मेरे घर आना जिंदगी / भाग 5 / संतोष श्रीवास्तव्
गहरे पानी पैठ
उम्र की बही पर सोलहवें साल ने अंगूठा लगाया। वह उम्र थी बसन्त को जीने की, तारों को मुट्ठी में कैद कर लेने की और बांह पसार कर आकाश को नापने की। इधर मेरी हमउम्र लड़कियाँ इश्क के चर्चे करतीं, सिल्क, शिफान, किमखाब, गरारे, शरारे में डूबी रहतीं। मेहंदी रचातीं। फिल्मी गाने गुनगुनातीं। दुल्हन बनने के ख्वाब देखतीं। तकिए के गिलाफ पर बेल बूटे काढ़तीं। मैं कभी अपने को इन सब में नहीं पाती। मेरे अंदर एक ख़ौलता दरिया था जिसका उबाल मुझे चैन नहीं लेने देता। दिन में आँखों के सामने कोर्स की किताबें होतीं... रात दो-दो बजे तक कागज कलम थामे मैं दुनिया जहान को टटोलने की कोशिश शब्दों के जरिए करती। शब्द बड़े बेकाबू थे। कब अपनी मर्जी के अर्थ गढ़ लेते पता ही नहीं चलता। मैं उन अर्थों में ऐसी डूबती कि किनारा मिलना दुश्वार हो जाता। पर मेरी अपनी जिद्द। हार क्यों मानूं? हारना शब्द तो मेरे शब्दकोश में है ही नहीं। यह कच्ची उम्र के दिन जरूर थे पर इन्हीं दिनों ने मेरे अंदर झूठी मान्यताओं की, परंपराओं अंधविश्वासों के खिलाफ खड़े होने की जिद्द पैदा की। इन्हीं दिनों ने मुझे यह सिखाया कि महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम उस सब का विरोध करो जो हो रहा है, जो होता आया है पर उस कुछ का विरोध अवश्य करो जो सहजता में अवरोध पैदा कर रहा है। हाँ मैं उस कुछ के खिलाफ खड़ी हुई और इस खड़े होने की जद्दोजहद में उस उम्र का मेरा मोहक बसंत पंखुड़ी-पंखुड़ी बिखर कर मेरी आँखों की तलैया में बह गया। मेरे मन की खदबदाहट में साकार हुई मेरी पहली कहानी जो 17 साल की उम्र में जबलपुर से निकलने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी। हालांकि मैं इसे प्रकाशन में पहला स्थान नहीं दूंगी। कृति परिचय ने मुझे प्रमोट किया और जबलपुर के रचनाकारों ने हौसला दिया कि अभी तो तुम बहुत छोटी हो, शुरुआत का लेखन कच्चा ही होता है। परसाई जी ने जैसा कि मैं पहले लिख चुकी हूँ मुझे सलाह दी कि अभी सिर्फ लिखो, छपो मत। इन प्रोत्साहन भरे वाक्यों ने अगर मेरी कलम मजबूत की है तो श्रेय उन्हीं को जाता है।
लिहाजा मैंने डायरी लिखने का नियम बना लिया। अपने रोज के अच्छे बुरे प्रसंगों को मैं कलम बद्ध करने लगी और रात घिरते ही डायरी से बतियाने लगी। मेरे मन के आकाश में कितनी तो आकाशगंगाएँ थीं। मैं उनके दूधिया प्रवाह में बहने लगी और इस बहने में मुझे छटपटाहट भरा सुकून मिलने लगा। नहीं जानती थी कि जिंदगी भर छटपटाहट और सुकून के विरोधाभास में जीना पड़ेगा।
उन्हीं दिनों लेखन के अलावा नृत्य सितार और चित्रकला की ओर भी मेरा रुझान हुआ। नृत्य कभी विधिवत सीखा नहीं। भातखंडे से नृत्य गुरु नरसप्पा सर कॉलेज में नृत्य सिखाने आते। जिनका नृत्य में रुझान था ऐसी लड़कियों का ग्रुप बनाया गया और सप्ताह में तीन बार उनके लिए नृत्य की कक्षा लगने लगी। नरसप्पा सर हाथ में बेंत लेकर बैठते। तबला बजता रहता और हमारे दिलों में उनका बेंत सरसराता। जरा-सी चूक कि सटाक। मजाल है जो पैर बहकें, ताल या मुद्रा बिगड़े। साल भर ही सीख पाई कत्थक। विद्यार्थी जीवन में प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने की मेरी झिझक अगर मैं कहूँ कि नरसप्पा सर के कठोर अनुशासन ने दूर की तो अन्यथा नहीं होगा। यह बात दीगर है कि आगे चलकर अहमदाबाद में मैंने छै महीने भरतनाट्यम भी सीखा पर उसमें उतना मन नहीं लगा जितना कत्थक में लगा। कॉलेज के वार्षिकोत्सव में द्वारका प्रसाद मिश्र रचित कृष्ण की नृत्य नाटिका चर्चा का विषय बन गई। हालांकि उसमें मेरा बस 2 मिनट का ही नृत्य था पर उससे मेरे अंदर विश्वास जागा। मंच पर जाने की झिझक दूर हुई। फिर जयदेव के गीत गोविंद पर जो नृत्य नाटिका तैयार हुई उसमें माननीय राधा की भूमिका निभाते हुए मैं मानो कृष्ण के प्रेम में पड़ गई।
अब तो बात फैल गई जाने सब कोई। तो आज तक कृष्ण मेरे प्रियतम हैं, ... मेरे आराध्य ...उन्हें साक्षात महसूस किया है... अब तो और भी जबकि तन्हाई मेरा नसीब है। पूजा, पाठ, हवन आदि से मैं कोसों दूर हूँ।
मंदिरों के दर्शन इसलिए करती हूँ क्योंकि मुझे स्थापत्य से लगाव है। संगमरमर के बने पच्चीकारी, मीनाकारी और भित्ती कौशल मुझे आकर्षित करते हैं। जिन्हें विदेशियों के अलावा बहुत कम लोग गौर कर पाते हैं। क्योंकि भक्तों का ध्यान तो लोटा भर दूध जल चढ़ाने और फूल, पत्र, प्रसाद, आरती में ही रहता है।
नृत्य के नशे के साथ-साथ सितार भी सीखने का जुनून चढ़ गया। सितार भी मैंने अहमदाबाद से सीखा। मिजराब पहनकर सितार के तारों पर उंगलियाँ फिराना, उनकी झंकार हवा के संग दूर-दूर तक गूंजने लगती। कई गाने और राष्ट्रगान सितार पर बजाने लगी थी। बहुत रोमांचकारी था सितार के साथ का वह एक साल का सफर फिर चित्रकारी का नशा। घर में प्रमिला और विजय भाई दो-दो चित्रकार मौजूद। प्रमिला वाटर कलर में प्रकृति की रंगीनियों को उकेरती। विजय भाई तो रेखा चित्र और पोर्टेड बनाने में उस्ताद थे। मैं कोलाज बनाती। उन दिनों मैंने साड़ी, परदे और कुशन कवर पर फैब्रिक रंगों से चित्रकारी की थी। चित्रकला ने मुझे ऐसा मोहा कि जब मैं मुम्बई आई तो मैंने चित्रकला की बारीकियों को बहुत गहराई से समझा। शायद यह बाबूजी से मिला वह नशा था जिसने मुझ से "लौट आओ दीपशिखा" जैसा उपन्यास लिखवा लिया। इस उपन्यास की नायिका दीपशिखा चित्रकार है। चित्रकला के लिए संपूर्ण समर्पित। वैसे तो यह उपन्यास लिव इन रिलेशन को मुद्दा बनाकर लिखा है लेकिन इसका मूल स्वर चित्रकला ही है। इस उपन्यास का लोकार्पण दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में हुआ था। जहाँ वरिष्ठ लेखिका और मेरी अंतरंग मित्र चित्रा मुद्गल ने कहा था कि "संतोष का जीवन हादसों का सफर है लेकिन उसमें से भी उसने जीने की राह निकाल कर सबके लिए मिसाल कायम की है। जिस दिन वह अपनी जिंदगी पर उपन्यास लिखेंगी वह साहित्य के लिए विशेष दिन होगा।"
सच कहूँ तो यह चित्रा जी की प्रेरणा ही है जो मैंने अपनी सवालिया निशानों से भरी जिंदगी पर लिखने के लिए कलम थामी है और वक्त को मनाया है।
वक़्त तो मेरे पास कभी रहा नहीं। न अब और न कॉलेज के उन दिनों में जब मैं नृत्य, सितार, चित्रकारी जैसे नशों से गुजर रही थी लेकिन समय से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात रहे हैं। वह मेरे हिसाब से काल खंडों में बंट लेता है।
उन्हीं दिनों मैंने रवींद्रनाथ टैगोर, फणीश्वर नाथ रेणु, मार्खेज और सिंगर की किताबें पढ़ीं। हार्डी, डिकेंस की किताबों के संग तुर्गनेव के उपन्यास"ए हाउस ऑफ जेन्ट्री फोक" को पढ़ा। मुझे वहाँ के गरीब कस्बाई और आत्मीय जीवन को जानने का अवसर मिला। उम्र, अनुभव और नजरिए के साथ लेखकों का जादू उतरने लगता है तो कुछ का चढ़ने लगता है। इसी जादुई माहौल में मेरे हाथ आए रांगेय राघव के उपन्यास अंधेरे की भूख तथा बोलते खंडहर। मुझे दोनों उपन्यास रहस्य और रोमांच के विदेशी उपन्यासों जैसे लगे।
कॉलेज में एक विषय मेरा संस्कृत भी था। मृच्छकटिकम, ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसंभव, अभिज्ञान शाकुंतलम जैसे काव्य ग्रंथ मेरे कोर्स में थे। इन्हें पढ़कर मैंने जो आनंद की अनुभूति महसूस की उसे भूल पाना असंभव है।
मेरे पसंदीदा शायर गालिब, शहरयार और जिगर मुरादाबादी थे। इनके कलाम पढ़ते-पढ़ते मन भटक जाता। काश उर्दू लिपि का ज्ञान होता तो कितना आनंद आता। हालाँकि घर में हम अपनी बोलचाल की भाषा में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल अधिक करते थे। अम्मा फारसी पढ़ी थीं और उर्दू के उच्चारण उनके लाजवाब थे। कैसी त्रिवेणी बहती थी हमारे घर में। अम्मा उर्दू, फारसी बोलतीं। बाबूजी संस्कृत के प्रकांड पंडित और विजय भाई हिन्दी में सिद्धहस्त। उनकी तो अंग्रेजी भी बेहतरीन थी। मैंने थ्री इयर्स डिग्री कोर्स में संस्कृत विषय लिया था। बाबूजी बहुत खुश थे। कॉलेज में मैंने संस्कृत में एक कविता लिख कर सबको चौंका दिया था। हालांकि वह कविता शमशेर बहादुर सिंह की कविता लौट आओ धार / टूट मत ओ साँझ के पत्थर / हृदय पर / मैं समय की एक लंबी आह / मौन लंबी आह / लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी / फिर फूल में लग जा / चूमता है धूल का फूल कोई हाथ, से प्रेरित होकर लिखी थी। पता नहीं कविता की पुकार थी या दिली तमन्ना। दिनमान पत्रिका ने पत्राचार से उर्दू सिखाने का कोर्स शमशेर बहादुर सिंह के मार्गदर्शन में आरंभ किया। दिनमान के हर दूसरे अंक में उर्दू का एक पाठ और होमवर्क होता। अगले अंक में होमवर्क का हल। अलिफ बे से शुरू हुए पाठ दिनमान के अंकों और पत्राचार ने आखिर उर्दू लिपि का ज्ञान करा ही दिया। मैंने हरी स्याही (टर्किश ब्लू) वाले पेन से शमशेर बहादुर सिंह जी को उर्दू लिपि में खत लिखा।
"आदरणीय वह अपनों की बातें / वो अपनों की खू-बू / हमारी ही हिंदी / हमारी ही उर्दू / ये कोयल और बुलबुल के मीठे तराने / हमारे सिवा इस तरह कौन जाने।"
उन्होंने लौटती डाक से जवाब दिया-"मेरी खास शागिर्द, मेरी कविता को उर्दू लिपि में लिखा देख मेरा पढ़ाना सार्थक हो गया।"
मैंने आसमानी पन्नों वाली डायरी में टर्किश ब्लू स्याही वाले पेन से (पेन निब वाली थी, उसके होल्डर में हम स्याही भर लेते थे) अपने महबूब शायरों के कलाम उर्दू में लिखने शुरू किए। मुझे लगा वक्त के कांटे गालिब के जमाने में लौट रहे हैं। वही दिल्ली की गलियाँ, इक्के पर बैठे ग़ालिब, सफेद दाढ़ी, शेरवानी और सिर पर लंबा टोप...
बस की दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना
लेकिन वक्त की ऐसी फितरत कहाँ कि वह पीछे लौटे।
जबलपुर साहित्य का गढ़ माना जाता था। आए दिन गोष्ठियाँ, कवि सम्मेलन, बाहर से आए लेखकों के सम्मान में गोष्ठी। बहुत अधिक टीम टाम भव्यता नहीं। सही मायनों में लेखक सृजनधर्मिता को ले एकजुट होते थे। लेखकों का अड्डा इंडियन कॉफी हाउस। वहीं जुटते थे साहित्यिक रुचि के लोग और लेखक। घंटों विचार-विमर्श होते। इंडियन कॉफी हाउस का मैनेजर सुब्रमण्यम सिर्फ एक कप प्रति व्यक्ति कॉफी के आर्डर पर कितनी सारी जगह, कितने सारे समय के लिए साहित्यकारों को देता। जबकि उतने लोगों के कॉफी टेबलों को चार-पांच घंटे घेरकर बैठने का कमर्शियल हॉल का किराया 2 से लेकर 5 हज़ार तक होता है। सुब्रमण्यम का लेखकों के लिए यह बहुत बड़ा योगदान था। जब हरिवंश राय बच्चन जबलपुर आए तो उनके सम्मान में इंडियन कॉफी हाउस में चर्चा गोष्ठी रखी गई। न जाने क्यों उन्हें देखकर आत्मीयता का बोध हुआ। मैंने उनके करीब जाकर सिर झुका कर नमन किया। उनके सीने से मेरा माथा छू रहा था। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा। मैंने कहा-"आपके सौम्य व्यक्तित्व को देख कर तो नहीं लगता कि आपने हलाहल लिखा होगा।" उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा-
" रस विष को गहरे पच जाने दो
तब तो होगा जीवन धन्य तुम्हारा"
बच्चन जी ने हलाहल की एक प्रति मुझे भेंट की। मैं आज भी स्वीकार करती हूँ कि विष को पचाने की जो सीख मुझे बच्चन जी ने दी थी वही मुझे ठहराए है इस हलाहल भरे जीवन में।
इस बीच ब्लड कैंसर से अमृतराय जीजा (मुंशी प्रेमचंद के पुत्र) के छोटे बेटे 18 वर्षीय मिथुन की मृत्यु हो गई। उनसे मैं गहरे जुड़ी थी। मुझे पता था अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है और यह पता होना कि मौत की आहट को कैसे शरीर का हर कतरा सुनता है मैंने महसूस किया था। मैं इस दुख में भी वट वृक्ष से खड़े अमृतराय और सुधा जीजी से लिपट कर रोई थी। तब मैं अनागत से अनजान थी कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब मैं भी पुत्र वियोग के घातक दुख से गुजरूंगी। मिथुन और हेमंत की मृत्यु में बस इतना अंतर होगा कि मिथुन की ओर मौत आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ी, हेमंत को झपट कर उठा ले गई।
सत्तर के दशक में कहानी को लेकर जो आंदोलन चला था उसमें जबलपुर का वर्ग खास सक्रिय रहा। परसाई जी ने अपने व्यंग्य के जरिए इस लेखन को उकसाया। उन्हीं दिनों मेरी रचनाओं का राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं धर्मयुग, सारिका, ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कहानी, नई कहानियाँ, आजकल, माया, माधुरी, मनोरमा और कई लघु पत्रिकाओं में प्रकाशन आरंभ हुआ। हालांकि इन पत्रिकाओं में मैं आसानी से नहीं छपी। कितनी ही बार मेरी रचनाएँ "खेद है" की स्लिप लगाकर वापस लौटा दी जाती थी। वापसी का पता लिखा, डाक टिकट लगा लिफाफा रचना भेजते समय साथ में रखना पड़ता था। फिर जब पहली कहानी शंख और सीपियाँ धर्मयुग में स्वीकृत होने की सूचना डॉ धर्मवीर भारती के हाथ से लिखे पोस्ट कार्ड द्वारा मिली ..."कहानी हम प्रकाशित करेंगे, आप में लेखन के बीज हैं और भी प्रौढ रचना की प्रतीक्षा रहेगी।" तो मेरी खुशी का पारावार न था। कितने दिन तक वह पोस्टकार्ड मेरे तकिए के नीचे पहले प्रेम पत्र की तरह दबा रहा। जिसे मैं बार-बार निकालकर पढ़ती थी।
उस कहानी का पारिश्रमिक मुझे ₹75 मिला था। मौजूदा समय में ₹75 का उतना मूल्य नहीं है जितना उस जमाने में था। ₹75 मिलना भी बड़ी बात थी क्योंकि तब सोना ₹125 तोला मिलता था। उन रुपयों से मैंने बाबूजी को रिस्ट वॉच खरीद कर दी थी। जिसे वे अपनी आखिरी सांस तक पहनते रहे। फिर छपने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो बीच में कुछ साल बीमारी तनाव और अवसाद के गैप के बाद आज तक बदस्तूर जारी है।
लघु पत्रिकाओं में छपने का मंत्र मेरे आदर्श पुरुष विजय भाई ने मुझे दिया कि अगर पाठकों तक पहुँचना है तो लघु पत्रिकाओं में छपो और मेरा पाठक वर्ग खड़ा होता गया। आश्चर्य होता था एक कहानी छपती और सौ से अधिक पत्र आते प्रशंसकों के। ये पत्र मेरी धरोहर हैं जिन्हें मैंने एक फाइल में एहतियात से रखा है। अब तो व्हाट्सएप, ईमेल और एसएमएस पाठकों से जुड़ने का जरिया बन गया है जिन्हें सहेजना नामुमकिन है।
तो यह पत्र मेरी तन्हाई को कभी-कभी बांट लेते हैं। मेरे पाठकों और मेरी रचनाओं के बीच एक पुल है जिसके द्वारा हम एक दूसरे तक पहुँचते हैं।
एक आर्मी कर्नल मेरी रचनाओं के प्रशंसक थे। उनकी पोस्टिंग मणिपुर में थी। मणिपुर से एक फौजी के हाथों उन्होंने मेरे लिए शहद और अनन्नास भेजे थे और पत्र द्वारा सूचना दी थी कि वे मेरी हर रचना पढ़ते हैं और उम्मीद करते हैं कि मैं निरंतर लिखती रहूँ। तब तक मेरी एक भी किताब प्रकाशित नहीं हुई थी इसलिए मेरे पास उन्हें भेजने को कुछ न था सिवाय आभार के। कर्नल अब रिटायर हो गए हैं और फोन पर मेरे अच्छे मित्र हैं।
मेरी कहानी "एक जोड़ी आँखों के कैक्टस" जो धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी और जिसे मैंने सर्वनाम मैं में लिखा था ...कहानी में वाक्य था—"अचानक मेरे हाथों से हरी चूड़ियों वाला डिब्बा नीचे गिर गया जो मैंने बरसों से संभाल कर रखा था। मैं उसकी दी हुई चूड़ियों को किर्च-किर्च होते देखती रही जो सीधे मेरे दिल में उतरते हुए मुझे लहूलुहान करती रहीं।" मेरठ से एक पाठक का पत्र आया "इतनी दुखी मत होइए, मैं भेज रहा हूँ न कांच की हरी चूड़ियाँ।"
हंस में आतिशे संग कहानी पढ़कर दूरदराज के गाँव से एक पत्र आया कि आपके शहर में क्या ऐसे ही स्वार्थी लोग होते हैं। हमारे गाँव में तो मुसीबत में सब साथ निभाते हैं न कि मतलब परस्ती।
नई दुनिया के इंदौर, भोपाल, उज्जैन के अखबारों में सैलाब कहानी प्रकाशित हुई। जिसकी बाद में दूरदर्शन के मेट्रो चैनल के लिए मुंबई दूरदर्शन के निदेशक रवि मिश्रा ने टेली फ़िल्म भी बनाई थी। यही कहानी अमर उजाला के अमृतसर एडिशन में भी छपी जिसे पढ़कर अमृतसर से वयोवृद्ध पाठक ने पत्र लिखा
"तू लाख बरस जिए मेरी बेटी। जब यह कहानी मुन्ना पढ़ेगा तो जरूर मेरे दुख को समझेगा।"
धर्मयुग में प्रकाशित मछली कहानी पर नई दिल्ली से निर्मला अग्रवाल जी की प्रतिक्रिया भारती जी ने प्रकाशित की। " संतोष श्रीवास्तव की कहानी मछली पाठक के और विशेषकर युवतियों की मानसिक तंत्रियों को झकझोर देती है। यह होती है आधुनिक कहानी। छोटी सी, साधारण-सी। न कोई शब्दों की भरमार, न वाक्यों की घनगरज, न प्रतीकों की उलझन, न विश्लेषण के दांवपेच लेकिन कितनी बड़ी चोट। आज के समाज के मूल्यों का कितना सशक्त चित्रण। वास्तव में आज की नारी भी कितनी मजबूर कितनी बंधी हुई है। वैसे तो कोई भी प्राणी चाहे वह नारी हो या पुरुष यदि भावुक है, अपनी ही मानसिक अवस्था का बंदी हो जाता है।
धर्मयुग में प्रकाशित कहानी ब्लैक होल पर छः पत्र छापे भारती जी ने। कि यह कहानी लेखिका की एक नितांत निजी शैली को उद्घाटित करती है कि हिमालय एवं पर्वतारोहण पर लेखिका के अनुभव उन्हें अलग पहचान देते हैं।
मुंबई से निकलने वाली पत्रिका सबरंग में मालवगढ़ की मालविका उपन्यास अंश जब प्रकाशित हुआ तो न केवल ढेरों पत्र आए बल्कि उस पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव लेकर निर्माता हिमांशु दत्त मेरे घर आए। कांटेक्ट लेटर भी साइन हुआ फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में।
उपन्यास अंश पर छपा एक पत्र फाइल के उन तमाम पत्रों से अलग-थलग है। रोहित मिश्र ने लिखा है कि लेखिका ने हमें उस समय के समाज की सैर कराई है जब भारतवर्ष की रोंगटे खड़े कर देने वाली यह सत्य कथा आधुनिक युग में भी रूप कुंवर को सती होने पर मजबूर कर रही है। बेहतरीन कहानी। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित "नीले धुँए का अजगर" को भी पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला।
यह सब मेरे लेखन के शुरुआती दौर के पत्र थे। इन पत्रों से मिले हौसलों ने मेरी कलम की ताकत बढ़ाई और एक जिम्मेदारी पैदा की कि मुझे लिखते रहना है और अपने पाठकों को समाज की विसंगतियों, जीवन की विडंबनाओं के रहते सुख के चंद लम्हों की आनंदानुभूति कराना है। मेरी कहानियाँ जब पाठकों के बीच चर्चित होतीं तो अपने बूंद होने का एहसास थरथराने लगता। विभिन्न स्तरीय पत्रिकाओं के विशेषांकों के लिए, संकलनो के लिए मेरी कहानियाँ आमंत्रित की जातीं। परिचर्चाओं में मुझे प्रमुखता मिलती। मनोहर श्याम जोशी, अवध नारायण मुद्गल, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे संपादकों की बहुत बड़ी भूमिका है मेरे रचना सर्जन में। समांतर कहानी आंदोलन के दौरान कमलेश्वर जी ने मुझे प्रमुखता से छापा।
इतना सब हो कर भी मैं तय नहीं कर पा रही थी कि कौन-सी लाइन पकडूं। कभी चित्रकला अपनी ओर खींचती, कभी नृत्य। अमृता शेरगिल और सितारा देवी लुभातीं। फिर पत्रकारिता हावी हो जाती। लेखन तो पूरी लाग लपेट के मुझ में हाजिर था ही। अगर कलम नहीं थामी तो मुझे मेरे सवालों के जवाब कैसे मिलेंगे? क्यों परिवार की मान मर्यादा शिष्टता की सीमा रेखा लड़कियों को ही दिखाई जाती है लड़कों को नहीं? क्यों पिता भाई पति और बेटे की सुरक्षा के घेरे में वह जिंदगी गुजारे? क्यों सारे व्रत उपवास पूजा अनुष्ठान पुरुषों के लिए? क्यों नहीं औरतों के लिए? यह करो, यह मत करो, ऐसे उठो, ऐसे बैठो की संहिताएँ बस लड़कियों के जिम्मे? मुझे इस सब से चिढ़ थी। मेरे अंदर इसके विरोध में गुबार भरता गया था और मैंने ठान लिया था कि मौका पाते ही मैं इस सब के खिलाफ कलम थामुंगी। उन दिनों मैं हर छोटे-बड़े लेखक को पढ़ रही थी। अहिंदी भाषी और विदेशी लेखकों को भी। मैं कई लेखकों के लेखन के पक्ष में थी। कई के विरोध में। मैंने एक बड़ा-सा रजिस्टर बना लिया था जिसमें मैं हर पढ़ी हुई किताब की समीक्षा करती थी। मुझे लगता था कहीं मैं आलोचक न बन जाऊँ। उन किताबों को पढ़कर मैं कई बार रोई भी। मुझे लगा अगर मैं समाज से जुड़ना चाहती हूँ तो मुझे अपनी वेदना से बाहर आना होगा। तब मैंने औरों से जुड़ना सीखा। मैंने पाया इस जुड़ाव का मजा ही कुछ और है। सुख ही कुछ और है। यह जुड़ाव जब रचना बनकर उभरता है तो कभी दस्तक देकर, कभी दबे पांव, कभी जान समझकर तो कभी अनजाने ही, कभी एक ही पल में तो कभी महीनों-महीनों ...तो मैं चमत्कृत जाती हूँ। वह पल मैं किसी से बांट नहीं पाती।
और फिर हुआ यूं कि रंगकर्म, आवाज और पत्रकारिता की योग्यता लेकर, उचित प्लेटफार्म की तलाश में विजय भाई मुंबई चले गए।
न जाने किस ग्रह नक्षत्र की कुदृष्टि पड़ी कि हमारा परिवार भी बिखरता चला गया। रमेश भाई की उज्जैन में नौकरी लगी तो हम लोग जबलपुर छोड़कर उज्जैन आ गए। कला और आध्यात्म की नगरी में साहित्य का खूब जमावड़ा है। विश्वविद्यालय के कुलपति शिवमंगल सिंह सुमन कवि, वक्ता, विचारक और उज्जैन की साहित्यिक पहचान थे। विक्रम विश्वविद्यालय जाकर उनसे मिलना हुआ। फिर अपने आवास पर उन्होंने चाय के लिए बुलाया। वहीं मैंने उन्हें अपनी धर्मयुग में प्रकाशित रचना"एक जोड़ी आँखों के कैक्टस" पढ़कर सुनाई। उज्जैन के कुछ साहित्यकार भी थे वहाँ और विद्यार्थी भी। सभी को कहानी पसंद आई और उसे उज्जयिनी साहित्य परिषद में भेज दिया गया। जहाँ से मुझे इस कहानी पर 1977 का कालिदास साहित्य सम्मान मिला।
मूलतः यह सम्मान रंग लेखक और रंग कर्मियों को ही दिया जाता है। लेकिन विश्वविद्यालय पूरे दिन का सेमिनार आयोजित कर विभिन्न विधाओं के लेखकों को, शोधार्थियों को भी सम्मानित करता है। कालिदास की पावन नगरी में मेरा रहना महज इत्तेफाक था। हालांकि उज्जैन अब मेरे लिए किन्हीं अन्य वजहों से तीर्थ समान है। मेरे एकमात्र पुत्र हेमंत का जन्म उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बने नर्सिंग होम में हुआ था। महाकाल ज्योतिर्लिंग जहाँ प्रगट हुए उन शंकर भगवान का दिन सोमवार भी हेमंत ने धरती पर आने के लिए चुना। 23 मई 1977 सोमवार सुबह 9: 10 पर जब हेमंत मेरी दुनिया में आया उस वक्त महाकाल मंदिर में भस्म आरती हो रही थी। बाबू जी मंदिर से प्रसाद लेकर नर्सिंग होम आए और कुछ घंटों के हेमंत के मुँह में चरणामृत की बूंद उन्होंने टपका दी। हेमंत ने घबरा कर आँखें खोलीं कि जैसे चकित था इस दुनिया में आकर। मानो कोई शापित यक्ष जो सीधे अलकापुरी से उज्जयिनी में ढकेल दिया गया हो।
वे मेरी तपस्या के दिन थे। जब मैं हेमंत की माँ बन कर बेहद खुशगवार लम्हों से गुजर रही थी। वह अपने पतले-पतले होठों को गोल कर तेजी से हाथ पैर चलाता था। उसकी रफ्तार पर मैं लट्टू थी। जब उसने पहली करवट ली, घुटनों के बल चला, जब उसने पहला शब्द माँ कहा। मुझे लगा पूरी कायनात मेरी मुट्ठी में है और मैं दुनिया की सबसे खुशकिस्मत औरत हूँ।
काश, ईश्वर कुछ भ्रम रहने देता।
अपनी शादी को लेकर हेमंत के जन्म से पहले ही सारे भ्रम टूट चुके थे। वे मेरी जिंदगी के सर्वाधिक काले पृष्ठ थे। जिन्हें मैं पलटना नहीं चाहती। शादी के फेरों से लेकर पति की अंतिम सांस तक पूरे 25 बरस मैंने उनकी कुंठा में स्वाहा किए पर हेमंत के जन्म के बाद सिर्फ और सिर्फ हेमंत मेरी जिंदगी में था। मुझे पूर्णता देता। बाकी सब किन्ही जन्मों का शाप।
तो मैं हेमंत को संवारने में जुट गई। वही मेरे जीवन का लक्ष्य हो गया। लेकिन कलम को कहाँ मानना था। मैंने पाया कि मेरा मन उज्जैन से उचट-सा रहा है। मुझे वह प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है जिसकी मुझे तलाश थी। मैं एक ऐसी जमीन चाहती थी जहाँ मैं अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को सामाजिक संदर्भ देकर सहयोग, साहचर्य और सहकारिता की वैकल्पिक नारी संस्कृति को लिख सकूं। नारी विषयक वैचारिक अवरोधों के खिलाफ हल्ला बोल सकूं।
उज्जैन के दिन मेरी जिंदगी के कठोर फैसलों के दिन थे। मुझे चुनना होगी अपनी राह, अपनी जमीन, अपना आसमान। अब तक के जीवन का कारवां विदा हो रहा था। उसकी धूल मुझसे लिपट रही थी। अकबका रही थी मुझे। उसी धूमिल परिवेश में मुझे खोजना था अपना अगला पड़ाव। अचानक मुझे लगा मेरी सोच की जमीन पर कहीं से एक पुकार हौले-हौले कदम रख रही है। मैंने निर्णय ले लिया मुंबई में रहने का। अपनी सोच अपने सपनों को वहाँ की सरजमी पर साकार करने का। हालांकि इस बीच काफी उलटफेर हुए। बाबूजी को कर्ज़ों में डुबाकर रमेश भाई नागपुर में एक बड़ी नौकरी के मिलते ही हमें अकेला छोड़ भाभी सहित नागपुर शिफ्ट हो गए। कर्ज़ों को चुकाने में मेरे कंगन और लॉकेट जंजीर गिरवी रख दी गई जिसे उज्जैन छोड्ते वक्त शीला जीजी ने यह कहकर छुडा लिया कि इसके रुपये चुकाकर वापिस ले लेना। मुझे पता था मेरा बुरा वक्त है जिसमें खून के रिश्ते भी अपने नहीं होते।
हमें मजबूरन शीला जीजी के पास राजकोट शिफ्ट होना पड़ा। राजकोट मेरे फैसलों का अंतिम पड़ाव था।
तीन महीने के हेमंत को लेकर 26 अगस्त 1977 के दिन जब मैंने मुंबई में कदम रखा तो लगा ...
यहीं से आओ उम्मीदों की रोशनी कर लें
अंधेरी रात है आगे न जाने क्या गुजरे।