक करने से वे बाज नहीं आते। एक दिन हमारे धैर्य ने जवाब दे दिया। हम तीनों ने उन्हें आड़े हाथों लिया
"प्लीज अपनी हरकतों से बाज आइए वरना हम भी एडवोकेट की बेटियाँ हैं।"
उन्होंने खामोशी से एक दूसरे को देखा और बिना कुछ कहे चले गए। वे सब तीन-चार दिन घाट पर नहीं आए। हमने मान लिया कि बला टल गई। पांचवें दिन पूनम की रात थी। बाबूजी ने बताया कि ऐसी पूर्णिमा 100 साल बाद होती है जब हमारी परछाई 12 बजे रात को चाँद को छूती है। हम लोग आंगन में खाट पर लेटे-लेटे जिज्ञासा और आश्चर्य की अनुभूति लिए 12 बजने का इंतजार करते रहे। तभी मैंने सड़क के उस पार लैंप पोस्ट के नीचे जमींदार के लड़के मन्मथ को चार दोस्तों के साथ मशविरा करते देखा। वे मेरी ओर देख कर ही बात कर रहे थे और शायद हमारे घर का जायजा भी ले रहे थे। पता नहीं ईश्वर प्रदत्त हो कि मुझे इस तरह की घटनाओं का पहले से ही अंदाजा लग जाता है। अनहोनी की आशंका ने मुझे घेर लिया। बाबू जी ने 12 बजने की सूचना देते हुए हमें आंगन में ऐसे एंगल पर खड़ा किया कि... दंग रह गई मैं। मेरी परछाई आंगन से उठकर सीधी चांद को छू रही थी। बेहद विशाल, एड़ी से सिर तक पूरी परछाई। कैसा करिश्मा था यह। कहीं यह सपना तो नहीं। पर मैं पूरे होशो हवास में थी। यह करिश्मा 2 मिनट का था। मेरी परछाई सीधी चांद को छूकर धरती पर आ गई। हमारे पास कोई कैमरा न था जो इस करिश्मे को कैद करते लेकिन यादों में वह आज भी कैद है। आज भी मैं चाँद, परछाई और धरती के इस नजारे को, उस एहसास को महसूस कर रोमांचित हो जाती हूँ। उसी रात बाबूजी ने बताया कि हमें पूरा चाँद कभी नहीं दिखता। आधा ही दिखता है। आधे चाँद पर हमेशा अँधेरा रहता है। मैं पुनः ताज्जुब से गड़ गई।
सुबह चाय के दौरान जहाँ इस करिश्मे की चर्चा गर्म थी वहीं मन्मथ से जुड़ा वाकिया भी। लिहाजा मैंने घाट में नहाने से लेकर रात को लैंप पोस्ट के नीचे की घटना तक का किस्सा अम्मा बाबूजी को बताया। बाबू जी ने कहा-"सतर्क रहना पड़ेगा। बेहद खतरनाक हैं वह लोग। तुम लोग घाट पर जाना बंद कर दो।"
हम लोगों ने मोर्चा तैयार कर लिया था। अपनी-अपनी खाटों के पाए के नजदीक ढेर सारे पत्थर इकट्ठे कर लिए थे। गर्मी के दिन थे। आंगन में ही सोते थे। एक-एक कर रातें गुजरती गईं। चौथी रात अचानक आंगन की फेंसिंग के उस पार कुछ कदमों की आहट आकर थमी। बेशरम की डालियाँ सरका कर कुछ चेहरे झांकते नजर आए। मैं जोरों से चीखी-"बाबूजी वह लोग आ गए।" हम चारों उनकी ओर ताबड़तोड़ पत्थर फेंकने लगे। मेरी चीख सुन सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया। कुछ लोग चोर-चोर चिल्ला रहे थे। पर उन भागते हुए लड़कों को मैंने पहचान लिया था।
बाबूजी ने एफ आई आर दर्ज कराई। थानेदार ने बिना गवाहों के उन्हें गिरफ्तार करने से इंकार कर दिया। "क्या करें कानून की अपनी मजबूरियाँ हैं।" कहकर थानेदार ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी। बाबूजी ने मोहल्ले वालों को बुलाकर गवाही देने को कहा। सभी ने एक स्वर में कहा"क्यों नहीं देंगे हम गवाही। हम बताएंगे कि वह सब जमींदार के कारिंदे थे। पूरा किडनैपिंग का केस बनता है और फिर वकील साहब यह पहली बार थोड़ी हुआ है यहाँ... जाने कितनी बार बहू बेटियाँ इन लोगों ने गायब की हैं। हमें भी इनसे छुटकारा पाना है।"
केस तो मजबूत बन गया था पर जब थानेदार ने गवाहों को बुलाकर पूछताछ शुरू की तो सब मुकर गए। रातों-रात मन्मथ के आदमियों ने गवाह तोड़ लिए थे और भारी रकम देकर उनके मुंह बंद कर दिए थे।
बाबूजी ने निश्चय किया कि जल्दी ही यह इलाका छोड़ देंगे। रमेश भाई मुरादाबाद में थे भाभी की जचकी के कारण और बाबूजी हम दोनों मैं और प्रमिला की वजह से यहाँ अकेले रहने की हिम्मत हार रहे थे। कुछ दिनों में हमें नर्मदा नदी के उस पार बिंझिया वार्ड में बंगला मिल गया और भाभी के बेटा होने की खबर भी। अरसे बाद घर में खुशियों ने दस्तक दी। बिंझिया वार्ड में सड़क से थोड़ी ऊंचाई यानी एक छोटी-सी पहाड़ी पर खूबसूरत बंगले में आकर हम रहने लगे। चारों ओर सब्जी, फल, फूल पौधे उगाने की उपजाऊ जमीन थी। रमेश भाई जैसे ही भाभी और बेटे को लेकर लौटे उन्होंने उस उपजाऊ जमीन पर शानदार बगीचा और पीछे आंगन के आसपास सब्जियाँ लगाईं। हम बड़े-बड़े पक्के फर्श वाले कमरों में मजे से रहने लगे। विजय भाई अमेरिकन पीस कोर में अपने साथियों के साथ जंगलों में कैंप लगाए हुए थे। रमेश भाई ने कुछ मुर्गियाँ भी पाल लीं और उनके लिए पिछवाड़े आंगन से थोड़ा अलग हटकर दड़बे बना लिए।
बंगला चूंकि टीलेनुमा जगह पर था और चारों और फूल, सब्जियों की गझिन हरियाली... सो जब भी हवा चलती एक मादक सिंफनी कानों में बजने लगती। दूर-दूर तक फैले दरख़्तों की टहनियाँ मानो एक दूसरे की बाहों में समाने को आतुर लगतीं। अंधेरी रातों में घनघोर बारिश की आवाजे हवा के संग डरावनी हो उठतीं। नजदीक ही तालाब था। मेंढकों की, झींगुरों की और पता नहीं किन बेनाम जीव जंतुओं की आवाजें रहस्य का जाल बुनती-सी लगतीं। बारिश के थमते ही उमस घेर लेती। शाम को अगर आसमान साफ होता तो मैं बरामदे के बाहर लॉन में जा बैठती... या तो कोई किताब को पढ़ने के नशे में डूबी या ट्रांजिस्टर पर धीमा-धीमा गीत सुनती। उस दिन साँझ फूली थी। पीला उजास माहौल को अपनी गिरफ्त में लिए था। मैं लॉन में बैठी ट्रांजिस्टर पर आ रहे गीत "तन डोले मेरा मन डोले मेरे दिल का गया करार रे" बीन की आवाज लॉन की घास को हौले-हौले सरसरा रही थी। लेकिन वह केवल घास की सरसराहट नहीं बल्कि साँप की भी थी। मैंने देखा दो साँप एक दूसरे में गुत्थमगुत्था हुए पूँछ के बल खड़े बीन की आवाज पर डोल रहे हैं। मैं विस्फारित आँखों और तालू से चिपकी जुबान से जहाँ के तहाँ जड़ हो गई। सिर्फ इतना कह पाई-"भाई साँप।" मेरी पुकार पर घर के लोग बरामदे में इकट्ठा हो गए। कुछ अडोस पड़ोस से भी आ गए। कोई कह रहा था "बड़ा शुभ है साँप के जोड़े का दर्शन होना।" किसी ने कहा"लाल कपड़े में सिक्का बाँधकर उस पर डाल दो। रुपया छप्पर फाड़ कर बरसेगा।"
घर में लाल कपड़े की तलाश शुरू हो गई। लेकिन जब तक लाल कपड़ा मिलता, सिक्का उसमें बंधता, सांप अदृश्य ...उसके बाद वह दोनों साँप कभी नहीं दिखे। लेकिन मेरा लॉन पर बैठना हमेशा के लिए बंद हो गया।
अक्सर इस तरह की घटनाएँ दिल में डर भय और सहमापन पैदा कर देती हैं पर मैंने पाया कि मैं निडर, साहसी और हौसलों के साथ जीने वाली हो गई। यह सही है कि यह घटनाएँ मेरे दिल के साथ गाहे-बगाहे लिपटी चली आती हैं पर मेरी कलम ने हमेशा मुझे आगे और आगे बढ़ने का हौसला दिया। मेरी सोच के दरमियान हमेशा लेखन आ जाता है फिर चाहे वह मेरे भावों का, मनःस्थिति का जखीरा हो या प्रेम का जुनून या सपनों की तामीर। जिंदगी का हवाला बिना लिखे कहाँ संभव है। मेरी इसी खदबदाहट ने मुझसे "दबे पांव प्यार" उपन्यास लिखवाया। कच्ची उम्र की भावुकता भरी कोशिश थी वह जिसने मेरी संवेदनाओं के तंत्र को बेचैन कर दिया था। मैं उन दिनों धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता पढ़ रही थी और हमारे घर दमोह से वरिष्ठ लेखक मनोहर काजल जी आए थे जिनके संग एक अच्छी साहित्यिक शाम गुनाहों का देवता पर चर्चा करते हुए गुजरी थी। दबे पांव प्यार एक प्रेम कथा है जिसने बेहद संजीदगी से जन्म लिया और मेरी सारी संवेदना को अपने में उँडेल लिया। चूंकि उपन्यास का लेखन काल मेरी कम उम्र और अपरिपक्व सोच का था लेकिन उसका धरातल ठोस था। मेरी फुफेरी बहन आशा जीजी के जीवन का अधूरापन मुझे कौंच गया था। बैरिस्टर पिता की अकेली बेटी समृद्धि उनके कदम चूम रही थी। जबलपुर में नेपियर टाउन में उनकी आलीशान कोठी शहर की पहचान थी। उनसे मैं उम्र में बेहद छोटी, इतना याद है कि उनकी शादी इलाहाबाद में हुई और शादी के 2 साल बाद वे हमेशा के लिए मायके भेज दी गईं। वे सुरीले गले की मलिका जो रेडियो सिंगर के रूप में जानी जाती थीं, संगीत में ही उन्होंने पीएचडी की। सितार, तबला, तानपुरा बजाने में सिद्धहस्त। ससुराल से लौटते ही उनकी आवाज जाने कहाँ गुम हो गई। चार पांच साल गुजर गए जब मैं दसवीं क्लास में थी, स्कूल से छूटते ही उनके घर पहुँच जाती। उनकी खूबसूरत देह पिंजर में बदल चुकी थी। बैरिस्टरनी बुआ उनकी सेवा में कोई कोर कसर नहीं रखती थीं। घर नौकर चाकरों से भरा। वे सबकी लाडली पर... मैं उनके मुट्ठी भर रह गए बालों में मालिश करती, सहलाती... उनकी आँखे सुख से मुंद जातीं।
उस शाम घनघोर बारिश हुई। मैं उन्हीं के पास थी। उन्होंने कहा-"घबराओ नहीं, तुम्हें गाड़ी से घर भिजवा देंगे। सुनो किमी, वक्त बहुत कम है मेरे पास और कहने को बहुत कुछ।"
"हाँ, कहिए न जीजी। काश मैं कुछ कर पाऊँ आपके लिए।"
"करोगी तुम्ही करोगी मेरे लिए। तुम्हारे हाथ में कलम है। लिखना मेरी अभिशप्त गाथा। लिखना कि किसी से प्रेम किया था मैंने जिसकी सजा मैंने जीवन भर पाई क्योंकि मेरा प्रेमी ऊंची जाति और समृद्ध घराने का नहीं था इसलिए उसे मेरे लायक नहीं समझा गया। और बिना मेरी मर्जी के मेरी शादी अयोग्य व्यक्ति से कर दी गई। फिर मेरे प्रेम पत्रों को मेरे तथाकथित पति ने मेरी अलमारी से चुरा कर पढ़ा और शुरू हुआ मेरी प्रताड़ना का नया अध्याय। मुझे सिंदूर खिलाकर मेरी आवाज हमेशा के लिए दबा दी। अब तो गले से सरगम का स भी नहीं निकलता। आहिस्ता-आहिस्ता गलने को तैयार करके ससुराल वाले हमेशा के लिए यहाँ छोड़ गए। अब मैं हूँ और मेरी अभिशप्त काया जो सिंदूर में मिले पारे से धीरे-धीरे गल रही है।"
और वे खामोशी से आँसू बहाने लगीं।
मेरे लिए कुछ भी कहना कठिन था। मैं देख रही थी प्यार करने का अंजाम। या शायद ऐसी शक्ति जो हर हादसे को अपने में जज्ब कर लेती है और प्यार के जज्बे को कायम रखती है। प्यार वह जज्बा है जो चट्टान की छाती चीरकर दूध के झरने बहाने की ताब रखता है और जिसे देखकर बेचैन कलियाँ अपने मासूम होंठ खोल देती हैं और फूल भँवरे से जख्मी हो तितलिओं को अपने जख्म दिखाने की होड़ में अपनी मखमली पंखुड़ियों पर उनका नर्तन देखता है।
"आप हार क्यों गईं जीजी? विरोध क्यों नहीं किया?"
उन्होंने चकित हो मेरी ओर देखा। "विरोध? किससे करती? क्यों करती? माँ पापा को समाज के आगे लज्जित करती? फिर क्या मैं खुद को माफ़ कर पाती? नहीं, अपने सुख के लिए मैं ऐसा नहीं कर सकती थी।"
मन हुआ उनके चरण छू लूँ। वे अकड़े हुए घुटनों को ढके तिरछी लेटी थीं। प्यार की ऐसी परिभाषा मैं पहली बार पढ़ रही थी। पहली बार मैंने जाना कि जो मजा देने में है वह लेने में नहीं।
एक धृष्टता "नाम क्या है उनका, कहाँ हैं वे।"
"मालूम था पूछोगी जरूर। पापा तो अब रहे नहीं। होते तो शायद सुशील पटेरिया को यहाँ आने की आजादी नहीं मिलती। बैरिस्टर होने के बावजूद उन्होंने मेरे ससुराल वालों पर मुझे प्रताड़ित करने, स्लो प्वाइजन देने का कोई केस दायर नहीं किया। माँ ने अब सुशील को स्वीकार कर लिया है। रोज आता है रात 9 बजे और 10 बजे चला जाता है। इसी कुर्सी पर बैठता है मेरे प्यार का देवता। मुझे पता है मैं उसी की गोद में सिर रखकर अंतिम सांस लूंगी। पूरे दस साल बिस्तर भोगकर जब उन्होंने अंतिम सांस ली तो..." ईश्वर तू कहीं तो है, वरना प्यार करने वाले दिल तुझ पर कैसे भरोसा करते? अपनी गोद से उनका मृत सिर सीधा कर उनके प्यार का देवता पलंग की पाटी पर सिर पटक-पटक कर रोया।
आशा जीजी के दुख से बिंधी मैं सालों साल डिस्टर्ब रही और मेरे उसी डिस्टर्ब नेस का नतीजा है मेरा उपन्यास"दबे पांव प्यार" रात 3 बजे तक लिखती मैं कि जैसे आशा जीजी सामने आकर बैठ जातीं-"लिखो, खुलकर लिखो कुछ भी छुपाना नहीं, दुनिया भी तो जाने कि प्यार करने वाले दिलों का क्या हश्र होता है।"
मर गई दबे पांव प्यार की नायिका मीनल। जीते जी पत्थर हो गया उसे प्यार करने वाला प्रकाश। वह हिस्सा-हिस्सा मरती मीनल से चीख-चीख कर कह रहा है " मत जाओ मेरी मीन, हम नया संसार बसाएंगे। अब मुझे किसी की परवाह नहीं। अब मेरा आदर्श मुझे छल नहीं सकता। किसी की भी वेदना मुझे छल नहीं सकती। जिस मुंह से तुम्हारे आगे बरसों पहले मैंने आदर्श बखाने थे उन्हें तोड़कर तुमसे कहता हूँ मैं, सुनोगी? तुम्हें लेकर कहीं दूर चला जाऊंगा। जहाँ थोते आदर्श हमारा पीछा न कर सकें... लेकिन मौत, मौत तो दबे पांव पीछा करती रही मीनल का।
यह उपन्यास भी दबा पड़ा रहा बरसों बरस पाण्डुलिपि के रूप में। फिर अमित प्रकाशन दिल्ली से 2006 में प्रकाशित हुआ और इसे मैंने ज्ञानरंजन जी को समर्पित किया जिन्हें मैं अपने विजय भाई की जगह मानती थी और इस भ्रम में थी कि वह सदा मेरे नजदीक हैं।
मॉस्को पुश्किन अवार्ड के लिए अनिल जनविजय को यह भेजा गया था और बाद में मुझे पता चला था कि मुझे अवार्ड देने के लिए ज्ञानरंजन ने जो शायद उस पुरस्कार के निर्णायक या सलाहकार रहे होंगे मना कर दिया था।
मन के कैनवास पर कितना कुछ खुदा हुआ है, जिनसे चाहकर भी छुटकारा नहीं।