मेरे घर आना जिंदगी / भाग 4 / संतोष श्रीवास्तव्
दुखिया दास कबीर है
30 अप्रैल 1999 बनारस का मणिकर्णिका घाट... मैं छोटी-सी तांबे की लुटिया में एहतियात से सहेजे अम्मा के अस्थिपुष्प गंगा की लहरों में विसर्जित कर रही थी। बचपन से ही वे मुझे अपना बेटा कहती थीं। उनकी इच्छा थी कि मैं ही उन्हें मुखाग्नि दूँ और मैं ही उनकी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित करूँ। कमर-कमर तक पानी में खड़ी मेरे सब्र का बाँध टूट गया था-" अम्मा तुम न कहती थीं कि मैं तुम्हारी बेटी नहीं बेटा हूँ। आज मैंने अपना अंतिम कर्तव्य पूरा किया। लेकिन तुम्हारे जाने से जो गहरा शून्य मेरे अंदर समा गया है उसे भरना तो मुश्किल है न। बनारस की वह सुबह गवाह है मेरे आँसुओं की और मेरे संकल्प की।
वह मधुर मुस्कान से भरा अम्मा का चेहरा। अम्मा मेरी आदर्श थीं। उन जैसी महिला न तो मैंने आज तक देखी और न शायद भविष्य में देख पाऊंगी। लगता है उन्हें बनाकर विधाता का सांचा ही टूट गया वरना उन जैसी एक तो और गढ़ता।
जब वे सोलह साल की थीं तो उनकी शादी माछीवाड़ा के मालगुज़ार बाबू किशन प्रसाद के सबसे बड़े पुत्र गणेश प्रसाद से हुई। कानपुर से माछीवाड़ा (मध्यप्रदेश) तक की लंबी दूरी। ट्रेन बदलनी पड़ती थी। खंडवा जंक्शन पर बारात वेटिंग रूम में दूसरी ट्रेन का इंतजार कर रही थी। अम्मा गज भर घूंघट काढ़े पोटली बनी बैठी थीं। उन दिनों शादी से पहले देखने दिखाने की रस्म तो थी नहीं। बस फोटो दिखा दी जाती थी। जब बाबूजी उनके पास आकर बोले-"चलिए ट्रेन आ चुकी है।" अम्मा ने सिर नीचे किये ही उत्तर दिया-"हम आपके साथ कैसे जा सकते हैं। हम तो आपको जानते तक नहीं।"
बाद में कई दिनों तक इस वाक्य को लेकर घर में हँसी मजाक चलता रहा। अम्मा बेहद खूबसूरत थीं। गोरी चिट्टी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, कमर से नीचे लटकते काले रेशमी बाल... जब वे बाल धोकर सुखाती होतीं तो बड़े चाचा चुपके से पीछे से आकर उनके बालों को स्केल से नापते।
संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी बहू थीं अम्मा। बाबा-दादी, दो चाचा, तीन बुआएँ और बाबूजी के चाचा का परिवार जिन्हें सब कक्का जी कहते। काकी को आँखों से दिखाई नहीं देता था। उनकी बस एक ही संतान थी पुरुषोत्तम चाचा। यह तो मुझे बाद में पता चला कि झुनि बुआ, मुन्नी बुआ उन्हीं की बेटियाँ थीं। पर उस जमाने में संतान केवल बेटे को ही कहा जाता था। अभी भी इस धारणा में कोई खास सुधार तो आया नहीं है। जमीनदारी रुतबे से भरी बाबा की हवेली। कई एकड़ के खेत, चूड़ी और शक्कर के कारखाने, नौकर-चाकर। इतना सब होने के बावजूद भी चौका अम्मा के जिम्मे था। सुबह नहा धोकर पूजा पाठ से फुर्सत हो माथे तक घूंघट किए जो चौके में घुसतीं तो दोपहर दो ढाई बजे ही निकल पातीं। शाम से रात तक फिर वही चक्र। खाना ऐसा लज्जतदार बनातीं कि सब उंगलियाँ चाटते रह जाते। कालीन, चारपाई, दरी, निवाड़ सभी बुन लेती थीं।
बाबा जेलर के पद पर थे। वह जमाना अंग्रेजों का था। जैसे अंग्रेज जेलर होते थे शान शौकत, रुतबेदार वैसे ही बाबा। घर में सिपाही आते जाते रहते थे। दादी बहुत खूबसूरत थीं। राजसी घराने की। उन्होंने कभी न तो अपने हाथ से खाना बनाया न घर गृहस्थी का कोई काम किया। बाबा के साथ दीवान पर बैठकर वे भी हुक्का पीती थीं। हुक्के में हर रोज तमाखू के साथ खुशबू बदली जाती थी। उन्होंने हर तरह की तमाखू हुक्के में पी। हर तरह की विदेशी शराब बाबा के साथ चखी। बाबा के साथ वे क्लब भी जाती थीं। फिर अम्मा को भी ले जाने लगीं। उन्हीं ने अम्मा को घूंघट निकालने को मना किया। लेकिन अम्मा ताउम्र सिर ढकती रहीं।
एक बार क्लब में एक अंग्रेज नौजवान ने उन्हें आई लव यू कह दिया। अम्मा का पारा सातवें आसमान पर। उन्होंने आव देखा न ताव कसकर उसके गाल पर चांटा रसीद कर दिया। क्लब में सन्नाटा छा गया। वे तीर की तरह क्लब से बाहर निकलीं और बग्घी में जाकर बैठ गईं। उस दिन के बाद से उन्होंने हमेशा के लिए क्लब जाना छोड़ दिया। शायद उनके लिए यह मनोरंजन और अय्याशी की दुनिया थी ही नहीं। उन्हें तो नंगे पांव पथरीली राह पर चलना था।
बाबा की मृत्यु के बाद बाबूजी के ऊपर जिम्मेदारियों का बोझ आन पड़ा। बड़ी बुआ की शादी तो बाबा के जीते जी हो चुकी थी पर शांति बुआ, शकू बुआ और दोनों चाचा अभी कुंवारे थे। दोनों की शादी अम्मा के बलबूते निपटी
। वैसे भी बाबूजी दुनियादारी में शून्य थे। उनका मन माछीवाड़ा से उचट गया था। बाद के दिनों में जब मैं बड़ी हुई और कलम ने मेरी भावनाओं को झंझोड़ा तब मैंने बाबूजी को अम्मा का दोषी पाया। साधु स्वभाव के व्यक्ति को शादी नहीं करनी चाहिए थी। वह भी अम्मा जैसी शौकीन लड़की से तो हरगिज़ नहीं। उन्हीं दिनों मैने यह भी जाना कि अम्मा ने बेइंतहा मन मसोसकर खुद को बाबूजी के अनुरूप ढाला। अपना मन समाज सेवा में लगाया। मेरी कहानी"कठघरे के बाहर" का सर्जन भी इन्हीं परिस्थितियों की देन है। "कठघरे के बाहर" जब कोलकाता के अखबार प्रभात खबर में छपी तो उन दिनों वहाँ संपादकीय विभाग में कार्यरत निर्भय दिव्यांश ने मुझे फोन पर बताया कि आपकी छोटी-सी कहानी का प्रूफ पढ़ने में प्रूफ्रीडर को हफ्ता भर लगा। उसके हर पेज को पढ़ते हुए वे रोए हैं और उन्हें बार-बार चश्मा उतारना पड़ा था। आँखें पोछनी पड़ी थीं। यह मेरे लेखन की सबसे बड़ी कामयाबी है। प्रभात खबर से निर्भय लहक के संपादक हो गए और लहक त्रैमासिक पत्रिका में उन्होंने मेरी यह कहानी दोबारा छापी।
बाबूजी ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जिसे वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय कहते थे से संस्कृत में एम ए किया। डॉ राधाकृष्णन के गाईडेंस में दर्शनशास्त्र में पीएचडी की और फिर वकालत पास कर सिविल परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। आज की बीएचयू कही जाने वाली यह यूनिवर्सिटी पूरे विश्व में प्रख्यात थी और इसमें पढ़ने के लिए लोग लालायित रहते थे। इसके संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय स्वयं छात्रों की खोज खबर रखते थे। बाबूजी हॉस्टल में रहते थे। हॉस्टल के सभी विद्यार्थियों से मालवीय जी रात को उनका हालचाल पूछने जाते। अपने हाथों से खुद दूध बांटते। बाबूजी को संस्कृत में दक्षता हासिल करने की धुन सवार हो गयी। उन्होंने सारे वेद उपनिषद घुट्टी बनाकर पी डाले। गीता उनको कंठस्थ थी। दर्शनशास्त्र में उनका सानी नहीं था। सूरज की पहली किरण के धरती को स्पर्श करते ही वे दशाश्वमेध घाट में जाकर स्नान, सूर्य उपासना और योगासन प्राणायाम करते थे।
6 साल की उम्र से ही हम सब भाई बहनों को भी सुबह 4: 00 बजे उठा कर वे योगासन प्राणायाम कराते थे और अपने संग दूध के तबेले तक ले जाते जो घर से 1 किलोमीटर दूर था। दूध लाना प्रातः भ्रमण का बहाना था।
फिर बाबूजी को चित्रकारी की धुन चढ़ी सो मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से चित्रकारी में उन्होंने डिप्लोमा किया। पीएचडी के कॉन्वोकेशन की उनकी तस्वीर उनके हाथों खूबसूरत रंगों से चित्रित की गई। मैं अंत तक समझ नहीं पाई कि वे मार्क्सवादी थे या दर्शनशास्त्री थे या संस्कृत के प्रकांड पंडित या फिर चित्रकार।
पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने दर्शन शास्त्र और मार्क्सवाद की किताबें लिखीं। अपनी लिखी पुस्तक "सरस्वती पूजन द्वारा विश्व शांति" का परचम लहराते मार्क्सवाद में गहरे उतर गए। कार्ल मार्क्स को लेकर उनके मन में कुछ विवाद भी रहे पर वे यह कहने से नहीं चूकते थे कि जीवन की सबसे सही व्याख्या कार्ल मार्क्स ने ही की है। वे कर्मकांड के सख्त विरोधी थे और मतवाद को, संप्रदाय को उथली मानसिकता मानते थे।
माछीवाड़ा से जबलपुर आकर वे वकालत करने लगे और क्रांतिकारी दल में भी शामिल हो गए। अम्मा पूरा घर अपने अकेले के बूते पर संभालती थी। घर की लाइब्रेरी में कानून, राजनीति, इतिहास और मार्क्सवाद की किताबें थीं। अपनी फुर्सत के वक्त अम्मा ये किताबें पढ़तीं और रात में बाबूजी के साथ इन पर चर्चा करतीं। बाबूजी उन्हें क्रांति, आजादी के और राजनीति के गुर सिखाते। दर्शनशास्त्र और साहित्य की किताबें पढ़ने के लिए लाकर देते। किताब पढ़ लेने के बाद बाकायदा उस पर विचार विमर्श होता। चर्चा होती। आज जो किताबों के विमोचन की परंपरा चल पड़ी है अम्मा बाबूजी के बीच बरसों चली।
धीरे धीरे अम्मा का रुझान साहित्य और कला की ओर हुआ। विदुषी तो वे थीं ही।
फिर परिवार बढ़ा। शीला जीजी, विजय भाई, रमेश भाई बीच की मैं। मुझसे छोटी प्रमिला। माँ होने के सुख से लबरेज वे चिड़िया की तरह हमें सेती रही। दाना चुग्गा डाल बड़ा करती रहीं। उधर माछीवाड़ा से बड़े चाचा मिलिट्री ज्वाइन कर बर्मा चले गए। रंगून उनका हेड क्वार्टर था। छुट्टियों में लौटे तो अम्मा की पसंद की लड़की से उनकी शादी खंडवा में हुई। चाची अम्मा की छत्रछाया में घर के तौर तरीके सीखने लगीं। चाचा रंगून से शांति बुआ की शादी में जब आए चाची ने उमंग में भर कर सोलह सिंगार किए। बाल फिल्मी स्टाइल में बनाये लटें घुंघराली बनाकर गालों पर बिखरा लीं। चाचा को यह सब बड़ा नागवार लगा। उठाई ब्लेड और खच-खच कर लटें काट डालीं। खरोंचे गालों पर भी उभर आईं। उसी क्षण अम्मा ने संकल्प लिया कि वे ताउम्र औरतों के लिए, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज उठाएंगी। इस काम में बाबूजी ने उनका भरपूर साथ दिया।
उन्होंने कांग्रेस पार्टी ज्वॉइन कर ली। घर में चरखा आया जिस पर पोनी से सूत काता गया। सूत दान कर दिया जाता। जबलपुर के झंडा आंदोलन में उनकी पहचान सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई। सुभद्रा जी की प्रेरणा से अम्मा सत्याग्रहियों में शामिल होकर सत्याग्रह करने निकलीं और सब तो गिरफ्तार कर लिए गए पर अम्मा सहित कुछ कार्यकर्ता रह गए। वे सब जेल के बाहर बैठे रहे कि हमें भी गिरफ्तार करो। पर जेल भर चुके थे। जगह न थी। बाबूजी की पॉलिसी थी, भीतर ही भीतर अंग्रेजों की जड़ें काटने की। जबकि अम्मा उजागर रूप से मोर्चा तानें थीं। जेल में वे सुभद्रा जी से मिलने जातीं। यह सान्निध्य दोस्ती में बदल गया। जब उन्हें पता चला कि वह खंडवा में लक्ष्मण सिंह चौहान से ब्याही गई हैं तो चाची के मायके के जरिए निकटता और बढ़ गई।
देश की आजादी के साथ ही गांधी जी की हत्या कर दी गई। उस दिन अम्मा ऐसी रोईं थीं जैसे उनका कोई अपना ही संसार छोड़ चला गया हो। गांधी जी की अस्थियाँ देश की हर नदी में विसर्जित की जानी थी। जबलपुर में नर्मदा नदी के तिलवारा घाट में अस्थियाँ विसर्जित करने सुभद्रा जी के नेतृत्व में औरतों का विशाल समूह रघुपति राघव राजा राम गाता हुआ पैदल वहाँ तक गया था जिसमें अम्मा भी शामिल थीं। कितनी बाधाएँ आईं थीं इस पदयात्रा में। अम्मा के मुंह से सुनकर मन क्षोभ से भर जाता था। लेकिन समूह तिलवारा घाट पहुँचा और अस्थि विसर्जन में सम्मिलित हुआ।
अम्मा ने नगरपालिका का चुनाव 1960 में जीता था और उसी वर्ष वे शहर की मेयर भी चुनी गई। जबलपुर में सांप्रदायिक दंगों की वजह बने उषा भार्गव कांड की पूरी रिपोर्ट लेकर वे नेहरू जी के पास गईं और मुख्यमंत्री (मध्यप्रदेश) द्वारका प्रसाद मिश्र के साथ मिलकर इस कांड को तह तक पहुँचाने में खासी मदद की। वैसे भी जबलपुर में चाहे जब सांप्रदायिक दंगे भड़क उठते थे। होली, दशहरे और मोहर्रम पर धारा 144 लगा दी जाती ताकि कोई फसाद न हो। ऐसे में अम्मा ने अपने परिवार की सुरक्षा का मंत्र सीख लिया था। वे घर के हर कोने में लाठी रखती थीं और उन्होंने बंदूक चलाना भी सीखा था। सतर्क तो वे सिविल लाइंस में घटी वारदात के दिनों से ही थीं।
जब हम सिविल लाइंस के अंग्रेजों के जमाने के विशाल बंगले में रहते थे। उस समय एक बार शायद 1961 में सांप्रदायिक दंगों की भीषण चपेट में जबलपुर को सुलगते देखा था। मैं स्कूल में पढ़ती थी। बंगले का एक पोर्शन हमें मिला था दूसरे पोर्शन में एक रिटायर्ड अंग्रेज दंपति रहते थे जो आजादी के बाद इंग्लैंड वापस नहीं गए थे। उनका रसोईया कल्लू अम्मा से तरह-तरह की सब्जियाँ बनाना सीख रहा था और अंग्रेज दंपति अम्मा के हाथों बनी सब्जियों के दीवाने हो गए थे। बहुत बड़े हरे भरे कंपाउंड के बीचो-बीच बंगला था। कंपाउंड में जामुन, आम, इमली, करौंदा, नीम के पेड़ लगे थे। जामुन के पेड़ से बिच्छू टपकते थे। आम के पेड़ पर झूला डाल हम लोग झूला झूलते और नीम के पेड़ पर तोते मंडराते। सिविल लाइंस में ज्यादातर ईसाइयों के मकान, कान्वेंट स्कूल और एक गिरजाघर भी था। सरेशाम सन्नाटा घिर आता वहाँ... बंगले के सामने ही हाईकोर्ट की बिल्डिंग बन रही थी। नीवें खुदी पड़ी थीं और दंगे छिड गए थे। उस रात हम डिनर लेकर बिस्तरों में पहुँचे ही थे कि अचानक अम्मा, अम्मा की आवाज सुनाई दी। जैसे रमेश भाई अम्मा को पुकार रहे हों। अम्मा घबरा गईं। विजय भाई, बाबूजी टॉर्च लेकर कमरे के दरवाजे तक आए तो रमेश भाई को बिस्तर पर सोते देखा और तभी विजय भाई की टॉर्च की रोशनी नीव में से कूदकर भागते दंगाइयों पर पड़ी। कल्लू ने तब तक पुलिस को बुला लिया था। पता चला शाम से ही दंगाई नीव में छुपे रात होने का इंतजार कर रहे थे। उनमें से एक दंगाई पकड़ा गया। बाकी भाग गए। वे अंग्रेज दंपति के कत्ल के इरादे से वहाँ आए थे। दहशत में सारी रात गुजरी। बाबूजी ने पुलिस सुरक्षा तो बंगले में करवा ली थी लेकिन जब तक दंगे शाँत नहीं हो गए हमारी जान सांसत में रही।
अम्मा ने कांग्रेस द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज ज्वाइन कर लिया था और वे उसकी कर्मठ सदस्य थीं। वे कैंप लेकर पूरे देश में जाती थीं। कैंपों में ओपन फायरिंग में भी भाग लेती थीं। जब वे कैंपों में जातीं तो मेरा और प्रमिला का बुरा हाल हो जाता। वे तंगहाली के दिन थे इसलिए अम्मा का जाना अखरता नहीं था। उन्हें कैंप आदि लगाने के, वर्कशॉप करने के जो थोड़े बहुत रुपए मिलते वह घर में काम आते। अम्मा जब कैंप लेकर जाती थीं बाबूजी को खाना बनाना पड़ता था और हम दोनों ऊपर से कंघी करके स्कूल चले जाते थे। न चोटियाँ खुलती थीं न अंदर से बाल सुलझते थे। अम्मा जब लौटतीं तभी हमारे बालों का घोंसला सुलझता।
अम्मा ने हमेशा विदेशी रहन-सहन की वस्तुओं का बहिष्कार किया और सारी जिंदगी खादी की सफेद साड़ी पहनी जिसकी किनारी और पल्लू रंगीन होता था। कभी कोई जेवर नहीं पहना। सिवा बिछुए और कांच की चूड़ियों के। माथे पर की उनकी सिंदूर की लाल बिंदी उनके व्यक्तित्व की पहचान थी।
कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे कभी विचलित नहीं हुईं। उनकी प्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान का नागपुर से जबलपुर लौटते हुए कार दुर्घटना में 1948 में निधन हो गया। कार बड़े भैया यानी उनके बेटे अजय चौहान चला रहे थे। सड़क पर जा रही मुर्गियों को बचाते हुए उनकी कार पेड़ से टकरा गई। बड़े भैया तो बच गए पर सुभद्रा जी वहीं चल बसीं।
स्कूल के दिनों में जब "यह कदम का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे" कविता याद करती थी तो अम्मा कहती थी-"एक बड़ा शून्य पैदा हो गया है साहित्य में सुभद्रा जी के जाने से।" दोनों के इस सख्य भाव को बड़े होकर दोनों खानदानों के बच्चों ने निभाया। अब तो सब कुछ खत्म हो गया। जबलपुर ही छूट गया। न उनके परिवार में कोई बचा न हमारे। जिंदगी पानी का बुलबुला ही तो है। जब तक है किरनें उसे सतरंगी किए हैं। फूटा तो अस्तित्व तक नहीं।
लेकिन यादें ऐसी कब्जा जमाए हैं कि छुटकारा पाना मुश्किल। अम्मा याद आती हैं। चलचित्र-सा सब कुछ प्रत्यक्ष गुजरने लगता है। कुछ अपनी आँखों देखा, समझा। कुछ अम्मा के मुंह से सुना समझा।
मुझे और प्रमिला को वे खुरचन कहतीं। दो बेटों और एक बेटी का आदर्श परिवार था हमारा कि टपक पड़ी ये दोनो। " कहते हुए खुश भी खूब होतीं।
"अब रमेश के 8 साल बाद आई है तो बस लड़की बनकर मत रह जाना। कुछ कर दिखाना। बेटा है तू मेरी।"
मुझे बेटा कहतीं और प्रमिला को अम्मा।
"यह तो मेरी अम्मा है, अगले जन्म में मैं इसकी बेटी बनकर पैदा होउँगी।" लड़कियों को वे भाग्य मानती थीं। कभी घर में कोई भेदभाव नहीं रखा उन्होंने लड़की लड़के में। शायद यही वजह थी कि वह महिला अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। ऐसी बहुत-सी एन जी ओ संस्थाएँ थीं जो महिलाओं के लिए कार्य कर रही थीं लेकिन आदिवासी महिलाओं के लिए कोई संस्था आगे नहीं आई। अम्मा ने 1969 में आदिवासी महिलाओं के लिए महिला संगठन की शुरुआत कर विभिन्न उद्देश्यों पर काम करना शुरू किया। साक्षर बनाना, बेसिक शिक्षा देना, उनके कानूनी एवं सामाजिक अधिकारों के प्रति उन्हें जागरूक करना जैसे उद्देश्यों को लेकर वे आगे बढ़ीं। मध्यप्रदेश के अंचल में बसे गोंड़, बैगा, भील आदिवासियों के फौजदारी के मुकदमे बाबूजी के पास आते थे। जिनसे उस समाज की बहुत कुछ जानकारी हासिल होती थी कि आदिवासी महिलाएँ भी पितृसत्ता में जकड़ी हैं। औरतों का कोई खास महत्त्व नहीं है। जबकि उनकी तमाम कामों खेती, गुड़ाई, कटाई, झोपड़े बनाना, खेती की उपज मंडला, बालाघाट आदि शहरों के साप्ताहिक हाट बाज़ार में जाकर बेचना आदि कामों में पुरुषों के साथ बराबर की भागीदार थी। फिर भी उन्हें समानता, स्वायत्तता और संसाधनों में अधिकार नहीं मिलता था। इसके अलावा हाट बाज़ार में उन्हें मात्र इस अपराध पर नीलामी पर चढ़ा दिया जाता था कि उन्होंने अपनी मर्जी से शादी की है। उन्हें खेतों की मेड़ों पर निर्वस्त्र घुमाया जाता। क्योंकि उस साल सूखा पड़ा है और इंद्र भगवान इसी से तो प्रसन्न होंगे। उन्हें डायन, बिसाही जैसे शब्दों से नवाजा जाता और पत्थर, लोहे की छड़ों से पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी जाती। ऐसे तमाम मुकदमों की मूक गवाह अम्मा उतर पड़ीं आदिवासी समाज में। अम्मा ने संगठन के सदस्यों को लेकर सतपुड़ा की तराई और राई घाटी में बसे आदिवासी बहुल इलाकों का तूफानी दौरा किया और कड़े परिश्रम, कानूनी दांवपेच से उन्हें उनके अधिकार दिलाए। लोगों ने दाँतों तले उंगली दबा ली जब उन्होंने देखा कि कुछ दबंग आदिवासी औरतें अम्मा के संगठन से आ जुड़ी हैं और वे संगठन की सदस्य हैं। धीरे-धीरे आदिवासी समाज में औरतों की स्थिति मजबूत होती गई। उन्हें बहुत हद तक डायन की त्रासदी से छुटकारा मिला क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि डायन कहकर उन्हें नीचा दिखाने वालों की मंशा उनकी संपत्ति हड़पना, बलात्कार और यौन शोषण ही सिद्ध करती है। हमारे घर के पिछवाड़े का बरामदा जहाँ हम सर्दियों में धूप तापते थे अम्मा के संगठन का ऑफिस बन चुका था। जहाँ दूर-दूर से आदिवासी औरतें अपनी फरियाद लेकर आती थीं।
इधर घर में भी एक चिंगारी धीरे-धीरे सुलग रही थी और जिसने हमारे परिवार की चूलें हिला कर रख दी थीं। यूँ तो समय मंथर गति से जा रहा था। सभी बुआओं, चाचाओं की शादियाँ अम्मा बाबूजी ने पूरी जिम्मेदारी से निपटा दी थीं। छोटे चाचा सिवनी में पुलिस ऑफिसर थे। दादी उन्हीं के पास रहती थीं। माछीवाड़े की जायदाद की देखभाल छोटे चाचा करते थे। क्योंकि बड़े चाचा बाबूजी के चरण चिन्हों पर चलने वाले, उन्हें भी संपत्ति से लगाव न था। उनकी पोस्टिंग अब रायपुर में ही हो गई थी। लिहाजा घर के सन्नाटे में जीजी का ऐसा प्रेम पनप रहा था जिसने परिवार का चैन छीन लिया था। उन्हें ननिहाल की तरफ के रिश्ते के लड़के से प्रेम हो गया था। जिस दिन इस प्रेम का अंतिम अध्याय खुला बाबूजी सदमे की हालत से गुजर रहे थे। जीजी ने आत्महत्या करने की कोशिश की थी और अम्मा स्तब्ध लेकिन मामले का हल खोजने की कोशिश में थीं। जीजी की जिद के आगे अम्मा को घुटने टेकने पड़े। उस जमाने में यह एक क्रांतिकारी कदम था। हमारे खानदान में आज तक किसी ने प्रेम विवाह नहीं किया था। विवाह तो हो गया था पर इस अप्रत्याशित घटना से बाबूजी बीमार पड़ गए। उन्हें विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती किया गया। विजय भाई तब नवभारत प्रेस में समाचार संपादक थे। उनके लेखक, पत्रकार दोस्त बारी-बारी से अस्पताल की भाग दौड़ में साथ देते थे। महीने भर अस्पताल में रहकर बाबूजी घर लौटे। बीच में कुछ दिनों के लिए रमेश भाई मिर्जापुर से आकर देख गए। मिर्जापुर के पास रेणुकूट में वे नायलॉन फैक्ट्री में एम्प्लॉई थे। दो महीने अच्छे रहकर बाबूजी फिर बीमार पड़ गए लेकिन अब की बार उन्होंने अच्छा होने में साल भर लगा दिया। अम्मा ने अपने तमाम सामाजिक कामों को तिलांजलि दे घर का मोर्चा संभाल लिया था। घर का आर्थिक ढांचा भी डगमगा गया था। लेकिन अम्मा ने बखूबी इसे संभाला और किसी को एहसास न होने दिया कि घर कितनी आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। बाबू जी का हालचाल पूछने वकीलों, पत्रकारों, लेखकों का तांता लगा रहता। खूब साहित्यिक चर्चाएँ होतीं। अम्मा विभाजन के रोंगटे खड़े कर देने वाले किस्से सुनातीं। वे साहित्य में गहरा दखल रखती थीं। कृशनचंदर, अज्ञेय, यशपाल, निर्मल वर्मा के संग-संग उन्हें मर्लिन मुनरो में भी गहरी दिलचस्पी थी। धर्मयुग, सारिका, हंस (तब इलाहबाद से प्रकाशित होती थी) ज्ञानोदय (कोलकाता से) उनकी रुचि की पत्रिकाएँ थीं। इन पत्रिकाओं में जो रचना उन्हें अच्छी लगती उसे वे बाबूजी को भी पढ़ने को देतीं। वे बाबूजी की विद्वत्ता की कायल थीं। बाबूजी भी उन्हें विदुषी मानते थे। शायद इसीलिए बाबूजी ने उन्हें अपना कानूनी सलाहकार घोषित किया था।
धीरे-धीरे समय ने एक बड़ी करवट ली। रमेश भाई की शादी तय हो गई। बाबूजी की वकालत भी उनकी लंबी बीमारी की वजह से आर्थिक संकट से गुजरने लगी। इधर हम सबकी महंगी पढ़ाई, शादियाँ सभी वजहों के कारण घर में तंगहाली ने कदम रख दिया था। बाबा की जायदाद से अम्मा बाबूजी ने कभी एक पैसा भी नहीं लिया था। न बेटे की शादी में दहेज ही लिया।
यह उनके उसूलों के खिलाफ था।
सिविल लाइंस के बंगले से हम रतन नगर कॉलोनी के छोटे से घर में आ गए। तब भी अम्मा ने बाबूजी का भरपूर साथ दिया न उनके चेहरे पर अमीरी से गरीबी में आने का दुख दिखाई दिया न वे विचलित हुईं। हंसमुख चेहरा उनके व्यक्तित्व की पहचान था। उनके अंदर असीम आनंद भरा था जिसे वे दूसरों को बांटती चलती थी। मैंने उन्हें प्रकृति से बात करते उसी आनंद के चरम क्षणों में देखा है। बारिश के दिनों में यदि शाम को आसमान पर घनघोर बादल छा जाते तो वे उलाहना देतीं।
"यह क्या एन वर्मा जी के कचहरी से लौटने के वक्त तुम मुँह उठाए चले आ रहे हो। कहे देती हूँ अभी न बरसना।" उन्हें मोगरे के फूलों से विशेष लगाव था। घर की बगिया में क्यारी भर मोगरे के पौधे लगे थे। वे उनकी कलियाँ हाथ से सहलातीं"देखो खिल जाना, मुरझा के झड़ मत जाना। वरना मैं पूजा में क्या चढ़ाऊँगी।"
आंगन में खूब बड़ा नीम का झाड़ था। पकी कच्ची निंबोलिओं को खाने तोते डालियों पर फुदकते रहते। अम्मा सुबह अपने लिए चाय बना आंगन में बैठकर तोतों से बतियातीं। अक्सर वे लोकगीत गातीं। मीठी मधुर, सुरीली उनकी आवाज हमारी नींद के आखिरी चरण को ऐसा संगीतमय बना देती कि दिन भर आलस्य का नामोनिशान नहीं रहता। नहाते हुए पानी का नल अक्सर खरखराता तो कहतीं-"तुम क्या हमारे जेठ ससुर हो जो खखारते चले आ रहे हो?"
उनकी इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें परिवार, पड़ोस और समाज में लोकप्रिय बना दिया था।
विरक्ति के बावजूद बाबूजी के स्वभाव में फकीरी के साथ अमीरी भी थी। गीता के सिद्धांत पर चलने वाले बाबू जी कर्म करते फल की चिंता नहीं करते थे। भविष्य कभी सोचा नहीं। हमेशा आज को जिया और भरपूर जिया। हाईकोर्ट में बाररूम में उनके द्वारा दी दावतें सभी की पसंदीदा थीं। बिना चेहरे पर शिकन लाए अम्मा बड़े-बड़े कटोरदानों में दही बड़े, गुझिया, कांजी के बड़े, मालपुए अपने हाथों से बना कर भिजवातीं।
अम्मा का चौका अन्नपूर्णा का भंडार था। विजय भाई के मित्र चाहे जब आ कर सीधे अम्मा के चौके में पीढ़ा बिछाकर बैठ जाते। फिर क्या था परांठे, रोटी, अचार, सब्जी जो भी मौजूद होता सब उनकी थालियों में। अम्मा आम, कटहल, आंवला, मिर्च, सूरन (जिमीकंद) के साल भर के लिए अचार डालतीं पर साल भर तो क्या कुछ ही महीने चल जाए तो बहुत समझिए।
तारीफ ये कि अम्मा का अन्नपूर्णा का भंडार खाली है या भरा, इससे बाबूजी को कभी मतलब नहीं रहा। उन्हें पता था उनके घर से कभी कोई भूखा नहीं लौटेगा।
क्योंकि बाबूजी कर्मकांड के सख्त विरोधी थे अतः उनके निधन के बाद किसी भी प्रकार का कर्मकांड नहीं कराया गया। उनके अस्थिपुष्प भी मुंबई में समंदर में विसर्जित कर दिए गए और तेरहवें दिन किसी भी प्रकार का ब्राह्मण भोज न कराकर झुग्गी झोपड़ियों में उनके नाम से रुपया, भोजन बांटा गया। उनका निधन मुंबई में 19 मार्च 1978 को विजय भाई के घर दिल का दौरा पड़ने से हुआ था। सांताक्रुज में छठवें फ्लोर पर विजय भाई रहते थे। मुंबई में ऊंची-ऊंची इमारतों के नजदीक झोपड़पट्टी होती है। अम्मा ने बालकनी से इन झोंपड़ों की ओर ढेर सारी चिल्लर लुटाई थी। बाबूजी की अंतिम इच्छा पूरी करते हुए उनके चेहरे पर दिव्य आलोक था। उन्होंने विजय भाई से कहा था-"अब तुम शादी कर लो, नहीं तो तुम्हारे बाबू जी की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।"
विजय भाई सहित सब फूट-फूटकर रो पड़े थे।
करीब चार पीढ़ियों से हमारा खानदान शापित था कि बड़े बेटे के पुत्र को बाबा नहीं देख पाएंगे। विजय भाई के अविवाहित रहने की यही वजह हमें पता थी।
बाबूजी के निधन के बाद अम्मा ने पूरी गृहस्थी और तमाम कार्यों को तिलांजलि दे आगरे में दयालबाग में भेंट क्वार्टर में रहते हुए खुद को प्रभु चरणों में अर्पित कर दिया। एक औरत के लिए कितना जानलेवा होता है गृहस्थी उजाड़ना। जबकि उसे गृहस्थी की हर वस्तु से प्रगाढ़ लगाव होता है। मेरा ननिहाल राधा स्वामी संप्रदाय का था लेकिन बाबूजी सनातनी। लिहाज़ा वे बाबूजी के साथ वैवाहिक जीवन गुजार कर परिवार के प्रति अपने सभी कर्तव्यों का पालन कर अपने जन्म सूत्र से फिर बंध गई।
दयालबाग अपने आप में एक पूरा का पूरा शहर है। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, छात्रावास, खेत, खलिहान, फलों के बगीचे, कारखाने, शोरूम, मेडिकल स्टोर, भंडार घर जहाँ सत्संगी काम करते हैं और वह सेवा कहलाती है। फिर उनकी उम्र चाहे जो हो। सेवा गुरु के आदेश से मिलती है। अम्मा को गुरु का आदेश मिला कि वह अंकुरित मूंग, चना के पैकेट सिर्फ लागत मूल्य में बेचें। सत्संग की समाप्ति पर यह पैकेट हाथों-हाथ बिक जाते। उनका भेंट क्वार्टर कार्यवीर नगर में था जो उनकी मृत्यु के बाद सतगुरु को भेंट हो जाना था।
बसन्त के भंडारे में मैं अम्मा के पास थी। भंडारे के दौरान दयालबाग को दुल्हन की तरह सजाते हैं और विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। पूरा दयालबाग पीले फूलों से सजा था। छात्रावास की लड़कियों ने एक नाटक खेला था जिसमें अपने घर के लिए भटकती आत्मा की तड़प बताई थी और यही वजह थी कि भेंट क्वार्टर की परंपरा चली ताकि आत्मा भटके न, सदगुरु में समा जाए। उन्हीं दिनों मैंने दयालबाग पर एक कहानी लिखी थी "मिजराब" जो धर्मयुग में छपी थी। खूब चर्चित हुई थी कहानी। दयालबाग में भी चर्चित हुई और मुझे गुरु पुत्री सुखिया बहन जी ने अपने घर रात्रि भोज पर बुलाया और सम्मानित भी किया। अम्मा के लिए यह किसी वरदान से कम न था।
पहले हवेली फिर बंगला फिर छोटा-सा घर और अब भेंट क्वार्टर। हवेली और बंगले में एंटीक कहा जाने वाला फर्नीचर, क्रॉकरी, बर्तन भांडे अब एक खाट गद्दा और चार बर्तन धन्य है अम्मा का सफर। उनके बैठने के लिए कुर्सी बहुत बाद में आई।
वे सतगुरु के रंग में रंग चुकी थीं।
तन मन धन सब गुरु पर वारत / प्रेम रंग की भर लई झोरी / प्रेम रंग में मेरी चुनर रँगेगी / यह सत्संग मैंने अनोखा है पाया॥
मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि समाज सेवा करता उनका दबंग व्यक्तित्व एक दिन विरक्ति की इस हद तक पहुँचेगा। बाबूजी की मृत्यु के बाद भी 21 साल तक रहीं वे और 80 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा। उन्होंने कभी अस्पताल का मुंह नहीं देखा, कभी बिस्तर नहीं भोगा। अंतिम समय तक भी सारे काम अपने हाथ से ही करती रहीं।
18 अप्रैल 1999 के दिन सुबह सत्संग हॉल से लौटते हुए शाम को होने वाले भंडारे के लिए गुलाबजामुन का प्रसाद खरीद कर वे घर लौटीं। चाय पीते हुए सब्जी काटी और नहाने चली गईं। नहाते हुए ही उन्हें सीने में दर्द हुआ और 10 मिनट में ही सब कुछ खत्म हो गया। नहीं पहुँच पाई थी मैं तुरंत। अंतिम दर्शन नहीं मिले मुझे उनके। विजय भाई के जाने के बाद मैंने अम्मा की जिम्मेदारी उठाई थी। वह कहती थीं न, "तू तो मेरा बेटा है।" राधास्वामी मतानुसार अस्थिपुष्प बिना पानी के सूखे कुएँ में विसर्जित किए जाते हैं। वह मैंने अपने हाथों से विसर्जित किए। चुने भी मैंने ही थे उनके समाधि स्थल से। साथ में रमेश भाई और प्रमिला भी थीं। थोड़े फूल मैंने एक छोटी लुटिया में रख लिए। बाबूजी के निधन पर उनके अस्थिपुष्प भी थोड़े बचा कर रख लिए थे जिन्हें 21 वर्षों तक अम्मा ने अपने साथ रखा। उनकी इच्छा थी कि बाबूजी और उनके अस्थिपुष्प साथ में मिलाकर थोड़े नर्मदा और थोड़े गंगा में विसर्जित किए जाएँ। मुझे ऋग्वेद का एक श्लोक याद आ रहा है...
सयुजा सखाया द्वा सुपर्णा।
समानं वृक्षं परिषस्वजाते॥
तयोः अन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति।
अन्यः तु अनश्नन् अभिचाकशीति॥
सचमुच अम्मा बाबूजी सयुजा सखाया ही थे जो जीवन रूपी वृक्ष की डाल पर हमेशा संग-संग रहे मित्रवत।